कहो देबी, कथा कहो – 35
पिछले कड़ी- कहो देबी, कथा कहो – 34
उन्हीं दिनों एक लंबी यात्रा पिथौरागढ़ तक की भी की. जिन वरिष्ठ क्षेत्रीय प्रबंधक शर्मा जी ने मुझे बैंक के माहौल में खुद को खपाने की आत्मीय राय दी थी, उन्होंने एक दिन कहा कि आपको मेरे साथ पिथौरागढ़ चलना है. वहां बैंक की नई शाखा खुल रही है. आप पब्लिसिटी का सामान लेकर तैयार रहें. कल सुबह वहां के लिए रवाना हो जाएंगे. वे बहुत अनुभवी बैंकर थे और सहृदय इंसान भी. रास्ते भर उनसे बातें होती रहीं. उनके साथ पहली बार टनकपुर से लोहाघाट, चंपावत होते हुए पिथौरागढ़ की लंबी यात्रा पर गया. अगले दिन सुबह वहां शाखा का उद्घाटन किया और फिर दिन में वापस लौटे. उन्होंने कहा, काफी देर हो गई है इसलिए हमें आज रात बरेली ही रूकना होगा. चलते-चलते रात घिर आई. तब राजमार्ग के दोनों ओर घने विशाल पेड़ होते थे जिनके बीच से होकर हम चुपचाप आगे बढ़ रहे थे. चांदनी रात थी. रात के सन्नाटे में लंबे राजमार्ग के दोनों ओर चांदनी छिटक रही थी. शर्मा जी ने कहा, “मिस्टर मेवाड़ी, आप डरना मत. मैं आपको एक घटना सुना रहा हूं.”
मैं चौंका, आखिर ऐसी क्या घटना है?
उन्होंने कहना शुरू किया, “एक बार देर रात में इसी राजमार्ग से मैं बरेली को लौट रहा था. ऐसी ही चांदनी छिटकी हुई थी. दूर-दूर तक कोई गाड़ी भी दिखाई नहीं दे रही थी. ड्राइवर चुपचाप गाड़ी चला रहा था कि तभी मैंने दाहिनी ओर पेड़ों के पार खेतों में कुछ लोगों को खड़े देखा. वे पुराने राजपूती लिबास में घोड़े पर सवार थे. सबसे आगे एक सुंदर, गठीला, नौजवान था. वे धीरे-धीरे राजमार्ग की ओर आए. मैंने ड्राइवर से कहा वह गाड़ी चलाता रहे और इधर-उधर न देखे. राजमार्ग के किनारे पर आकर, घोड़े पर सवार वह सजीला नौजवान रूक गया. हम चुपचाप आगे चलते रहे. कोई और चारा भी न था. शरीर में झुरझुरी तो हुई थी लेकिन सही सलामत निकल आए. मैं सोचता रहा, और आज भी सोचता हूं कि वह सब क्या था? वे नौजवान आजकल की पोशाक में नहीं थे और फिर रात के उस सन्नाटे में वे वहां क्या कर रहे थे?”
मैं भी यह किस्सा सुनते हुए शरीर में अजीब-सी सिहरन महसूस कर रहा था. खैर, किसी तरह वह लंबी यात्रा पूरी हुई और हम बरेली के एक होटल में पहुंचे. काफी थक गए थे. शर्मा जी ने नहाया-धोया और कहा, “बगल के कमरे में लखीमपुर-खीरी से बैंक के दो लोग आए हैं. तब तक आप भी तैयार हो जाएं. फिर साथ ही खाना खाएंगे.”
