मैं जब दुगड्डे में पढ़ता था तो मेरी आयु करीब 14 वर्ष की थी. हमारा परिवार अपने क्षेत्र में समृद्ध तथा प्रतिष्ठित परिवार था. पिताजी दो भाई थे. उम समय हमारे ताऊजी के चार पुत्र दो पुत्रियां थीं. मेरे पिताजी का उस समय मैं एक पुत्र तथा दो पुत्रियां (मेरी दो बहिने) थीं. ताऊजी के तीन पुत्रों के विवाह हो चुके थे. अब चौथी पारिवारिक परम्परा से मेरे विवाह की बराबरी आई.
(Memoir by Bhairav Dutt Dhulia)
कई टिप्पणियां मिलाई गई. आखिर चमेठा ग्राम के प. केवलराम जी की पुत्री से मेरा विवाह तय हआ. उन दिनों श्री केवलराम जी एक ख्यातिप्राप्त ठेकेदार थे. उनके पिताजी का नाम श्री लीलानंद था. वे बड़े ख्यात थे. लैंसडौन छावनी के वे मात्र एक लकड़ी के व्यापारी थे.
उन दिनों प्रथम विश्व युद्ध आरंभ हो चुका था. सभी अंग्रेज अफसर लड़ाई में चले गए थे. अंग्रेजों के सबके अपने-अपने मकान बने थे. उन सबको लकड़ी पं. लीलानद जी ठेकेदार ने दी थी और प्रत्येक कैप्टन, मेजर, कर्नल आदि पर उनका सैकड़ों हजारों कर्जा था. अंग्रेज लोग जब लड़ाई पर गए तो उन्होने श्री लीलानंद को बुलाकर कहा कि लीलानंद हम लड़ाई में जा रहे हैं, हमारे पास रुपया नहीं है, जीवित आ गया तो तुमको रुपया देगा, वर्ना समझो तुमने हमारा देना था.
युद्ध बंद होने पर जब अंग्रेज साहब आए तो उन्होंने रुपया उन्हें दिया और एक उन्हें एक सनद भी दी थी कि लीलानंद ही यहां का एकमात्र लकड़ी का ठेकेदार होगा. पं. लीलानंद के लैंसडौन में तब दो तीन मकान भी थे. इसप्रकार इस समृद्ध परिवार से मेरा विवाह सन 14 में हुआ. उस समय मेरी स्त्री की आयु नौ बरस की थी. हमारे परिवार शास्त्रीय भावना के थे. 10 वर्ष से पूर्व पुत्री का विवाह वे शास्त्रोचित मानते थे.
अष्ठवषो भवेन गौरी नव वषो च रोहिणी
दश वषो भवेन कन्या तदूध्व रजोस्वला
अर्थात आठ वर्ष की कन्या गोरी कहलाती है, नौ वर्ष की रोहिणी, दस वष की पुत्री का नाम कन्या होगा, इससे ऊपर लड़की रजस्वला हो सकती है. रजस्वला का दान गर्हित माना गया है. अतः पुराने लोग कन्यादान तक महत्व का दान मानते रहे हैं. मेरी स्त्री रोहिणी रूप में हमारे घर आई. वे नौ बरस की थीं. उनका घरेलू नाम छवाणी था.
(Memoir by Bhairav Dutt Dhulia)
छवाणी नाम का कारण मेरी पत्नी मेरे श्वसुर की ज्येष्ठ पुत्री थी. उससे पूर्व उनके सभी बालकों की मृत्यु होती रही. गांव के पुराने लोगों का कथानक था कि यदि बालक बचते न हो तो उन्हें जन्म के समय जूठी पत्तल में रख दिया जाए तो वे जी जाएंगे. ऐसा ही उन्होंने किया. तदनुसार लव-कुश की तरह मेरी स्त्री का नाम छवाणी पड़ गया.
लव गाय के पूछ के बाल को कहते हैं. सीता जी के जब दो युगव (जड़वा) पुत्र हुए तो पैदा होते ही गर्भ का क्लेद गाय के पूछ के बालों से पोछा, वह लव हो गये. जिनका कुश घास से पोछा वे कुश हो गए. मेरी स्त्री जूठी पत्तल पर रखी गई थी वह छवाणी कहलाई. छवाणा नाम पहाड़ी भाषा में उच्छिष्ठ (जूठे) का है. जब यह तय हो गया कि मेरा विवाह चमेठा से होगा तो माघ का महीना विवाह का दिन तय हुआ.
