कहो देबी, कथा कहो – 27
पिछली कड़ी: कहो देबी, कथा कहो – 26 चंद्रशेखर लोहुमी को जानते हैं आप?
उस साल बाज्यू फागुन आखीर तक पंतनगर में हमारे पास ही थे. उन्हें पहाड़ याद आने लगा था और वे कुछ दिन रुक कर गांव को लौटने की बात करने लगे थे.
दिन 29 फरवरी 1976. उस दिन रविवार भी था और शिवरात्रि भी. छुट्टी का दिन होने के कारण मैं भी घर पर ही था. बाज्यू भी खाना खा कर बाहर लॉन में देर दोपहर की धूप ताप रहे थे कि तभी एक लड़का आया और बोला, “मैं ओखलकांडा इंटर कालेज से आ रहा हूं.” यह सुन कर बाज्यू भी उठ कर आ गए. हमने उसे कमरे में बैठाया और बाज्यू ने पूछा, “अच्छा, ओखलकांडा से आ रहे हो? कुशल बात सब ठीक है वहां?”
“मास्साब की तबियत अचानक बहुत खराब हो गई है, उन्हें अस्पताल ले जाना पड़ेगा कह रहे थे. मुझे आप लोगों को यह खबर देने के लिए भेजा है,” उसने कहा.
“हं, हं, कि कौ? (हैं, क्या कहा) ठीक से बताओ तो?” बाज्यू ने उससे कहा.
उसने फिर वही दुहराया कि “मास्साब की तबियत बहुत खराब हो गई है, उन्हें अस्पताल ले जाना पड़ेगा. आप दोनों को फौरन आने को कहा है.”
बाज्यू सुन कर सुन्न खड़े हो गए. लड़के ने कहा- अच्छा मैं चलता हूं और वह चला गया.
मैं बाज्यू की ओर देखता रहा. वे सोच में डूबे जमीन ताक रहे थे. फिर सिर उठाया और मेरी ओर देख कर कहा, “बेटा तो चला गया देबी. रात को श्वैन (सपना) में मौनों का छत्ता देखा मैंने. रानी चली गई थी और उसके बिना बाकी मधुमक्खियां हलहल, हलहल बिलबिला रही थी. तेरा भाई नहीं रहा बेटा. चल चलते हैं. तैयार हो जा.”
तैयार क्या होना था, हमने झोले में दो-एक कपड़े रखे और चलने को हुए. तभी ध्यान आया, पैसे? छुट्टी का दिन, पैसे कैसे और कहां से जुटाएं. पत्नी लक्ष्मी भी वहीं खड़ी थी. वह बोली, “रुको.” वह भीतर गई और न जाने कहां से निकाल कर पैसे मेरे हाथ में रख दिए. कहा, “अटक-खटक काम आने के लिए मैंने राशन-पानी के खर्च में से बचाए हैं. इन्हें ले जाओ.”
पिताजी बोले, “द हिट च्यला.” (चलो बेटे)
और, हम चल पड़े. रिक्शे से नगला. नगला में सड़क किनारे खड़े होकर बाप-बेटा दोनों बस, ट्रक का इंतजार करने लगे. काफी देर बाद एक ट्रक रुका. उससे हल्द्वानी तक पहुंचाने को कहा. वह बोला, बैठ जाओ पीछे. सामान की ढुलाई का ट्रक था. दो-तीन मजदूर और तीन-चार सवारियां बैठी थीं. बाज्यू के लिए बस-ट्रक में बैठ कर कहीं जाना कितना मुश्किल होता है, मुझे पता था. मैंने कहा, “आप बाहर को मत देखना. भीतर ही मुंह करके आंखें बंद कर लीजिए.”
“नैं, नैं, मेरि फिकर नैं कर. कुछनैं हुन.” (नहीं, नहीं, मेरी फिकर मत कर, कुछ नहीं होगा मुझे.)
