कहो देबी, कथा कहो – 30
पिछले कड़ी कहो देबी, कथा कहो – 29, चल उड़ जा रे पंछी
तो मैं लखनऊ पहुंचा. मैं अकेला और वह अनजाना शहर, अब तक जिसकी सिर्फ कहानियां सुनी थीं. सुना था कि अपनी तहजीब के बारीक धागे से अपनी मोहब्बत में बांध लेता है यह शहर. मगर मैं तो संपादन छोड़ कर बैंक की एक बिलकुल नई तरह की नौकरी करने आ पहुंचा था जो मेरे लिए नई चुनौती थी. ‘नवनीत’ के संपादक नारायण दत्त जी के पत्र में लिखे शब्द याद आ रहे थे, ‘अब पंतनगर क्यों छोड़ रहे हैं? लेकिन, छोड़ेगा भी तो वही जिसमें अभी आग बाकी होगी.’ चारबाग स्टेशन पर उतरा. बाहर का रूख किया तो सीढ़ियों से ऊपर, सामने दीवाल पर लिखा दिखा- अमृतलाल नागर, भगवती चरण वर्मा और यशपाल का शहर. पढ़ कर बहुत खुशी हुई. आफिस का पता किया और टैम्पो से अशोक मार्ग पर पंजाब नैशनल बैंक के अंचल कार्यालय के सामने उतरा. प्रधान कार्यालय, दिल्ली से चलते समय जनसंपर्क के साथियों की कही बात बार-बार याद आ रही थी कि ‘लखनऊ जा रहे हो. एक बात याद रखना, वहां अंचल प्रबंधक बहुत सख्त आदमी हैं. तुम्हारा काम पसंद आ गया तो बैंक में तुम्हारा कोई कुछ बिगाड़ नहीं पाएगा. मगर काम पसंद नहीं आया तो देश भर में भटकोगे और कोई पानी के लिए भी नहीं पूछेगा.’
आफिस खुला तो भीतर गया. उस अनजान आफिस में ज्वाइन किया. हॉल में फुसफुसाहट हुई कि पब्लिक रिलेशंस और पब्लिसिटी का प्रोफेशनल मैनेजर आ गया है. तब तक यह काम एक कृषि अधिकारी देख रहे थे. रहने की व्यवस्था के लिए पूछा तो सहायक प्रबंधक गंगाराम आर्य जी ने कहा, “लखनऊ और आफिस में आज आपका पहला दिन है. इसलिए आज आप मेरे घर पर रहेंगे. कल होटल तलाश लेंगे. फिर लीज पर निवास की व्यवस्था हो जाने पर आप वहां चले जाएंगे. लिहाजा उस शाम मैं उनके साथ राजाजीपुरम में उनके घर चला गया. बैंक और आफिस के बारे में उनसे खूब बातें हुईं. उनके परिवार ने बहुत प्रेम से खाना खिलाया. वहीं मुझे पता लगा, वे निरंकारी विचार धारा में आस्था रखते हैं.”
आफिस में कृषि अधिकारी साथी ने अब तक किए गए काम के बारे में बताया. अगले दिन आफिस में नए फाइल कवर लेकर मैंने अपने विषय की तमाम फाइलें बनाईं और अपने तरीके से काम शुरू कर दिया. सख्त अंचल प्रबंधक दयाकृष्ण गुप्त जी बीमार थे और विवेकानंद पालीक्लिनिक में उनका इलाज चल रहा था. शाम को हुसेनगंज चौराहे के पास दीप होटल में कमरा ले लिया. उस रात सोचता रहा कि मुझे जनसंपर्क और प्रचार में कुछ ऐसा कर दिखाना है कि लोग कहें – ‘वाह! ये हुई न बात!’ बीच में कभी पंतनगर में वही कुलपति आनंद स्वरूप भी मिल गए थे, जिनकी मौजूदगी में मैं पंतनगर छोड़ कर आया था. उन्होंने पूछा था, “कहां ज्वाइन किया?”
“पंजाब नैशनल बैंक में, मैनेजर जनसंपर्क तथा प्रचार,” मैंने कहा.
उन्होंने मुंह बिचका कर कहा, “छी!छी! यह गंदा फील्ड है.”
