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कब्बू और शेरा

कहो देबी, कथा कहो – 23

पिछली कड़ी: कहो देबी, कथा कहो – 22, हवा में गूंजे गीत

भला कब्बू और शेरा को कैसे भूल सकता हूं.

हमारे जीवन में कबूतर पहली बार वर्षों पहले सन् 1972-73 में तब आया था, जब हम पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय के अपने क्वार्टर सैक्टर 5/1391 में रह रहे थे. वहां बिजली के तारों या छतों पर बैठे कबूतर नहीं दिखाई देते थे. चारों ओर हरियाली थी. लोगों से अधिक पेड़ थे और आसपास घना जंगल था. एक दिन घर के भीतर, चहारदिवारी से घिरे आंगन में अचानक एक कबूतर आ गिरा. वह घायल था. एक पैर में चोट थी. पत्नी लक्ष्मी पास गई तो उसने उड़ने की कोशिश नहीं की. अपनी लाल, गोल आंखों से कातरता के साथ ताकता रहा. लक्ष्मी ने उसे उठाया और भीतर बरामदे में लाकर उसके घाव पर डेटाल लगाया. फिर घर में बच्चों के लिए घाव वगैरह की जो दवाएं उपलब्ध थीं, वे लगा दी. उसे अनाज के खाली सूप में बरामदे के किनारे बैठा कर कुछ दाना-पानी दे दिया. अनाज और दालें दीं. हमने देखा, उसे मूंग बहुत पसंद थी. हमारे किचन गार्डन में काफी मूंग हो जाती थी, इसलिए हम उसे मूंग खिलाते रहे. हम उसे कब्बू कहते थे.

कब्बू हममें घुल-मिल कर घर का सदस्य बन गया. धीरे-धीरे घर भीतर डगमग-डगमग चलने-फिरने लगा. बेटियां छोटी थीं- तीन साल और एक साल की. उनके लिए वह चलता-फिरता खिलौना बन गया. उसका डर खत्म हो चुका था. बरामदे में जाली का दरवाजा खुला रहता लेकिन कब्बू उससे बाहर आंगन में जाकर उड़ा नहीं. बल्कि, वह हमारे बेडरूम में खिड़की के ऊपर रोशनदान के पास बैठने लगा. हमने सूप रसोई में रख दिया. वह रोशनदान से नीचे कमरे के फर्श पर उतरता और हमारी तरह पैदल चलता हुआ रसोई में जाता. वहां दाना-पानी चुग कर कमरे में लौट आता और रोशनदान के पास बैठ जाता. हम सोचते रहते, क्या कब्बू को अपने संगी-साथी याद नहीं आते होंगे? दरवाजे खुले रहते हैं, फिर भी वह उड़ कर कहीं जाने की कोशिश क्यों नहीं करता? लेकिन, यह तो केवल हमारे सोचने का विषय था. कब्बू तो बेफिक्र होकर दिन भर टुकुर-टुकुर हमारी गतिविधियां देखता रहता.

इसी तरह तीन-चार माह बीत गए. फिर एक दिन मेरे मित्र अरविंद सक्सेना भूरे रंग का एक प्यारा-सा, रुई के गोले-सा मुलायम पिल्ला लेकर हाजिर हुए और बोले, “लीजिए, बहुत सुंदर पिल्ला है, इसे पालिए.” हमने उसे हाथों-हाथ लिया. चूमा-पुचकारा. बेटियों को भी वह बहुत पसंद आ गया. हमने उसका नाम ‘शेरा’ रख दिया. शेरा कुनमुनाता, कूं-कूं करता और खतरा भांप कर अपनी पतली आवाज में भौं-भौं भौंकने लगता.