उन्होंने सिर से टोपी निकाल कर मुंह पर लगा ली. ट्रक तेजी से खड़खड़ाता, उछलता चला जा रहा था. थोड़ी ही देर बाद बाज्यू को उल्टियां होने लगीं. उबकाई आती और वे टोपी मुंह पर लगा लेते. ट्रक के किनारे से बाहर उल्टी करते.
मैंने कहा, “आपकी तबियत खराब हो रही है.”
वे बोले, “नहीं, नहीं, कुछ नहीं हो रहा है मुझे. रिंगाई (चक्कर) लग रही है, ठीक हो जाएगी,” कहते-कहते वे फिर से वाक-वाक कर उल्टी करने लगे. फिर तो वे टोपी में ही उल्टी करते और टोपी को किनारे से उलट देते. मैं समझ नहीं पा रहा था कि करूं तो क्या करूं. हमें किसी भी तरह हल्द्वानी पहुंचना था ताकि वहां से कोई ट्रक मिल जाए जो रात में ओखलकांडा पहुंचा दे और नहीं तो कम से कम सुबह की बस तो मिल ही जाएगी.
हल्द्वानी में बस ट्रक कुछ नहीं मिला. रात राजपुरा में राम सिंह मेवाड़ी जी के यहां शरण ली. ददा की तबियत खराब होने की खबर से वे भी दुखी हुए. सुबह आठ बजे के आसपास बाज्यू और मैंने बस पकड़ी. उन दिनों बस हल्द्वानी से ज्योलीकोट, बीर भट्टी, भुवाली और रामगढ़ होकर ओखलकांडा जाती थी. बस में भी बाज्यू को चक्कर आते रहे. खिड़की से उल्टी करते रहे. उनकी हालत लगातार खराब होती जा रही थी. वे कमजोरी से पस्त पड़ चुके थे. आवाज डूबती जा रही थी. बीच-बीच में हाथ पकड़ कर मुझे ढाढस बंधाते कि बेटा हमें किसी भी तरह ओखलकांडा पहुंचना है.
रामगढ़ में बस रुकी सवारियों के चाय-पानी और खाने के लिए, तो बाज्यू ने कहा, “बेटा, मुझे थोड़ी देर नीचे उतार दे. मैं पहाड़ की खुली, ठंडी हवा में सांस लेना चाहता हूं.”
मैंने उन्हें सहारा देकर धीरे से नीचे उतारा. वे सड़क के किनारे उकड़ूं बैठ गए.
“आप कुछ खाएंगे? मैंने कहा, “चाय पीएंगे?”
“नैं, नैं, कुच्छ नैं चैन. जरा-सा पानि लि औंछेत….(नहीं, नहीं, कुछ भी नहीं चाहिए. जरा-सा पानी ले आता तो…)”
मैं भाग कर नल से पानी ले आया. उन्होंने कुल्ला किया. फिर सहारा देकर मैंने उन्हें खचाखच भरी बस में चढ़ाया. हम दोनों बाप-बेटे अपनी सीट पर बैठ गए. बाज्यू निढाल पड़ गए.
तभी किसी ने उस भरी हुई बस में दो-एक बोरियां धकेलीं. पैर रखने की जगह तक नहीं थी. किसी तरह बीच में ठेल-ठाल कर दोनों बोरियां भी एकजस्ट कर दी गईं. तभी लहराता, गिरता-पड़ता एक आदमी भीतर आया और कहीं भी गिरने-बैठने लगा. किसी ने कहा, “अरे, बाहर निकालो इस शराबी को. होश में नहीं है.”
उसके पीछे आ रहे आदमी ने कहा, “क्यों निकालो, मेरे साथ है वह. हमें भी जाना है.” उसने खुद को संभाल न पा रहे उस पीए हुए आदमी को बोरियों से आगे बची जगह में फर्श पर बैठा दिया. वह वहीं गुचुलुक लेट गया.
