1803 में गोरखाओं से पराजित होकर राज्य खो देने प्रद्युमन शाह की मृत्यु के बाद 1815 में अंग्रेजों की मदद से राजा सुदर्शन शाह ने गोरखा पर विजयी पाई. लेकिन राज्य का एक बड़ा हिस्सा जो अलकनंदा/गंगा के पूरब और मंदाकिनी के उत्तर, चंद्रभागा के दक्षिण, यमुना के पश्चिम का महत्वपूर्ण क्षेत्र था को राजा को अंग्रेजों को समर्पित करना पड़ा.
(Mass Movement Tihri before Tiladi Kand)
1815 के बाद टिहरी रियासत एक बहुत छोटे राज्य के रूप में तब्दील हो गई. राज्य से प्रवास की पीड़ा ने जहां राजा को सशंकित और लोभी बनाया, वहीं जनता में दरबार की पकड़ कमजोर होती गई. जिस कारण टिहरी रियासत में लगातार विद्रोह होते रहे. टिहरी को बागी देश कहा जाने लगा. प्रताप शाह एक प्रतापी राजा हुए उन्होंने राज्य में बेगार, 150 मजदूर प्रति दिन, पाला दही, दूध घी का कर समाप्त किया, पाथा आनाज कर 20 पाथा (40 कि.ग्रा.) से घटाकर 15 पाथा किया, यह सुधार 1881 से 1884 के मध्य हुए.
रेल के विस्तार के साथ ही जंगलों से आर्थिक लाभ की संभावनाएं खुल गई और जंगल टिहरी रियासत के लिए एक बड़ा खजाना लेकर आए. जिसे व्यवस्थित करने के लिए 1885 में यहां रियासत में वन विभाग की स्थापना की गई. अधिक से अधिक मुनाफा जंगलों से कमाने की चाह में जंगलों की पैमाइश गांव के भीतर तक कर दी गई. इस लोभी और अवैज्ञानिक जंगलों की पैमाइश से किसानों की चारा पत्ती और लकड़ी के हक प्रभावित हुए और ढंडको की पृष्ठभूमि तैयार होने लगी.
30 मई 19 30 को तिलाड़ी में बनवासी और किसानों का जो जनविद्रोह हम देखते हैं, बगावत की जिस परंपरा को श्री देवसुमन, नागेंद्र सकलानी, मौली भरदारी जैसे नायकों ने फिर आगे बढ़ाया उसकी पृष्ठभूमि उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी के दर्जनों ढंडकों में देखी जाती है. जिन्हें निम्न क्रम दिया जा सकता है.
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रंवाई के सौ साला ढंडक
1803 के गोरखा विजय के बाद रंवाई क्षेत्र में टिहरी रियासत की अक्षुण सत्ता बहुत कम समय रह पा . स्थानीय क्षत्रपों से समय-समय पर चारा पत्ती और जंगलात के सवाल पर रियासत के विरुद्ध ढंडक होते रहे. 1824 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने रंवाई क्षेत्र में प्रशासन सुविधा पूर्वक न चला पाने के कारण यह क्षेत्र टिहरी रियासत को वापस कर दिया. यहां के पूर्व जागीरदार गोविंद सिंह बिष्ट थे जिन्हें टिहरी रियासत ने संतुष्ट करने के लिए रवाई क्षेत्र का हाकिम/थानेदार नियुक्त किया और नंद गांव तथा बर-साली की जीवन कालीन जागीर भी दी . लेकिन गोविंद सिंह संतुष्ट न थे वह पूरे क्षेत्र में वंशानुगत जागीर की मांग कर रहे थे.
गोविंद सिंह बिष्ट ने रियासत के हर फैसले का विरोध किया, उसे क्षेत्र में लागू नहीं होने दिया. इस वक्त तक समाज घाड़ा से आगे निकल चुका था. इस कारण भी गोविंद सिंह बिष्ट ने ब्रिटिश पोलिटिकल एजेंट के यहां अपील की लेकिन फैसला टिहरी रियासत के पक्ष में गया. राजा ने तिहाड़, तीसरा हिस्सा कर लगा दिया. यहां खेती कठिन थी इस कर का शुरुआत से ही अठूर की प्रजा ने बद्री सिंह असवाल के नेतृत्व में विरोध किया. इस विरोध को दबाने के लिए अंग्रेजी की सहायता ली गई राजा खुद थत्यूड़ तक पहुंचा. दो तरफा दबाव से विरोध शांत हो गया.