हम सब खुश थे. लेकिन, कब्बू? कब्बू का ध्यान आया तो देखा वह रोशनदान के पास डरा, सहमा बैठा शेरा को घूर रहा है. हमने शेरा से उसका परिचय कराना चाहा, लेकिन उसे यह बात पसंद नहीं आई. वह छूट कर फिर रोशनदान के पास जाकर बैठ गया. हमने सोचा धीरे-धीरे आदत पड़ जाएगी. लेकिन, कब्बू को शेरा का घर में आना रास नहीं आया. वह शेरा के आसपास भी नहीं फटकता था और अक्सर अकेला, उदास बैठा रहता. केवल दाना चुगने के लिए रसोई तक आता और फिर लौट जाता.

और फिर एक दिन हमने देखा- कब्बू रोशनदान के पास से नीचे उतरा, दाना चुगा और कमरे में गया. लेकिन, फिर कमरे से बरामदे में आया, जाली के खुले दरवाज़े से बाहर आंगन में गया. कुछ देर पीछे मुड़ कर देखता रहा और उड़ कर आंगन के उस पार डॉ. सोमन के क्वार्टर की छत के कोने पर जाकर बैठ गया. बहुत देर तक वहां से हमारे घर की ओर देखता रहा. लक्ष्मी ने आंगन से हाथ हिला कर बुलाया- ‘कब्बू’! आओ!’ लेकिन, वह चुपचाप देखता रहा. और फिर, उसने पंख फटफटाए, उड़ान भरी और न जाने कहां चला गया. हम बहुत मायूस हुए. उसकी याद आती रही, कई दिनों तक. बल्कि, अब भी आती है. लेकिन, कब्बू नहीं लौटा. हम कभी नहीं समझ पाए कि कब्बू क्यों चला गया? क्या उसे शेरा के साथ हमारा प्यार बांटना पसंद नहीं आया और वह इस बात से रूठ गया? या फिर, उसे शेरा से खतरा महसूस हुआ? हमें कुछ पता नहीं लगा. शेरा भी घर में कुछ महीने खूब खेला-कूदा और एक शाम, हमारे साथ सैर करने निकला. हम बातों में लगे थे कि वह घिरते अंधेरे में इधर-उधर हो गया. आसपास गेहूं की फसल थी. घुटनों-घुटनों गेहूं के बीच हम उसे ढूंढते रह गए लेकिन वह नहीं मिला. अगली सुबह पता लगा, किसी जंगली जानवर ने उसके गले में दांत गड़ा कर उसे भी विदा कर दिया था. हम कई दिन तक उसका दुख मनाते रहे. कब्बू और शेरा को हम कभी नहीं भूलेंगे.

भूलने लायक तो बशेश्वर भी नहीं है, तभी तो आज भी लगता है जैसे वह पास बैठा बड़े सरकार के किस्से सुना रहा हो. हमारे विभाग में वह अचानक ही एक दिन आया और बोला, “आज से मेरा दाना-पानी यहां का लिख दिया है.”

“लिख दिया है? किसने लिख दिया है?”

“इस्टाबिलिशमेंट वालों ने. कहा, वहां जाओ, अब वहीं काम करना. आर्डर अभी आ रहा है.” यह कह कर बशेश्वर ने हाथ में पकड़ी हुई अपनी लंबी झोली का मुंह मरोड़ा और एक कोने में रख कर बैठ गया. आफिस के साथी उससे बातें करने लगे. बातों-बातों में पता लगा, वह फूलबाग में कहीं रहता है. सुबह झोली में रोटी-पानी रख कर आफिस को निकल आता है. छोटी-सी कद-काठी के, हल्के-फुल्के बशेश्वर को देख कर लगता था जैसे समय के साथ नौकरी ने उसे निचोड़ लिया हो.

एक दिन मैंने भी उससे उसकी नौकरी वगैरह के बारे में पूछा तो वह बोला, “मैं तो साब, इस पंतनगर का सबसे पुराना कर्मचारी हूं. सरकार ने रखा था मुझे.”

“किस सरकार ने?” मैंने पूछा.

“जो सरकार इस तराई में स्टेट फार्म चलाते थे.”

“स्टेट फार्म तो उत्तर प्रदेश सरकार का था?”