बाज्यू कराह रहे थे. उनकी तबियत खराब देख कर एक आदमी ने मुझसे पूछा, “क्या हो गया इन्हें?”
मैंने कहा, “उल्टियां हो रही हैं.”
“कहां जावोगे?”
“ओखलकांडा. ददा हैं वहां इंटरकालेज में. उनकी तबियत खराब है.”
“कौन? दीवान सिंह जी? वे तो कल गुजर गए. कल सब कुछ हो भी गया,” वह बोला.
मैंने बदहवाश होकर उसकी ओर देखा. गुस्सा भी आया कि कैसा बेवकूफ आदमी है, बाज्यू के सामने इस तरह बोल रहा है? बाज्यू क्या कहते? सुना और हताश होकर, निढाल मेरे कंधे पर सिर टिका कर सिसकने लगे. वे थरथरा रहे थे. मैं भी आंसू बहाने लगा. मेरे मुंह पर हाथ फेर कर, बाज्यू कमजोर आवाज़ में बोले, “देबी, शायद मैं भी नहीं बचता हूं अब. मेरी तबियत बहुत खराब हो गई है. बेटा, मैंने तुझे बताया नहीं, नगला में ट्रक में बैठने के बाद से ही मुझे पहले उल्टियां आईं, फिर खून की उल्टियां आने लगीं. मैं टोपी में खून की उल्टी छिपा कर बाहर को फैंकता रहा. फिकर से रात भर नींद भी नहीं आई. फिर सुबह से उल्टी में खून आ रहा है. मुझे कुछ हो गया तो तू यहां अकेला क्या करेगा?”
“तस किलै सोचछा? (ऐसा क्यों सोचते हैं आप) कुछ नहीं होगा आपको. यहां तक आ गए हैं, ओखलकांडा दूर नहीं है अब.”
“बस किसी तरह वहां तक पहुंच जाता तो बेटा, तू अकेला क्या करेगा?” कराहते हुए उन्होंने कहा. मैं उन्हें दिलासा दिलाता रहा.
बस ओखलकांडा की ओर चली जा रही थी. खिड़की से भीतर आती ठंडी हवा से उन्हें थोड़ा आराम मिल रहा था. वे आंखें मूंद निढाल पड़े रहे.
बस से उतर कर नीचे ओखलकांडा इंटर कालेज में टीचर्स क्वार्टर तक पहुंचे. वहां सन्नाटा छाया हुआ था. सब कुछ खत्म हो चुका था. दो-चार लोग चुपचाप बैठे हुए थे. हम फूट-फूट कर रोए और फिर हम भी चुपचाप बैठ गए. मुझे सब कुछ याद आ रहा था… छब्बीस साल पहले ददा मुझे गांव से यहां इसी क्वार्टर में आगे पढ़ाने के लिए लाए थे. उन्होंने छठी कक्षा में मेरा एडमिशन कराया था. यहां इस इंटर कालेज में बारहवीं तक पढ़ा कर मुझे उन्हीं ने पढ़ने के लिए नैनीताल भेजा था. उन्हीं का स्वप्न हूं मैं आज जो कुछ भी हूं.
उन दिनों ददा वहां प्रधानाचार्य के रूप में काम कर रहे थे. उनके साथ के लोगों से मैंने पूछा, “अचानक हुआ क्या ददा को?”
“सुबह नहाने से पहले उन्होंने भाभी जी से कहा कि तुम लोगों का तो आज व्रत है. मेरे लिए खिचड़ी बना दो. और फिर, बाहर मंदिर के पास क्यारी में नहाने को पानी मांगा, नहा-धो कर बदन पोंछा. भाभी जी को आवाज़ दी. वे आईं और मास्साब ने कहा, “मुझे चक्कर जैसा आ रहा है.” बेहोश होते-होते भाभी जी का कंधा पकड़ा और फिर होश में आए ही नहीं. डाक्टर आया और कहा, शायद हार्ट अटैक पड़ा. कुछ लोग सोच रहे हैं ब्रेन स्ट्रोक रहा होगा. अब क्या बताएं? अनहोनी हो गई.”