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दास प्रथा का ढंडक
रंवाई और जौनपुर का क्षेत्र वन और पशुपालन के अतिरिक्त कृषि में तेजी से खिल रहा था. सामाजिक व्यवस्था में पंचायत, सेवा के लिए दास प्रथा प्रमुख थी. प्रत्येक तोक में दास परिवार को बसाया जाता था. अनाज और आवश्यकताओं की आपूर्ति के बदले ही (खैकर) उसका श्रम प्राप्त होता था. श्रम के लिए मोलभाव का अधिकार दास को नहीं था.
राजा प्रताप शाह जो शिक्षा के विस्तार के लिए भी जाने जाते हैं प्रगतिशील विचार के थे. उन्होंने 1877 में दास प्रथा समाप्ति का अध्यादेश जारी किया. इस अध्यादेश के विरुद्ध रंवाई क्षेत्र में सशक्त ढंडक प्रारंभ हुआ. राजा खुद रमाई पहुंचा. मुखिया और सरपंच असंतुष्ट बने रहे. उन्हें नदी पार सियाणा का भी समर्थन प्राप्त था. राजा की मौजूदगी से प्रजा शांत हो गई. रंवाई और जौनपुर क्षेत्र में आज भी दास प्रथा बहुत मजबूत है. यह अलग बात है कि वर्तमान में क्षेत्र का नेतृत्व कौल दास व खजान दास आदि दास नेताओं के पास रहा है. लेकिन ग्रामीण समाज में परंपराएं उसी रूप में जिंदा है जिस कारण यदा-कदा सामाजिक विद्वेष की आपराधिक घटनाएं भी दर्ज होती रहती हैं.
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1882 का पाला-विशाह ढंडक
कृषि उपज पर अधिक कर ने एक और ढंडक को जन्म दिया. तब प्रत्येक रुपए में तीन आने के चार पाथा अर्थात 7 किलोग्राम अनाज टिहरी दरबार में जमा करना होता था. लछमू कठैत के नेतृत्व में यह ढंडक प्रारंभ हुआ. राजा ने तत्काल चार पाथा अनाज को घटाकर दो पाथा कर दिया और विद्रोह को दबाने के लिए लछमू कठैत को ही नया इलाका सृजित कर थानेदार नियुक कर दिया.
1892-93 में रवांई क्षेत्र में वन क्षेत्र के सीमांकन के दौरान राज्य के वन कर्मचारियों ने जनता के साथ दुर्व्यवहार किया और एक नए ढंडक ने जन्म लिया. ढाई हजार ग्रामीणों ने टिहरी पहुंचकर विरोध दर्ज किया राजा प्रताप साह बीमार थे, रानी गुलेरिया ने सम्मानपूर्वक वार्ता कर ढंडक को शांत किया और जंगलात की पैमाइश का काम रोक दिया.
वन महकमे की स्थापना और आगामी ढंडकों का सूत्रपात
टिहरी रियासत का अधिकांश भाग जंगल और गांव का था. रियासत में बाडा़हाट, टिहरी और देवप्रयाग. तीन पुराने नगर थे. कीर्ति नगर, प्रताप नगर और नरेंद्र नगर तीन नए नगर रियासत ने बसाएं. गांव और जंगल की प्रधानता वाले राज्य में राजा जंगलों के प्रति उदासीन था. जंगलों में गांव वालों के निर्बाध अधिकार थे. कृषि उपकरण, इमारती लकड़ी खनन और चारा पत्ती तक जंगलों का उपयोग करने के लिए ग्रामीण स्वतंत्र थे.
शिकारी फेड्रिक विल्सन जो 1850 के आसपास टिहरी रियासत में पहुंचा ने वनों के व्यावसायिक महत्व को राजा को समझाया. विल्सन ने ही सबसे पहले रियासत के पर्वतीय क्षेत्र में सेब के बाग लगाए और आलू की व्यवसायिक खेती प्रारंभ की. ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत के प्राकृतिक संपदा के बेहतर दोहन के लिए रेल मार्ग का जाल बिछाना प्रारंभ किया. जिसके निर्माण में बड़ी संख्या में स्लीपर का इस्तेमाल हो रहा था. लकड़ी की व्यावसायिक मांग बढ़ रही थी.
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फैड्रिक विल्सन पहाड़ के जंगलों का महत्व समझ रहा था, इस उद्देश्य को साधने के लिए उसने राजा सुदर्शन शाह को एकमुश्त रकम देकर 1850 में मुख्य वन का पट्टा प्राप्त किया. फिर छोटे पट्टे प्राप्त किए, जिनकी मियाद 1864 में समाप्त हो रही थी.