“वही होंगे. मुझे तो उस फार्म के मनेजर सरकार ने रखा था,” उसने कहा.

मैंने पूछा, “किस काम के लिए?”

“चौकीदारी, और क्या? ये अकेला बशेश्वर सारा स्टेट फार्म देखता था. मज़दूरों से काम कराता था. बहुत बड़ी जिम्मेदारी थी और सरकार को पूरा भरोसा था मुझ पर. फार्म में अनाज पैदा होता था, गन्ना पैदा होता था. वे दिन तो कुछ और ही थे.”

“कुछ और ही कैसे?” मैंने पूछा.

उसने कहा, “क्यों आज का जैसा जो क्या था तब? फार्म के चारों तरफ तब भयंकर जंगल थे. उन जंगलों में खतरनाक जानवर होते थे. बशेश्वर अकेला रात में आग जला कर ड्यूटी देता था. तब रात में कई बार बड़े सरकार की आवाज सुनाई देती थी. क्या पूछते हो साब उन दिनों की बात.”

“बशेश्वर, मैं समझा नहीं, रात में कौन बड़े सरकार आ जाते थे? चैंकिंग करने आते थे?”

“नहीं साब, भूखे होते थे बड़े सरकार. सोचते होंगे, चलो आज बशेश्वर ही मिल जाएगा. एक दिन तो बहुत थका हुआ था. रजाई ओढ़ कर लेटा था, गहरी नींद आ गई. सामने जलाई हुई आग बुझ गई होगी. बस, बड़े सरकार चुपचाप आए, रजाई के साथ ही उन्होंने छोटे-से बशेश्वर को उठाया और चल पड़े फार्म के किनारे-किनारे…सोचते होंगे आज दावत हो जाएगी…..”

फिर हंसते हुए बोला, “बड़े सरकार ने दूर जाकर देखा होगा कि चलो अब

खा लूं. लेकिन, बड़े सरकार को क्या पता कि बशेश्वर तो वहीं छूट गया है. उनके मुंह में तो बस मेरी फटी-पुरानी रजाई थी.”

बड़े सरकार का नाम फिर भी नहीं ले रहा था बशेश्वर. बहरहाल मैं तो समझ ही गया था कि तराई के किसी कद्दावर बाघ की बात कर रहा है.

मैंने पूछा, “क्या बड़े सरकार को पता नहीं लगा होगा कि तुम रजाई में नहीं हो?”

“पता ही जो लग जाता तो ये बशेश्वर आज आपके सामने कहां से खड़ा होता? बड़े सरकार को तो लगा होगा, उसी रजाई में है बशेश्वर. आदमी की बास आ ही रही होगी रजाई से. यह भी देख ही लिया होगा कि हल्का-फुल्का ही है बशेश्वर. अब, उस दिन मेरा भी बचना लिखा ही होगा. तभी तो बड़े सरकार के दांतों से भी बच गया,” उसने कहा.

“हां, यह तो है,” मैंने कहा. और कहता भी क्या?

आफिस में लंच टाइम होता और बशेश्वर अपनी झोली संभाल कर किसी अलग कोने में जमीन पर बैठ जाता. रोटी, सब्जी और गोंद की एक बड़ी, नीले प्लास्टिक की बोतल निकाल कर पीठ फेर कर चुपचाप खाना खाने लगता. कुछ दिन तो यह चलता रहा, फिर आफिस के लड़कों को शक हुआ कि रोटी-सब्जी तो ठीक, लेकिन प्लास्टिक की बोतल का क्या चक्कर है? किसी ने कहा, पानी पीता है, उससे तो किसी और ने कहा, प्लास्टिक की उस गोंद की बोतल में क्यों पानी लाता है? कांच की बोतल क्यों नहीं रखता? शक आगे बढ़ा. खाना खाने के बाद अक्सर बशेश्वर कुर्सी या दीवाल से पीठ टिका कर, आंखें मूंद कर आराम करता या वहीं फर्श पर लेट जाता.

