रं समाज में मुख्यतः एकल विवाह ही होता है, परन्तु कभी-कभी बच्चे नहीं होने की दशा में या पत्नी की मृत्यु हो जाने पर दूसरी शादी भी कर लेते हैं. रं समाज से अभी भी अन्तर्विवाह को ही ज्यादा महत्ता दी जाती है परन्तु समय परिवर्तन के साथ बहिर्विवाह को मान्यता देना प्रारम्भ कर दिया है जो कि शुभ सूचक है. पहले रं लोग सिर्फ धारचूला के रं लोगों के साथ ही शादी करते थे, अब धीरे-धीरे कुलीन विवाह जिसमें मुनस्यारी के शौका समाज, नीति के रोङपा से शादी को भी मान्यता दी जा रही है. फिलहाल रं समाज में हरिजन, मुस्लिम तथा ईसाई से शादी की मान्यता नहीं दी गई है. अपवादस्वरूप कुछ लोगों ने मुस्लिम तथा ईसाईयों से शादी की है जिन्हें सामाजिक रूप से मान्यता नहीं मिली है. उनके परिवार वाले उनको घर तो आने दे रहे हैं मगर उनके बच्चों की शादी रं समाज के लोगों के साथ होगी या नहीं यह देखने वाली बात है.
उत्तराखण्ड में रं समाज में विवाह के निम्न स्वरूप हैं:-
गन्धर्व विवाह
इसमें लड़का तथा लड़की अपनी इच्छा से पारस्परिक प्रेम विवाह करते हैं. वर्तमान में इसे प्रेम विवाह भी कहते हैं. मगर रं समाज में रीति रिवाज के अनुसार बाद में शादी की रस्म अवश्य पूरी करनी पड़ती है. नहीं तो समाज उनके होने वाले बच्चों को मान्यता नहीं देता है.
राक्षस विवाह
राक्षस विवाह से लड़की को जबरदस्ती उठाकर ले जाकर विवाह करते हैं. पुराने जमाने में रं समाज में यह विवाह भी देखने केा मिलता था. इस तरह के विवाह में वर तथा वधू पक्ष वाले अक्सर लड़ाई करते थे. परन्तु आजकल यह प्रथा देखने को नहीं मिलती.
बाल विवाह
रं समाज में आज से 30 साल पहले तक बाल विवाह खूब प्रचलित था. उस समय लड़के तथा लड़की के पैदा होते ही सम्बन्धित पक्ष वाले लड़की के घर एक बोतल च्यक्ति ले जाकर लड़की के माता-पिता तथा रिश्तेदारों को ठूमू करके पिलाते थे और च्यक्ति पीने के कुछ सालों बाद ही छोटी उम्र में ही शादी कर लेते थे. यह प्रथा अब लगभग समाप्त हो चुकी है.
प्रजापत्य विवाह
यह ब्रह्म विवाह के समान ही होता है. इसमें लड़के के पिता तथा लड़की के पिता आदेश देकर कहते थे कि तुम उस लड़की/लड़के से शादी करो, इसी मे तुम्हारा कल्याण होगा. इसमें लड़का अपने पिता का कहना मानकर उस लड़की को जीवन साथी के रूप में स्वीकार करता है, रं समाज में यह शादी सबसे ज्यादा प्रचलित है.
विधवा विवाह
रं समाज में यदि विधवा जवान हो तो उसकी शादी अपने देवर से करने की प्रथा है, यदि देवर मना कर दे तो दूसरी जगह वह औरत खुद शादी कर सकती है.
ब्राह्मण विवाह
यह विवाह रं समाज में सिर्फ चौदास घाटी में पाया जाता है. इस विवाह में धार्मिक विधि से पंडित मन्त्रोचर द्वारा विवाह सम्पन्न करते हैं. इस विवाह में अन्य समाज में अलंकारों से अलंकृत किया जाता है, मगर रं समाज में अलंकृत नहीं किया जाता है.
