कहो देबी, कथा कहो – 46
पिछली कड़ी – कुमारस्वामी और काम के वे दिन
वह दिन था 2 जून 2003, जब मैंने दिल्ली अंचल में नौकरी की नई पारी शुरू की. बैठने के लिए तीसरी मंजिल पर एक अलग केबिन मिल गया. पहले दिन सुबह-सबेरे जल्दी आकर, केबिन के एकांत में बैठ कर मैं सोचता रहा कि नियति मुझे इस आत्माराम हाउस में क्यों ले आई होगी? मैंने तो अपने मूल विभाग जनसंपर्क और प्रचार से रिटायर होने की प्रार्थना की थी? लेकिन, धीरे-धीरे यह भी समझ में आ गया. मुझे रिटायर होने से पहले शायद मानव स्वभाव और उसके व्यवहार के नाना रूप दिखाने के लिए नियति ने यहां भेजा था ताकि मैं अनुभव की उस पूंजी से वंचित ना रहूं.
शुरू में ही आला अफसर ने बुला कर जब पूछा, “चंडीगढ़ में आप क्या-क्या काम करते थे?” तो मैंने उन्हें उस कार्यालय आदेश की प्रति दे दी, जिसमें वहां मुझे विभिन्न विभागों का काम सौंपा गया था. वे देख कर खुश हुए और दफ्तर के रख-रखाव से लेकर सरकारी कारोबार, राजभाषा, सुरक्षा, अग्नि सुरक्षा आदि विभागों के मुखिया की जिम्मेदारी मुझे सौंप दी. सहयोग के लिए एक वरिष्ठ प्रबंधक का साथ मिल गया.
मानव स्वभाव से रू-ब-रू होने की शुरूआत भूतल से हुई. वहां उस भवन के मैनेजर कम केयरटेकर का कमरा था. दो-तीन दिन ही हुए थे मुझे वहां आए हुए कि एक दिन फोन आया, “कौन बोल रहे हो?”
“आपको किससे बात करनी है?” मैंने पूछा.
“मिस्टर मारवाड़ी, नहीं मेवाड़ी आप ही हैं?”
“जी मैं ही हूं.”
“एक मिनट आएंगे? मैं इस बिल्डिंग का मैनेजर बोल रहा हूं. ग्राउंड फ्लोर पर है मेरा कमरा.”
“ठीक है, आता हूं,” मैंने कहा.
ग्राउंड फ्लोर में जाकर मैं उनसे मिला. मैनेजर ने फोन करते हुए इशारे से मुझे बैठने के लिए कहा. मैं बैठा. फोन पर बात खत्म करने के बाद उसने कहा, “आप शायद नए आए हो?”
मैंने कहा, “हां, दो-तीन ही हुए हैं.”
“सुना है जिन मंजिलों में आपका दफ्तर है, उनकी देख-रेख की जिम्मेदारी अब आप संभालेंगे.”
“जी हां, वह जिम्मेदारी मुझे दी गई है.”
“तो सुनिए, मैं आपको भी शुरू में ही बता देना चाहता हूं कि इस बिल्डिंग के बाहर पार्किंग की जगह बहुत कम है लेकिन बिल्डिंग में सीनियर अफसर बहुत हैं. मैंने आपके सीनियर अफसरों की गाड़ियां खड़ी करने के लिए जगह तय की हुई है. ध्यान रहे, उतनी ही गाड़ियां उस जगह में खड़ी की जाएं,” उसने कहा और फिर बिना झिझके, सहज रूप से मादर और भैंण शब्दों को अपनी भाषा में गूंथ कर बोला, “पहले एक-दो ऐसे अफसर रहे हैं, जो मेरी बात सुनते ही नहीं थे. उनसे तू-तू, मैं-मैं होती रहती थी. कई बार तो मैंने गाड़ी की हवा भी निकलवा दी थी. आप शरीफ आदमी लगते हैं, इस बात का ध्यान रखना. बिल्डिंग का सारा इंतजाम तो मुझे ही देखना पड़ता है.”