मैं मन ही मन मुस्कराया. मैं जानता था, कोई फील्ड या विषय गंदा नहीं होता, उसे साफ और गंदा उसमें काम करने वाले लोग बनाते हैं. मेरे लिए मेरा यह पवित्र विषय था और मैंने इस नौकरी को स्वीकार करते समय ही यह तय कर लिया था कि मैं जनसंपर्क को आत्मीय रिश्तों का विषय बनाऊंगा और ‘दे-दिवा कर काम कराने’ की परिभाषा को बदलूंगा. मैं यह भी जानता था कि यह काजल की कोठरी है लेकिन मुझे इसमें रहते हुए भी बेदाग रहना है.
धीरे-धीरे काम शुरू किया और विज्ञापन तथा प्रचार की अटकलों को समझने की कोशिश शुरू की. कुछ दिनों बाद सख्त अंचल प्रबंधक ठीक होकर आफिस में आ गए. पता लग रहा था कि वे आफिस में हैं. बल्कि एक साथी ने मुझे बताया भी कि इसी आफिस में नहीं, लखनऊ के किसी भी आफिस के काम-धाम को देख कर पता लग रहा होगा कि अंचल प्रबंधक गुप्त जी आफिस में हैं. वे जब लखनऊ में होते हैं तो हर आफिस में इसी तरह काम होता है.
बहरहाल, उनके कमरे की घंटी बजी, चपरासी कन्हैया अंदर गया, बाहर आया और मेरे पास आकर बोला, “आपको साहेब अंदर बुला रहे हैं.”
मैं कमरे में गया, नमस्कार किया. अंचल प्रबंधक ने मेरी ओर देख कर कहा, “सो, यू हैव ज्वाइंड ऐज मैनेजर पीआर एंड पब्लिसिटी?” (तो, आपने ज्वाइन किया है मैनेजर जनसंपर्क-प्रचार के रूप में.)
मैंने कहा, “जी सर.”
“यहां इस अंचल में क्या-क्या करना चाहते हो?”
मैं जवाब देने लगा तो उन्होंने कहा, “वेट (रुको), मै आपको ठीक तीस मिनट बाद बुलाऊंगा. तब तक सोच लो, नोट कर लो. उसके बाद बताना.”
मैं फिर नमस्कार करके हॉल में अपनी सीट पर लौट आया. जो कुछ करने का मन था, वह क्रम से कागज पर लिखा. पहले एक सख्त कुलपति को देख चुका था. इसलिए जानता था कि तीस मिनट माने तीस मिनट. वे ठीक तीस मिनट बाद बुलाएंगे. वही हुआ. फिर घंटी बजी, चपरासी गया और आकर उसने मुझे बताया कि साहेब बुला रहे हैं. मैं भीतर गया. उन्होंने बैठने का इशारा किया. मैं बैठा.
वे बोले, “हां, बताओ, क्या करना चाहते हो यहां इस ज़ोन में?”
मैंने एक-एक प्वांइट पढ़ कर सुनाया कि कैसे मीडिया और पब्लिक के साथ संपर्क बढ़ाऊंगा, आउटडोर एडवटाइजिंग में क्या-कुछ नया करूंगा. विज्ञापन के लिए नए स्लोगन तैयार करूंगा और स्थानीय रेडियो-टेलीविजन के कार्यक्रमों में बैंक की भागीदारी बढ़ाऊंगा.
उन्होंने कहा, “ठीक है. एक प्रोजेक्ट है. उस पर अभी तक काम नहीं हो पाया है. मैं चाहता हूं, 26 जनवरी की परेड में हमारे बैंक की झांकी निकले. पहले कोशिश की गई, लेकिन यह काम नहीं हो पाया. कैन यू डू इट? (क्या इसे कर सकोगे)”
जी हां, करूंगा. 26 जनवरी को झांकी निकलेगी,” मैंने कहा.
