बसपा प्रमुख मायावती के प्रधानमंत्री बनने की संभावना से राजनीतिक दलों को जो भी दिक्कत या प्रतिस्पर्धा हो, लेकिन महसूस ये होता है कि परेशानी मीडिया को कुछ ज्यादा है. सपा-बसपा गठबंधन के समय से ही प्रमुख मीडिया संस्थानों ने इससे जुड़ी रिपोर्टें जारी कीं और बसपा प्रमुख मायावती को हर लिहाज से प्रधानमंत्री पद के लिए अयोग्य ठहरा दिया. उसी पैमाने पर उन्होंने अब तक बन चुके प्रधानमंत्रियों या किसी अन्य दावेदार को परखने की जहमत नहीं उठाई. कुल जमा निष्कर्ष नरेंद्र मोदी का नाम लिए बगैर ये बताया कि मौजूदा प्रधानमंत्री के अलावा बाकी तो बन ही नहीं रहे और मायावती भी बिल्कुल योग्य नहीं हैं. मीडिया में आए ऐसे आलेखों में जो प्रमुख अयोग्यताएं बताई गई हैं, वे दिलचस्प हैं और उनके जवाब भी हैं. ये जवाब दलित समुदाय के शिक्षित वर्ग के बीच ही मिले हैं.
मीडिया के पंडितों का कहना है कि मायावती भरोसेमंद नहीं हैं. सपा से गठबंधन व्यक्तिगत हितों के कारण तोड़ दिया. गेस्ट हाउस कांड में उनकी भाजपा ने मदद की तो उससे गठबंधन किया, लेकिन अपने हिस्से के छह महीने पूरे होते ही गठबंधन से मुकर गईं. एक वोट से वाजपेयी सरकार गिरने पर उन्होंने यूपी का बदला ले लेने का दावा किया. अविश्वसनीयता की ये प्रवृत्ति मायावती के व्यक्तिगत रिश्तों में भी दिखाई देती है. भाजपा के साथ गठबंधन में थीं तो उन्होंने लालजी टंडन के घर जाकर रक्षाबंधन मनाया और गठबंधन टूटते ही ‘लालची टंडन’ कह दिया. आज के अपने गठबंधन के साझीदार अखिलेश यादव को पहले वे ‘बबुवा’ जैसे संबोधनों से भी नवाज चुकी हैं. अविश्वसनीय मायावती के अविश्वास की आंच बसपा के अनेक नेताओं की राजनीति को लील गई.
जवाब– पहली बात तो सियासत में गठबंधन राजनीतिक मकसद हासिल करने के लिए होता है, मकसद हासिल न होने पर गठबंधन टूट जाने की बात कोई नई नहीं है. भाजपा ने तो कश्मीर से लेकर पूर्वोत्तर के राज्यों में मूल राजनीति से हटकर गठबंधन किए और तोड़ भी दिए, कश्मीर में तो राष्ट्रपति शासन लागू करा दिया और चुनाव न कराके लोकतांत्रिक प्रणाली को ही ध्वस्त कर दिया. भाजपा खुद कब विश्वसनीय रही जो उससे भरोसे का रिश्ता कायम किया जाता. अविश्वसनीयता की प्रवृत्ति का आरोप कितना चिढऩ भरा है. प्रवृत्ति बदलने वाली चीज है, प्रकृति नहीं. मायावती में अगर ये प्रवृत्ति है तो भाजपा लाख चाहकर भी ब्राह्मणवादी प्रकृति नहीं बदल सकती, क्योंकि प्रकृति नहीं बदलती. लालजी को ‘लालची’ टंडन कहने की वजह भी यही बनी. अखिलेश को बबुआ कहने का आपको क्यों बुरा लगता है जब अखिलेश को नहीं लगता? बबुआ का अर्थ बच्चा समान होता है, अगर इस अर्थ को लिया जाए तो इसमें गलत क्या है! मायावती की सियासी जिंदगी और अनुभव के सामने अखिलेश बबुआ ही हैं. अविश्वास की आंच से कई नेताओं की राजनीति लील जाने का सबसे बड़ा उदाहरण तो लालकृष्ण आडवाणी हैं. इससे भी आगे वे लोग, जिनकी जानें तक नहीं बचीं. कमाल करते हैं मीडिया के पंडित जी भी.