मैं मैनेजर की बात शांति से सुनता रहा और फिर धन्यवाद कहकर उठने लगा. तभी उसने पहली बार हल्का-सा मुस्कराते हुए, पूछा, “चाय पीएंगे आप?”
“नहीं, अभी चलता हूं. फिर कभी पी लूंगा.”
तो, इस तरह इमारत के प्रवेश द्वार से ही शुरू होने वाली पहली समस्या का पता लग गया. यह भी पता लग गया कि बिल्डिंग का मैनेजर अपना दबदबा बनाए रखना चाहता है और कभी भी भड़क सकता है. खैर, मैंने सोचा कोई बात नहीं, शांति से बातचीत करके मैं उसे साध लूंगा.
नए दफ्तर में काम चल निकला. मातहत विभागों से फाइलें आती रहीं और मैं मामला पढ़-समझ कर उन पर अपनी टिप्पणियां लिखता रहा. दफ्तर में साथी मुखिया भी थे और दो डिप्टी हाकिम भी. मुखिया की टेबल से फाइलें डिप्टी हाकिम और उनके पास से आला अफसर के पास जाती थीं. एक साथी मुखिया को देखकर ही लगता था कि जैसे वे काम के भारी बोझ से हर समय दबे हुए हों और खोए-खोए हुए से रहते थे. कभी उनसे बात भी होती तो वे कहते कि देखिए, कितना सारा काम है मेरे पास? पूरा दिन इन्हीं फाइलों में उलझा रहता हूं, फिर भी काम है कि खत्म ही नहीं होता. उस अति व्यस्तता में वे फाइल से बाहर का कोई भी काम मिलने पर, काम की दुहाई देते हुए आला अफसर से किसी और को बाहर भिजवा देते. एक बार दिल्ली के किसी इलाके में, किसी शाखा की किसी मशीन की नीलामी होनी थी. उसके लिए उनका जाना जरूरी था. लेकिन, उन्होंने मामला पलट कर वहां मुझे भेजे जाने की व्यवस्था कर ली. उन्हें पता नहीं था कि मैं प्यार से तो कोई भी काम कर सकता हूं लेकिन दांव-पेंच से या जबरदस्ती मुझसे कोई काम नहीं कराया जा सकता. लिहाजा मैं नहीं गया.
ऐसी चीजों से मन में तनाव बढ़ता था और चीजें कम नहीं थीं. छोटा-सा मामला भी तनाव का बड़ा कारण बन जाता था. उसी बीच कुछ साथियों ने मुझे एक डिप्टी हाकिम के बारे में बताया कि उनके कारण दफ्तर में कई लोग भारी तनाव में रहते हैं जिनमें वह मुखिया भी शामिल थे. सुन कर मैं बहुत हैरान हुआ क्योंकि वे डिप्टी हाकिम कभी हमारे साथ किसी दूसरे अंचल कार्यालय में साथी मैनेजर थे. उनका कोई मामला था जिसके हल हो जाने के बाद उन्हें कुछ साल पहले की तारीख से प्रमोशन मिल गया था और वे दो-तीन सीढ़ियां चढ़ कर अब डिप्टी हाकिम हो गए थे. लेकिन, जब वे हमारे साथ थे तो बेहद प्यारे इंसान थे. बल्कि, किसी छोटे शहर में जहां वे ब्रांच मैनेजर रहे थे, वहां से लोग आकर बताते थे कि उनका व्यवहार कितना अच्छा था. शाखा के लोग उनके साथ परिवार सहित पिकनिक मनाने जाया करते थे. इतने खुश दिल इंसान के बारे में यह सुन कर कि उनके कारण इस दफ्तर में कुछ लोगों को भारी तनाव रहता है, सहसा विश्वास ही नहीं हुआ.
बाद में मेरी मदद के लिए दिए गए मैनेजर को टाइम-बेटाइम आता हुआ देखकर जब मैंने इसका कारण पूछा तो पता लगा कि उसे रोज सुबह डिप्टी हाकिम के लिए कुछ चीजों का इंतजाम करना पड़ता है.
“कौन-सी चीजें?” मैंने पूछा तो उसने बताया, “देसी मुर्गी के अंडे, शुद्ध दूध और फल वगैरह.”