रं समाज में विवाह संस्कार
रं समाज में विवाह संस्कार ऐसा संस्कार है जिसमें पूरा गांव तथा रिश्तेदार लोग अपनी-अपनी तरफ से हर्ष-उल्लास व्यक्त करते हैं. शादी से पहले पूरे गांव में उत्सव सा माहौल रहता है, हर जगह से लोग सर्विस वाले, बकरी वाले, शिकार खेलने गये लोग दो-तीन दिन पहले ही गांव में पहुंच जाते हैं, और शादी की तैयारी में जुट जाते हैं. लड़के तथा पुरुष लोग पंतगे तथा स्वागतद्वार बनाने में जुट जाते हैं, जबकि स्त्रियां, रिश्तेदार लोग चावल, दाल छनने में, लड़कियां मिर्च अचार बनाने में जुट जाती हैं. शादी के कुछ दिन पहले घर के सभी लोगों के लिये नये कपड़े, आभूषण बनाये जाते हैं, फिर नाच-गाना चलता रहता है.
रं समाज में शादी एक ऐसी परम्परा थी जो पहले से ब्राह्मण समाज से बिल्कुल अलग थी, परन्तु धीरे-धीरे लोगों ने अब पंड़ितों को बुलाना, फेरे लगाना, मांग में सिंदूर भरना, मंगलसूत्र पहनना प्रारम्भ कर दिया है. इसलिये बहुत से लेखकों ने इस शादी के बारे में बुराइयां भी लिखी तथा बहुत से लेखकों ने इस शादी का शाही शादी की संज्ञा भी दी. पहले रं समाज में मामा तथा फूफी की लड़की से शादी होती थी जिसे रं लोगों ने अब धीरे-धीरे छोड़े दिया है, रं समाज का एक सकारात्मक पहलू यह है कि यहां दहेज प्रथा बिल्कुल भी नहीं है, विवाह को दारमा रं लोग बकचा तथा चौंदास तथा ब्यांस वाले ढ़ामी कहते हैं.
सगाई (विन्ती)
रं समाज में सगाई में हमेशा लड़के वाले लड़की वालों के यहां जाते हैं. इसका प्रमुख कारण यह है कि इस समाज में लड़की का स्थान लड़कों से उपर रखा गया है. सगाई में लड़के की तरफ से हमेशा विषम संख्या से पुरुष तथा स्त्रियां जाते हैं. ज्यादातर उन पुरुष तथा महिलाओं को अपने साथ लिया जाता है जिनका लड़की तथा लड़का के रिश्तेदार के साथ उठना-बैठना ज्यादा हो, बाकी लोग ऐसे बुजुर्ग जिनका समाज में अच्छा नाम हो उनको अपने साथ ले जाते हैं जिनकी संख्या 5 या 7 होती है.
पुराने जमाने में रं समाज में सगाई के दौरान एक सिल्ली रूठा (फाफर) के आटे की रोटी बनाकर ले जाते थे अगर लड़की के मां-बाप उस रोटी को तोड़कर खा ले तो उनकी सगाई पक्की मानी जाती थी. अब धीरे-धीरे रं लोगों ने उस प्रथा को छोड़कर पूरी (बगछी) बनाकर ले जाना प्रारम्भ कर दिया है तथा साथ में सिल्ली को धलं, कम से कम दो बोतल बिनती बरछ्यांग, मिठाई अपने साथ ले जाते हैं. अगर लड़की वाले तैयार हो जाये तो लड़की के गांव के सभी लोग, एकत्र हो जाते हैं तभी कुछ सिल्ली के धलं, बरछ्यांग तथा कुछ मिठाई तथा पूरी को ठूमू कर के सबको खिलाया-पिलाया जाता है . बरछ्यांग की बोतल में ऊपर सफेद कपड़े का धजा जो कि बोतल के मुंह के सामने बांधा जाता है, को आग्रह कर के लड़के मां-बाप का श्रद्धा के साथ उनके रिश्तेदारों की उपस्थिति में ठूमू करने को कहते हैं. इससे पहले लड़की के मां-बाप लड़की से पूछ लेते हैं कि तुम राजी हो अथवा नहीं, यह प्रथा आजकल चलने में है.