मायावती को कठोर प्रशासक के तौर पर प्रचारित किया जाता है, लेकिन उनके तौर-तरीके लोकतांत्रिक परिभाषाओं पर खरे नहीं उतरते. प्रशासनिक अधिकारियों से खराब बर्ताव की कई घटनाएं हैं. मुख्य सुरक्षा अधिकारी से सार्वजनिक तौर पर सैंडल साफ करवाने तक. पायलट शशांक शेखर सिंह को मुख्य सचिव के ऊपर कैबिनेट सचिव भी इसका उदाहरण है.
जवाब– एक महिला, वो भी दलित समुदाय की. कठोरता न बरतें तो क्या उन्हें राजनीति की दुनिया में पल भर को भी टिकने दिया जाएगा. जिसके चारों ओर अविश्वसनीय लोगों की, साजिश करने वालों की भरमार हो, वह विश्वासपात्र क्यों नहीं रखेगा. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तो अपनी कैबिनेट के प्रमुख पदों पर उन लोगों को बैठा दिया जो लोकतांत्रिक प्रक्रिया में हारे हुए लोग थे. लोकतंत्र का चेहरा तो असल में विधायिका के मेकअप से ही तय होता है, अफसरशाही में किसी को जिम्मेदारी देने से नहीं. शशांक शेखर सिंह को कैबिनेट सचिव बनाया जाना अलोकतांत्रिक था तो किसी ने इस अलोकतांत्रिक कदम को चुनौती क्यों नहीं दी? गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने अद्र्धसैनिक बल के जवान से जूते के फीते बंधवाए, ये शायद आप याद रखना नहीं चाहते.
मायावती को जनधन के दुरुपयोग के लिए भी जाना जाता है. स्मारकों के नाम पर हो या खुद की सुख-सुविधा के लिए, उनके हर कार्यकाल में उन पर सरकारी खजाने के भरपूर दुरुपयोग के आरोप लगते रहे हैं. मायावती की पहली सरकार में अमेरिका से पायलट की नौकरी छोड?र आये रिजवी उनके ओएसडी हुआ करते थे. लेकिन उन्होंने लाखों रुपये का अपव्यय करके बाथरूम बनवाने जैसे कई आरोप मायावती पर लगाते हुए अपना पद छोड़ दिया था. यह सिलसिला मायावती के पिछले कार्यकाल तक चलता रहा. इसमें उन्होंने अपने ही बनवाये हुए स्मारकों और लखनऊ की जेल को अदालत के आदेशों की अवहेलना करते हुए मटियामेट कर दिया था.
जवाब– जनधन का दुरुपयोग जितना मोदी सरकार ने किया है, उतना शायद पहले किसी भी सरकार में नहीं हुआ. सरकारी खजाने से सुख सुविधा और दुरुपयोग का आरोप आखिर लगाया किसने, आप ही ने न. आपको मायावती के स्मारक बुरे लगते हैं, आपको पंडित दीनदयाल उपाध्याय के नाम पर सैकड़ों मेले, पोस्टर, योजनाएं, नाम बदलने की खर्चीली सियासत बुरी नहीं लगती. अटल बिहारी वाजपेयी की मौत को बारात की तरह घुमाने में कोई खर्च नजर नहीं आता. आपको तीन हजार करोड़ की सरदार बल्लभभाई पटेल की मूर्ति बनाने में कोई बुराई नहीं लगती, दस लाख का कोट पहनने और काजू की रोटियां खाने में बुराई नहीं लगती, ‘मन की बात’ के प्रचार और विदेशी दौरों के नाम पर, पार्टी की रैली के लिए सरकारी खजाना लुटाने में कोई बुराई नजर नहीं आती. मोदी सरकार के प्रचार पर 11 अरब के खर्च के आगे मायावती के स्मारकों की हैसियत ही क्या है. भाजपा का दिल्ली में 600 करोड़ का दफ्तर भी आपने नहीं देखा होगा, ये आपने भाजपा नेताओं के खून पसीने की कमाई मान ली होगी. आपको मायावती का लखनऊ में बनवाया वह पार्क देखना चाहिए, जिसमें सिर्फ पीपल के पेड़ लगाकर पूरे लखनऊ की हवा शुद्ध करने का इंतजाम किया गया.