मैं बहुत थका था और थकान मिटाने के लिए थोड़ी-सी ड्रिंक लेना चाहता था. सोचा बाहर किसी बार्बेक्यू पर मांसाहार कर लूंगा. इसलिए नहा कर उनके आने का इंतजार करने लगा ताकि उन्हें बता सकूं कि खाना खाने बाहर जा रहा हूं. आधे घंटे बाद वे आए तो मैंने सकुचाते हुए उनसे यह बात कही. वे बोले, “बिल्कुल नहीं, आप बाहर अनजान जगह में खुला भोजन नहीं करेंगे. आपको जो भी खाना है, यहीं कमरे में मंगा लेते हैं.” वे उन दिनों शाकाहारी सूफी हो चुके थे. इसलिए मेरे लिए होटल के बेयरे से मांसाहारी भोजन और थोड़ी-सी ड्रिंक मंगाई और उनके सामने बैठ कर खाना खाया. उस दिन फिर मुझे वे अभिभावक की तरह लगे. अगली सुबह हम दिल्ली को लौट आए.
‘इन्ना की आवाज’ में सुल्तान के लगभग सारे डायलाग याद कर चुका था और वे मन की घाटियों में गूंजते रहते थे. गोंडा-बस्ती की ओर कूच करने का आदेश मिला तो मन के भीतर बैठा नाटक का सुलतान भी साथ चल पड़ा. सोचा, शायद सप्ताह भर बाद लौटूं तो उस नाटक में भूमिका निभाने का अब भी मौका मिल जाए. हमें जीप से कूच करने का आदेश मिला. कड़क चीफ को अगले दिन कार से आना था. जीप ड्राइवर हालिया बैंक मर्जर में दूसरे बैंक से आया था. उसने जीप धो-पोंछ कर साफ की और फिर कुछ टटोलने लगा. पूछा तो बोला, “यहां एक ट्यूब रखता था, न जाने कहां गई.”
“अब ट्यूब की क्या जरूरत पड़ गई?” हमने पूछा तो देखा वह टायर पंक्चर लगाने की दूकान पर जा रहा है. देर पर देर हो रही थी. खैर वह थोड़ी देर बाद लौटा तो उसके हाथ में स्कूटर की एक हवाभरी ट्यूब थी. उसने उसे ड्राइवर की सीट पर रखा और उस पर बैठ गया. जीप स्टार्ट करके उसने कहा, “मुझे जरा तकलीफ है. इसके बिना उतनी दूर तक बैठ कर गाड़ी नहीं चला सकता.” फिर उसने वह विक्टोरिया-203 गोंडा की ओर दौड़ा दी. जीप में हम चार साथी थे- मैं, राजू मिश्रा, राजीव चानना और खंडूजा.
उस लंबी यात्रा में दूसरी गाड़ियों से बचते-बचाते हम आगे बढ़ते रहे. कई बार शक होता कि जीप में कुछ खराबी है या ड्राइवर साब नीम-हकीम हैं? आखिर हमने उससे पूछा, “पिछले बैंक में गाड़ी कितने साल चलाई?”
“कभी-कभी चला लेता था. बाकी टैम तो मैं खानसामे का काम करता था,” उसने कहा तो हम आशंका से सिहर उठे.
“क्या रेगुलर नहीं चलाते थे?”
“बड़े साब को मेरा बनाया हुआ मुर्गा बहुत पसंद था. बाकी बड़े अफसर भी मेरे बनाए खाने की तारीफ करते थे. इसलिए ज्यादातर तो खाना ही बनाया करता था. कभी आप लोगों को भी खिलाऊंगा मुर्गा बना कर. बहुत अच्छा बनाता हूं,” कहते हुए वह गाड़ी चलाता रहा.
हमारे एक साथी ने कहा, “गोंडा तक सही-सलामत पहुंचा तो दोगे ना?”
“क्यों नहीं? गाड़ी चलाना तो जानता ही हूं. इधर काफी दिन बाद मौका मिला है. आप लोग फिकर न करें, ठीक चला लूंगा,” हमारा डर भांप कर उसने कहा. बाकी समय वह लज़ीज़ खाना बनाने की अपनी खासियतों के बारे में बताता रहा.