एक दिन खाना खाने के तुरंत बाद किसी लड़के ने उससे कहा, “बशेश्वर, ऐसे क्या लेट रहे हो? कहीं पर ढंग से बैठ जाओ. यह आफिस है.”

“जानता हूं, आफिस है. आराम कर रहा हूं लंच टैम में. तुम्हें क्या?”

लड़के ने बताया, “बस इतना ही बोला बशेश्वर, लेकिन उसके मुंह से बदबू का झौंका आया.”

“कैसी बदबू?” दूसरे लड़के ने पूछा.

“अजीब-सी.”

“कहीं गोंद की बोतल में कुछ और तो नहीं लाता बशेश्वर? चलो पता लगाते हैं.”

अगले दिन जब बशेश्वर कहीं फाइल देने गया तो एक लड़के ने चुपचाप उसकी झोली में से वह नीली बोतल निकाली और ढक्कन खोल कर उसे सूंघा. हम्म! वही हमक आ रही थी उससे. पानी नहीं कुछ और था उसमें. खैर बोतल बंद करके झोले में उसी तरह रख दी गई.

दूसरे दिन यों ही एक लड़के ने उससे पूछा, “बशेश्वर रोज अपनी झोली में गोंद की बोतल लाते हो. क्या गोंद पीते हो?”

वह हंसा, “नहीं सरकार, खाते समय पानी चाहिए ना? पानी लाता हूं उसमें.”

अगले दिन एक लड़के ने बशेश्वर की अनुपस्थिति में उसकी प्लास्टिक की बोतल खोली, उसमें भरी कच्ची शराब शौचालय में बहा कर, उसमें पानी भर दिया और बोतल का ढक्कन बंद करके उसी तरह बशेश्वर की झोली में रख दी.

बशेश्वर आया. उसने लंच टाइम में रोज की तरह खाना खाया और आंखें बंद करके आराम किया. बोला कुछ भी नहीं.

दूसरे दिन एक साथी ने पूछा, “बशेश्वर, कल बोतल का पानी मीठा था?”

“हां सरकार, मीठा था.” कोई शिकायत नहीं. अब ऐसे शरीफ आदमी को आगे कौन तंग करता?

आफिस के लड़कों ने जब उसके पुराने आफिस से उसकी कुंडली का पता लगाया तो पता लगा, “बशेश्वर जहां रहता है, वहां पास में ही नेपाली मजदूरों की झोपड़ियां हैं. वे लोग कच्ची शराब बनाते हैं. बशेश्वर को उनसे वह सस्ती शराब मिल जाती है. जाने कब से पी रहा है, अब तो वह लत बन चुकी है. शरीर कच्ची शराब पर ही चल रहा है उसका. बल्कि, उसके शरीर में खून की जगह कच्ची शराब ही दौड़ रही है. सुबह चारपाई से उठने के लिए शराब की घूंट चाहिए, नहीं तो वह उठ ही नहीं सकता. उसके बिना खाना भी नहीं खा सकता. लेकिन, एक बात है, पीकर शांत रहता है. किसी से लड़ता-झगड़ता नहीं, बस एक दिन साहब के मुंह लग गया…”

“किसी साहब के?”

“डायरेक्टर साहब के.”

हुआ यह कि उस दिन साहब लंच में जल्दी कमरे में आ गए. फाइल भेजनी थी, इसलिए बशेश्वर को आवाज दी. बशेश्वर लंच करके कोने में टुन्न! दो-एक बार फिर आवाज़ दी. बशेश्वर फिर भी नहीं उठा. तब साहब ने उसके पास जाकर जम कर लताड़ लगाई और कहा, “शराब पीते हो? काम में मन नहीं लगता?” यह कह कर वे कमरे में चले गए.

“फिर?”