प्रधानमंत्री के पद पर मायावती की दावेदारी में जो एक और बात उनके खिलाफ जाती है, वह यह है कि वे दलितों के ही हर तबके का चेहरा नहीं बन सकी हैं. बहुजन और सर्वजन की बात करते रहने के बावजूद उन्हें उत्तर प्रदेश में अपनी जाति विशेष का ही पक्षधर माना जाता रहा है. कर्नाटक, जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, बिहार, झारखंड आदि राज्यों में इक्का-दुक्का सीटें जीतते रहने के बावजूद बाबा साहब की कर्मभूमि महाराष्ट्र में उनका कोई प्रभाव नहीं है. दलित राजनीति से जुड़े अन्य राजनीतिक चेहरों से भी वे कभी तालमेल नहीं बिठा पाईं.
जवाब– ऐसा किस पुस्तक में उल्लेख है कि जब तक कोई दलित नेता हर दलित तबके का चेहरा नहीं बन जाता, वह प्रधानमंत्री नहीं बन सकता. क्या अब तक जो भी प्रधानमंत्री बने हैं, उनमें ऐसा गुण था कि वे हर तबके के नेता थे. मायावती का कार्यक्षेत्र प्रमुख तौर पर उत्तरप्रदेश रहा तो उनकी पहचान भी वहीं ज्यादा हुई. नरेंद्र मोदी को लोकसभा चुनाव 2014 के चुनाव से पहले कौन पूरे देश में जानता और मानता था. गुजरात दंगा से पहले तो नरेंद्र मोदी को गुजरातियों के अलावा पांच प्रतिशत लोग भी नहीं जानते थे. दूसरी बात, दलित आंदोलन पूरे देश में अलग-अलग तरीके से विकसित हुआ है, इसलिए उसके अपने स्थानीय नेता भी उभरे हैं. इस बात का प्रधानमंत्री पद की योग्यता से क्या लेना-देना है. आज मायावती की पहचान देशभर में है, वह भी बिना मीडियाई सहयोग के. याद भी कीजिए, आपने डॉ.अंबेडकर को बाबा साहब कबसे कहना और लिखना सीखा.
मायावती को अंतरराष्ट्रीय राजनीति, अर्थव्यवस्था व कूटनीति के मामलों का जरा भी जानकार नहीं माना जाता और एक सांसद के रूप में भी इन मसलों पर उनकी दिलचस्पी कम ही देखी गई है. उन्हें आत्मकेन्द्रित और अपनी ही चिंता करने वाले नेता के रूप में देखा जाता है. लखनऊ में उनकी पार्टी के आलीशान भवन के लिए जिस निर्ममता से दलितों और अन्य गरीबों के घर उजाड़े गए थे, वह मायावती के व्यक्तित्व के इसी रूप का उदाहरण हैं. उनके सडक़ों पर निकलने से पहले जिस तरह सडक़ों को धूल की मशीनों और पानी से साफ किया जाता था, वह लखनऊ के नागरिकों को अभी भी याद है.
जवाब– इस पैमाने पर मौजूदा प्रधानमंत्री को भी मापा जाना चाहिए. उनको तो देश के इतिहास भूगोल का भी पता नहीं. बिहार में सिकंदर आया, बिहार में तक्षशिला था, ए प्लस बी का होल स्क्वायर, नाले की गैस से चाय बनाना आदि कितने उदाहरण हैं. अर्थव्यवस्था का हाल ये है कि पूरी तरह देश बर्बादी की कगार पर खड़ा है. कूटनीति ऐसी कि हमेशा से साथ रहे देश भी सुनने को राजी नहीं हैं. पड़ोसी देशों से मुंह की खा रहे हैं. मायावती आत्मकेंद्रित हैं, ये आपका विश्लेषण है, आप लोगों के बीच यही इमेज बनाना चाहते हैं इसलिए. कभी केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी के व्यक्तित्व का भी विश्लेषण करने में दिलचस्पी ली होती, उनकी प्रवृत्ति और मनोवृत्ति पर भी प्रकाश डाला होता. लखनऊ में पार्टी के आलीशान भवन के लिए दलितों को उजाड़े जाने का आपको बहुत दर्द होता है. मोदी की सभा के लिए सैकड़ों बीघा खड़ी फसल कटवा देने और हरे पेड़ों पर आरी चलवा देने की भी खबर लेना चाहिए. आलीशान भवन तो भाजपा ने बनाया है, जिसमें वास्तुशास्त्र की वजह से अमित शाह नहीं बैठ रहे. मायावती के दौरे से पहले सडक़ों की धूल साफ करने का हास्यास्पद आरोप भी खूब है. स्वच्छता मिशन के नाम पर गुड़ गोबर का अंदाजा लगाना चाहिए. गंगा सफाई के लिए 2000 करोड़ रुपये खर्च करके और गंदा हो जाने की रिपोर्ट भी आ चुकी है. वैसे, सडक़ की मशीनों से सफाई आपको इतनी खराब क्यों लगी, आपको झाड़ू हाथ से लगाने वाले ही क्यों चाहिए?