गोंडा शहर में पहुंचने से 15-20 किलोमीटर पहले ही अचानक जीप हिचकोले खाने लगी. उसे किसी तरह राजमार्ग के बगल में दिख रही बस्ती की ओर मोड़ा ताकि वहां कोई मैकेनिक हो तो गाड़ी की अच्छी तरह जांच करा लें. घंटा-डेढ़ घंटा खेतों में बैठे-बैठे हो गया लेकिन गाड़ी की गड़बड़ी का कुछ पता नहीं लगा. फिर तय किया कि बस से गोंडा शहर जाकर मैकेनिक लाया जाए. यही किया, एक साथी मैकेनिक लेने चला गया. शाम होने को थी. खेतों में कुछ मोर आकर दाना चुगने लगे. बहुत अच्छा दृश्य था लेकिन भूख से पेट में मरोड़ उठ रही थी. सुबह से कुछ खाया नहीं था. तभी देखा किसी घर से एक लड़का और बिटिया निकल कर आए. उनके हाथ में थाली में खूब सारा गर्मा-गर्म हलवा और दूध की बाल्टी में छांछ भरी हुई थी. उन घरों के लोग शायद हमें गौर से देख रहे थे और हमारी मजबूरी भी समझ रहे थे. हमने बहुत आभार व्यक्त किया और छांछ के साथ हलवे का आनंद लिया. हमारा एक साथी भूखा ही था जो मैकेनिक लेने गया था. काफी देर हो गई तो हमें फिक्र होने लगी.
तभी देखा मैकेनिक को लेकर साथी चला आ रहा है. उसने जीप की अच्छी तरह जांच की, तार-वार जोड़े और स्टार्ट करके दिखा दी. कहा, गोंडा जाने तक कोई दिक्कत नहीं होगी. वहां हमारी वर्कशाप में दिखा लेना. तो, हम अपनी विक्टोरिया-203 को लेकर गोंडा की ओर रवाना हुए. शहर में पहुंचते-पहुंचते ड्राइवर साहब ने एक मोटर साइकिल से गाड़ी टकरा दी. मोटर साइकिल, सवार सहित गिर गई. विवाद शुरू हो गया. हमने उतर कर उन भाई साहब से माफी मांगी और कहा कि अगर मोटर साइकिल और उन्हें कुछ नुकसान हुआ है तो उसे ठीक करा देते हैं. किसी तरह बचते-बचाते हम सिंचाई विभाग के गेस्ट हाउस में पहुंच गए. वहां पता लगा कि उसे कभी मंत्री मुलायम सिंह ने बनवाया था और फिर मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह ने उसे अधिक आरामदेह बना दिया. रात वहीं बितानी थी और सुबह कड़क चीफ साहब के साथ शाखा उद्घाटन की मुहिम पर निकलना था. थकान के बावजूद रात भर बातें करते रहे और रात आंखों में काट दी. अगले दो दिन सुबह-सुबह निकले और चार ग्रामीण शाखाओं का उद्घाटन करके देर शाम गोंडा लौटे. बाद में लखनऊ लौटा तो ‘इन्ना की आवाज’ नाटक का मंचन हो चुका था. सुलतान की भूमिका खुद राजेश भदौरिया ने निभा ली थी.
यह तो गोंडा और उसके आसपास के इलाकों की बात है लेकिन एक बार अंचल कार्यालय में बड़े साहब ने गोंडा से करीब 75-80 किलोमीटर दूर ब्रह्मणिया गांव तक कूच करने के आदेश दिए. मैं अटैची में कपड़े भरकर अलसुबह बस पकड़ कर गोंडा की ओर निकला. बाराबंकी, बहराइच पार करते हुए घाघरा नदी के तट पर पहुंचा. वहां चाय-पानी के लिए बस रूकी. दूकानों में पहली बार वहीं मैंने बिल्कुल हरा रंगा हुआ मटर और चना देखा. लंबे बैंगनों को पकौड़ों की तरह तल कर बैंगनी बनाई गई थी. पेट कमजोर होने के कारण खाया तो कुछ नहीं, हां एक प्याली चाय जरूर पी ली. घाघरा पार कर हम आगे बढ़े. वहां रात देवीपाटन ग्रामीण बैंक के प्रबंधक साथी आर. के. सिंह के पास रूका. रात वहीं बिताई जहां इतने मच्छरों से पाला पड़ा कि हवा में हाथ हिला कर मुट्ठी में दर्जन भर बड़े-बड़े मच्छर पकड़ सकता था. मुझे मच्छरदानी में सुरक्षा मिली थी लेकिन कोई ओना-कोना उठते ही सुरक्षा घेरा तोड़ कर मच्छर हमला बोलते रहे. सुबह उन्हीं ग्रामीण बैंक के साथियों के साथ ब्रह्मणिया गांव की ओर कूच किया.