उन्हीं लोगों ने बताया, “ऐसी अंतिम यात्रा पहले नहीं देखी. यह भी पता लगा, कितने लोग चाहते थे उन्हें. सभी लोगों ने तय किया कि उनका अंतिम संस्कार उनके गांव के घाट पर ही किया जाए. इसलिए उनकी अंतिम यात्रा यहां ओखलकांडा से शुरू होकर सात-आठ किलोमीटर दूर उनके गांव के घाट खुटका तक गई. यात्रा शुरू हुई और लोग शामिल होते गए. ऐसा पहले कभी नहीं देखा था जब लोग आसपास के पहाड़ों पर बसे गांवों से उतर कर अंतिम यात्रा में शामिल हो रहे हों. मास्साब ने उन गांवों के न जाने कितने लोगों को बच्चों को पढ़ाने के लिए प्रेरित किया था. अपने साथी शिक्षकों के साथ उन्होंने गरीब बच्चों की फीस देने के लिए पुअर ब्वायज फंड बनाया था. इस पूरे इलाके में उन्होंने शिक्षा की ज्योति फैलाई थी. क्या कहें, भले लोगों को भगवान भी जल्दी अपने पास बुला लेता है.”
रात आंखों में काट कर मैंने अगली सुबह आसपास की दूकानों का जो थोड़ा-बहुत बकाया था, उसका भुगतान किया. ददा यों भी मितव्ययी थे और सदा कहते थे ‘तेते पैर पसारिए जेती लामी सौर’. वे लोग बेहद दुखी थे. गणेश सिंह जी दूकानदार ने कहा, “कल सुबह ही मास्साब आए थे. मैंने चाय बनवाई. उन्होंने चाय पी और यहां पर गिलास रख कर चले गए. थोड़ी देर बाद किसी ने आकर कहा- मास्साब नहीं रहे.”
मैंने कहा, “मुंह में दूंगा एक थप्पड़. क्या बोल रहा है? अभी चाय पी कर गए हैं. हाथ लगा, गिलास गरम ही होगा.”
वह गगलसा कर बोला, “गणेश दा झूठ क्यों बोलूंगा? मास्साब सच में नहीं रहे. मैं भागा क्वार्टर की तरफ. वहां कुहराम मचा हुआ था. हमारे मास्साब इस दुनिया से जा चुके थे.”
मुझे याद आया हाईस्कूल की परीक्षा में लिखने के लिए इन्हीं गणेशदा से मैंने सोलह साल पहले वह नई फाउंटेन पेन ली थी जिसके लिए मैंने ददा को चिट्ठी लिखी थी.
क्वार्टर में लौटा तो ददा के साथ काम करने वाले बड़े बाबू ने मुझे वह फाइल भी दिखाई, सुना जिसे लेकर वे तनाव में थे. मैंने वह फाइल और उस पर ददा की साफ-साफ लिखी टिप्पणी भी पढ़ी थी. लेकिन, अब क्या हो सकता था? अब तो सब कुछ खत्म हो चुका था. हमारे पूरे परिवार पर आसमान टूट पड़ा था.
असल में ददा ही हमारे परिवार की धुरी थे. वे ही असली मुखिया थे. बाज्यू हों या ठुल (बड़े) ददा, सभी उन्हीं से सलाह करते थे. इस दुख से हम सब भीतर-भीतर टूट गए. बाहर उदास बैठे, आसमान ताकते ठुल ददा ने मुझसे कहा, “भया, मेरा तो सब कुछ वही था. कोई भी बात हो, मैं उसी से तो कहता था. अटक-खटक वही मेरी मदद करता था.” फिर बोले, “मैं समझ गया था, कोई भारी संकट आने वाला है. श्वैन (सपना) देखा था मैंने. मेरे सामने एक भाशी रूख (विशाल पेड़) गिरा. मैं सोच ही रहा था कि ऐसा श्वैन क्या देखा होगा मैंने कि भया (भाई) के जाने की खबर आ गई.”
