साधो हम बासी उस देस के – 7
–ब्रजभूषण पाण्डेय
(पिछली कड़ी : स्वस्थ बातचीत का वर्जित विषय )
साँकल फिर झनकी
‘सर मे आई कम इन?’
त्रिभुवन गुरूजी ने आँख उठा कर निहारा.
‘क्या नाम है?’
‘जी सरस्वती.’
‘केकर बेटी हो?’
‘जी कमलेस सिंघ के.’
‘कमलेसरा के बेटी हो के अंग्रेज़ी छाँट रही हो.तोहार बाप!आंय? सारे को भंटा के झाड़ में सीढ़ी लगाना पड़े.आंय?’
स्पष्ट है कि यह व्यंगयोक्ति कमलेस के शारीरिक क़द को लक्ष्य कर के चलाई गई थी. सब हंस पड़े.सुरो ने चेहरा गाड़ लिया.
‘साला ई तिरभुवना को ठोकूँगा एक दिन देखते रहना तुम लोग.’ सुनील बुदबुदाया.
सरस्वती उर्फ़ सुरो मंथर गजगामिनी चाल से चलती हुई सबसे पीछे के बेंच की ओर बढ़ने लगी लेकिन बीच में ही उसकी सखियों ने उसे एडजस्ट कर लिया. तीसरे बेंच के एकदम किनारे.सुनील के अनादिकाल से क़ब्ज़ाई सीट से बस एक बालिश्त के फरांक पर.
आह! सुनील के नासिका छिद्रों पर नारी देह,सस्ते पाउडर और बालों में लगाए पैराशूट तेल की मिली जुली गंध ने अधिकार कर लिया.हवास पर नशा सा छा गया.चुआए कच्चे ताड़ी सा.
उसने नज़रें बचा कर देखा-सुरो संस्कृत की किताब पर गर्दन गाड़े कुछ कर रही थी. उसके होंठ खुलते फड़फड़ाते बंद हो रहे थे.शायद वो कोई फ़िल्मी गाना गुनगुना रही थी और तल्लीनता से किताब के पहले पेज पर क़लम से अपना नाम गोद रही थी-डॉट डॉट डॉट.
‘अनाघ्रातं पुष्पं किसलयमलूनं कररूहै.’
यह अनसुंघा पुष्प,अनछुए कोपल,अनचखा मधु विधि बरमा ने ना जाने किस चंडूक के लिलार में लिखा है हो राम.
सबके अंदर अपने अपने अलग कालिदास बज रहे थे और कम से कम बीस दुष्यंतों की कामकल्पनासेवित एक शकुंतला अपना नाम गोदने की प्रक्रिया में लिप्त आख़िरी नुक़्ता लगा रही थी.
‘कहाँ धेयान है हो सुनील तोहार?पढ लिख के कोई हमार खर्ची चलाओगे का बबुआ?’ मास्साब ने बेहद मुलायमियत से पूछा.
सुनील के सपनों की रील घरघरा कर रूक गयी.उसने ज़हरबाद निगाहों से त्रिभुवन को घूरा किंतु कुछ बोला नहीं. शोहदापंथी में वो भुआली का बाप था.उसके पिता पुराने विदा होते ज़मींदारी के आख़िरी रूआब थे.लेकिन उनकी ख्याति जुए,शराब और लाठी बंदूक़ के क्षेत्र में अधिक फैली थी.
इस उत्कृष्ट पृष्ठभूमि के कारण सभी मास्टर सुनील को ‘हैंडल विद केयर’ की श्रेणी में रखते.इस छबि का वह अनुचित फ़ायदा उठाता रहता. उसको पढ़ाई से धेला बराबर लेना देना नहीं था. लेकिन ये यूँ ही नहीं था. इसके पीछे एक लंबी पुरानी कहानी थी.
हुआ यूँ कि कुछ सात आठ बरस पहले सुनील ने अपने हृदय में माता सरस्वती को साक्षात वीणा लिए विराजे देखा.वो उसे प्रेरित कर रही थीं कि बेटा पढ़ो.करो कुछ महान शिक्षा क्षेत्र में.