वह गोंडा जिले का एक दूरस्थ गांव था. जहां मुझे प्रदर्शनी लगानी थी. देखने के बाद पता लगा कि वहां केवल बैनर और पोस्टर लगाए जा सकते हैं. मुझे एक-दो दिन के भीतर वहां प्रदर्शनी का इंतजाम करना था जिसके बाद अनुशासनप्रिय महाप्रबंधक महोदय को प्रदर्शनी का उद्घाटन करना था. दिन में देवीपाटन ग्रामीण बैंक के जनरल मैनेजर ए.के. श्रीवास्तव जी भी वहां पहुंच गए. सब कुछ देखने-समझने के बाद मैं श्रीवास्तव जी के साथ गोंडा लौटा. रात का नौ-दस बज चुका था. उन्होंने सेवक को भेज कर बाजार से खाना मंगाया. दिन भर के थके-मांदे थे, नींद आ रही थी. विश्राम करने ही जा रहे थे कि श्रीवास्तव जी का फोन घनघनाया. पता लगा अंचल कार्यालय, लखनऊ से कड़क चीफ साहब का फोन है. उनका कहना था कि मेवाड़ी को अभी किसी ट्रेन या बस से लखनऊ वापस लौटने के लिए कहो ताकि वह कानपुर जाकर प्रदर्शनी लगाए. मैंने श्रीवास्तव जी से कहा कि इस समय आधी रात में कैसे जा सकता हूं? वे बोले, “मैंने बात कर ली है और उन्हें बता दिया है कि अभी कोई ट्रेन या बस यहां से नहीं मिल सकती. वे सुबह आ जाएंगे. फिलहाल आप आराम करें.” मैंने उन्हें धन्यवाद दिया और सोने की कोशिश की.
सुबह की पहली बस से लखनऊ के लिए रवाना हुआ. देर दोपहर बाद लखनऊ अंचल कार्यालय में पहुंचा. अभी बैठा भी नहीं था कि महाप्रबंधक की नजर मुझ पर पड़ी. चपरासी भेज कर मुझे भीतर बुलाया और बोले, “आपको मैंने गोंडा भेजा था, प्रदर्शनी का इंतजाम करने. हाउ कम उ आर हियर? (आप यहां कैसे?)”
मैंने कहा, “रात को चीफ साहब का फोन आया था. उन्होंने फौरन लखनऊ लौटने के लिए कहा.”
अब उन्होंने चपरासी से चीफ साहब को बुलाया और उनके आते ही बोले, “मेरे आदेश का आपके लिए कोई मतलब नहीं है?”
चीफ ने जवाब दिया, “आपका आदेश मेरे लिए सबसे बड़ा आदेश है सर.”
“तो फिर मेवाड़ी को गोंडा से वापस क्यों बुला लिया? मैंने इन्हें वहां भेजा था.”
“सर, वो जी कानपुर से फोन आया था प्रदर्शनी लगाने के लिए.”
“कानपुर में कई साल से प्रदर्शनी लग रही है. उन्हें पता है प्रदर्शनी कैसे लगती है. लेकिन, गोंडा के ब्रह्मणिया गांव में कोई नहीं जानता कि प्रदर्शनी कैसे लगाई जाती है. इसलिए मैंने इन्हें वहां भेजा और आपने बिना मुझसे पूछे इन्हें वापस बुला लिया.”
“सारी सर.”