पहले लड़की के मां-बाप कभी लड़की से नहीं पूछते थे और उनकी रजामंदी को ही लड़की की रजामंदी माना जाता था. कभी-कभी लड़की वाले उस समय ठूमू नहीं करते थे और लड़के वालों को किसी अच्छे समय में आने को कह देते थे. उस दौरान लड़के के चाल चलन, रहन-सहन एवं व्यवसाय आदि के सम्बंध में पूछ लेते थे. उस दौरान लड़के वाले अपनी बोतल वहीं छोड़कर आते थे. फिर जब पूरी तरह से लड़की वाले तैयार हो जाये तो लड़के वालों को रिश्तेदारों के माध्यम से दोबारा बुला लेते थे.
एक बार विन्ती स्वीकार हो जाने पर लड़की वालों के पूर्वजों एंव सभी देवी-देवताओं का नाम लेकर ठूमू किया जाता है तथा लड़के तथा लड़की को शुभकामनायें, मिठाई, बरछ्यांग तथा धल्र के छोटे-छोटे टुकड़े कर के सभी को बांटा जाता है.
ज्या थोचिम (शादी की तारीख तय करना)
सगाई के बाद शादी का दिन निश्चित करने के लिए लड़के वाले फिर मिठाई तथा बरछ्यांग के साथ दोबारा लड़की के घर आते हैं. उस दौरान मुख्यतः लड़की के भाई बहिन तथा निकटवर्ती रिश्तेदारों को बुला कर राय मशविरा कर शादी की तारीख तय की जाती है.
शादी का समय
इस समाज में शादी मुख्यतः नवम्बर, जनवरी, फरवरी, अप्रैल, मई में चंद्रमा की अवस्था के हिसाब से शादी की तारीख तय होती है.
रं ठिमचारू से विवाह
रं ठिमचारू के शादी में दारमा घाटी के रं के मुकाबले में व्यांस तथा चौंदास में खर्च ज्यादा होता है. क्योंकि दारमा रं में शादी के दौरान बनम सै (मायके वालों के ईष्ट देव) को पूजने की प्रथा नहीं है. शादी से एक दिन पहले या बाद में ब्यांस में दो बकरी, 25 ली. तक व्यक्ति एक बोरा चावल आदि जाता है. जिसको वर पक्ष वाले लड़की पक्ष के यहां बनाकर लड़की वालों को खिलाते हैं जबकि चौंदास में शादी के बाद कभी भी बनम सै पूजन की प्रथा है.
शादी के दिन वर पक्ष की तरफ से खाना बनाकर सारे गांव वालों, रिश्तेदारों को एकत्र किया जाता है. उस समय गांव के सभी लोग, रिश्तेदार अपनी-अपनी तरफ से थोड़ी-थोड़ी च्यक्ति शकुनात के रूप में लेकर आते हैं. दूल्हे को तैयार किया जाता है, बाकी सभी लोग रंगा-सिले (पगड़ी) पहनकर तैयार हो जाते हैं. सभी लोग एकत्र होकर अपने प्रिय ईष्ट देव का याद कर ठूमू कर सभी लोग भोजन करते हैं. बारात जाने से पहले शगुन के रूप में लोग अपनी-अपनी हैसियत के हिसाब से पैसे वर पक्ष को देते हैं. शादी में लड़के की बहिन लोग (टीस्या) अपने पारंपरिक वस्त्र च्यूंगभाला पहनकर पीठ में डोका आदि जिसमें कुछ व्यक्ति की बोतल, पूड़ी, मिठाई तथा सफेद कपड़े डाले रहते हैं. तभी हरिजन लोग दमै (बड़ा नगाड़ा) बजाकर, पुरुष लोग रंगा तथा सिले एवं हाथ में ढ़ाल-तलवारें आदि के साथ क्रमबद्ध होकर नृत्य करते हैं. बारात प्रस्थान करती है. रास्ते में लड़के के जितने रिश्तेदार गांव आते हैं वहां के गांव वाले रास्ते में च्यक्ति, मिठाई आदि लाकर बारातियों का स्वागत करते हैं. यह प्रथा पहले जब लोग पैदल चलते थे, रास्ते में लोग जब थक जाते थे तो उन लोगों की थकाई समाप्त करने के लिये की जाती रही होगी, अब तो हर एक जगह गाड़ी जाती है पर यह प्रथा अभी तक जीवित है.