इस महान दैवी प्रेरणा के वशीभूत वह अपने बेवड़े बाप के पास इस आशय का प्रार्थनापत्र लेकर पहुँचा कि सरकारी विद्यालय में पढ़ने से घंटा कुछ उखड़ने वाला तो हुआ नहीं.इसलिए वो उसका एडमिशन निकटवर्ती क़स्बे के किसी प्राइवेट स्कूल में करा दे-राजबंस चचा के लौंडवे गिरिराज उर्फ़ गिरिया की तरह.
किंतु जुए और शराब के आवश्यक ख़र्चों तले दबे बाप ने इस डिमांड का उतर भुभुनाठ पर नौ नंबर के जूते के प्रहार से दिया. तबसे सुनील ने क़सम खाई थी कि ‘यह तनु सती भेंटि अब नाहीं.’ हे सरस्वती माई.इस जनम में अब हमारा तुम्हारा भेंट संभव नही.
लेकिन राम की माया का कोई पार है भला? सरस्वती से जान कहाँ छूटा.फिर सवार.कक्षा दस सेक्शन ए में.और उसके सामने ई मास्टर ससुरा सुनील की इज़्ज़त का ठंठपाल कर रहा है.
सुनील ने सोचा कि कहीं उसके दबंग व्यक्तित्व की छबि का कबाड़ा ना हो जाए .और कहीं इसी प्वांइट पर लड़की कमज़ोर पुरूष मानकर रिजेक्ट कर दे तब? सो वह तुरंत लंठई पर उतर आया.
‘मास्साब! का दो एसिया में बडका बडका बंदर होता है? राधा गुर्जी बता रहे थे.’
उसने अपने दोनों बेडौल लंबे हाथ डैने की तरह फैला कर ‘बडका’ को परिभाषित किया.
‘अरे तो उनसे पूछो ना.हम कोई भूगोल के मास्टर हैं?’ त्रिभुवन झल्लाए.
‘अरे उनसे का पूछें.उनको सलामू मियाँ से फ़ुरसत हो तब ना?ले जाते हैं उसको बघिया घाट गोखुर झील दिखाने.सलमुआ सारे चिक्कन बहुत हौ.’
लड़के हँसने लगे.लड़कियाँ लजा गयीं. सुरो की आँखों में घृणा के भाव उभर आए.उसने मुँह फेर लिया.
त्रिभुवन मास्टर को समझ नही आया इस घोर बेज्जती का क्या जवाब दें? उन्हें उर्दू पढ़ाने वाले मंसूर हक़ की दुर्गति मालूम थी. मुसलमान लड़कों के प्रति पक्षपात करने के आरोप में सुनील उन्हें पाकिस्तान परस्त घोषित कर चुका था.उसका दावा था कि वो जो रेडियो सटाए रहते हैं दिन रात क्रिकेट कमेंट्री सुनने के लिए उसमें वो सिर्फ़ पाक टीम की जीत मनाते हैं और भारत में सिर्फ़ अज़हरुद्दीन की बैटिंग ही सुनते हैं.
ऐसे नकारात्मक माहौल में जब वो एक दिन क्लास लेने के लिए घुसे तो सुनील और उसके साथीयों ने उनके सरनेम ‘हक’ के ‘क’ को एक ख़ास आवृत्ति में ‘ग’ से रिप्लेस कर टिटकारी मारी.मंसूर हक़ को क्लास से जाना पड़ा
त्रिभुवन कहा करौं कहा ना करौं के उहापोह में फँसे ही थे कि आफिस की तरफ से हल्ला हुच्चड की आवाज़ें आने लगीं.कुछ कांड तो हुआ था.त्रिभुवन ने अपना फ़ोकस तुरंत शिफ़्ट किया और उठ खड़े हुए.
‘रहो अंधकार में तुम सब सारे.विद्या सात जन्म तुम्हारे खुर ख़ानदान को आनी नहीं हुई.’