महाप्रबंधक ने मुझसे कहा कि मैं फौरन गोंडा को लौट जाऊं. मैंने अटैची पकड़ी और उल्टे पांव गोंडा को लौट गया. महानगर में परिवार से मिलने का भी समय नहीं मिल पाया. गोंडा जाकर उस गांव में प्रदर्शनी लगाई जिसका उद्घाटन अगले दिन महाप्रबंधक ने किया. उस दूरस्थ गांव में वह अपनी तरह का पहला आयोजन था.
यादों के गलियारे में मुझे एक और ऋण मेले की तस्वीरें अक्सर दिखाई देती हैं. उसकी शुरूआत कुछ इस तरह हुई.
एक दिन नए महाप्रबंधक ने बुला कर कहा, “मारवाड़ी तुमने एक नक्शा बनाना है.”
मैंने पूछा, “नक्शा कैसा सर?”
“काशीपुर में नया क्षेत्रीय कार्यालय खोलना है और एक विशाल ऋण मेला लगाना है जिसमें केन्द्रीय वित्तमंत्री श्री नारायण दत्त तिवारी मुख्य अतिथि होंगे. बीस-पच्चीस हजार लोग आएंगे. वे कहां, कैसे बैठेंगे, ऋण लेने वाले कहां बैठेंगे, पुलिस कहां खड़ी होगी और लोन में जो चीजें दी जाएंगी, वे कहां सजाई जाएंगीं, मंच कैसा होगा, उस पर कौन कहां बैठेगा- यह सब नक्शे में बताना है.”
“तो काशीपुर में मुझे जगह देखने कब जाना है?” मैंने पूछा.
“जगह देखने किसलिए?”
“सर तभी तो बता पाऊंगा कि उस जगह बैठने की व्यवस्था कैसी होगी? बिना देखे कैसे पता लगेगा कि वह जगह कैसी है?”
“देखने की कोई जरूरत नहीं है. यों समझ लो कि वहां एक बड़ा-सा चौरस मैदान है. बाकी सोच लो और फटाफट नक्शा बना कर दे दो. मुझे शाम की फ्लाइट से दिल्ली हेड आफिस में जाकर चेयरमैन को नक्शा दिखाना है. चलो, पेंसिल, पटरी लेकर काम शुरू कर दो.”
मैं हैरान होकर अपनी सीट पर लौटा. दिमाग काम नहीं कर रहा था. आखिर किसी जगह को देखे बिना नक्शा कैसे बनाया जा सकता है? कुहनियों पर सिर टिका कर, आंखें बंद करके कुछ देर सोचता रहा. सोचता रहा कि यह असंभव काम कैसे संभव होगा.
मेरे ही भीतर से आवाज आई, ‘संभव होगा. जब उन्होंने तुमसे यह असंभव काम करने को कहा है तो उन्हें पूरा भरोसा होगा कि यह काम तुम कर सकते हो. किसी और से तो नहीं कहा ना? तो शुरू हो जाओ.’
मैंने पेंसिल, पटरी उठाई और सफेद पेज पर पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण निशान लगा कर 20-25 हजार लोगों के बैठने लायक मंडप और मंच की व्यवस्था का नक्शा तैयार किया. घंटे भर बाद ही भीतर से बुलावा आ गया. भीतर जाते ही उन्होंने पूछा, “हां, क्या हुआ?”
“बस बन ही गया है सर. अभी देता हूं,” मैंने कहा.
“उस पर अपनी खु़शख़ती में अंचल कार्यालय और बैंक का नाम भी लिख देना,” बाहर निकलते-निकलते मुझे सुनाई दिया.
खैर नक्शा पूरा हुआ. उन्होंने देखा, समझा, फोटो कापियां बनवाई और शाम की फ्लाइट से दिल्ली रवाना हो गए. अगले दिन लौटे तो मुझे बुला कर कहा, “मारवाड़ी, तुम्हारा नक्शा पास हो गया. अब काशीपुर के लिए कमर कस लो. वहां इस नक्शे के हिसाब से अरेंजमेंट कराने हैं. एक मैनेजर आर.बी.एल. गोस्वामी और हिसाब-किताब रखने के लिए एक एकाउंटेंट शर्मा, ये दो लोग तुम्हारे साथ होंगे. तुम अब काशीपुर को कूच कर सकते हो. समय कम है.”