लड़के को घर से मुख्य रोड तक घोड़े में बैठाया जाता है. दूल्हा पगड़ी तथा सूट पहनता है एवं बगल में खुकरी आदि लटकाता है. यह इसलिए लटकाया जाता है किसी प्रकार की नजर न लगे. बारात को लड़की के घर से कुछ दूरी पर रोकरकर वहां से नाच-गाने के साथ लड़की के घर की तरफ चलते हैं. सबसे पहले लड़की के दरवाजे पर वर का स्वागत किया जाता है. पहले जमाने में लोग छत पर चढ़कर रंग तथा पानी फेंकते थे, अब यह प्रथा धीरे-धीरे समाप्त हो गई है. फिर घर में धलं के साथ बराती लोग भी बैठते है, फिर शगुन गीत गाया जाता है. कुछ लोग च्यक्ति कुछ धलं तथा मिठाई के ठूमू करते हैं. तत्पश्चात् सभी लोग खाना खाकर अपने-अपने गु्रप के हिसाब से बैठकर नाच-गाना आदि करते हैं. इस दौरान वर पक्ष की तरफ से लड़की के खास रिश्तेदार को पगड़ी शगुन के तौर पर तथा मिठाई तथा च्यक्ति पिलायी जाती है, फिर रात भर गानों की महफिल चलती रहती है. आजकल चौंदास घाटी तथा व्यांस दारमा के कुछ गावों में फेरे भी लगाये जाते हैं.
पहले जमाने में बाराती लोग दो दिनों तक लड़की के यहां ठहरते थे. अब धीरे-धीरे एक ही दिन में लड़की को विदा करने की प्रथा प्रारंभ हो गई है. लड़की विदाई को पठासिमो कहते हैं. अगर वर का घर दूर होता है तो जल्दी दिन में और यदि नजदीक होता है तो उसी शाम को पठासिमो कर देते हैं. इस दौरान लड़की के सभी संबंधी रिश्तेदार तथा सहपाठी लोग घर में एकत्रित होते हैं. सभी रिश्तेदार बारी-बारी लड़के को पगड़ी तथा पैसे एवं लड़की को साड़ी-पैसे देते हैं. इस दौरान दूल्हा-दूल्हन दोनों पांव छूकर सभी को प्रणाम करते हैं. फिर लड़के की तरफ से लड़की वालों को इस महिला संघ, नवयुवक संघ सभी को पैसे देते है. ये सभी लोग उसके बदले चाय तथा च्यक्ति पिलाते हैं. पहले जमाने में सिर्फ शगुन के तौर पर कुछ रुपये दिये जाते थे मगर आजकली इस प्रथा ने इतना विकृत रूप धारण कर लिया है कि कोई भी 1000 रु. नीचे की बात नहीं करता है. तब पैसे पहले महिला संघ को बारातियों का स्वागत करने तथा नवयुवक संघ को खाना खिलाने तथा हरिजन संघ को शादी में वाद्य यंत्र बजाने के लिये दिये जाते थे. इस तरह शाम को लड़की को विदा करते हैं. लड़की को पहुंचाने के लिए लड़की के भाई लोग वर के घर के साथ जाते हैं. वधू को टीस्या (लड़के की बहिन लोग) हाथ पकड़कर लाते है. रास्ते में लड़की पक्ष के जितने रिश्तेदार होते हैं, वे शगुन के तौर पर रास्ते में च्यक्ति तथा मिठाई बारातियों को खिलाते हैं. बदले में वधू के भाई शगुन के पैसे अपने रिश्तेदारों को देते हैं .