ऐसा कहते कहते वो बरामदे में लपक लिए. बग़ल की क्लास में बहुमुखी प्रतिभा के धनी जवाहिर मास्टर गणित की क्लास ले रहे थे. त्रिभुवन ने सोचा की इनको भी लपेटते चला जाए.सो वो उनकी कक्षा के दरवाज़े पर चुप खड़े हो गए. जवाहिर पढ़ाने में तल्लीन थे.गणित के साथ साथ साहित्य पर भी उनकी अच्छी पकड़ थी और वे गणित के सवालों को भी दोहे चौपाई और छंदों में निबद्ध कर ले आते. उन्हें त्रिभुवन के आने का बिल्कुल पता नहीं चला.वे आँख मूँदे समीकरण का प्रश्न बोल रहे थे.
‘एक समय वृषभानु दुलारी के हार विहार में टूट गए
बावन सेज,तिरसठ आँगन सत्तर ग्वालिन लूट लिए
अर्ध गए इत में उत में पिय पंचम भाग चुराय लियो
सखी बोलो कितने मोतिन माल गुहे.’
‘चलो चेला.निकालो हल.’
‘जवाहिर बाबू!ए महराज!’त्रिभुवन ने पुकारा.
‘अरे त्रिभुवन तुम?बोलो भाई.’ जवाहिर क्लास से बाहर निकल आए.
‘अरे देख नहीं रहे हैं आफिस में गारी गुप्ता हो रहा है.आइए देखा जाए मथुरा परसाद का बिख बो रहे हैं?’
‘ए भाई त्रिभुवन! ई है साला लंका.इहां कहां सज्जन के बासा?आंय? साला हम ठहरे गंगा पार के आदमी.यहाँ के पोलटिस में पड़े तो समय से पहिले गंगा हेल जाएँगे. अइसे भी हम हार्ट के मरीज़ हैं भाई.झगड़ा लड़ाई से हमारा परान टंगा जाता है.’
‘कितबिए में कबुर बनाय लो सारे.बाकि दुनिया जाए चाहे जहन्नुम के दक्खिन.’
त्रिभुवन भुनभुनाते हुए कट लिए ताकि माहौल की दिलचस्पी ख़त्म होने से पहिले पहिले पहुँच जाएँ. जब वे आफिस पहुँचे तो देखा-राधे कोने में दुबके हैं. चौधरी मास्टर का गाढ़ा साँवला रंग सियाह पड़ गया है.मथुरा कांफिडेंटली तन कर बैठे हैं और मास्टर जनार्दन तिवारी गरजते हुए हेडमास्टर को ललकार रहे हैं.
‘मथुरा बाबू आप लुग्गा के जूंजी हैं क्या?जिसको देखो स्साला चढ़े जा रहा है.’
बनारस से लगे बिहार के कैमूर जिले के एक छोटे से गाँव बसही में जन्मे ब्रजभूषण पाण्डेय ने दिल्ली विश्वविद्यालय से उच्चशिक्षा हासिल करने के उपरान्त वर्ष 2016 में भारतीय सिविल सेवा जॉइन की. सम्प्रति नागपुर में रहते हैं और आयकर विभाग में सेवारत हैं. हिन्दी भाषा के शास्त्रीय और देसज, दोनों मुहावरों को बरतने में समान दक्षता रखने वाले ब्रजभूषण की किस्सागोई और लोकगीतों में गहरी दिलचस्पी है.
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2 Comments
Anonymous
बहुत सुंदर। बिल्कुल मौलिक। ये सोंधापन बरकरार रहे। शुभकामनाएं- रयाल
Bhanu Prakash Srivastava
‘एक समय वृषभानु दुलारी के हार विहार में टूट गए
बावन सेज,तिरसठ आँगन सत्तर ग्वालिन लूट लिए
अर्ध गए इत में उत में पिय पंचम भाग चुराय लियो
सखी बोलो कितने मोतिन माल गुहे.’
यह प्रश्न किस किताब से है?