मैं अगली सुबह काशीपुर को कूच कर गया. तब पंतनगर के पास लालकुंआ जंक्शन से छोटी लाइन की रेलगाड़ी से जाना पड़ता था. गया उससे. रास्ते भर तराई के हरे-भरे फार्म और जंगल दिखाई देते रहे. सोचता रहा, “काश, सारी दुनिया इतनी ही हरी-भरी रहती.” खैर, काशीपुर आया और मैं होटल पहुंचा जहां दोनों साथी मिल गए. वे बरेली से आए थे. परिचय हुआ और फिर मैं उस मैदान को देखने निकला जिसका लखनऊ में कल्पना करके मैंने नक्शा बनाया था. खुशी हुई कि आढ़े-तिरछे खेत नहीं थे. वहां के बैंक अधिकारियों ने एक जगह चुनी थी, वह मेरे नक्शे में फिट बैठती थी. उसी बीच अंचल कार्यालय लखनऊ से सुरक्षा अधिकारी कैप्टन शर्मा भी पहुंच गए. स्थानीय टीम ने टेंट हाउस को फोटो कापी देकर काम शुरू कराया गया. अब हमारे पास केवल दो दिन थे, 29 और 30 मार्च 1988, 31 मार्च को तो मेला ही लगना था. उन्हीं दो दिनों में उस विशाल ऋण मेले के इंतजाम पूरे करने थे. 29 मार्च को दिन भर काम करने के बाद हम तीनों थके-मांदे साथी होटल में पहुंच कर आराम करने की सोच ही रहे थे कि एक आदमी ने आकर बताया, डाक बंगले में हेड आफिस से महाप्रबंधक आए हैं. उन्होंने आपको बुलाया है.
मैं डाक बंगल में पहुंचा तो देखा वहां हमारे महाप्रबंधक के अलावा दूसरे वरिष्ठ महाप्रबंधक आई.बी. बंसल भी आए हुए हैं. मेरे महाप्रबंधक बोले, “मारवाड़ी, कागज-कलम लो और लिखना शुरू कर दो. कलम से खुशख़ती में लिखना है क्योंकि टाइप कराने का समय नहीं है.”
“लिखना क्या है सर?” मैंने पूछा तो वे बोले, “चेयरमैन साहब का भाषण लिखना है. उसमें इस इलाके में बैंक ने जो काम किया है, उसका भी हवाला देना है. चलो शुरू हो जाओ.”
मैं सामने की मेज पर बैठा, कागज के नीचे कार्बन लगा कर लिखना शुरू किया. उस इलाके में किए गए काम की जानकारी साथियों ने मुझे दे दी. रात का दस बज चुका था जब मैंने भाषण पूरा किया. उसे दोनों महाप्रबंधकों ने देखा और कहा, “ठीक है.”
रात ग्यारह बजे बाद होटल पहुंचे. खाने के लिए पूछा तो पता लगा होटल में तो खाना इस समय नहीं मिलेगा. आप कहें तो रेलवे स्टेशन के पास किसी ढाबे से पता कर सकते हैं. दिन भर खाया नहीं था इसलिए कहा कि जहां भी मिले, थोड़ा खाना मंगा दें. जो कुछ मिला खा लिया. अगले दिन भी सारा समय व्यस्त रहे. थके-मांदे देर शाम होटल में पहुंचे तो लखनऊ से फोन पर आदेश मिला स्थानीय संसद सदस्य से तुरंत मिलें. वे वित्त मंत्री के बहुत करीबी आदमी हैं. उनका सहयोग जरूरी है.
हम उनसे मिलने के लिए भागे. बमुश्किल समय मिला. मगर मिल कर असली मुश्किल सामने आ गई. वे बोले, “दूर-दूर से लोग आएंगे. सब मंत्री जी को चाहते हैं. आप लोग उन्हें भोजन-पानी तो दोगे ना? ऐसा करो, पंद्रह-बीस हजार लोगों के लिए आप पूड़ी और पानी का इंतजाम कर लो.”