बारात पहुंचने पर घर में सर्वप्रथम बहू तथा वर की आरती मां उतारती है तथा उनको टीका लगाती है. फिर बहू को कुछ पैसे तथा साड़ी आदि दिये जाते हैं.बारी-बारी सभी लोग लड़के के रिश्तेदार वाले मिठाई तथा पैसे वधू को देते हैं, फिर लड़के को सिले पहनाया जाता है. इस तरह शाम को खाने तथा पीने का दौर चलता है जो कि रात भर चलता है. रात में मिलम थेमू किया जाता है. इसमें घास में आटे का आदमी का आकार बनाया जाता है. जिस पर दाल मिर्च आदि रखकर वर एवं वधू की नजर ना पड़े इनके चारों ओर घुमाकर फेंका जाता है. इस दौरान भाभी लोग मजाक बनाते हैं. दूसरे दिन सुबह वर-वधू को किसी धारे से पानी लाने हेतु भेजा जाता है, इस तरह शादी का समापन किया जाता है. तीसरे दिन से सभी गांव वाले वर-वधू को बारी-बारी से खाने पर बुलाते हैं.
दुनकोट
रं समाज में जब भी शादी होती है, शादी के बाद पति पत्नी को तीसरे दिन गांव के प्रतिष्ठित लोगों को ले जाकर लड़की के घर जाना पड़ता है. इस प्रक्रिया को दुनकोट कहते हैं. दुनकोट का उद्देश्य वधु पक्ष को यह बताना होता है कि हमने तुम्हारी लड़की को सही सलामत रखा हुआ है. अगर दूल्हा या बारात दूर की हो तो शादी विदाई के बाद कुछ दूरी पर जाकर पुनः वापस लड़की के घर आकर ढूमू करते हुए दुनकोट की औपचारिकता पूर्ण की जाती है. उस दौरान भी गांव के सभी नजदीक लोगों को बुलाया जाता है.
दैजु (दहेज)
रं समाज में दहेज देने की प्रथा पहले भी कभी नहीं थी और न अब है, यही हमारे रं समाज का सकारात्मक पहलू है. जब लड़की आती है तो अपने साथ कपड़े, एक बिस्तर, एक फौला, एक बक्सा, आदि लेकर आती है. पहले जमाने में तकली (ऊन कातने) आसी (घास काटने) तथा ऊन रखने वाली टोकरी आदि दिया जाता था, हालांकि रं समाज में मां की मृत्यु के बाद उसके जेवर पर अधिकार लड़की को ही मिलता है न कि वधू को.
स्याही सिसम
रं समाज में शादी के कुछ दिन बाद पत्नी के रिश्तेदारों को परिचित कराने के लिए पत्नी के सभी रिश्तेदार एवं लड़की के मां-बाप वरपक्ष के यहां आते हैं और वर पक्ष के सभी रिश्तेदार वधू पक्ष के यहां जाते है. इस दौरान लड़की के घर वाले अपने रिश्तेदारों का परिचय कराते हैं. जिसके बदले में एक सफेद पगड़ी वस्त्र दिया जाता है और प्रणाम करवाते हैं.
सिलन कुरूमू
रं समाज में मिलन कुरूमू शादी की प्रथा पहले बहुत ज्यादा प्रचलित थी. उसका प्रमुख कारण यह था कि अगर लड़की के मां-बाप लड़की को देने के लिए राजी नही हो तो लड़का-लड़की भाग कर शादी कर लेते थे. उससे पहले उस गांव के एक आदमी को नियुक्त करते थे जो लड़की से पूछते थे कि लड़का जाने के लिए राजी है अथवा नहीं. उसे रं समाज में तरम कहते हैं, तरम का मुख्य कार्य लड़की को बहला फुसलाकर भागकर शादी करने को तैयार करना है. वह तरम लड़की से पूछ कर तारीख तय करता है. तदनुसार लड़का दोस्तों के साथ लड़की को अपने साथ अपने गांव लेकर आता है. इस दौरान लड़की अपने कपड़े, जेवर अपने साथ लेकर आती है. साथ में तरम भी कुछ दूर तक उसे छोड़ने आता है, यह विवाह राक्षस विवाह से कुछ हट कर है क्योंकि राक्षस विवाह में लड़की को जबरदस्ती उठा कर ले आते हैं.