“फिर क्या, उनके पीछे-पीछे खुद को संभालता बशेश्वर भी कमरे में. साहब पलटे तो उनकी ओर देख कर, हाथ हिला कर बोला, ‘पीता हूं! किसी के बाप की नहीं पीता. अपने पैसों की पीता हूं! किसी से नहीं डरता हूं मैं.’ तब तक हम लोगों ने उसकी आवाज सुन ली. हम उसे बाहर ले आए. और, इस तरह वह आपके यहां पहुंच गया. बस, ये है उसकी कहानी.”

कहानी पता लग जाने के बाद फिर बशेश्वर से कुछ भी कहने की कोई जरूरत नहीं रही क्योंकि वह पीने में चरम स्थिति को प्राप्त कर चुका था. हां, दो-एक बार साथियों ने उसे समझाया जरूर कि बशेश्वर यह कच्ची शराब कई बार ज़हर बन कर जान ले लेती है.

उसका जवाब था, “सरकार जान है ही कहां मुझमें? इसी से थोड़ी आ जाती है.” फिर कौन क्या कहता उससे?

मैंने ही हंसते हुए एक दिन छेड़ा उसे, “बशेश्वर, तुमने बड़े सरकार का किस्सा सुनाया था. उसके बाद नहीं मिले वे कभी?”

“क्यों नहीं सरकार, कई बार मिले. उनकी किस्मत में बशेश्वर लिखा ही नहीं होगा, तभी तो आज भी यहां नौकरी कर रहा हूं. एक बार तो वे मटकोटा के गन्ने के फार्म में बिल्कुल सामने ही मिल गए थे.”

“अरे, तो बचे कैसे?”

“दुबला-पतला बशेश्वर सिर में लकड़ियों का गट्ठर रख कर अपनी झोपड़ी की तरफ जा रहा था. तभी देखा बिल्कुल सामने से बड़े सरकार आ रहे हैं. बशेश्वर की ऊपर की सांस ऊपर, नीचे की सांस नीचे. पैर वहीं थम गए. बड़े सरकार शायद ज्यादा भूखे थे. वे मेरी तरफ आते रहे. लेकिन, तभी….”

“तभी क्या?”

“तभी चमत्कार हो गया. किस्मत का मारा एक चीतल गन्ने के खेत से निकल कर बीच रास्ते पर आ गया. उस दिन भी बशेश्वर का बचना लिखा होगा.”

“अरे तो बाघ ने किया?”

“बड़े सरकार ने सोचा होगा, दो-दो शिकार हैं. बशेश्वर में तो खाली हड्डियां हाथ लगेंगी, चीतल के शिकार से पेट भर जाएगा. बड़े सरकार को देख कर चीतल बेचारा घबराया हुआ खड़ा था. अचानक होश में आया और उछाल मार कर दूसरी ओर गन्ने के खेत में घुस गया. उसका उछाल मारना कि बड़े सरकार ने भी उछाल मारी और चीतल के पीछे दौड़ पड़े. पता नहीं उन्हें चीतल मिला था या नहीं मगर इस बशेश्वर की जान बच गई.”

किस्सा सुनने में डर लग रहा था जबकि भुक्तभोगी बशेश्वर बड़े आराम से सुना रहा था. ऐसे कई किस्से थे उसके पास. कहता था, “वह तो इलाका ही बड़े सरकार का हुआ साब, इसलिए वह तो आते ही रहते थे. हमीं जो उनके इलाके में खेती कर रहे थे. गुस्सा आना ही हुआ उन्हें, ठीक है कि नहीं?”

“ठीक कह रहे हो बशेश्वर,” मैंने कहा.

“बाबा हो, बहुत शेर–बाघ रहे होंगे उस तराई में.”

“रहे ही होंगे. हजारों एकड़ जंगल काट कर विश्वविद्यालय और उसका फार्म बन गया. धीरे-धीरे वहां के बेघर बाघ और चीतल खत्म हो गए. अब तो वहां लोग आते थे, पढ़ने-पढ़ाने और मिलने-मिलाने.”

“मिलने-मिलाने कौन?”

“बताऊं? ओं कहो”

“ओं”

(जारी है)

 

वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.

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Girish Lohani

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