हम गांव पहुंचे. भाभी मां और बच्चों से मिले. जो कुछ हो गया था, वह अकल्पनीय था. घर के आंगन से उस पार पहाड़ पर ओखलकांडा के मकान दिखाई देते थे. परसों तक ददा वहां थे. आज वहां देखने पर सब कुछ खाली-खाली सा दिखाई दे रहा था. बारह दिन बाद पीपलपानी की रस्म पूरी होनी थी. घर भीतर एक कोने में चचेरा भाई जैंतसिंह इकहरी धोती में ‘कोड़ा’ बैठ गया.
गांव के लोग आते, दुख जता कर चले जाते. कुछ सयाने बैठे-बैठे आपस में यह विचार भी करते कि अब क्या किया जाए? यह परिवार कैसे संभले? उसी बीच मैंने अपनी पत्नी लक्ष्मी को पत्र भेजा कि मैं भाभी मां और बच्चों को लेकर पंतनगर आ रहा हूं. हम सभी साथ रहेंगे.
एक दिन सड़क के किनारे पत्थरों की दीवाल पर अकेला बैठा था. हमारे सब से सयाने, धूरा के कका रूप सिंह जी, बाज्यू, ससुर खड़क सिंह नयाल मास्साब और दो-एक अन्य लोग आए. कका ने पूछा, “पैं देबी, कि स्वचै? कि करनछ आब? (तो देबी क्या सोचा? क्या करना है अब?)”
मैंने कहा, “हम सभी पंतनगर जाएंगे. घरवाली को चिट्ठी भी भेज दी है मैंने.”
“क्यों तू संभाल लेगा इतना सब कुछ? तुम दो प्राणी, दो बच्चे और सात जने ये हुए. इतना सब कैसे करेगा?” उन्होंने पूछा.
“यरौ, यक बात सुना. (यरौ एक बात सुनो) मान लो, एक आदमी बीस किलो सामान ढो सकता है. अगर उसके सिर पर पचास किलो सामान रख दिया जाए तो क्या होगा,” एक सयाने ने कहा.
“किलै कमर टूट जाएगी, और क्या,” दूसरे ने कहा.
“यही बात है,” पहले सयाने ने कहा, “खाली नौकरी ही तो कर रहा है ये. अगर सारा भार इस पर डाल देंगे तो क्या संभाल पाएगा ये?”
कका बोले, “नहीं संभाल पाएगा. इसलिए आधी जिम्मेदारी इसे देते हैं और आधी हम संभालेंगे. हम भी खाली थोड़ी बैठे हैं? हमारे पास घर है, जमीन है, खेतीबाड़ी है. तीन बच्चों और बहू को तो हम संभाल ही सकते हैं. हमें संभालना ही चाहिए. दुख का पहाड़ टूट पड़ा है, तो हमारी भी तो जिम्मेदारी बनती है कि नहीं? कस?“ (कैसा)
उन्होंने मेरी ओर देख कर कहा और फिर बोले, “ऐसा है देबी, बड़ी लड़की और बड़ा लड़का दो तो ये हो गए. लड़कियां बड़ी हैं, उन्हें पढ़ाना जरूरी है ताकि अपने पैरों पर खड़ी हो सकें. फिर भाईयों को पढ़ाएंगीं वे. इसलिए छोटी या मंझली लड़की में से भी एक जाएगी. आजकल छुट्टियां हैं. स्कूल खुलेंगे तो ये तीन बच्चे तेरे पास पहुंच जाएंगे. इनका ठुलबाबू पहुंचा आएगा. कस?”
सभी सयाने उस बात पर सहमत हो गए. भाभी मां का भी मन था कि सभी पंतनगर जाएं, पढ़े-लिखे माहौल में रहेंगे. वे ठीक सोच रही थीं. दूसरी ओर सयाने भी व्यावहारिक और अनुभव की बात कर रहे थे. उन्हीं ने भाभी मां को भी समझाया.