“ठीक है, इसे करना है. इसलिए अभी से नगर महापालिका के साथ अपना पीआर बढ़ाएं.” तो, मेरे काम की रूपरेखा तैयार हो गई. गणतंत्र दिवस की झांकी की बारीकियां समझने के लिए मैंने एजेंसियों और उत्तर प्रदेश के जनसंपर्क विभाग के चित्रकारों से बात करना शुरू कर दिया. इस बातचीत से पता लगा कि झांकी का विषय और उसका डिजाइन झांकी की जान है. ऐसे किस्से भी सुनने को मिले कि किसी विभाग का डिजाइन तो देखने में शानदार था लेकिन जब बढ़ई, कारीगरों ने उसे बनाया तो पता लगा, पेड़ और मकान तो छोटे रह गए जबकि पास खड़ी गाय उससे दोगुना बड़ी हो गई! इसलिए डिजाइन का पैमाना सही होना जरूरी है.
वे बीस सूत्री कार्यक्रम के दिन थे. इसलिए मैंने बैंक और बीस सूत्री कार्यक्रम की थीम समझा कर जनसंपर्क विभाग के अनुभवी चित्रकार साथी से डिजाइन बनवाया. उस डिजाइन के आधार पर टेंडर जारी करके अनुभवी विज्ञापन एजेंसियों से खर्चे का ब्यौरा मंगाया. साथ ही उन एजेंसियों के काम के बारे में सरकारी विभागों में जाकर पूछताछ की. सबसे कम रेट वाली एजेंसी को काम मिला. जनवरी शुरू में काम शुरू हो गया. काम में कहीं कोई चूक न हो, यह देखने के लिए मैं आधी-आधी रात तक एजेंसी के लोगों के साथ पार्क में प्लाईवुड के टुकड़ों से जलाई आग तापता रहता. कारीगर काम में जुटे रहते. एक-एक एजेंसी के पास दो-दो, तीन-तीन झांकियों का काम रहता था. इसलिए दिन-रात काम चलता. जनवरी के महीने में बेगम हज़रत महल पार्क के खुले मैदान में ठंड भी खूब पड़ती, और ऑफिस में किसी को क्या पता और क्या लेना-देना कि वहां पार्क में कैसे और क्या काम हो रहा है? यह तो मेरा विषय माना जाता था और मैं अकेला ही था. इसलिए जानता था कि यह क्षेत्र चुन लिया है तो ‘एकला चलो रे’ की धुन ही गुनगुनानी होगी. यहां मजरूह सुल्तानपुरी की पंक्तियों ‘मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंजिल, लोग साथ आते गए और कारवां बनाता गया’ की कोई गुंजाइश नहीं थी.
बहरहाल, 25 जनवरी की रात आई. वह रात, जब सभी झांकियां बेगम हजरत महल पार्क से अपने-अपने नंबर पर क्रम में खड़ी कर दी जाती थीं. देर शाम मैंने भी झांकी का मुआयना किया. बीस सूत्री कार्यक्रम के तहत बैंकों की मदद से स्वरोजगार में लगे लोगों को झांकी में काम करते हुए दिखाया गया था. बुनकर, टेलर, मुर्गीपालक, बकरीपालक वगैरह कलाकार मौजूद थे. तभी सेना की तरफ से झांकियों को पार्क से मार्चिंग आर्डर मिला. ट्रकों पर बनी खूबसूरत झांकियां चलायमान होकर शहीद स्मारक की ओर चलने लगीं.
लेकिन यह क्या, हमारे बैंक की झांकी का ट्रक तो घुर्र-घुर्र करके बस थरथराता रह गया. मैं सकते में. एजेंसी मालिक सुनील ने ट्रक चालक को डपटा, “कहा था ना, ठंड बहुत है, इंजन को चालू रखना? अब हो गई न प्राब्लम?” मैं घबराया हुआ खड़ा था. उसने कहा, “आप परेशान न हों, ऐसा हो जाता है. इंजन अभी चालू हो जाएगा.” वही हुआ, कुछ देर भट-भट-भट करने के बाद इंजन चालू हो गया और हमारी झांकी भी शहीद स्मारक की ओर चल पड़ी और अपने नंबर पर जाकर खड़ी हो गई. रात का चौथा पहर चल रहा था जब सुनील ने कहा, “अब आप घर हो आइए. कपड़े वगैरह चेंज करके विधान सभा के पास परेड देखिए.” (कहो देबी, कथा कहो – 3)
मैंने कहा, “नहीं, मैं अपने बैंक की झांकी के साथ-साथ चलूंगा. कपड़े चेंज करके आता हूं.” रात भर का जागा, घर गया. दाढ़ी बनाई, कपड़े बदल कर वापस शहीद स्मारक के पास पहुंचा. सिहराती हुई ठंड थी. पूरब से सूरज की सुनहरी किरणें निकलीं. झांकियां चलने को तैयार. नज़र दौड़ाई, लाभार्थी झांकी में अपनी-अपनी जगह मौजूद हैं. तभी सीटी बजी. झांकियों ने निर्धारित मार्ग पर रौलआउट करना शुरू किया. तब तक मैंने देखा बकरी तो चिकन कारीगर के पास जुगाली कर रही है. तो, बकरी वाली कहां है?