सुनकर मैं हैरान हो गया. पूछा, “यह सब इंतजाम दफ्तर में क्यों? इसीलिए सुबह मिलते नहीं हो.”
“सर, वे बीमार हैं. उन्हें रोज ये चीजें लेनी पड़ती हैं.”
डिप्टी हाकिम सचमुच बीमार थे. लेकिन, यह समझ में नहीं आता था कि दफ्तर के लोगों की सहानभूति के बावजूद उनका व्यवहार उतना कठोर क्यों हो जाता था. मेरे पूर्व परिचित थे, इसलिए एक दिन सुबह मैं उनकी केबिन में गया. दरवाजे से भीतर आने की अनुमति मांगी. उन्होंने भीतर आकर बैठने का इशारा किया. बैठने के बाद मैंने उनका पूर्व परिचित नाम लेकर कहा कि मैं उस शहर के, उनसे मिलने आया हूं.
उन्होंने चौंक कर मेरी ओर देखा. उन्हें शायद क्षण भर वे पुराने दिन याद आए. उन्होंने मेरे लिए चाय मंगाई. फिर कहने लगे, “आपने तो वहां उस अंचल में उन आला अफसर का अनुशासन देखा है. लेकिन, यहां लोग अनुशासन की अहमियत को जानते ही नहीं. इन्हें बताना जरूरी है. वहां याद है आपको, पत्ता तक नहीं हिलता था?”
मैंने देखा, उनके चेहरे पर तनाव उभर रहा था. मैं धन्यवाद कहकर बाहर चला आया. हमारे कभी के वे खुशदिल साथी अब अक्सर तनाव में रहकर कई लोगों के लिए बेहद तनाव पैदा कर रहे थे.
उनकी देखा-देखी, उनसे जुड़े हुए कुछ लोग भी कई बार अजीब व्यवहार करते. एक दिन सुबह-सुबह दफ्तर पहुंचा. अभी अपनी केबिन में जाकर बैठा ही था कि इंटरकॉम की घंटी बजी. मैंने फोन उठा कर सुना. दूसरी ओर से आवाज आई, “मिस्टर मेवाड़ी?”
“बोल रहा हूं.”
“लेडीज टॉयलेट में आएंगे क्या? इसकी हालत तो देखिए जरा,” उधर से किसी महिला की आवाज आई. वह उन्हीं डिप्टी हाकिम की सेक्रेटरी थी.
मैं सुन कर दंग रह गया. मैंने पूछा, “शिकायत की थी क्या? मैनेजर को बताया था?”
“आपको बता रहे हैं. आप आकर देखिए और इसे ठीक कराइए.”
अब मैंने तल्ख आवाज में उसे जम कर समझाया कि काम करने का कोई तरीका होता है. यह काम प्लंबर का है जिसे शिकायत करने के बाद मैनेजर बुलाएगा और समस्या को दूर करेगा. आप चाहती है कि सुबह-सुबह मैं आकर इसे खुद ठीक कर दूं, क्या यह संभव है?” यह कह कर मैंने फोन रख दिया. लंबी सांस ली और मन ही मन कहा- आए थे हरि भजन को, ओटन लगे कपास! बैंक में नौकरी शुरू की थी तो जनसंपर्क के बड़े-बड़े ख्वाब देखे थे. आज भी मन को समझाया, ‘होता है दोस्त, नौकरी में ऐसा भी होता है. नौकरी के बूते पर ही तो परिवार पाल रहे हो, है ना?’