ददा के पीपलपानी के बाद मैं पंतनगर लौटा. मुझे देखते ही पत्नी लक्ष्मी ने पूछा, “क्यों दीदी और बच्चे कहां है? तुम तो उन्हें लाने वाले थे?”
मैंने उसे पूरी बात समझाई और जून-जुलाई का इंतजार करने लगे. इस बीच बच्चों के हिंदी-अंग्रेजी माध्यम के स्कूल ‘बाल निलयम’ की प्रिंसिपल इरा चटर्जी से मिले. हमारी दोनों बेटियां उसी स्कूल में पढ़ रही थीं. हमने बेटे मदन मेवाड़ी के बारे में उन्हें पूरी बात समझाई और उसके नाम का रजिस्ट्रेशन करने का अनुरोध किया.
उन्होंने पूछा, “किस क्लास में है?”
हमने पूछा, “दूसरी पास करके तीसरी कक्षा में गया है.”
“क्या हिंदी-अंग्रेजी दोनों भाषाएं पढ़ रहा है?” उन्होंने पूछा.
“वहां अंग्रेजी कक्षा-6 से पढ़ाई जाती है. लेकिन, बेटा बहुत होशियार है, जल्दी सीख लेगा. घर में हम भी पढ़ाएंगे,” हमने कहा.
“मैं अंक देख कर और इंटरव्यू लेकर बच्चे को दूसरी कक्षा में ही एडमिशन दे सकूंगी.”
रजिस्ट्रेशन हो गया. जुलाई में पहले सप्ताह में ठुल ददा के साथ बेटा मदन मोहन और दो बेटियां पुष्पा, बीमा आ गईं. मदन का लिखित टैस्ट लेकर दूसरी कक्षा में एडमिशन हो गया. बेटियों के कक्षा-6 और नौ में एडमिशन के लिए इंटरकालेज के प्रिंसिपल उर्वीशचंद्र जी से मिला. पूरी दुखद परिस्थिति समझाई.
वे बोले, “एडमिशन यहां कैसे हो पाएगा मेवाड़ी जी क्योंकि यहां तो केवल उन्हीं बच्चों का एडमिशन होता है जिनके माता-पिता यहां विश्वविद्यालय में नौकरी करते हैं. सीटें भी भर चुकी हैं.
“लेकिन सर, अब तो मैं ही इन बच्चों का अभिभावक हूं. मैंने ही पढ़ाना है इन्हें. बताइए क्या करूं मैं?”
“पिता का अलग नाम दिखेगा!”
मैंने कहा, “ददा और मेरा, दोनों का ही नाम डी एस मेवाड़ी है. वे दीवान सिंह मेवाड़ी थे और मैं देवेंद्र सिंह मेवाड़ी हूं.”
मैंने बहुत प्रार्थना की कि किसी भी तरह एडमिशन कर दीजिए, बेटियां यहां मेरे साथ हैं.
उन्होंने मेरी परिस्थिति को समझा और कहा, हफ्ता-दस दिन बाद आकर पता कर लीजिए. वेटिंग लिस्ट में कुछ बच्चे हैं. एक एक्स्ट्रा सैक्शन खोल कर एडमिशन की कोशिश करता हूं. उन्होंने कोशिश की. एक्स्ट्रा सैक्शन खुला और बेटी पुष्पा का नवीं कक्षा में एडमिशन हो गया और बेटी बीमा को कक्षा-6 में एडमिशन मिल गया.
बेटियों ने दो साल और बेटे मोहन ने चार साल पंतनगर में पढ़ा. चौथे साल तीसरी बेटी नीलम आ गई और बड़ी बेटी पुष्पा का मैं नैनीताल जाकर डीएसबी कालेज और छात्रावास में एडमिशन करा आया.
(जारी है)
वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.
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