अब राजा भवानी शाह थे जो वनों का महत्व समझ चुके थे. उन्होंने वनों के लीज पट्टे रिन्यू करने में अड़चन पैदा की, 1865 से 1885 तक प्रतिवर्ष आखिरकार ₹10 हजार की दर से राज्य के वन लीज पर प्राप्त कर लिए और ग्रामीणों के अधिकारों को सीमित करना प्रारंभ कर दिया.
वनों ने टिहरी राज्य की आर्थिकी में अचानक बड़ा योगदान देना प्रारंभ कर दिया. फैड्रिक विल्सन को रियासत की आधुनिक अर्थव्यवस्था का जनक कहा जा सकता है. क्योंकि फैड्रिक ने ही सबसे पहले मोरी उत्तरकाशी की ठंडी हवा को सेव उत्पादन के अनुकूल पाकर यहां सेव के पौंधे लगाए, आलू और दालों की व्यवसायिक स्तर पर खेती प्रारंभ करवाई.
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1885 में राजा प्रताप शाह ने लीज का बड़ा भाग निरस्त कर दिया, खुद जंगलों के मुनाफे को देखकर अंग्रेजों की मदद से 1885 में टिहरी रियासत में वन महकमे की स्थापना की. जिसे 4 रेंज और 23 वीट में बांटा गया. राजा कीर्ति शाह ने कंजरवेटर के पद पर अपने साले मियां हरि सिंह को नियुक्त किया और छोटे साले हुकुम सिंह डिप्टी कंजरवेटर बनाए गए. पूरे राज्य में वनों की पैमाइश का कार्य बहुत तेजी और मनमाने ढंग से प्रारंभ हुआ.
जंगल गांव की सरहद तक पहुंच गए. पशुपालन और कृषि पर आधारित ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर संकट के बादल मंडराने लगे. जौनपुर, रंवाई, पूरी यमुना घाटी का अधिकांश क्षेत्र जो कि इस पलायन के दौर में भी कृषि और पशुपालन पर आधारित समाज है. जहां कृषि आज भी सर प्लस एग्रीकल्चर के रूप में जानी जाती है. वहीं से सबसे पहले वन महकमे के अधिकारियों के उत्पीड़न के विरुद्ध आवाज उठाई और यह क्रम लगातार बढ़ता रहा. तिलाड़ी के महा विस्फोट तक पहुंचते-पहुंचते राज्य के अलग-अलग क्षेत्र में लगभग दर्जन भर ढंडक (जन-विद्रोह) हुए.
बीसवीं सदी के प्रारंभ में टिहरी रियासत में हुए अधिकांश ढंडकों की पृष्ठभूमि राजा और ग्रामीणों के मध्य जंगल के अधिकार के संघर्ष के रूप में समझा जा सकता है. हर पट्टी क्षेत्र में रियासत की कोशिश जंगल के मनमाफिक विस्तार की थी. इस विस्तार से ग्रामीणों के परंपरागत हक-हकूक समाप्त हो गए थे. स्थानों पर नाप खेत भी जंगल घोषित कर दिए थे. ग्रामीणों लिए कृषि और पशुपालन कठिन हो रहा था. दूसरी ओर वन विभाग के कर्मचारियों का व्यवहार आम जनता के प्रति बेहद उत्पीडनात्मक था. जिसने जन असंतोष भड़काने में आग में घी का काम किया. यही सब सामान्य कारण हर ढंडक के पीछे देखें गए. वन कर्मचारियों के दुर्व्यवहार की सजा प्रत्येक ढंडक के बाद राज्य के कंजरवेटर को भुगतनी पड़ी.
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मुख्य ढंडको को इस प्रकार रेखांकित कर सकते हैं .
रंवाई और कडा़कोट के ढंडक 1901
कुंजणी वन ढंडक 1905-06
खास पट्टी ढंडक 1906-07
सकलाना वन ढंडक 1911-1913
कडाकोट ढूंगसिर ढंडक 1920- 1925
रंवाई कडाकोट के ढंडक
रवाई घाटी में वनों की पैमाइश रानी गुलेरिया 1892 में ढंडक के बाद रुकवा चुकी थी. लेकिन कीर्ति शाह के लिए राजस्व की इस बड़ी मद को छोड़ पाना संभव नहीं था. रंवाई घाटी के पड़ोस में टोंस यानी जौनसार क्षेत्र में ब्रिटिश वनों की पैमाइश कर आय प्राप्त कर रहे थे. जौनसार भावर से जौनपुर और रंवाई का क्षेत्र वैवाहिक संबंधों की दृष्टि से जुड़ा था. टोंस क्षेत्र के ग्रामीणों ने, रंवाई और जौनपुर क्षेत्र के ग्रामीणों को जंगलों की पैमाइश के बाद आने वाली दिक्कतों के विषय में पहले ही सतर्क कर दिया था.