इमारत की देखभाल के बारे में शायद कई साल से दिल्ली के अग्नि सुरक्षा विभाग से भी पत्र आ रहे थे. अब क्योंकि यह विभाग मेरे पास था इसलिए मुझसे इस मामले को सुलझाने के लिए कहा गया. अग्नि सुरक्षा के मैनेजर से बात करने के बाद पता लगा कि इस बारे में बैठकें होती रही हैं लेकिन हल कुछ नहीं निकला. तभी एक दिन अग्नि सुरक्षा विभाग से फिर पत्र आ गया. डिप्टी हाकिम ने कहा कि तुरंत बैठक बुलाएं. बैठक बुलाई और यह तय हुआ कि दिल्ली के मुख्य अग्नि सुरक्षा अधिकारी से मिल कर इस समस्या को हल कर लिया जाए. मामले की तह में जाने के बाद मुझे पता लगा कि कई दशक पहले बनी हुई इमारत में आग से सुरक्षा के कई इंतजाम अब किए ही नहीं जा सकते. फिर, हमारे पास तो कुछ ही मंजिलें थीं, बाकी मंजिलें दूसरी कंपनियों के पास थीं. ऐसी हालत में इमारत की अग्नि सुरक्षा अकेले हम कैसे करते? बहरहाल डिप्टी हाकिम लगातार जोर डालते रहे कि यह काम समय पर पूरा कर लिया जाए.
तब मैंने उनकी स्वीकृति के लिए एक नोट लिखा कि आग से सुरक्षा का इंतजाम करने के लिए सबसे पहले इमारत के नीचे कम से कम एक लाख लीटर पानी की क्षमता का टैंक बना दिया जाए. उसमें से तमाम मंजिलों में पानी पहुंचाने के लिए नए सिरे से होज पाइप लगाए जाएं. हर मंजिल में स्मोक डिटेक्टर भी लगा दिए जाएं. मैंने इमारत के पीछे जाकर देखा तो वह किसी माचिस की डिबिया की तरह दिखाई दे रही थी. उस पर पीछे से डीएनए की दुहरी कुंडली की तरह एक प्राचीन काल की पतली, काली लोहे की सीढ़ी लगी हुई थी. मैंने इमारत के भीतर जाकर उस सीढ़ी से उतरने की कोशिश में उस पर पैर रखा ही था कि वह बुरी तरह हिलने लगी. यानी, अगर इमारत में कहीं आग लगी तो उस रास्ते से लोगों का बच कर भागना मुश्किल होगा. जाहिर था, इमारत को तोड़े बिना उसके नीचे एक लाख लीटर पानी की क्षमता का टैंक बन ही नहीं सकता था. ऐसी ही कुछ और असंभव चीजें भी थीं. मैंने यही बातें फाइल पर अपने नोट में लिखीं और स्वीकृति के लिए डिप्टी हाकिम को भेज दिया. बहुत दिनों तक इंतजार किया लेकिन फाइल लौट कर नहीं आई. वे खूब जानते थे कि आज की तारीख में उस इमारत को तोड़े बिना आग से सुरक्षा के कई इंतजाम किए ही नहीं जा सकते, फिर भी बैठकें बुलाई जातीं और इस समस्या पर विचार किया जाता.
उन्हीं दिनों एक साहित्यकार मित्र ने बताया कि हमारे उसी दफ्तर में एक बहुत संवेदनशील कथाकार बैंककर्मी के वेश में काम कर रहे हैं. यह जानकर मैं बहुत खुश हुआ और अगले दिन उस कथाकार को तलाश लिया. उनकी कहानियां देश की अग्रणी साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित हो रही थीं. वे आफिस में काफी जल्दी आ जाते थे. मैंने उन्हें अपने केबिन में बैठा कर काफी बातें कीं. उनसे वायदा करने को कहा कि वे हर रोज सुबह मेरे केबिन में आकर मेरे साथ चाय पीएंगे और हम दिन की शुरूआत अच्छी बातों से करेंगे. मैं जब तक वहां रहा, उन्होंने वह वायदा निभाया.