मैंने कहा, “क्यों बकरीवाली कहां है?”
“अभी आ जाएगी,” सुपरवाइजर ने कहा.
“झांकी चलने लगी है, कब आ जाएगी?” मैंने गुस्से में भर कर पूछा.
तभी सुपरवाइजर ने इशारा करके बताया, “आप चलते रहिए, आ जाएगी.” मैं समझ गया. सुबह की उस ठंड में प्रकृति की पुकार किसी को भी झाड़ियों के पीछे भेज सकती थी. इसलिए चलते रहे. आगे-पीछे भी झांकियां थीं. सभी जगह सड़क के दोनों ओर लोगों की भीड़ खड़ी थी. चलते-चलते हमने हज़रतगंज में प्रवेश किया. अपने बैंक के सामने से निकले और गांधी पार्क की बगल से विधान सभा भवन की ओर बढ़े. उससे ठीक पहले दाहिनी ओर एम.एल.ए. निवास दारुल-शफा की ओर भी सड़क निकलती थी.
उस सड़क पर नज़र पड़ते ही वह किस्सा आ गया जो बेगम हज़रत महल पार्क में रातों को अलाव तापते एजेंसी के लोगों से सुना था. किस्सा यों था कि कुछ नायाब कर दिखाने की कोशिश में एक एजेंसी ने झांकी तो बनाई लेकिन उसे ट्रक के बजाय घोड़ों की जोड़ी से चलाने का निश्चय किया. डिज़ाइन अच्छा था, पास भी हो गया. झांकी शहीद स्मारक से हज़रतगंज को पार कर वहां तक पहुंच भी गई. लेकिन, विधानसभा भवन के सामने पहुंचती, उससे पहले ही दारूल-शफ़ा मार्ग पर एक घोड़ी हिनहिनाई. घोड़ों के कान खड़े हुए, उन्होंने घोड़ी को देखा और परेड का मार्ग छोड़ कर झांकी के साथ घोड़ी के पीछे दारूल-शफ़ा की ओर भागे. उन्हें रोकने की कोशिश तो की गई लेकिन वे रूके नहीं. किस्सागो, कहते थे, उस साल से झांकी को घोड़ों से चलाने की कोशिश पर पाबंदी लग गई.
खैर, हमारे बैंक की झांकी कतार में आगे बढ़ी और विधान सभा भवन के सामने राज्यपाल, मुख्यमंत्री, अन्य गणमान्य व्यक्तियों और हजारों लोगों ने उसे देखा. हमारे बैंक के अंचल प्रबंधक और दूसरे बड़े अधिकारी भी वहां मौजूद थे. राजधानी लखनऊ में पहली बार पंजाब नैशनल बैंक की झांकी प्रदर्शित हुई. वह परंपरा बन गई. मैं अगले छह वर्षों तक लखनऊ की गणतंत्र दिवस परेड में विभिन्न विषयों पर बैंक की झांकी का प्रदर्शन कराता रहा.
