कहो देबी, कथा कहो – 42
पिछली कड़ी- समय के थपेड़े
ज़िंदगी जम कर इम्तिहां ले रही थी और हम थे कि दमखम से इम्तिहां देते चले जा रहे थे. शायद सरदार अंजुम के शब्दों में भीतर कहीं मन में हम भी सोचते थेः ‘ज़िंदगी इक इम्तिहां है इम्तिहां का डर नहीं/हम अंधेरों से गुजर कर रौशनी कहलाएंगे!’
बहरहाल साल 1996 में मुखिया को रिटायर होना था. हम उस दिन को यादगार दिन बनाने की तैयारियों में जुट गए. मैंने अपने दो साथियों से कहा, नौकरी का यह सफर उन्हें सदा याद आता रहे, इसके लिए हमें उन्हें एक फोटो अलबम भेंट करना चाहिए जिसमें हर तस्वीर उन दिनों की दास्तां कहती हो. हमने वे तमाम दुर्लभ तस्वीरें जुटाईं और ‘पीएनबी स्टाफ जर्नल’ के कुछ चुनिंदा मुखपृष्ठों के साथ अलबम में कुछ इस तरह सिलसिलेवार लगाईं कि तस्वीरें उनकी नौकरी के सफर की पूरी दास्तान सुनाने लगीं. विदाई के दिन विभाग के आला अफसर की मौजूदगी में सभी साथियों ने कुछ-न-कुछ कहा. मैंने भी भरे गले से जगजीत सिंह की गाई जावेद अख्तर की गज़ल गाई- जिंदगी धूप तुम घना साया/तुम चले जाओगे तो सोचेंगे हमने क्या खोया, हमने क्या पाया!’ बीच-बीच में गला रुंध जाता. भावभीनी विदाई देकर हम उन्हें उनके नए घर तक पहुंचा आए और बहुत उदास होकर लौट आए.
अब क्या होगा? विभाग में नया मुखिया कौन और कहां से आएगा? अब तक इस तकनीकी विभाग में तकनीकी मुखिया ही रहा था इसलिए कोई अनुमान नहीं लगा सकता था कि कौन आएगा. जनसंपर्क के तकनीकी अधिकारियों में सबसे अधिक वरिष्ठ मैं था जिसे फील्ड में काम करने का भी साढ़े सात साल का अनुभव था. मेरे बाद चार तकनीकी साथी और थे जो बैंक में मेरे आने के एक साल बाद आए थे. वे सभी फील्ड में काम कर रहे थे. हम लोग यही सब सोच रहे थे कि अगली सुबह विभाग के आला अफसर ने मुझे बुलाया और कहा, “मिस्टर मेवाड़ी, विभाग के सभी काम पहले की तरह चलते रहेंगे. आप यह जिम्मेदारी संभालिए. कल से आप मुखिया के कमरे में बैठें. मीडिया के लोगों से वहीं मिलें. आइ नो युवर कैपेबिलिटीज.”
मैंने कहा, “ठीक है सर, मैं उसी कमरे में बैठूंगा लेकिन अलग कुर्सी पर. मुखिया की कुर्सी पर बैठने का अधिकार मुखिया का ही है. बाकी सभी काम पूर्ववत चलते रहेंगे, आप निश्चिंत रहें.”
विडंबना यह थी कि दस वर्ष से विभागीय प्रमोशन के लिए इंटरव्यू हुए ही नहीं थे. कारण, बैंक का मर्जर बताया जाता था. अब तक पंजाब नैशनल बैंक में हिंदुस्तान कामर्शियल बैंक और न्यू बैंक ऑफ इंडिया का मर्जर हो चुका था. इन दोनों अवसरों पर आपसी समझ और भातृ-भाव बढ़ाने के लिए हम जनसम्पर्क का हर संभव प्रयास करते रहे थे.