हमारा पुरोहित परिवार था. हमारे यजमान बहुत थे. तीन-चार गांव तो पूरे थे फिर इष्ट मित्र अलग थे. बारात में सबको आमंत्रित करना कर्तव्य होता है. इस प्रकार हमारे परिवार में बड़ी-बड़ी बारातें तब जाती रही हैं.
(Memoir by Bhairav Dutt Dhulia)
मैं दो भाइयों में छोटे भाई का मात्र एक बेटा था. ताऊ जी के तीन लड़कों की शादी हो चुकी थी. सब यजमानों का ख्याल था कि मेरी शादी धूमधाम से हो. सब यजमान उसमें भाग लेंगे. मेरे पिताजी साधारण ब्याह के पक्षपाती थे पर मेरे ताऊजी ने इसे स्वीकार नहीं किया. पूरे धूमधाम से बारात की बात तय हो गई.
उन दिनों बारात में गाने वाली उत्तम गायिका वेश्या को बुलाने की पद्धति थी. यह प्रतिष्ठा का विषय माना जाता था. मेरे ब्याह में दो गायिका वेश्याएं बुलाई गई. चार जोल के घरेलू बाजे थे. 16 देसी बाजे वाले थे. तुरही और सिंणाई घरेलू शुभसूचक बाजे थे. 32 डांडियां विविध मेहमानों तथा प्रतिष्ठित यजमानों के लिए थीं. 64 दंडी ले जाने वाले व्यक्ति थे. आतिशबाजी की पूरी व्यवस्था थी रात भर जलायी जाया करें. करीब सब 6 सौ बारात थी. कई घोड़े भी थे. इस प्रकार बारात एक छोटी पलटन जैसी बन गई.
उन दिनों रिवाज था मिरजई, चुस्त पायजामा, सफेद टोपी, या पगड़ी पहनने का. लोग सब सज-धजकर बारात में आते थे. बारातें पैदल जाती थीं. तब मोटर सड़क केवल कोटद्वार से लैंसडौन के लिए उफरैखाल तक ही थी. बाकी पैदल सड़क या पैदल मार्ग थे. बारात सज-धज कर चमेठा के लिए रवाना हुई. हमारे यहां से चमेठा करीब 12 या 14 मील था. दो मील से अधिक बारात की लंबाई थी.
बारात करीब एक बजे लैंसडौन गिरजाघर पर पहुंची. उस समय अंग्रेज अफसर गिरजाघर में युद्ध के कारण विशेष प्रार्थना के लिए आए हुए थे. बाजे वाले आगे चल रहे थे, बंदूक तथा गोले दागे जा रहे थे. अंग्रेज बाहर आए. घोड़े वाले घोड़े पर थे, दंडी वाले दंडी पर. पालकी आगे-आगे थी. उनमें कुछ अंग्रेज नाराज हो गए. एक राबर्ट नामक अंग्रेज ने इक्जक्यूटिव आफिसर के यहां बारात की रिपोट कर दी, क्योंकि प्राथना में बाधा पहुंची.
(Memoir by Bhairav Dutt Dhulia)
बारात रात आठ बजे चमेठा पहुंची. धूमधाम रही. रात्रि को विवाह आदि हुआ. मैं चौदह वर्ष का मेरी पत्नी नौ वर्ष की. वेदी में पंडित लोग तथा जनता पारम्परिक आमोद-प्रमोद का आनंद लेती रही. विवाह का वेदी क्रियाकलाप बहुत कौतुहल पूर्ण माना जाता है. लड़का तथा लड़की एक दूसरे को तिलक, कंघी, तेल लगाते हैं तथा एक दसरे का खिलाते हैं, स्वयं कुछ खाकर. इस क्रियाकलाप में दोनों पाटियों के चतुर लोग भी सम्मिलित रहते है कि जूठा एक को खिलाया जाए. इसमें कभी-कभी पडितों के मुंह में भी लडु, दही लोग ठूस देते हैं.
चूंकि हम लोग अल्पव्यस्क थे, लज्जा तथा शरम किसी को नहीं थी, निभीक होकर एक दमर को चंदन वगैरह लगाते रहे. जनता निभीकता का तथा शरम न होने का आनन्द लेती रही. हमारे ताऊजी पंडित थे, सामने बठे थे, वे भी खूब हंसते रहे. जब दुल्हन निर्भीक रूप से चदन आदि लगाती रही. अवश्य पक्षधर लागों ने जूठा खाने के अवसर पर एक दूसरे का मुंह दुशाले से ढककर बचाने की चेष्टा की. इसका फल यह हुआ कि दोनों ओर के पडितों का मुंह दही से भर दिया गया. हम लोग रात भर पूजा में लीन थे तो उधर बाराती लोग नाच गाने में मस्त थे. दो प्रसिद्ध नाचने गाने वाली स्त्रियां थी. बारी-बारी से उनका गाना होता रहा.