लिहाजा वनों के पैमाइश और वन कानूनों को लेकर ग्रामीण अतिरिक्त सावधानी बरत रहे थे. टिहरी रियासत के वनों की पैमाइश के कार्य में स्थानीय ग्रामीण अलग अलग तरीके से व्यवधान उत्पन्न कर रहे थे. वन महकमे के लिए काम जारी रखना कठिन हो गया तो वजीर हरि सिंह खुद रंवाई की तरफ चले आए उन्होंने बड़कोट में आकर ग्रामीणों को धमकाया. ग्रामीण विचलित नहीं हुए. उन्होंने बड़कोट के रणदीप सिंह के नेतृत्व में लामबंदी शुरू की. रणदीप सिंह ने वजीर के माथे को गरम सिक्के से दागना चाहा लेकिन सफल नहीं हुआ. हालात बिगड़ते देख वजीर हरि सिंह रवाई क्षेत्र से भाग निकले, उत्तेजित ग्रामीणों ने उनका पीछा किया, लेकिन ग्राम कोठी बनाल के त्रिलोक सिंह ने वजीर को गुपचुप रूप से बचाकर टिहरी पहुंचा दिया. वह फॉरेस्ट में फायर गार्ड थे. कंजरवेटर को बचाने के इस उपकार के बदले में उन्हें थोकदारी का इनाम मिला. वह कोटी बनाल के पहले थोकदार नियुक्त हुए. इस ढंडक के बाद रंवाई क्षेत्र में वनों की पैमाइश का काम रुक गया.
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रंवाई के साथ ही कड़ा कोट में भी दरबार द्वारा भूमि और जंगलों की पैमाइश का काम प्रारंभ किया ग्रामीणों के प्रारंभिक हक-हकूकों को प्रतिबंधित किया और उनके उपभोग के बदले बड़ी मात्रा में टैक्स लिए गए, रंवाई में जनविद्रोह की कामयाबी की खबर यहां पहुंच रही थी. ग्रामीणों का उत्साह बड़ा हुआ था. कड़ा कोट के ग्रामीणों ने दरबार के कर्मचारियों का जबरदस्त विरोध कर पैमाइश के काम को रुकवा दिया.
कड़ा कोट के ग्रामीणों ने भजन सिंह के नेतृत्व में दरबार के विरुद्ध संघर्ष तेज कर दिया. हालात की गंभीरता को देख राजा कीर्ति शाह ने ग्रामीणों के पक्ष में फैसला लिया और करों में भारी ढील दी. ग्रामीणों के बड़े हुए करों की किस्त आधी कर दी. तब कड़ा कोट ढंडक शांत हुआ.
कुंजणीबन ढंडक 1905-06
गुजरी पट्टी में आज का आगरा खाल नरेंद्र नगर फकोट शिवपुरी तक तक का क्षेत्र शामिल है. अर्थात चंद्रभागा से हेवल नदी के बीच का क्षेत्र. यह बड़ी पट्टी थी जिसका संबंध पहाड़ और मैदान दोनों से था. यहां पाथो में पशुओं से कर वसूली की जंगलात चौकी थी जिसके कर्मचारी ग्रामीणों से मनमानी और दुर्ब्यवहार करते थे. पुछड़ी कर वसूलने के लिए जंगलात के कर्मचारी जब 6 ग्रामीणों को गिरफ्तार कर टिहरी ले जाने लगे तो जनता ने आगरा खाल के पास उन्हें छुड़ा लिया.
कंजरवेटर मियां केशवानंद ग्रामीणों को धमकाने पहुंचे तो उन्हें बंधक बना लिया. तब राजा कीर्ति शाह ने हस्तक्षेप किया. कर्मचारियों से बदसलूकी करने वाले ग्रामीणों के विरुद्ध अदालती कार्यवाही जारी रही, सन्यासिनी देवगिरी द्वारा ग्रामीणों के पक्ष में मजबूती से साक्ष्य रखने से राजा प्रभावित हुआ, सभी ढंडकियों को बाइज्जत बरी कर दिया. साथ ही पुछड़ी कर समाप्त किया और 20 नाली तक भूमि के विस्तार की इजाजत दी. जनता की जीत के साथ ढंडक समाप्त हुआ और वनों की पैमाइश का काम भी रुक गया. कंजरवेटर केशवानंद की विदाई हुई और सदानंद गैरोला नय कंजरवेटर नियुक्त किए गये.