मुखिया को गए चार-छह दिन भी नहीं बीते थे कि अचानक एक दिन विभाग में एक नए मुखिया आ गए. वे मुंबई से आए थे और बैंकिंग की मुख्य धारा से थे. वे अचानक क्यों और कैसे आए, यह तो उच्च प्रबंधन ही जानता था, हमें काम करना था, हम अपना काम करते रहे. उसी दौर में एक दिन विभाग के आला अफसर ने मुझे अपने कमरे में बुला कर कहा- “विज्ञान भवन एनेक्सी में वित्तमंत्री की बैठक का आयोजन करना है जिसमें सभी बैंकों के प्रमुख और वित्त मंत्रालय के लोग भाग लेंगे. इसे आपने आर्गेनाइज करना है. वित्त मंत्रालय जाकर बात कर लीजिए और जो तारीख तय की है, उसके लिए विज्ञान भवन एनेक्सी बुक कर लीजिए.”
मैं हैरान था कि मुखिया तो आ गए हैं, फिर भी वित्त मंत्रालय में बात करने के लिए मुझको क्यों कह रहे हैं? मैं मंत्रालय में सचिव, संयुक्त सचिव और बैंकिंग प्रभाग के अधिकारियों से मिला, विज्ञान भवन एनेक्सी में बात की, भोजन का मेनू लेकर व्यंजन चुने. उसके बाद विभाग के आला अधिकारी को फोन किया, “सर, मंत्रालय में बात कर ली है. अब एक बार आप भी आ जाते तो अच्छा रहता.”
उन्होंने कहा, “मेरे आने की जरूरत नहीं है. यह आपका काम है और मैं जानता हूं आप इसे पूरी कुशलता से करेंगे. आइ नो युवर कैपेबिलिटीज.” ये शब्द आज उन्होंने दुबारा कहे थे. अभी कई काम बाकी थे. बैनर, स्वागत और इंडिकेटर बोर्डों से लेकर वित्त मंत्री, वित्त सचिव और बैंक प्रमुखों की नाम पट्टियां, मिनट-दर-मिनट कार्यक्रम के साथ पैड, पेन सहित फोल्डर और सिक्योरिटी पास वगैरह की व्यवस्था भी करनी थी. साथियों की टीम के साथ सब कुछ किया और बैठक सफलतापूर्वक संपन्न हो गई.
नए मुखिया के आने के करीब साल भर बाद अचानक पता लगा कि वरिष्ठता क्रम में प्रमोशन के लिए इंटरव्यू की तारीख तय हो गई है. चंद दिन बाकी थे. मैंने भी तय किया कि इंटरव्यू तो जरूर दूंगा, अगर संयोग से चयन हो गया तो फिर सोचूंगा कि ज्वाइन करना है या नहीं. यह सीनियर मैनेजमेंट, स्केल-4 का इंटरव्यू था. अपने काम और विषय के बारे में तो पता था ही, बैंकिंग के आमतौर पर पूछे जाने वाले सवालों के जवाब भी तैयार कर लिए. दिन भर विभाग का काम करना ही था, करता रहा.
इंटरव्यू से चार दिन पहले कार्मिक प्रभाग के वर्षों पुराने प्रबंधक ने आकर बताया, “आपने पिछले वर्षों में परफॉमेंस एप्रैजल नहीं भरे?”
मैं आसमान से गिरा और कहा, “मैं एक डिसिप्लिड व्यक्ति हूं. हर साल समय पर एपीएफ भर कर मुखिया को देता हूं. उन्होंने कार्मिक प्रभाग को भेजे होंगे. ऐसा कैसे हो सकता है कि मेरे एपीएफ ही नहीं मिल रहे हैं?”
आश्चर्य था, इंटरव्यू से केवल तीन दिन पहले यह बात की जा रही थी. शंका होना स्वाभाविक था, मुझे शंका होने लगी. उन्होंने आगे कहा, “कोई बात नहीं, अगर पहले नहीं भरे तो अब भर दो. आज ही दे देना.”
मैंने नए एप्रैजल फार्म लेकर फिर से भरे और अपने नए मुखिया को देकर कहा, “कार्मिक प्रभाग में मेरे हर साल भरे हुए एप्रैजल नहीं मिल रहे हैं. उन्होंने नए एप्रैजल भर कर देने को कहा है. आपने साल भर मेरा काम देखा है सर, आप अपनी टिप्पणी देकर भिजवा दीजिए.”
बाद में उन्होंने मुझे कमरे में बुला कर कहा, “क्या दूं आपको, ‘ए’ या ‘बी’?”
“यह तो आपका अपना निर्णय होगा.”
अजीब-सी मुस्कराहट के साथ उन्होंने कहा, “मैंने ‘ए’ दे दिया है.”
“धन्यवाद सर,” मैंने कहा और उनका दिया बंद लिफाफा कार्मिक प्रभाग में सौंप आया.
अगली सुबह फिर फोन आया, “आपकी एपीएफ मिली नहीं. कल आपका इंटरव्यू है.”
मैंने सिर पकड़ लिया. सोचा अब क्या करूं? उन्हें बताया कि कल ही तो दे गया हूं. उधर से जवाब आया, “चलिए देखते हैं.”
अगले दिन इंटरव्यू था. मुझे सुबह-सुबह वह आला अफसर मिल गए जिनके समय में मैंने वित्त मंत्री के काशीपुर ऋण मेले का आयोजन किया था और ‘अठारहवीं सांझ’ नाटक में मेरा अभिनय देख कर उन्होंने कहा था- दिल्ली में तखत तोड़ कर आना.
लिफ्ट में आठवीं मंजिल तक मैं उनके साथ गया. हम अकेले थे. पता लगा था कि वही इंटरव्यू के अध्यक्ष हैं. मैंने उनके साथ काम किया था, इसलिए कहा, “सर, आज मेरा इंटरव्यू है. आपका आशीर्वाद चाहिए.”
वे अचानक बिफर कर, रौद्र रूप में बोले, “अपने भगवान से मांगो आशीर्वाद.”
मैं उन्हें देखता रह गया, लेकिन वे पलट कर अपने चैंबर में चले गए.
मैं अपनी सीट पर आकर बैठा. सोचता रहा, पहले मेरे एप्रैजल फार्म गायब और अब अध्यक्ष आला अफसर का यह रौद्र रूप. क्या करूं? मैं गांव से तमाम मुश्किलों को पार कर यहां तक पहुंचा था. कठिन से कठिन परिस्थितियों के आगे हार नहीं मानी थी. अब भी नहीं मानूंगा. इंटरव्यू दूंगा.
दिया इंटरव्यू. नाम पुकारने पर दरवाजे से भीतर गया. सामने अपनी मेज पर कमेटी के अध्यक्ष, वही आला अफसर विराजमान थे. उनके सामने बैंकिंग के तीन अधिकारी सदस्य. मुझे देखते ही आला अफसर ने उन अधिकारियों को संकेत करके कहा, “शुरू करें.”
उन्होंने एसेट्स यानी परिसंपत्तियों के बारे में प्रश्न पूछा. मैं जवाब दे ही रहा था कि अध्यक्ष आला अफसर ने व्यंग्य करते हुए कहा, “क्यों आज वर्दी पहन कर नहीं आए?”
मैंने सकुचाते हुए कहा, “नहीं सर.” सदस्य अधिकारी हैरान होकर कभी मेरी ओर और कभी आला अफसर की ओर देख रहे थे.
तब आला अफसर ने कहा, “ये नाटक में भी अच्छा काम करते हैं. इनकी वर्दी है अश्वत्थामा की,” फिर मेरी ओर देख कर कहा, “पहन कर आनी चाहिए थी.” फिर उन अधिकारियों से उन्होंने कहा, “ये तीर-कमान और गदा भी रखते हैं.”
फिर पैंतरा बदल कर मेरी ओर देखते हुए कहा, “तुम अपने वार्षिक एप्रैजल फार्म भी नहीं भरते?”
मैंने जवाब दिया, “हर साल भर कर समय पर जमा करता हूं, सर. मैं हैरान हूं कि वे गायब कैसे हो गए हैं?”
“अब बातें मत बनाओ. ये एप्रैजल फार्म तक नहीं भरते हैं. करते क्या हो? यू कैन गो नाऊ,” उन्होंने कहा तो मैं हताश, निराश बाहर निकल कर, नीचे अपनी सीट पर आया. वहां साथी पूछने लगे, “सर कैसा रहा इंटरव्यू?”
मैंने कहा, “ठीक रहा” और वाश रूम की ओर निकला.
बगल की सीट पर बैठे साथी मैनेजर की आवाज कानों में पड़ी, “इसका प्रमोशन हो ही नहीं सकता.”
महिला साथी की आवाज़ आई, “शुभ-शुभ बोलिए. वे अभी-अभी इंटरव्यू देकर आए हैं.”
“मैं लिख कर दे सकता हूं. शर्त लगा लो, जितने रूपए की चाहो.” सब चुप हो गए.
रिजल्ट घोषित हुआ. जाहिर है, लिस्ट में मेरा नाम नहीं था. दूर लुधियाना से फोन आया, “बधाई हो, मेवाड़ी जी.”
“किस चीज की?”
“ओ यार पब्लिसिटी में दिल्ली में आपका और यहां लुधियाना में मेरा सेलेक्शन हुआ है.”
“आपको बहुत-बहुत बधाई दोस्त, मेरा सेलेक्शन नहीं हुआ है.”
“सॉरी. मुझे किसी ने बताया आपका हो गया है.”
क्योंकि फोन लुधियाना से था, लुधियाना के ही नए जमाने के शायर फैयाज फारुकी का शेर याद आयाः
राह में उसकी चलें और इम्तेहां कोई न हो
कैसे मुमकिन है कि आतिश हो धुआं कोई न हो
आला अफसर एक अरसे तक लुधियाना में खुद भी रहे थे. रहे तो हमारे लखनऊ में भी थे और मेरे काम की तब तारीफ भी की थी, प्रशंसा पत्र जारी किया था. मैं नहीं जानता था कि कब और कहां उनके अहं को ठेस लगी थी. उस दिन मुझ अश्वत्थामा के तीर कमान उनके काम आ गए. लेकिन, कोई बात नहीं. मैंने खुद को समझाया कि दोस्त, होता है, ऐसा भी होता है. यही क्या कम है कि इस महानगर में इस नौकरी से तुम्हारा परिवार पल रहा है.
मैंने उस परिस्थिति को स्वीकार भी कर लिया. मन की घाटियों में कई बार आवाज़ गूंजती- आखिर मुझमें क्या कमी थी? दस साल से हेड आफिस में इस काम को देख रहा हूं. काम के लिए इन वर्षों में दिन-रात नहीं देखा, न परिवार देखा. सारा समय काम को दिया. फिर मेरे साथ ऐसा क्यों किया गया?
मन से इस विचार को झटक कर दूर करता लेकिन ये सवाल मेरा पीछा नहीं छोड़ते थे. मन की गहरी घाटियों में बार-बार गूंजते रहते. जो मिलता, कहता- आपके साथ खुले आम अन्याय हुआ है. यह सुनकर उस आवाज़ की गूंज और भी बढ़ जाती, हालांकि किसी को भी पता नहीं था कि मुझसे इंटरव्यू में क्या पूछा गया. मैंने यह कभी किसी को बताया ही नहीं. जब मन में गूंजते सवालों से परेशान हो गया तो किसी साथी ने मुझे उदास देख कर कहा, “चित्त को शांत करने के लिए आपको ध्यान लगाना चाहिए और ‘दुर्गा सप्तशती’ पढ़ा करें. इससे मन एकाग्र होगा.”
मैंने दुर्गा सप्तशती का नाम तो सुना था, लेकिन उसे पढ़ा नहीं था. इसलिए ‘दुर्गा सप्तशती’ मंगा कर उसे एक नजर देखा. लगा, अगर मैं इसका सस्वर पाठ करूं तो शायद मन इन्हीं श्लाकों में मंडराता रहेगा और भटकते खयाल मन को परेशान नहीं करेंगे. उसमें अचानक ‘कुरू कुरू स्वाहा’ परिचित शब्द देख कर खुश हुआ क्योंकि मनोहरश्याम जोशी का चर्चित उपन्यास ‘कुरू-कुरू स्वाहा’ मैं पहले पढ़ चुका था.
मैंने अक्सर ‘दुर्गासप्तशती’ पढ़ना शुरू कर दिया लेकिन लगातार युद्ध, आक्रमण और रक्तपात की घटनाएं पढ़ कर मन उद्विग्न हो जाता. धीरे-धीरे मुझे लगा, देवीसूक्तम और सिद्ध कुंजिका स्तोत्र पढ़ते हुए मन एकाग्र हो रहा है. इसलिए मैं इन्हें ही पढ़ने लगा- ‘या देवी सर्वभूतेषु शांति रूपेण संस्थिता, नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः!’ उसके शांति रूप, मातृरूप आदि विविध रूपों को नमस्तस्यै नमो नमः कह कर उस नाद में खोने लगा. सिद्ध कुंजिका स्तोत्र भी याद हो गया- ऊं ऐं ह्रीं क्लीं चामुंडायै विच्चे. ऊं ग्लौ हुं क्लीं जूं सः ज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल. ऐं हीं क्लीं चामुंडायै विच्चे ज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा..
इस स्तोत्र को बोलते-बोलते मैं इसी की ध्वनियों में खो जाता. अर्थ जानना चाहता था लेकिन अर्थ के बारे में साफ लिखा हुआ था कि अर्थ जानना न संभव, न आवश्यक, न वांछनीय. गूढ़ अर्थ है.
यह भी उन्हीं दिनों की बात है. मेज पर काम करते-करते एक दिन अचानक ऐसा लगा जैसे सिर से लेकर पैरों तक पूरे शरीर में चीटिंयां रेंग रही हों. मैं बैंक के चिकित्सक डॉ. भल्ला से मिला. उन्होंने मेरी जांच की और पूछा, “आपको ब्लड प्रेशर रहता है?”
मैंने कहा, “नहीं डॉ. साहब, मुझे तो ब्लड प्रेशर कभी नहीं हुआ.”
“लेकिन, आज है, 110 और 160 . क्या काम का बहुत तनाव रहता है?”
“जी हां, काम का काफी दबाब और तनाव रहता है.”
तब वे बोले, “जब आप यहां इस आफिस में आए तो आपके विभाग का काम तब भी चल रहा था?”
मैंने कहा, “जी हां.”
“जब आप यहां से जाएंगे तो विभाग का काम तब भी चलता रहेगा. आपको इस बात को समझना चाहिए. इसलिए अपने स्वास्थ्य और परिवार का ध्यान रखें. अगर मैं आपको ब्लड प्रैशर की दवा देता हूं तो वह जीवन भर लेनी पड़ेगी. लेकिन, अगर आप अपनी जीवनचर्या बदल लेंगे, रोज घूमने जाएंगे और थोड़ा व्यायाम भी करेंगे तो मुझे लगता है आपकी यह समस्या हल हो जाएगी. आप यह सब करके देखिए. कुछ दिनों बाद फिर मिलते हैं.”
उन्होंने मुझे दवा नहीं दी और मैंने अगली सुबह से नियमित रूप से घूमना शुरू कर दिया. मैं पत्नी के साथ अलसुबह डिस्ट्रिक्ट पार्क मैं घूमने लगा और वहीं किसी छायादार पेड़ के नीचे बैठ कर प्राणायाम तथा योगमुद्रा लगाने लगा. बीच-बीच में ब्लड प्रैशर की जांच भी करवा लेता. वह घट रहा था. माह भर बाद डॉ. भल्ला से मिला, उन्होंने जांच की तो खुश होकर बोले, “मैं जानता था जीवनचर्या में बदलाव लाने से आपको फायदा हो सकता है और देखिए आपका ब्लड प्रैशर बिल्कुल सामान्य हो गया है.”
ब्लड प्रैशर तो सामान्य हो गया लेकिन एक दिन योगमुद्रा लगाने पर मुझे अचानक लगा कि जैसे धरती पलट गई है, वह ऊपर है और मैं निराधार नीचे गिर रहा हूं. संभल कर उठा और पत्नी के सहारे घर पहुंचा. पता लगा, यह स्पांडेलाइटिस की शुरूआत थी. डॉ. की राय से रोज गर्दन की कसरत करने लगा और धीरे-धीरे यह समस्या भी दूर हो गई.
लेकिन, मुझे क्या पता था कि इससे भी बड़ी समस्या मेरा इंतजार कर रही है. वर्ष 1998 में जून माह की तेरह तारीख थी. उन दिनों कई तरह के तनाव झेल रहा था. उस दिन घर पर अचानक झटके से उठा तो सेंट्रल टेबल का नुकीला कोना मेरे बाएं घुटने की बगल में कुछ ऐसे लगा कि ‘टस्स’ की आवाज आई और घुटने में तेज दर्द शुरू हो गया. धीरे-धीरे वह सूजने लगा. अगले दिन हमने देखा कि घुटना काफी सूज गया है और उसमें काला खून भर गया है. हमने घरेलू इलाज की कोशिश की, कच्ची गर्म रोटी लपेटी, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ.
तीसरे दिन सोमवार को दफ्तर नहीं गया तो एक जानकार मित्र तबियत पूछने आ गए. घुटने का हाल देखा तो तुरंत अपनी गाड़ी में बैठा कर ग्रीन पार्क ले गए. वहां डॉक्टर ने जांच की और कुछ दवाइयां दे दीं. फिर भी दर्द बढ़ता गया. अगले दिन मैं उन्हीं मित्र के साथ गुड़गांव के उमा संजीवनी अस्पताल में अनुभवी आर्थोंपेडिक सर्जन डॉक्टर ए. पी. सिंह से मिला. उन्होंने ऐक्सरे लेकर जांच की. फिर एक मोटी सिरिंज से मेरे सूजे हुए घुटने के भीतर से मेरी आंखों के सामने जामुन के रस की तरह का काफी खून निकाला. उसके बाद घुटने के ऊपर से नीचे पैर तक प्लास्टर बांध दिया. अब में खुद खड़ा भी नहीं उठ सकता था. उन्होंने दवाइयां लिखीं, हिदायतें दीं और सहारे के लिए बाजार से बैसाखियां खरीदने को कहा.
हमने अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के निकट यूसुफ सराय की एक मेडिकल शॉप से स्टील की दो मज़बूत बैसाखियां खरीदीं और फिर मित्र सहारा देकर मुझे घर पहुंचा गए. रात-दिन अपने पैरों पर यहां-वहां दौड़ने वाला मैं बिस्तर से आ लगा. इससे बड़ी सज़ा और क्या हो सकती थी. फिर भी पत्नी से हंस कर कहा, “बहुत दौड़ता-भागता रहता था ना मैं, प्रकृति ने अब इस तरह आराम करने का मौका दे दिया है.” कुल 57 दिन मेडिकल अवकाश पर रहना पड़ा.
दफ्तर जाने का दिन आया तो मेरे साथी और विभाग के नए मुखिया सर्वजीत चोपड़ा सुबह-सुबह घर पर आए. उन्होंने कंधे का सहारा देकर मुझे धीरे-धीरे सीढ़ियों से नीचे उतारा और अपनी कार में ले जाकर बैठाया. मेरी बैसाखियां कार के भीतर रखीं और हम दफ्तर की ओर चल पड़े. वहां उसी सावधानी से उन्होंने मुझे उतारा और बैसाखियां पकड़ा कर, अपने कंधे के सहारे भीतर लिफ्ट तक ले गए. मैं बैसाखियों पर खड़ा, लिफ्ट खुलने का इंतजार कर रहा था कि प्रबंधन सलाहकार सेवा विभाग की मुखिया मालती मोहन की नजर मुझ पर पड़ी. वे अपनी आंखों के किनारे हथेली लगा कर बोलीं, “नो, आइ कांट सी यू इन दिस कंडीशन मिस्टर मेवाड़ी. कैन नॉट इमेजिन (नहीं, मैं आपको इस स्थिति में देख नहीं सकती. कल्पना भी नहीं कर सकती).” खैर हम अपने विभाग में पहुंचे हॉल में बैठे साथी मुझे बैसाखियों पर चलता देख रहे थे. मेरे मुखिया साथी ने मुझे सावधानी से कुर्सी पर बैठाया. उसके बाद वे बहुत दिनों तक मुझे अपने कंधे का सहारा देकर मेरे घर से दफ्तर लाते रहे. दिन भर काम करने के बाद शाम को वे मुझे घर पर छोड़ जाते. पैर को सामान्य होने में काफी समय लगा.
घुटना ठीक हुआ तो तो नाक की समस्या परेशान करने लगी. दिल्ली के वायु प्रदूषण से मेरी साइनस की तकलीफ बढ़ती गई और सांस लेना तक मुश्किल होने लगा. मैं कई बार रात को आकाश में जैमिनोइड या लियोनिड उल्कावृष्टि देखने की उत्सुकता में छत पर चला जाता था. दो-एक ईंटों के ऊपर तकिया लगा कर चटाई पर लेट जाता और आसमान में उल्काओं की आतिशबाजी का इंतजार करता. खुली हवा में मुझे नाक से सांस लेने में भी सहूलियत होती थी. जब समस्या बहुत बढ़ गई तो होम्योपैथी के एक अनुभवी चिकित्सक से दवा लेने लगा. एक दिन उन्होंने मुझे गोद में लेटा कर स्टील के सुए से मेरी नाक में पालिप्स को छेदने की कोशिश की. लेकिन, उस कोशिश में मेरी आंखें लाल हो गईं. उनमें खून उभर आया था. डॉ. साहब ने उस खून को हटाने की दवा दी. सप्ताह भर बाद आंखें सामान्य हो पाईं.
और हां, उस साल आसमान में खूबसूरत ‘हेल बाप’ धूमकेतु भी तो आया था. वह रुई के फाहे की तरह दिखाई देता था. मैंने भी तब पहली बार अपनी कोरी आंखों से धूमकेतु देखा. तब मुझे क्या पता था कि तमाम उहापोहों के बीच मुझे धूमकेतु पर पटकथा लिखने का मौका मिल जाएगा. वह किस्सा कुछ यों है. एक दिन एक फोन आयाः “हैलो! देवेंद्र मेवाड़ी बोल रहे हैं?”
“जी, बोल रहा हूं.”
“मैं अरुण कौल, अरुण कौल प्रॉडक्शंस से.”
मैंने उन्हें नमस्कार किया तो वे बोले, “मेरे एक मित्र हैं- मोहन गुप्त, सारांश प्रकाशन के. मैंने उन्हें फोन करके गुणाकर मुले जी का फोन नंबर मांगा. उन्होंने पूछा, क्यों? तो, मैंने बताया कि हमें ‘धूमकेतु’ पर एक फिल्म बनानी है. उनसे पटकथा के लिए कहना चाहता हूं. मोहन जी ने पूछा- क्या सचमुच यह फिल्म बनाना चाहते हो? मैंने कहा, हां. वे बोले, तब मैं आपको दूसरा फोन नंबर दे रहा हूं और नंबर के साथ आपका नाम बताया. क्या आप हमारे लिए ‘धूमकेतु’ पर पटकथा लिख देंगे?”
मैं अब तक ध्यान से उनकी बातें सुन रहा था और चकित भी था कि यह फोन जाने-माने फिल्मकार अरुण कौल जी का था जिन्होंने ‘दीक्षा’ फिल्म बनाई, ‘चांदनी’ और कई दूसरी फिल्मों के स्क्रीन प्ले लिखे और ‘टर्निंग पाइंट’ जैसा प्रसिद्ध टेलीविजन धारावाहिक बनाया. इस अवसर को मैं कैसे चूक सकता था? यह विज्ञान लोकप्रियकरण का काम था. जो संविधान के अनुसार हर नागरिक के मौलिक कर्तव्य में शामिल था. लेकिन, मेरे मन में कुछ सवाल थे. इसलिए मैंने उनसे कहा, “एक बात पूछना चाहता हूं, धूमकेतु पर जो फिल्म आप बनाएंगे, वह अमेरिकी या किसी यूरोपीय देश की फिल्म से अलग कैसे होगी? आपकी और उनकी फिल्म में क्या अंतर होगा? धूमकेतु का सिर, जटा और पूंछ होती है. यही उनकी और आपकी फिल्म में भी होगा.”
“आपकी बात ठीक है लेकिन यह अंतर कैसे होगा?”
“ऐसे कि आपकी फिल्म में भारत की खूशबू होगी.”
“कैसे?”
“मैं आपके साथ एकाध घंटा बैठकर बात करना चाहूंगा. इससे आप भांप लेंगे कि मैं आपकी फिल्म की पटकथा लिख सकूंगा या नहीं. मैं भी समझ जाऊंगा कि मुझे क्या करना है.”
उन्होंने अपने स्टूडियो का पता बता कर कहा, “आप आइए, कॉफी पिएंगे और बातें करेंगे.”
देर शाम को मैं उनके पास गया और कॉफी पीते हुए चर्चा शुरू की. मैंने कहा, “गोधूलि वेला है, गाएं घर को लौट रही हैं. उनके खुरों से उठती धूल के कारण ही तो सांझ का यह समय गोधूलि वेला कहलाया. सूरज अस्त होता है. आसमान में एक तारा उगता है, एक-एक कर और तारे उगते हैं, पूरब से चांद निकल रहा है. कायनात में सब कुछ एक अनुशासन में चल रहा है, कि तभी अचानक आसमान में एक ओर से अपनी लंबी पूंछ लहराता हुआ एक धूमकेतु हमारे सौरमंडल में आ धमकता है.”
वे अपनी टीम के साथ चुपचाप सुनते रहे. कॉफी के एक और दौर के लिए उन्होंने इशारा किया.
बात आगे बढ़ी, “अथर्ववेद की एक ऋचा में प्रार्थना की जा रही है कि उल्काओं और धूमकेतुओं से हमारी रक्षा करो! वराहमिहिर बृहसंहिता में धूमकेतुओं का अध्याय लिख रहे हैं. आसमान से एक उल्का पिंड या धूमकेतु आकर टकराता है और महाराष्ट्र में लोणार झील बन जाती है. फ्रांसीसी खगोल वैज्ञानिक फादर रिचाउ 1689 में भारत में पांडिचेरी से अपनी 12 फुट लंबी दूरबीन से धूमकेतु देख रहे हैं. और, राष्ट्रकवि सुब्रह्मण्यम भारतीय 1910 में आए हेली धूमकेतु पर कविता लिख रहे हैं कि हे हेली तुम अब मेरे देश के लिए क्या संदेश लाए हो….यह भारतीय फिल्म लग रही है ना?” मैंने पूछा.
उन्होंने कहा, हां, लेकिन उनके युवा फिल्मकार बेटे इंद्रनील ने कहा, “बट ह्वैर इज साइंस इन दिस फिल्म? (लेकिन, इस फिल्म में साइंस कहां है?)”
मैंने कहा, “फिल्म में बाकी साइंस ही है जो धूमकेतु के बारे में वैज्ञानिक जानकारी देगा.”
बातचीत अच्छी रही. मैंने धूमकेतु फिल्म की पटकथा लिखी, फिर वर्किंग स्क्रिप्ट में सहयोग दिया. समय मिलने पर देर शाम, रातों को और छुट्टी के दिन उनके स्टूडियो में जाता था. फिल्म बनी, देखी, देख कर चकित हुआ कि उन्होंने क्रैडिट्स में मेरा नाम दिया था- ‘कामेट- अ फिल्म बाइ प्रोफेसर मदान, पारीख एंड देवेंद्र मेवाड़ी. वह फिल्म बनी और दूरदर्शन पर कई बार दिखाई गई. विज्ञान लोकप्रियकरण में यह मेरा बिल्कुल नया अनुभव था.
“इम्तहानों के साथ-साथ आकाश दर्शन भी, क्यों देबी?”
“हां, ठीक कहा आपने. आपको बताऊं, अगर मैं लिखने-पढ़ने के काम में न डूबता तो सच मानिए पागल हो जाता.”
“ऐसा नहीं हुआ, अच्छा हुआ हो देबी. क्या इम्तहान फिर भी चलते रहे?”
“हां वे तो ज़िंदगी भर चलने वाले हुए लेकिन कभी-कभी इम्तिहान खुशी भी तो दे जाते हैं. बताऊं इस बारे में?”
“ओं”
वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.
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