मायावती एक और वजह से भी प्रधानमंत्री पद की दावेदारी में कमजोर पड़ती दिखती हैं. उनके विरोधी और उनके साथ रहे लोग भी ‘दौलत की बेटी’ कहकर उन पर धन लोलुप होने का आरोप लगाते रहे हैं. उनके जन्मदिन पर पार्टी के नेताओं से की जाने वाली धन की वसूली अब कोई छिपी हुई बात नहीं है. बीएसपी छोडऩे वाले हर छोटे-बड़े नेता ने पार्टी छोड़ते वक्त एक ही बड़ा आरोप लगाया – मायावती पार्टी के टिकट बांटने के लिए बड़ी-बड़ी रकम लेती हैं.
जवाब– धुरविरोधियों के आरोप तो कुछ भी हो सकते हैं, इससे प्रधानमंत्री पद की दावेदारी पर फर्क पड़ता तो ‘चौकीदार चोर है’ का सरेआम प्रचार का भी पडऩा चाहिए. एक के बाद एक सार्वजनिक उपक्रमों को अंबानी-अडानी गु्रप के हवाले करना भी धन लोलुपता और ऐशोआराम का हिस्सा है. जन्मदिन के नाम पर वसूली का आरोप तो आपही का है. अपने नेता के लिए पार्टी ने चंदा किया तो इसमें आपको दिक्कत क्यों हो गई. इस पर भी सोचिए कभी, नौकरियां निकालकर मोदी सरकार ने करोड़ों रुपये आवेदन शुल्क बेरोजगारों से वसूलकर कमा लिए, इसको क्या कहा जाए. बेरोजगारों की जेब पर डाका कह सकते हैं या नहीं. बसपा छोडऩे वाले नेताओं के आरोप पर क्या बात हो सकती है, पार्टी छोडऩे वाले उन्हीं लोगों ने क्या गुल खिलाए, ये उनकी हैसियत से परखा जा सकता है. भाजपा छोडऩे वालों ने भी ऐसे आरोप मढ़े हैं. येदियुरप्पा की डायरी और पनामा लीक्स पर भी गौर करना चाहिए, जिसमें एक से बढक़र एक ‘चौकीदार’ का नाम दर्ज है.
मायावती प्रतिशोध की राजनीति के आरोपों से भी बची नहीं हैं. कुंडा के बाहुबली रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया पर गैरकानूनी ढंग से पोटा लगवाने, इलाहाबाद की हिंसक राजनीति में अतीक अहमद पर जबरन नकेल डालने, कांग्रेस नेता रीता बहुगुणा के अपशब्दों के जवाब में उनका घर फूंके जाने और बीजेपी नेता दयाशंकर सिंह की पत्नी और बेटियों के विरुद्ध अमर्यादित बयानबाजी और धमकियों पर चुप्पी साध लेने जैसी अनेक घटनाएं इसका उदाहरण हैं.
जवाब– ये आरोप तो गजब ही हैं. प्रतिशोध की राजनीति में मोदी और अमित शाह से आगे भी कोई हो सकता है क्या? गुजरात दंगे, जज लोया की हत्या से लेकर जाने कितने मामले का रहस्य आज तक बना हुआ है. मोदी ने तो हाल ही में रैली में कहा- चुन चुनकर बदला लेता हूं. ये बात आपको बिल्कुल नहीं चुभी होगी. एक तरफ बाहुबली कहना और दूसरी ओर गैरकानूनी ढंग से पोटा कहना, क्या बताता है. हिंसक राजनीति में अतीक अहमद पर नकेल कसा जाना आपको खराब कैसे लगता है. क्या गुंडे-बदमाशों को तोहफे देना चाहिए, जैसे भाजपा ने दिए हैं? दयाशंकर सिंह की पत्नी और बेटियों पर अमर्यादित बयानबाजी पर चुप्पी का आरोप कितना सही है, उस घटना से पहले क्या हुआ था, इसका भी जिक्र होना चाहिए. अखिलेश सरकार ने दयाशंकर सिंह पर एफआईआर दर्ज कराई थी, क्यों?
मायावती की राजनीति में शक्तियां किसी दूसरे के हाथ में नहीं हो सकतीं. इसलिए उनकी पार्टी में कोई नंबर दो नहीं हो सकता. अधिनायकवाद का रंग ऐसा कि उनकी पार्टी का कोई नेता उनके साथ बराबरी करना तो दूर उनके सामने बैठ भी नहीं सकता. ज्यादा दिन नहीं हुए जब बड़े-बड़े सूरमा विधायकों को उनके सामने दरी पर ही बैठे देखा जाता था. राजनीतिक मंचों पर भी प्राय: उनका अकेला सिंहासन ही लगता है. अभी हाल ही में अखिलेश यादव के साथ उन्होंने जो प्रेस वार्ता की थी उसमें भी मायावती की कुर्सी का आकार अखिलेश यादव की कुर्सी से बड़ा रखा गया था.
जवाब– अजीब आरोप है, राजनीतिक शाक्तियां किसी और को सौंपने पर वह खुद क्या करेंगी! आजादी के बाद अब तक अधिनायकवाद का सबसे बड़ा उदाहरण नरेंद्र मोदी बने हैं, जिनके आगे लोकतांत्रिक संस्थाएं बौनी हो गई हैं. देश के आम लोगों की जिंदगी गुम कर देने वाला नोटबंदी का फैसला रिजर्व बैंक की अनदेखी करके ले लिया. मोदी के फैसले में किसी भाजपाई की हिम्मत नहीं कि ‘चूं’ भी बोल जाए. वहीं मायावती ने खुद के कद को इस तरह दिखाकर दलित समुदाय में आत्मसम्मान जगाया कि उनके नेता के आगे सूरमा भी पानी मांगते हैं. ऐसा हुआ, तभी देहात के मामूली से दलित थाने तक रिपोर्ट दर्ज कराने की हिम्मत जुटा पाए. अखिलेश की कुर्सी से बड़ी कुर्सी की बात पर आप दुखी न हों, ये बात अखिलेश यादव को ही बुरी लगने दें. आपको तो तेजस्वी यादव का पैर छूना भी बुरा लगा होगा.
मायावती पर घोर अवसरवादी, अति शंकालु, असहिष्णु और अति निर्मम होने के आरोप लगते रहे हैं. उनकी राजनीतिक शैली में क्षमा की गुंजाइश बहुत कम है. अब तक जितने भी राजनीतिक समझौते और गठबंधन उन्होंने किए हैं उन सब में उनकी ओर से तब तक ही कोशिशें हुई जब तक उन्हें अपना वांछित हासिल होता रहा.
जवाब– इन एक सांस में लगाए आरोपों का क्या किया जाए. क्षमा की गुंजायश की बात करते हैं आप, क्या आपके पास ऐसा कोई उदाहरण है कि मायावती ने महत्वाकांक्षा के लिए किसी की जान ले ली हो. आपके आदर्श नेता, जिन्हें आप हमेशा सत्ता में देखते रहना चाहते हैं, वे ऐसा कई बार कर चुके हैं, सामूहिक हत्याओं तक को अंजाम दे चुके हैं. वांछित फल हासिल करने के लिए देश की गृहनीति-विदेश नीति दांव पर लगा दी. मायावती के ऊपर ऐसा कोई आरोप नहीं है.
हाल का दौर मायावती के राजनीतिक सफर में गिरावट का दौर रहा है. दो विधानसभा चुनावों और दो लोकसभा चुनावों के नतीजे उनके लिए आशाजनक नहीं रहे, लेकिन उत्तर प्रदेश में हुए गठबंधन ने फिर से उनकी उम्मीदें जगा दी हैं. अब अगर वे यहां सारी बाधाओं को पार करके 25-30 लोकसभा सीटें जीत जाती हैं तो पवार फार्मूले के अनुसार प्रधानमंत्री पद की एक दावेदार हो सकती हैं. हालांकि, गठबंधन वाले दिन जब मायावती की मौजूदगी में अखिलेश यादव से देश के अगले प्रधानमंत्री की दावेदारी के बारे में पूछा गया तो उन्होंने सीधे-सीधे मायावती का नाम लेने में संकोच करते हुए सिर्फ यह कहा कि अगला प्रधानमंत्री यूपी से ही होगा, यूपी ने पहले भी कई प्रधानमंत्री दिए हैं.
जवाब– राजनीतिक सफर में गिरावट चुनाव नतीजे से नापना आपका पैमाना हो सकता है. सामाजिक आंदोलन इससे न उभरते हैं, न विकसित होते हैं और न ही खत्म होते हैं. वे प्रधानमंत्री होंगी या नहीं, ये वक्त और राजनीतिक समीकरण तय करेंगे. आपके हिसाब से तो उन्हें किसी सूरत बनना ही नहीं चाहिए, इतना ही काफी है. अगले प्रधानमंत्री को लेकर आप चाहते हैं कि कोई और बने ही न, सिवाय भाजपाई नेता के, मोदी के. अखिलेश ने संकोचवश कहा, ऐसा आपको लगा, ये जरूरी नहीं वह संकोच हो. आपको जिस बात का डर है, वह दरअसल कुछ और है.
मायावती के प्रधानमंत्री बनने का सपना उनसे ज्यादा दलित समुदाय के लोगों का है, भले ही उनमें से तमाम उनके विरोधी ही क्यों न हों. इससे होगा क्या, ये समझ लीजिए. जब मायावती मुख्यमंत्री बनीं तो क्या हुआ था. दलितों ने लखनऊ की चकाचौंध देखी, विधानभवन में टहलते-टहलते कई बार गलियारे में गमछा बिछाकर सो भी गए. किसी की हिम्मत नहीं थी कि उन्हें दुत्कार सके. चुनाव के दौरान तमाम ठाकुर साहब और पंडिज्जी की मजबूरी हो गई कि वे अपने घर के फ्रीज से दलित कार्यकर्ताओं को ठंडे पानी की बोतल निकालने दें, न कि बाहर रखे घड़े से पानी पीने को मजबूर करें. जिन चौखटों के सामने से निकलने पर भी डर लगता था, उन घरों के आंगन में बीड़ी पीकर, तंबाकू रगडक़र फटका मारा और अपने अंदर मौजूद हिकारत को बाहर फेंका, ये देखकर भी मूंछवालों के मुंह बंद रहे. बेशक, ऐसा जानबूझकर भी किया गया, क्यों न करते. उससे पहले सदियों जो हुआ, उस अपमान के लिए इतना करना कोई अपराध तो था नहीं. ये सबकुछ उत्तरप्रदेश में हुआ. मायावती के सडक़ पर आते ही अफसरों में सन्नाटे का मतलब नहीं समझते आप. बहन जी का रुतबा था ये, जो आम दलितों ने अपना महसूस किया और अपमान के विरोध में बोलने की उन्हें ताकत मिली. मायावती के प्रधानमंत्री बनने का मतलब भी समझिए. जो काम लखनऊ में हुआ, वह दिल्ली में भी होगा. संसद से लेकर केंद्रीय सचिवालय में भी दलित घुसेंगे और आप कुछ नहीं कर पाएंगे. आपको बहुत बुरा लगेगा, इसकी कल्पना करने पर भी. आपकी तकलीफ यही है. आपको लग रहा है कि आपकी दिल्ली गंदी हो जाएगी. दलित कह रहे हैं कि दिल्ली को भी सम्मान करने की आदत डालना चाहिए. मायावती की कमियां हो सकती हैं, लेकिन उनका होना दलितों के लिए बड़ी राजनीतिक हिम्मत है. इस हिम्मत से डर रहे हैं आप, आपके आरोप महज इसी की कुंठा भर हैं.
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आशीष सक्सेना
बरेली में रहने वाले आशीष सक्सेना अमर उजाला और दैनिक जागरण अखबारों में काम कर चुके हैं. फिलहाल दैनिक जनमोर्चा के सम्पादक हैं.
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आप सिर्फ comprision कर रहे हैं जो की गलत है आपको बताना यह चाहिए कि गलत क्या है सही क्या है
बाकी रही बात सरकार की सरकार का काम मात्र जनता को वास्तविक मुद्दों से भट काना है
आप उत्तराखंड में ही देख लो चुनाव किन मुद्दों पर लड़ा जाना चाहिए और लड़ा किन मुद्दों पर जा रहा है
स्वस्थ सुविधाओं ,पलायन ,शिक्षा , बेरो़जगारी सब को दरकिनार कर के भोली भाली जनता को गुमराह किया रहा है
ब्राह्मणबाद का सच