लेकिन, यह तो मेरे पूरे जनसंपर्क और प्रचार के काम का एक छोटा-सा हिस्सा था. मैं पूर्वी उत्तर प्रदेश अंचल के सभी क्षेत्रों में जनसंपर्क तथा प्रचार के बजट की योजना बनाता. लखनऊ और आसपास के क्षेत्रों में होर्डिंग, बोर्ड, ग्लोसाइन, पोल कियोस्क लगाता. नवंबर-दिसंबर 1982 में एशियाई खेलों के दौरान मैंने बैंक के गेट पर ही होर्डिंग लगवा कर रोज खेलों की पदक तालिका देना शुरू कर दिया. आते-जाते लोग वहां खड़े होकर खेलों के परिणाम देखते. होर्डिंग में यह बेस लाइन दीः ‘आर्थिक दौड़ में सबसे आगे – पंजाब नैशनल बैंक.’
इसी बीच होर्डिंग से जुड़ा एक किस्सा भी सुना. सुना कि एक विज्ञापन एजेंसी के चतुर सुजान बहुत तेज थे. संभ्रांत रहन-सहन और नफ़ीस अंग्रेजी में बातचीत. कहते थे, किसी कंपनी के लोग उनके पास अपनी नई होर्डिंग देखने आए. उन्होंने साइट पर होर्डिंग दिखाई और सितारा होटल में उन्हें नाश्ता कराया. बढ़िया साइट पर खूबसूरत होर्डिंग. घूमते-फिरते लंच का समय हो गया तो लंच कराया और आराम से चारबाग स्टेशन की साइट पर होर्डिंग दिखाई. वह भी अच्छी साइट पर अच्छी होर्डिंग थी. फिर घूम-फिर कर थोड़ा आराम करके तीसरी साइट पर ले गए. वहां भी कंपनी की होर्डिंग अच्छी जगह लगी थी. तीनों साइटों पर होर्डिंग पास हो गई. तो भला, इसमें किस्सा क्या है?
किस्सा यह है कि चतुर सुजान ने किराए पर आदमी लगा कर एक ही होर्डिंग तीनों जगह दिखा दी! पहली साइट पर होर्डिंग देखने के बाद जब तक नाश्ता वगैरह किया, किराए के आदमियों ने कारीगरों के साथ मिल कर होर्डिंग उतारी, ट्रक में लादी और चारबाग में लगा दी. जब तक लंच किया, वह तीसरी जगह लगा दी गई.
लेकिन, किस्से का एंटीक्लाइमैक्स यह है कि उसी चतुर सुजान को एक दिन मैंने अपने अंचल कार्यालय में देखा. तब तक सख्त अंचल प्रबंधक जा चुके थे. उनकी जगह एक नए, सरल अंचल प्रबंधक आ चुके थे. उन्होंने मुझे भीतर बुलाया और कहा, “ये बहुत अनुभवी और बेहतर क्वालिटी का काम करने वाली एजेंसी हैं. इनसे आप होर्डिंग क्यों नहीं लगवाते?”
(अभी क्या हाल है हमारी पृथ्वी का)
मैंने कहा, “इनके रेट बहुत अधिक हैं.”
चतुर सुजान बोले, “यस, माई साइट्स आर स्लाइटली कॉस्ट्ली (मेरी साइटें थोड़ा महंगी हैं), लेकिन, वे की-प्वाइंट्स पर हैं. बेहतर साइट का रेट तो बेहतर होगा ही. बाकी, कई एजेंसी हैं जिनका सेकेंड-थर्ड रेट काम है. उनसे कम रेट में भी लगवा सकते हैं. वे अंडरहैंड भी काम करते हैं.” चतुर सुजान ने शक का बीज बो दिया.
अंचल प्रबंधक बोले, “इनका प्रपोजल दीजिए. मैं कहता ही रह गया, लेकिन वह काम चतुर सुजान को ही दे दिया गया. मैं क्या करता?”
“गजब के लोग होते हैं दुनिया में भी, है ना?”
“बिल्कुल है. लेकिन, उन्हीं के बीच काम करना होता है. चक्रव्यूह से निकलना होता है. प्रलोभन भी बहुत होते हैं, उनसे भी बचना होता है.”
“ये आप कहां फंस गए?”
“फंसा नहीं, मैंने ही अपने लिए इस नौकरी को चुना था. इसलिए मुझे बचते-बचाते इसी में काम करना था, और किया भी. ऐसे तो अभी और कई किस्से हैं. सुनाऊं.”
“ओं”
(जारी है)
वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.
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