दूसरा प्रमुख कारण इस विवाह में यह भी होता है कि अगर लड़की तथा लड़के के मां-बाप शादी के खर्च को वहन करने असमर्थ हो तो लड़की तथा लड़के भागकर शादी करने को कहते हैं. मगर रं समाज में ऐसी शादी को पूरी तरह मान्यता तभी मिलती है जब ये लोग पुनः रं समाज के रीति रिवाजों के हिसाब से मरने से पहले कभी भी दोबारा शादी करते हैं. यह शादी भी बड़ी धूमधाम से मनायी जाती है मगर एक पहलू यह भी है कि शादी में बच्चों को अपने मां-बाप की शादी को देखने का सुनहरा अवसर मिलता है. जब सिलम कुरूमू करते हैं, तब लड़की के मां-बाप, भाई-बहिन तथा रिश्तेदार लोग लड़के के यहां आते हैं और लड़की से पूछते हैं कि तुम्हें जोर जबरदस्ती से उठाकर लाये या तुम अपनी मर्जी से आयी. अगर लड़की बोल दे कि मैं अपनी मर्जी से आई हूं तो दोनों परिवारों में समझौता हो जाता है तब दोनों परिवार तथा गांव वाले आकर ठूमू करके इसको मान्यता दे देते हैं. कभी-कभी लड़की की इच्छा के बावजूद लड़की के मां-बाप, भाई लोग हिंसक रूप से धारण कर लेते हैं इस दौरान दोनों समूहों के बीच हिंसक वारदातें होती हैं. कभी-कभी लड़की के मां-बाप जबरदस्ती अपनी लड़की को ले भी जाते हैं. कभी-कभी लड़की के मां-बाप लड़की तथा लड़के को अपने यहां नहीं आने देते. यह अकसर तब देखा जाता है जब लड़के की जाति लड़की की जाति से छोटी होती है. इस दौरान लड़के अपने रिश्तेदार को बार-बार लड़की के मां-बाप के घर भेजता रहता है. मगर आज का इतिहास में ऐसा कभी नहीं देखा कि किसी का शगुन मरने तक नहीं मिला. इसी सिलन कुरूमू से पहले जमाने में लड़की की सहेलियां लड़की को बहला-फुसलाकर लड़के की झूठी प्रशंसा करती थी. अगर लड़की तैयार हो तो लड़का कुछ रूपया (तमा) के रूप में लड़की की सहेली (जिसे रं भाषा में तारम कहते हैं.) को दिया जाता है, फिर वही तारम उस लड़की को पैसे देकर इसमें आश्वासन ले लेती है कि तुम्हें शादी करनी है. वही तारम लड़के को समय एवं दिन बताती है तब उसी के अनुरूप सिलन कुरूमू करते हैं. इसे च्यमैखरमू भी कहते है.
तलाक
रं समाज में तलाक न के बराबर है. जिन मामलों में तलाक हुआ है वे या तो जिनकी शादी बचपन में ही उनके मां-बाप ने तय कर दी हो, उन्हीं में देखा जाता है. जब रं समाज ने देखा कि ऐसी शादी में पति तथा पत्नी के बीच अनबन हो रही है तो बाल विवाह पूरी तरह बंद कर दिया जाता है. अब जब भी तलाक हो तो अगर उनकी शादी रं समाज के रीति-रिवाजों के अनुसार हुई हो तो जो पक्ष पहले तलाक मांगता है उसे ‘कोल्ती चैमु’ करना पड़ता है इसके लिए पूरे गांव में एक सभा बुलाई जाती है उसमें दोनों पक्षों की बातें सुनी जाती है अगर दोनों पक्ष राजी हो तो पहले जमाने में एक सफेद कपड़े मात्र से ही कोलती चैमू हो जाता था, मगर आजकल शादी का खर्च, सफेद कपड़े आदि देकर अथवा परस्पर सहमति आधारित लेन-देन करके ‘कोलती चैम’ अर्थात् सम्बन्ध विच्छेद किया जाता है.
वाट्सएप में पोस्ट पाने के लिये यहाँ क्लिक करें. वाट्सएप काफल ट्री
हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें : Kafal Tree Online
(साभार: अमटीकर-2012 से डॉ. आर. एस. सीपाल का लेख)
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें