कहो देबी, कथा कहो – 37
पिछले कड़ी- कहो देबी, कथा कहो – 36
बैंक की नौकरी के दौरान मैं जिस इलाके में जाता, खाली समय मिलने पर किसी साथी से दिल की बात कहता कि आसपास किसी से मुलाकात करा दें, किसी ऐसे आदमी से जो ज़िदगी में संघर्ष करके अपने पैरों पर खड़ा हुआ हो. उस बार गोरखपुर गया तो कृषि अधिकारी डॉ. फूल सिंह से भी यही कहा. वे बोले, “चलिए, चलते हैं बाकी रेंज के घने जंगल में टांगिया मजदूरों से मिलने.”
मैंने पूछा, “करीब कितनी दूर होगा वह जंगल?”
“यहां गोरखपुर शहर से करीब 70 किलोमीटर. शाम तक लौट आएंगे.”
मैं मन ही मन खुश हुआ और कहा, “चलिए तो चलते हैं.”
सुबह फूल सिंह की फटफटिया यानी मोटरसाइकिल पर उनके पीछे बैठा और उनकी बातें सुनते-सुनते दूर परतावल और पनियरा के बीच बाकी रेंज के सागौन के घने जंगल की ओर चल पड़े. रास्ता ग्रामीण इलाकों से होकर गुजरता था, इसलिए फसलों और किसानों की बातें करते आगे बढ़ते रहे. मुझे आश्चर्य हो रहा था कि बंबई (अब मुंबई) में शिक्षा-दीक्षा पाने के बावजूद फूल सिंह की खुद की जड़ें ज़मीन में गहरी जुड़ी हुई थी. वे वहां के कई गांवों और ग्रामवासियों को जानते थे.
खैर, फटफटिया पनियरा गांव की लंबी राह पर आगे बढ़ी तो फूल सिंह ने चलते-चलते सड़क किनारे उगे पेड़-पौधों से परिचय कराया. मैंने परतावल से आगे सड़क किनारे वहीं पहली बार बेंत की झाड़ियां देखीं. फूल सिंह ने बताया, यहां से बैंत असम तक जाता है. वहां बैंत का फर्नीचर बनता है. तभी एक सागौन के पेड़ तले मिट्टी के हाथी-घोड़ों पर तीर-कमान संभाले देवताओं की मिट्टी की मूर्तियां दिखाई दीं. उनके बारे में पूछा तो फूल सिंह बोले, “टांगिया मजदूरों ने अपने परिवार और वडेरों की रक्षा के लिए जंगल की सरहद पर ये देवता खड़े किए हुए हैं.”
यानी, हम जंगल की सरहद पर पहुंच चुके थे. लेकिन, वडेरा? वडेरा क्या है? पूछा तो उन्होंने बताया, “टांगिया जंगल के भीतर अपने रहने के लिए झोपड़ियों की आपस में जुड़ी कतार बना लेते हैं. उसे वे वडेरा कहते हैं.”
यूकिलिप्टस के पेड़ों की कतारों को पार कर एक पतली पगडंडी से सागौन के जंगल में काफी भीतर पहुंचने के बाद हमें एक वडेरा दिखाई दिया, एक लंबी झोपड़ी की तरह. वे मुझे पहाड़ की अपनी बाखलियों की तरह लगी. वह दौलतपुर बिचला वडेरा था. “बाकी रेंज में टांगिया मजदूरों के ऐसे छह वडेरा हैं. उनमें ग्यारह-बारह सौ परिवार रहते हैं,” उन्होंने बताया.
पता लगा, इमारती लकड़ी के लिए सागौन का यह जंगल अंग्रेजों ने सन् 1868 के आसपास लगवाया था. पेड़ बड़े हो जाने पर उन्हें एक-एक लंबी पट्टी में काटने और उनकी जगह सागौन के नए पेड़ लगाने के लिए सन् 1920 के आसपास गांवों-कस्बों से मजदूर भर्ती किए गए. वे टांगिया यानी वन-मजदूर कहलाए. यह बर्मी भाषा का शब्द है. जंगल की जिस पट्टी में पेड़ कटते, उस भूमि पर वे सागौन के नए पौधे लगा कर पांच साल तक रहते. उन पौधों की देखभाल करते. वहीं अनाज और साग-सब्जी उगा लेते. सुरक्षा के लिए साथ रहना जरूरी था, इसलिए उन्होंने वडेरा बना कर साथ रहना शुरू किया.
वडेरा के बाहर ही बत्तीस वर्षीय पुनवासी से भेंट हो गई. मैंने उनसे वहां की रिहायश के बारे में पूछा तो वे बोले, “हम तो वर्षों से इसी जंगल में रह रहे हैं. बाप-दादा इसी जंगल में गुजर गए. वे बताते थे, कभी सात कोस दूर गांव बरदेहवा, पोस्ट-डोमरा से आए थे. वहां बाढ़ आती थी और जमीन पानी में डूब जाती थी. उसमें खेती नहीं हो सकती थी. तो, वे यहां चले आए. वे कहते थे, तब दो-चार रूपए मजदूरी मिलती थी और पांच ठो लकड़ी के लट्ठे झोपड़ी बनाने के लिए मिलते थे. नलकूप था इसलिए थोड़ा फसल और शाक-भाजी भी उगा लेते थे. अब तो बैंक से कर्जा लेकर अपनी जरूरत के लायक खेती कर रहे हैं. पास में एक रिक्शा है जिसे पनियरा गांव तक चला कर थोड़ा मजदूरी भी कमा लेते हैं.”
वहां टांगिया मजदूर हमीद भी मिला. वह भी रिक्शा चला रहा था. दौलतपुर बिचला वडेरा में एक प्राथमिक पाठशाला भी थी जिसमें करीब 150 बच्चे पढ़ रहे थे. उन मजदूरों को आशा थी कि किसी दिन शायद स्कूल की इमारत भी बन जाएगी.
देर दोपहर बाद डाक्टर फूल सिंह के साथ गोरखपुर शहर की ओर लौटा. वहां बड़े पैमाने पर सागौन की इमारती लकड़ी के चट्टे लगे हुए थे. एक पुराना डाक बंगला भी था जिसमें अंग्रेजों के जमाने से हाथ से खींच कर चलाने का चौड़ा पंखा भी कमरे में टंगा हुआ था. आगे चल कर पिपराखादर गांव में 72 वर्ष के फेंकू निषाद मिल गए. वे कभी नाव चलाते थे और मछलियां भी पकड़ते थे. अब उनका भरा-पूरा 25 सदस्यों का परिवार था. घर में तीन लड़के, नौ पोते और एक पड़पोता रह रहा था. उन्होंने बैंक से कर्जा लेकर ट्रैक्टर खरीदा और खेती करने लगे. घर के पास दो पोखरियां थीं जिनमें नदी से पकड़ कर रोहू मछलियां पालते थे. बाद में चाइना मछली यानी सिल्वर कार्प भी पालने लगे जिससे अच्छी आमदनी मिलने लगी. फेंकू निषाद ने बताया कि वे मछलियों के खाने के लिए पोखरियों में गोबर, चना, बेसन, गेहूं का चोकर और भात वगैरह डालते रहते हैं. नदी से सिवार लाकर भी डालते हैं.
मैंने पूछा, “मछलियों के भोजन के बारे में आपको कैसे पता लगा?”
वे बोले, “बीस बरस से त खुद ही सीखल रहत.”
फेंकू निषाद की मेहनत और लगन को देख कर ताज्जुब होता था. जब मैं उनसे मिला तो उनके पास दो ट्रैक्टर, एक ट्राली, बैलगाड़ी, आटा चक्की, एक्सपैलर, धान कुटाई यंत्र, ट्यूब वेल, गोबर गैस संयंत्र, मछलीपालन के दो तालाब, कलमी आम के दो बगीचे, 5 गाएं, 5 भैंसे, 2 बैल और एक मोटर साइकिल थी. मेहनती आदमी क्या नहीं कर सकता!
देर शाम हम गोरखपुर लौट आए. अगले दिन मैंने जब डा. फूल सिंह से फिर कहीं चलने का अनुरोध किया तो उन्होंने कहा, “चलिए आज कुसुम्ही फार्म तक हो आते हैं.” वह फार्म गोरखपुर से करीब 14 किलोमीटर दूर कुसुम्ही के शाल के घने जंगल के बीच था. हम कुंडाघाट से होकर कुसुम्ही फार्म पहुंचे. वहां रेशम के कीड़े पालने का काम चल रहा था. लकड़ियों की ट्रे में कतरी हुई शहतूत की पत्तियों पर सैकड़ों लार्वा बिलबिला रहे थे. उनमें जैसे ‘कौन सबसे अधिक खाता है’ की होड़ मची हुई थी.
वहीं मुझे सिमरहिया गांव के 42 वर्ष के झिंकू अवध बिहारी मिले. धूप में तपी आबनूसी देह. मैंने झिंकू से पूछा, “रेशम के कीड़े पालने का यह काम कैसे सीखा?”
झिंकू ने कहा, “जंगलात विभाग की चौकी पर मजूरी करते थे. वहां लकड़ियों की पेटियां बनते हुए देखीं. वो करे बाद अंडा आइल. वू के बाद अंडा फूड़वल. वो करा बाद दूसरा मोल्ड देखल गईले. हमकूं उल्टा-पल्टी, रख-रखाव समझाईल.” झिंकू ने जब इतना सीख लिया तो कुसुम्ही फार्म से रेशम के कीड़े पालने की दो ट्रे अपने घर ले गया. शहतूत की पत्तियां फार्म से मुफ्त मिल गईं.
“कीरवा क पत्रा में फैलाईल, रोज छांटल जाला. वो करा बाद कीरा जब पक गईल त वू झलझल झलकई.” उसने बताया कि गोली यानी कोया बनने के लिए उसने ऊख का पत्ता, अरहर और सरसों की डंड़ियों पर कीड़े रख दिए जबकि फार्म में चंद्राकी पर कोये बनते थे. कीड़े मुख से धागा निकाल कर अपने चारों ओर लपेटने लगे. झिंकू ने तीन-चार दिन बाद गोली पकड़ कर, बजा कर देखी तो वह बजने लगी. उसने कोये निकाल कर उन्हें कुसुम्ही फार्म में बेचा और करीब ढाई-सौ रूपए कमा लिए. उसने कहा, “शुरू में गांव के लोग कहने लगे कि यह चमड़ा का काम कर रहा है, कीड़ा पाल रहा है इसलिए इसके हाथ का पानी भी नहीं पीएंगे. लेकिन, जब उसकी कमाई देखी तो धीरे-धीरे गांव के सभी लोग रेशम के कीड़े पालने लगे.” मैं सोनबरसा गांव से होकर उसके सिमरहिया गांव में भी गया. वहां बच्चे और बुजुर्ग महिलाएं घरों के आगे खटिया पर चटाई में कतरी हुई शहतूत की पत्तियों पर बिलबिलाते लार्वा अपने हाथों से आराम से उलट-पुलट रहीं थीं.
काफी समय बाद एक बार मैं बैंक की ओर से सालाना प्रदर्शनी में ग्वालियर गया था. मेरा बहुत मन था कि भिंड-मुरैना के बीहड़ों में रहे किसी बागी से मिलूं. मैंने जिले के कोआर्डिनेटर दीक्षित जी से मदद करने को कहा और खुशी हुई कि उन्होंने इस मुलाकात को मुमकिन बना दिया. एक दिन देर दोपहर बाद उन्होंने कहा कि बात हो गई है, आप उनसे मिल सकते हैं. मैं उनके साथ जिस घर पर पहुंचा, वह बागी सरू सिंह का घर था. लेकिन, सरू सिंह कौन?
मुझे याद था, सन् 1972 में भिंड-मुरैना के बीहड़ों के 500 दुर्दांत बागियों ने बड़ी संख्या में जयप्रकाश नारायण जी के सामने आत्मसमर्पण किया था. ‘धर्मयुग’ में मैंने बड़े मन से वह आत्मसमर्पण की कथा पढ़ी थी. आत्मसमर्पण करने वाले दो सबसे बड़े और नामी बागी थे- मोहर सिंह और माधो सिंह. मोहर सिंह लहीम-शहीम आदमी था और उसके लिए कहा जाता था कि भारी शरीर के बावजूद वह किसी चीते की जैसी फुर्ती से ऊंची दीवारें तक लांघ जाता था. आत्मसमर्पण के अवसर पर वह एक पेड़ के नीचे बैठा था जिसकी एक मोटी शाख सिर के ऊपर फैली हुई थी. किसी पत्रकार ने पूछा, “सुना है आप देखते ही देखते ऊंची दीवारें भी लांघ जाते हैं? ऐसे लहीम-शहीम शरीर के बावजूद आप दीवारें कैसे लांघ लेते हैं?”
पत्रकार और साथ के अन्य लोगों ने देखा कि पलक झपकते मोहर सिंह हवा में उछला और सिर ऊपर की मोटी शाख के उस पार कूद कर बोला, “इस तरह!”
हां तो बीहड़ों के जिस पूर्व बागी से मिलने मैं जा रहा था, वह सरू सिंह बागी मोहर सिंह का साथी था. मिलने से पहले ही दीक्षित जी ने मुझे हिदायत दे दी थी कि उन्हें ‘दाऊजी’ कह कर पुकारना है. मैंने फोटो खींचने के लिए भी पूछने को कहा था. वे बोले मैंने पूछ लिया है. फोटो खिंचवाने में उन्हें कोई दिक्कत नहीं है. फोटोग्राफर को बोल दिया है, वह आता ही होगा.
सरू सिंह जी के घर पहुंचे तो मैंने हाथ जोड़ कर कहा, “दाऊजी नमस्कार.” उन्होंने भी नमस्कार किया और बैठने को कहा. वे भी लहीम-शहीम शरीर के मालिक थे और साथ में मोटी घनी मूंछें और दाढ़ी. मैंने उनसे पूछा, “कैसा लगता है दाऊजी, बीहड़ों में बिताई उस पुरानी जिंदगी के बाद अब शहर में यह नई जिंदगी?”
वे बोले, “सपने की तरह लगता है, और क्या? तब कहां सोचा था कि कभी मेरा भी घर और परिवार होगा. ये बच्चे देख रहे हैं आप? ये मेरे बच्चे हैं जो पढ़ रहे हैं. तब कहां सोच सकता था कि मेरी शादी होगी, बच्चे होंगे और वे पढ़ेंगे.” उनके चेहरे पर बहुत सुकून झलक रहा था. फिर उनके साथ काफी बातें हुईं. मैंने पूछा, “आत्मसमर्पण के बाद जब आप लौट कर घर आए तो आपको कैसा लगा?”
“आत्मसमर्पण के बाद हमें पुर्नवास के लिए तीन-साढ़े तीन लाख रूपए की मदद दी गई. मदद लेने मैं ग्वालियर के किले में गया. लौट रहा था तो दो झपटमारों ने मेरा झोला झपट लिया. उसमें रूपए थे. जब तक मैं कुछ समझता, वे भाग गए. तब मैं पुलिस के पास गया, शिकायत की और पुलिस ने उनको खोज निकाला. यह मेरा उस जिंदगी के बाद का पहला अनुभव था. मुझे हंसी भी आ रही थी, सोच रहा था कि शायद उन्हें पता नहीं है, मैं कौन हूं. हर बागी के कुछ उसूल होते हैं, वे चोर-डकैत या झपटमार नहीं होते और टुच्चे काम नहीं करते.”
खुशी हुई यह जानकर कि सरू सिंह अब बैंक से कर्जा लेकर दतिया जिले में अपना डेरी फार्म चला रहे हैं और खेती भी कर रहे हैं.
अरे हां, एक बार मैं मध्यप्रदेश में दतिया भी तो गया था. वहां पीतल की शानदार चीजें बनाने वाले अनोखे कारीगरों से भेंट हुई थी. पुरानी पीढ़ी के खच्चूराम और नई पीढ़ी के राम मनोहर ढेहरा वहीं मिले थे. उनकी कारीगरी देख कर कोई भी चकित रह जाता. दिल्ली के व्यापारी भी चकित रहे होंगे, इसीलिए उनसे पीतल की वे नायाब चीजें खरीद कर, दिल्ली में कलई और पालिश चढ़ा कर ऊंचे दामों में बेचते होंगे. उन लोगों से पता लगा कि दिल्ली और कुछ बड़े शहरों के व्यापारी उनसे फी नग के हिसाब से काफी कम दाम पर चीजें खरीद ले जाते हैं.
मैं उनकी इस अनोखी कला को देख और सुन कर हैरान रह गया. उनकी इस कला के पीछे उनके पुरखों का हाथ था जो उन्हें विरासत में लोहे की एक पटरी दे गए. इस अनोखी कला का राज उसी पटरी में छिपा था. खच्चूराम ने बताया कि वे सागर जिले में जाकर कुछ जगहों से बारिश के बहते पानी से जमा हुई महीन मिट्टी की परत खरोंच कर वह चिकनी मिट्टी ले आते हैं. उसे आटे की तरह गूंध कर बर्तन के सांचे पर पोतते हैं फिर मधुमक्खियों के छत्ते का मोम लेकर पुरखों की दी हुई पटरी पर घिसते हैं. इस तरह मोम का खास डिजाइन बन जाता है. उस डिजाइन को बर्तन के बाहर मिट्टी के सांचे पर लगा देते हैं. उसके बाद उस खास मिट्टी की एक और परत बर्तन पर चढ़ाते हैं. उन दोनों परतों का एक मुख बनाते हैं. उस मुख में भट्टी से उबले हुए पीतल का घोल डालते हैं. तपते घोल से मोम उड़ जाता है और उसकी जगह पीतल भर जाता है. इस तरह पीतल का डिजाइन बन जाता है. उन्होंने मुझे पीतल की चीजें बनाने की वह भट्टी और वह पट्टी भी दिखाई.
उनके बनाए हुए बर्तनों और सजावटी चीजों को देख कर लगता ही नहीं था कि वे सागर की मिट्टी में काढ़ी गई हैं. खच्चू राम ने कहा कि उनके पुरखे इस कला से चांदी के मोटे झांवर बनाते थे. दतिया के राजा साहब रानियों के लिए भी इस तरह के जेवर इन कारीगरों से बनवाया करते थे. अब न राजा रहे, न चांदी के वे झांवर. इसलिए झांवरों की जगह अब जो चीज हम बनाते हैं उस पर कलई और तली चढ़ा कर व्यापारी 5 या 7-स्टार होटलों में कीमती और आकर्षक ऐश ट्रे बनवा लेते हैं. हमारी यह पुश्तैनी कला धीरे-धीरे खत्म हो रही है.
यह सुन कर युवा राम मनोहर ढेहरा ने कहा कि मैं अपने पुरखों की इस कला को जिंदा रखना चाहता हूं. इसके लिए अपने कुछ और साथियों को भी तैयार कर रहा हूं. अच्छा लगा यह सुनकर कि नई पीढ़ी का कोई कलाकार अपने पुरखों की इस कला को जीवित रखना चाहता है.
दतिया तो एक बार पहले भी आया था. वह एक अजीब संयोग था. मैं अब तक नहीं समझ पाया कि ऐसे अजीब संयोग भी कैसे हो जाते हैं. फैंटेसी जैसे संयोग. उस बार मैं झांसी में एक प्रदर्शनी में भाग लेने आया था. प्रदर्शनी में मैंने अपने बैंक का मंडप लगाना था. प्रदर्शनी का उद्घाटन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को करना था. झांसी में हम झांसी की रानी के किले के इस पार एक होटल में रह रहे थे. हम यानी मैं और उत्तर प्रदेश के स्वास्थ्य विभाग के कुछ अधिकारी तथा विज्ञापन एजेंसी के लोग. किले के सामने मैदान में प्रदर्शनी की तैयारियां चल रही थीं. मैंने अपने बैंक के मंडप के लिए एक मंझोले कद का पेड़ चुना और विज्ञापन एजेंसी से उसके चारों ओर सुंदर मंडप बनाने को कहा. प्रदर्शनी मैदान में वहीं मेरा परिचय स्वास्थ्य विभाग के राज्य शिक्षा अधिकारी डा. मिश्रा और अन्य लोगों से हुआ. रात तक मंडप बनाने का काम चलता रहा. दस बजे रात के आसपास एक लड़के ने आकर कहा, “आपको डा. मिश्रा होटल के कमरे में बुला रहे हैं.”
मैं कमरे में गया. उनके साथ दो-एक लोग और बैठे थे. यहां-वहां की चर्चा होने लगी जो शिव और शक्ति पर आकर केंद्रित हो गई. मैंने उनसे कहा, “मैं पहले शिव के बारे में ही उत्सुक रहता था. लेकिन, धीरे-धीरे मैं शक्ति के बारे में जानने के लिए अधिक जिज्ञासु होता चला गया. ऐसा क्यों हुआ होगा?”
वे एक रौ में बोलते चले जा रहे थे. उन्होंने कहा, जब वे बनारस में मेडिकल की पढ़ाई कर रहे थे तो कुछ समय के लिए घर से गायब हो गए थे. उस दौरान वे मिर्जापुर में विंध्यवासिनी के मंदिर में गए और न जाने कहां-कहां जंगलों में भटकते रहे.
उनके मन में भी बहुत जिज्ञासाएं थीं और अपने उस गुप्तवास में उन्हें जिज्ञासाओं के कई उत्तर भी मिले. लौट कर उन्होंने पढ़ाई पूरी की और नौकरी में लग गए. फिर वे जैसे ट्रांस में, आदेशात्मक स्वर में बोलने लगे, “क्या तुम कभी पीताम्बरा शक्तिपीठ गए हो?”
मैंने कहा, “नहीं.”
“तो कल सुबह तुम्हें पीताम्बरा शक्तिपीठ जाना होगा. यहां से धोती साथ रख लेना. वहां कमर से नीचे केवल धोती पहननी होगी. दतिया यहां से दूर नहीं है. तुम वहां जाओगे तो पहले तुम्हें कुछ दूकानें मिलेंगी. वहां से पूजा सामग्री और प्रसाद खरीद लेना. गेट पर जाकर धोती बदलोगे और भीतर जाओगे. मंदिर के कपाट बंद होंगे. लेकिन फिक्र मत करना, कपाट खुल जाएंगे. वहां तुम्हें योगिनी मिलेंगी. योगिनियों को थोड़ा-थोड़ा प्रसाद दे देना. आसपास ही भैरव भी होंगे, उन्हें भी प्रसाद दे देना. पीताम्बरा शक्तिपीठ के दर्शन करके तुम्हें जिज्ञासाओं के उत्तर मिलेंगे और तुम्हारा मन शांत होगा.” तब आधी रात बीत चुकी थी.
मैंने कहा, “मैं पहले वहां कभी नहीं गया हूं इसलिए आपको भी मेरे साथ चलना होगा. वहां कैसे जाऊंगा? गाड़ी, बस कहां मिलेगी?”
“मैं पहले कई बार वहां गया हूं कल के बारे में सोचूंगा. वहां जाने का इंतजाम हो जाएगा.”
सुबह हुई. रात की पूरी बात मेरे मन को उद्वेलित कर रही थी. मैं उनके पास गया और उनसे भी साथ चलने का अनुरोध किया. वे कमरे में आए और अपनी एक धोती मुझे दी. एक खुद रखी. फिर हम बाहर आए. तभी एक कार वहां आकर रूकी. ड्राइवर ने पूछा, “दतिया शक्तिपीठ किसको चलना है?”
हमने कहा, “हम चल रहे हैं.” वह कार शायद आयुर्वेदिक कंपनी वैद्यनाथ की थी. इस तरह कार की व्यवस्था हो गई थी. हम झांसी से दतिया को निकले. वहां पहुंच कर पीताम्बरा शक्तिपीठ से पहले एक दूकान से पूजा सामग्री और प्रसाद खरीदा. गेट पर जाकर जींस की जगह धोती पहनी और भीतर गए. मंदिर के कपाट बंद थे. तभी सामने एक युवती योगिनी दिखाई दी. उसने पूछा, “कहां से आए हैं?”
हमने कहा, “दिल्ली से.”
उसने कहा, “रूकिए, अभी पुजारी मंदिर के कपाट खोल देंगे.” तभी पुजारी ने आकर कपाट खोले. हमारे हाथ से पूजा सामग्री और प्रसाद लिया. मां पीताम्बरा की पूजा की और फिर पुष्प और प्रसाद हमें लौटाया. आंगन में आए तो दो-तीन किशोरी योगिनियां आ गईं. उन्हें भी प्रसाद दिया.
मैंने डा. मिश्रा से कहा, “रात को आपने कहा था, भैरव भी आसपास ही होंगे?”
उन्होंने कहा, “अच्छा, क्या मैंने ऐसा कहा था? देखिए, यहां आसपास ही होने चाहिए.”
मैं समझ गया, भैरव का मतलब काले रंग के श्वान से था. कहीं से भौंकने की भी आवाज नहीं सुनाई दी. हम बाहर निकले. गाड़ी में बैठे. तभी एक ओर, कुछ दूरी पर भैरव को देखा. शक्तिपीठ में दो साथी भी मिल गए थे. वे भी गाड़ी में हमारे साथ थे. उनमें से एक साथी ने हम सभी से थोड़ा-थोड़ा प्रसाद लिया और भैरव को दे आए. सब कुछ उसी तरह हो रहा था जैसा रात को डा. मिश्रा ने ट्रांस में मुझसे कहा था. जब हम झांसी की ओर लौट रहे थे और सामने से एक गाड़ी में लोग दुर्गा की आदमकद मूर्ति ला रहे थे. प्रदर्शनी शुरू होने तक हम झांसी वापस आ गए.
मूर्तियां तो लकड़मंडी, सआदतगंज, लखनऊ के 50 वर्ष के महादेव प्रजापति भी बनाते थे. मूर्तियां बनाने की कला उन्हें विरासत में मिली थीं. बातचीत में उन्होंने बताया था, “माटी पहले अभी इतनी मंहगी नहीं थी. आसपास से ही माटी खोद लाते थे और मूर्तियां गढ़ते थे. अब तो शहर से मिट्टी खरीदनी पड़ती है. सांचा बनाने में भी अच्छा-खासा खर्चा हो जाता है. परिवार का हर सदस्य मूर्तियां बनाता है. बच्चे भी बचपन से ही मिट्टी से खेलते-खेलते मूर्तियां बनाना सीख जाते हैं.”
सुल्तानपुर गढ़ैया, सआदतगंज लखनऊ के सुंदर लाल की हुनरमंद अंगुलियां शानदार टोकरियां बुन देती थीं. वे बताते थे, “हम देहात से अरहर का झांखड़ खरीद लाते हैं. उसे पानी में भिगो कर, मुलायम हो जाने के बाद उससे टोकरियां बुन लेते हैं.”
“ये टोकरियां बिकती कहां है?” पूछा तो सुंदर लाल मुस्करा कर बोले, “यहां लखनऊ में तो बिकती ही हैं, गोरखपुर, नैनीताल, दिल्ली और बंबई तक भी मंगाई जाती हैं.”
शहर लखनऊ में एक बार चलते-चलाते रमजान भी मिल गए थे. नाम पूछा तो बोले, “मुहम्मद हबीब खां.”
“अरे, तो रमजान कौन है?”
“दोनों हमहीं हैं साहेब. मगर मोहम्मद हबीब खां को अब कौन पहचानता है? मां-बाप ने रखा था हमारा यह नाम. सीतापुर जिले में हमारा गांव था. सात-आठ बरस का था तो गांव से भाग आया था. गलती का अहसास हुआ तो फिर गांव लौट गया. जमीन के झगड़े में अब्बू का कत्ल हो गया था. कुछ समय बाद सिर से अम्मी का साया भी उठ गया. लिहाजा फिर भाग के आ गए लखनऊ. क्या-क्या नहीं किया तब? ईंटें ढोईं, चारपाईयां बुनी, अमरूद बेचे, साइकिल पंक्चर जोड़ने का ताम-झाम रख कर दूकान भी लगाई. कुछ रास नहीं आया तो किराए का रिक्शा चलाने लगा. अब यह रिक्शा तो मेरा अपना है. इस शहर में न जाने कब और कैसे लोग रमजान, रमजान कहने लगे. समझिए, लोगों की मोहब्बत ने ही मुझे रमजान बना दिया. दिन भर रिक्शा चलाता हूं. यही मेरी रोजी-रोटी है.”
“अच्छा तो ठीक ही कहा है देबी- तुलसी या संसार में भांति-भांति के लोग.”
“आप ठीक कह रहे हैं. लोग तो और भी बहुत मिले, लेकिन उनकी कहानी फिर कभी. लखनऊ में तो साढ़े सात साल बाद मेरा भी आबो-दाना पूरा हो गया था और एक दिन उस प्यारे शहर को मुझे भी अलविदा कहना पड़ा. सुनाऊं आगे की कथा?”
“हां, क्यों नहीं, ओं”
वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.
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