(Memoir by Bhairav Dutt Dhulia)
वेदी पूजा में मेरी बुद्धिमत्ता पर मेरे ससुराल वालों की प्रसन्नता दो बातों पर थी. पहली बात जब हम वेदी में बैठ रहे थे तो कन्यादान के बाद आगे कन्या पीछे वर एक दूसरे पर बंधे हुए चलते हैं. जैसे ही वेदी पर बैठने की बात आइ कि कन्या पहले बैठी. वे चटाई पर वेदी से वाहर बढ़े हिस्से में बैठी कि लुढकने लगी. मैं पीछे खड़ा था अपने पांवों के बल उन्हें थाम लिया. लोग बहुत खुश हुए.
दुसरी बात जब वर आशीर्वाद देता है तो मैंने ‘पं. शैवा समुपासते शिव इति’ इस श्लोक को पढ़कर आशीर्वाद दी. दुगड्डा मे हमारे गुरूजी उन दिनों प. गोविंदराम जी जुयाल थे. उन्होंने इसी काम के लिए मुझे कुछ श्लोक याद करा दिए थे. इन दो बातों से वहां की जनता बहुत खुश हुई. उन्होंने यह समझ लिया कि वरनारायण अच्छा है, बुद्धू नहीं है.
दुसरे दिन प्रातः भोजन करने के बाद बाराती मदनपुर के लिए प्रतिस्थित हुई जैसे ही बारात लैंसडौन के किनारे पर आई कि चार पुलिस के सिपाही लाल पगड़ी पहने खड़े हैं. पूछ रहे हैं कि वरनारायण का पिता कहां हैं. उनको एक्जीक्यूटिव साहब ने बुलाया है. तब एक्जीक्यूटिव आफिसर अग्रेज ही होता था. सब बाराती डर गए बाजे बजना बंद हो गया, बंदूक-गोले दागना बंद हो गए. बारातियों में मातम छा गया कि वर नारायण का बाप पकड़ लिया गया है.
(Memoir by Bhairav Dutt Dhulia)
मेरे पिताजी इन कामों में दक्ष थे. उनको लोग विलेज वारिस्टर कहते थे. उन्होंने बारात को अग्रसर होने को कहा और स्वयं सिपाहियों के साथ चले गए. बारात ठंडी सड़क से पुनः गिरजाघर की तरफ चल पड़ी जहां पहले दिन अंग्रेज नाराज हो रहे थे. उसी सड़क से करीब सौ से अधिक सिपाही चान्दमारी करके आ रहे थे. सब सिपाही जैसे ही पालकी के पास आए तो झुककर व प्रणाम करने लगे और उन्होंने बाजे वालों को कहा कि बाजे बजाओ. बाजे क्यों बंद है? उनके कहने से बाजे वालों का उत्साह खुला व बाजा बजाने लगे.
जैसे ही बारात गिरजाघर पर पहुंची कि हमारे पिताजी भी आ गये. लोग खुश हो गए. मालूम हुआ कल एक अंग्रेज ने बारातियों द्वारा उनका सम्मान न किए जाने की शिकायत कर रखी थी. पिताजी ने कहा एक्जीक्यूटिव आफिसर से कि आज तो मुझे जाने दें, बारात की व्यवस्था करनी है. दूसरी पेशी जवाब के लिए लगा दें. उन्होंने दूसरी पेशी लगा दी.
बारात रात को मदनपुर पहुंच गई. दूसरे दिन एक्जीक्यूटिव आफिसर ने मेरे पिताजी तथा मेरे वृद्ध श्वसुर श्री लीलानंद जी को भी तलब कर लिया कि बिना इजाजत कैन्टोनमैट के अंदर से बारात क्यों लाए? पं. लीलानद जी ने जवाब दिया कि रास्ते अनेक हैं यह मालूम नहीं था कि यहीं से बारात आएगी. मेरे पिताजी ने कहा कि हमें मालूम नहीं था कि इसके लिए इजाजत लेना जरूरी है. एक्जीक्यूटिव आफिसर ने 70 रुपया जुर्माना किया यह कहते हुए कि आइन्दा ऐसा मत करना. चूंकि ये लोग अभिज्ञ थे उन्होंने यह गैरकानूनी जुर्माना दे दिया. मामला समाप्त हो गया.
(Memoir by Bhairav Dutt Dhulia)
भैरव दत्त धुलिया
भैरव दत्त धुलिया का यह आत्मीय संस्मरण पहाड़ पत्रिका के अंक से साभार लिया गया है.
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