नियति जहां मुझे ले आई थी, वहां मैं अक्सर उदास रहा करता था. बीच-बीच में तनाव बढ़ता था. एक दिन लगा, पूरे शरीर में जैसे चींटियां चल रही हैं. मैंने साथी मैनेजर से डाक्टर के पास चलने को कहा. आसपास कई जगह घूमे लेकिन कहीं डाक्टर नहीं मिला. जानकर हैरानी हुई कि तबियत खराब होने पर शहर दिल्ली में क्या केवल अस्पताल में ही जाना पड़ता है? लौट कर घर आया. बैचेनी थी और ब्लड प्रेशर बढ़ा हुआ था. कुछ दिन अवकाश पर रहा. डाक्टर की राय पर आबोहवा बदलने के लिए कहीं सैर पर जाने का मन बनाया. इसलिए अवकाश पर सैर की सुविधा का लाभ उठा कर परिवार के साथ सिक्किम चला गया. वहां बौद्ध मोनास्ट्रियों में गए, कंचनजंघा पर सूर्योदय देखा, छांगू झील को देखते हुए नाथू ला तक गए. सिक्किम से पहाड़ों को पार करते हुए दार्जिलिंग आए. वहां से टॉय ट्रेन की यात्रा करके, टैक्सी से बागडोगरा हवाई अड्डे पर पहुंचे और दिल्ली की उड़ान पकड़ी.
तभी बैंक के सांस्कृतिक कार्यक्रमों की हलचल शुरू हो गई. रिटायर होने से पहले नाटक में भाग लेने का यह एक और शानदार मौका था. मैंने बैंक के साथी, कलाकार और नाटक के निर्देशक अरुण मारवाह से बात की. उन्होंने बताया कि वे इस बार शेक्सपीयर का ओथेलो नाटक कर रहे हैं. उन्होंने मुझे कैसियो के पात्र की भूमिका दे दी.
इसी बीच मेरे सारथी सतीश की बैंक में नौकरी लग गई. नए सारथी सत्यदेव का साथ मिला. नाटक की रिहर्सल के लिए निर्देशक साथी ने मेरे दफ्तर में आला अफसर की अनुमति के बारे में बात की. कुछ दिनों तक रिहर्सल में शामिल होना जरूरी था. सभी को पता था कि मैं नौकरी से जल्दी ही रिहा होने वाला हूं. इसलिए अनुमति मिल गई और अब मैं घर से सीधे केंद्रीय स्टाफ कालेज के हॉल में रिहर्सल के लिए जाने लगा. सारथी भी हॉल में बैठ कर रिहर्सल देखता रहता था. दूसरे दिन घर लौटते समय उसने बातों-बातों में मुझे बताया, “एक्टिंग तो मन्ने भी की है जी.”
“कहां?” मैंने पूछा.
“रामलील्ला में. उसमें सीत्ता का भी रोल किया है और जी मुनि बशिष्ठ का भी. कुछ और भी रोल किए हैं. मतलब जो रोल मिल जाए, मैं भी उसे कर सकता हूं.”
मैं समझ गया, सारथी सत्यदेव का मन रिहर्सल के लिए मचलने लगा था. लेकिन, वह बैंक का नियमित कर्मचारी नहीं था इसलिए उसे नाटक में शामिल नहीं कर सकते थे. बहरहाल हमारी रिहर्सल जारी रही. हमारे संवादों में उर्दू का रंग-रूप था. नाटक एक कॉकटेल पार्टी से शुरू होता था. पहला ही संवाद मेरा था, “बहुत खूब! बहुत खूब! भई ये गाना तो पहले वाले से भी ज्यादा मजेदार है इयागो!”
इयागो की भूमिका खुद निर्देशक अरुण मरवाह निभा रहे थे. नाटक के दृश्य आगे बढ़ते हैं और मैं इयागो की चाल में फंस कर डेस्डेमोना से मिलने के लिए तैयार हो जाता हूं. सुबह उससे मिलता हूं और घुटने के बल झुक कर अदब से उससे कहता हूं, “मैं आपको यक़ीन दिलाता हूं डेस्डेमोना की अपनी जान की परवाह किए वगैर ओथेलो की जानिब वफ़ादारी के फ़र्ज़ को मैं अपनी आखिरी सांस तक अंजाम देता रहूंगा.”
यह सब कहते हुए मैं अपना हाथ डेस्डेमोना की ओर बढ़ाता था. मैंने कनखी से देखा कि जब मैं यह कर रहा होता था तो मेरे साथी कलाकार मुस्करा रहे होते थे. मैं कुछ समझा नहीं, इसलिए पूछ लिया वे क्यों मुस्करा रहे हैं? तब एक साथी ने कहा, “आप घुटने के बल झुक कर हाथ तो बढ़ा देते हैं लेकिन डेस्डेमोना की अंगुलियां नहीं पकड़ते हैं. झिझकते हैं.”