खासपट्टी का वन ढंडक 1906-07
चंद्रबदनी मंदिर के चारों ओर फैली पट्टी वन गढ़ तीन भागों में बटी थी. राजधानी टिहरी के इस पट्टी क्षेत्र में होने के कारण इसे खास पट्टी कहा गया. कुंजणी ढंडक से किसानों को दी गई रियायतें, मियां हरि सिंह ने कंजरवेटर के साथ मिलकर देने से इंकार कर दिया और वनों की पैमाइश गांव के सिरहाने टक्कर दी. लोगों में काफी आक्रोश था. ग्रामीण जब विरोध जताने जुराणा धर्मशाला में इकट्ठा थे तो कंजरवेटर सदानंद गैरोला किसी बात को मानने को तैयार नहीं थे. रामचंद्र नाम के व्यक्ति ने गरम सिक्के से कंजरवेटर का माथा दाग दिया और बगावत का ऐलान किया. 3000 ग्रामीणों ने एकत्रित संघर्ष किया, बगावत इतनी व्यापक थी कि सेना के हस्तक्षेप के बाद भी काबू में नहीं आई और अंग्रेजी सेना ने हस्तक्षेप से इनकार कर दिया. कंजरवेटर सदानंद गैरोला चले गए, हरि कृष्ण रतूड़ी वजीर नियुक्ति किए गए. 16 बागियों को सजा दी गई और 1909 से देशद्रोह का कानून लागू हुआ.
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सकलाना मुआफी की वन नीति का संघर्ष
जौनपुर की 10 पट्टियों से सॉन्ग और बांदल नदी के बीच का क्षेत्र है जिसकी दक्षिणी सीमा ब्रिटिश गढ़वाल से लगती थी. आज का सुआखोली, धनोल्टी इसका केंद्र है. क्षेत्र में राजा प्रद्युमन शाह ने सतलाना जाति के ब्राह्मणों को मुआफी दारी दी थी. उन्हें प्रशासनिक तथा दीवानी मामलों के न्यायिक और फौजदारी द्वितीय श्रेणी मजिस्ट्रेट तक के अधिकार दिए गए थे. 1838 के बाद माफी का संबंध टिहरी रियासत से करते हुए ₹200 प्रति वर्ष नजराना तय किया गया. जब रियासत ने जंगलों का महत्व समझा तो उनकी निगाह सकलाना पट्टी के देवदार के बेशकीमती खजाने की ओर गई.
माफी दार की सलाह के बगैर रियासत में पैमाइश का काम शुरू कर दिया. कंजरवेटर रामदत्त और सेटलमेंट ऑफिसर जीवानंद ने कमान संभाली. विरोध में मुआफीदारों ने देवदार के जंगल काट दिए. ब्रिटिश हस्तक्षेप से समझौता हुआ मुआफीदार को जंगल की आय में हिस्सा तय किया और ग्रामीणों को भी रियायतें दी गई.
कड़ा कोट डुंगसिर का जन संघर्ष 1920-25
परगना कीर्ति नगर में नैलचामी, घनशाली के दक्षिण में चौराहा और पूर्व में बढियाड गढ के बीच एक छोटा कम उपजाऊ ग्रामीण क्षेत्र का जहां का संघर्ष वनों के बजाय कृषि भूमि के बंदोबस्त करो के विरोध में था. गोपाल सिंह राणा मुख्य बागी थे. राजस्व वृद्धि के साथ ही इनके द्वारा प्रचलित सांवली सेर और विशाह प्रथा (दूध दही कर) का भी विरोध किया. राजा ने इन्हें बंद किया लेकिन यह दिल तोड़, दिल्ली भागने में सफल रहे. बाद में पकड़े गए लेकिन कभी हार नहीं मानी. दरबार द्वारा 7 बार दंडित किया गया और अलग-अलग बार ₹225 का जुर्माना भी वसूल किया गया, राणा के दबाव का असर हुआ और भू-राजस्व की दर को कम कर दिया गया.
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प्रमोद साह
हल्द्वानी में रहने वाले प्रमोद साह वर्तमान में उत्तराखंड पुलिस में कार्यरत हैं. एक सजग और प्रखर वक्ता और लेखक के रूप में उन्होंने सोशल मीडिया पर अपनी एक अलग पहचान बनाने में सफलता पाई है. वे काफल ट्री के नियमित सहयोगी.
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