हमें काटो तो खून नहीं. इस समय, रात के नौ बजे आलू, पूड़ी का इंतजाम कैसे होगा? लखनऊ में महाप्रबंधक से बात की. जवाब मिला, “इंतजाम करो, जैसे भी होता है. वे वित्त मंत्री के खास आदमी हैं, उनकी बात नहीं टाल सकते.”
हम बाजार में निकले अधिकांश दुकानें बंद हो चुकी थीं. वहीं लोगों से हलवाइयों का पता पूछा. दो-एक के दरवाजे खटखटा कर आलू, पूड़ियां बनाने की गुज़ारिश की. उन लोगों ने रात में पूड़ियां बना-बना कर बड़े-बड़े टोकरों में जमा कीं. सूखे, चटपटे आलू तैयार किए. टेंट हाउस को पानी के इंतजाम के लिए कह दिया गया. काशीपुर में फूल और फूलमालाएं उपलब्ध नहीं थीं. वे चीजें भी मुरादाबाद से लाने की व्यवस्था की गई.
तीस मार्च को लखनऊ से फिर फोन आया कि प्रधानमंत्री के साढ़े तीन सौ पोस्टर भेज रहे हैं. मेवाड़ी से कहें, वे भी पंडाल के खंभों पर टंगवां दें. किससे टंगवा दें? खुद ही टांगने थे. पोस्टर लेकर खंभों पर टांगता चला गया. पंडाल में एक कृषि अधिकारी, शायद इस्लाम हुसेन के अलावा कोई नहीं था. आयोजक लोग लंच करने जा चुके थे. इस्लाम पास आए और पूछा, “आपके साथ और कोई नहीं है? चलिए मैं मदद करता हूं,” कह कर वे मेरा हाथ बंटाने लगे. पोस्टर टांगने में अच्छा-खासा वक्त लग गया.
शाम तक बैंक और सरकारी अमले के लोग इंतजाम देखने के लिए आने लगे. चाक-चौबंद इंतजाम हो गया और अगली सुबह 31 मार्च 1998 को सुबह से ही ऋण मेले के लिए सरगर्मी शुरू हो गई. मैंने पंडाल में जाकर इंतजाम देखे और फिर तेजी से होटल में आया ताकि कपड़े बदल कर वापस लौट सकूं. कार्यक्रम का संचालन मुझे ही करना था. कमरे में स्टूल पर बैठ कर दाढ़ी बनाने लगा. अचानक झटका-सा लगा, तब पता लगा कि दो-तीन दिन की थकान और नींद पूरी न होने के कारण मुझे बैठे-बैठे अपने-आप झपकी आ गई. तब एकदम तैयार होकर पंडाल की ओर वापस भागा.
खैर, अपार जनसमूह आया, मुख्य अतिथि भी आए और कार्यक्रम सम्पन्न हुआ. बहुत गर्मी थी, इसलिए प्यास के मारे गला बुरी तरह सूख रहा था. मुझे लगा डिहाइड्रेशन न हो जाए. पानी के लिए यहां-वहां देखा लेकिन कहीं नहीं मिला. पास में ही कुछ लोग गन्ने का ताजा जूस पी रहे थे. उस भीड़ में मैं एक किनारे जाकर चुपचाप छांव में बैठ गया. मेला खाली हो गया. मैंने जरूरी पोस्टर, कैसेट, टेपरिकार्डर वगैरह संभाले. बैनर उतारे और थका-मांदा देर शाम को होटल में पहुंचा. अगले दिन ट्रेन से दिल्ली को लौट गया.
“आपने भी मतलब बड़े मेले देखे?”
“हां, नौकरी के मेले हुए वे. लेकिन, मेले ही क्या जाने कितने अनजाने लोग भी देखे. उनसे बातें कीं, उनके किस्से सुने. सुनाऊं कुछ किस्से?”
“ओं”
वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.
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