सुन कर मैं भी हंस पड़ा. मैंने कहा, “आप ठीक कह रहे हैं दोस्त, मैंने आज तक पत्नी के अलावा किसी दूसरी लड़की की अंगुलियां पकड़ी ही नहीं हैं, इसलिए मैं सचमुच झिझक रहा हूं.”
तब निर्देशक ने कहा, “ऐसे कैसे चलेगा? अंगुलियां पकड़ेंगे तभी तो दृश्य असली लगेगा.”
उसके बाद मैंने धीरे से डेस्डेमोना की अंगुलियां पकड़ कर डायलॉग बोलना शुरू कर दिया.
ओथेलो नाटक के लिए साथियो ने उस दौर की पोशाकों का गहरा अध्ययन किया और उसी के हिसाब से कास्ट्यूम सिलवाए. नाटक के लिए भव्य प्रतीकात्मक सेट बनाया गया. प्रतियोगिता में कलाकारों ने ओथेलो की शानदार प्रस्तुति दी. बैंक जीवन का मेरा यह आखिरी नाटक था.
उसी बीच साथी प्रमोद मित्तल ने मुझे मायूस देखकर मेरे मूल विभाग जनसंपर्क तथा प्रचार में मेरा तबादला कराने में मदद की. इस तरह मैं रिटायरमेंट से तीन माह पहले अपने मूल विभाग में पहुंच गया. मार्च 2004 की आखिरी तारीख को वहीं से रिटायर हुआ. भावभीनी विदाई लेकर नीचे कार के पास पहुंचा तो देखा कि उसे साथियो ने फूलों से सजाया हुआ है. उन सभी लोगों से मिल कर, नौकरी को अलविदा कह कर वापस घर लौट आया.
“फिर क्या हुआ?”
“उसके बाद की तो उत्तरकथा है. नौकरी से रिटायर होने के बाद अब मैं मुक्त पंछी था और खुले आकाश में जहां मन चाहे़ उड़ सकता था.”
“तो कहां-कहां उड़े?”
“बताऊं?”
“ओं”
(जारी)
और भी थे इम्तिहां
समय के थपेड़े
देबी के बाज्यू की चिट्ठियां
वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.
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2 Comments
हरिहर लोहुमी
बहुत राेचक वृतान्त। अच्छा हुआ कि रिटायरमेंट के अन्तिम दिनाें में रंगमंच अभिनय का अवसर ताे मिला ही, दी के अलावा किसी अन्य की अंगुली पकड़ने का सुख भी मिला। अब यह नही कह सकते कि पत्नी के अलावा किसी और का स्पर्श नही किया भले ही चरित्र की मजबूरी रही हाे। यह भी अच्छा ही हुआ कि फिरसे अपने फील्ड में आने का माैका भी मिला। ऱिटायरमेंट से पहले की कुछ और अच्छी बातें सुनने काे मिलेंगी अभी ताे…….
हरिहर लोहुमी
बहुत राेचक वृतान्त। अच्छा हुआ रिटायरमेंंट से पहले अपनी रंगमंच प्रतिभा काे फिर सिद्ध करने का सुअवसर मिला। खूब फब रहे हैं। औथेलाें की भूमिका में। एक बात और हुई कि आप जाे कहते रहे कि दी के अलावा किसी और की अंगुलिया नही पकड़ी पर अब यह शब्द पीछे छूट गया है, भले ही चरित्र की वाध्यता रही हाे। यह भी सकून भरा लगा कि रिटायरमेंट से 3 माह पहले अपनी पसंदीदा भूमिका में लाैट आये। सिक्किम में याक में बैठा व्यक्ति ताे सैंटाक्लाज ही लगता है। आप भी ताे सैंटाक्लाज की तरह ही खुसियां बांटते रहते हाे।
अब शुरू हुआ है जिन्दगी का नया अध्याय । अब ताे नया ही सुनने काे मिलेगा नाैकरी की आपाधापी से हट कर।