हरी थी मन भरी थी लेकिन इतनी महंगी थी कि खरीदी नहीं. पचास रूपए का एक भुट्टा. शिमला में था. भूख भी लगी थी. थका-मांदा मालरोड पार करके लिफ्ट से नीचे सड़क पर आया. सामने ही भुट्टे वाला कोयलों पर भुट्टे भून रहा था. दाम पूछा तो वह बोला- पचास रूपए का एक भुट्टा.
(Maize History Hindi)
मैंने कहा- इतनी तो मुझे पेंशन भी नहीं मिलती दोस्त कि पचास रूपए का भुट्टा खाकर ऐश कर सकूं. भुट्टा नहीं लिया. किसान के बारे में सोचता रहा कि इन्हें उगाने वाला कोई किसान यहां आ जाए तो दाम सुन कर शायद सिर पीट लेगा कि उसे जिसे मक्का की फसल उगाने की लागत तक बमुश्किल मिल पाती है, यहां दो भुट्टों वाले एक-एक पौधे से यह आदमी सौ रूपए कमा रहा है और विडंबना यह कि दुशाला ओढ़े, नौ लाख मोती जड़ी यह हरी-भरी फसल मुझ गरीब की बगिया में खड़ी है.
भाई अमीर खुसरो अच्छा होता, यह राजा जी के बाग़ में ही खड़ी रहती जैसा तुम अपनी पहेली में लिख गए. या तुम्हें यह एहसास हो गया था कि इक दिन ऐसा आएगा कि भुट्टा बिकेगा बाज़ार में पचास का और किसान देखता रह जाएगा?
बाज़ार से लौटते हुए मन को मनाया कि यहां नहीं, अब दिल्ली लौटकर ही स्वादिष्ट भुट्टे खाएंगे. लौटते हुए अपने घर-इलाके नैनीताल के बेहद स्वादिष्ट भुट्टों को भी याद करता रहा.
लेकिन, यह क्या? सैलानियों के इस भीड़ भरे सीजन में नैनीताल की खोज-खबर लेने के लिए सोशल मीडिया को हर्फ़ कर ही रहा था कि आवाज़ सुनी- भुट्टे ले लो !
आ जाओ सारे! भुट्टे ले लो ! पचास रूपए !
आवाज़ पहचानी हुई लगी. वहां एक पेड़ के नीचे, गुलाबी शर्ट और नीली कैप पहने जाने-माने नाटककार-साहित्यकार प्रताप सहगल कोयले की अंगीठी में भून-भून कर भुट्टे बेच रहे हैं!
आंखों को मल कर देखा. हां, वही थे. जब तक कुछ समझता, वे रेहड़ी वाले बच्चे को रेहड़ी और भुट्टे सौंप कर हंसते हुए आगे बढ़ गए. हे राम तो नैनीताल में भी वही दाम. पचास रूपए भुट्टा !
मैं चुपचाप बैठ कर हम मनुष्यों के मय, एज़्टैक और इंका पुरखों को याद करने लगा जिनकी बदौलत आज हम भट्टे खा रहे हैं. उन्हीं ने मैक्सिको की पहाड़ियों में उगने वाली जंगली टिओसिंटे घास के दो कतारों वाले, खोल से ढके, कुल आठ से बारह दाने वाली अंगुली बराबर छोटी भुट्टियों को साल-दर-साल चुन कर 18-20 कतारों और मोती जैसे कई सौ दाने वाले भुट्टों में बदल दिया. उनकी तो प्रमुख फसल ही यही थी. इसके साथ सेम (राजमा) और कद्दू. हल-बैल या घोड़े भी नहीं थे. पैर से तेज नोक वाले डंडे को ज़मीन में धंसा कर, उस छेद में मक्का बो देते.
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मंदिरों में देवताओं को भुट्टे चढ़ाते. अनुष्ठानों और तीज-त्योहारों में पवित्र भुट्टे काम आते. मक्का उनका जीवन थी. मय सभ्यता अज्ञात कारणों से मिट गई. एज़्टैक राजा मोंटेज़ुमा द्वितीय को स्पेनी आक्रमणकारी हरनान कॉर्टेज और उसके आदमियों ने 29 जून 1520 को मौत के घाट उतार दिया. महान इंका साम्राज्य के सम्राट कुऔह्तेमॉक 29 अगस्त 1533 को स्पेनी आक्रमणकारी फ्रैंसिस्को पिज़ारो के हाथों मारा गया.
स्पेनी नाविकों और सैनिकों से फैली चेचक आदि बीमारियों से भी हजारों लोग मारे गए. इस तरह ‘तीन बहिनों’ यानी मक्का, सेम और कद्दू पर पनपी ये महान सभ्यताएं नेस्तनाबूद हो गईं.
आक्रमणकारी स्पेनी दक्षिण अमेरिका से मक्का, सेम, कद्दू के साथ ही शकरकंद यानी बटाटा, आलू (पटाटा), टमाटर, मिर्च, तंबाकू आदि तमाम फसलें अपने देश में लाए. वहां कैरेबियन लोग मक्का को ‘माहिज’ कहते थे. स्पेनी इसे ‘मेज़’ कहने लगे.
वास्कोडिगामा 1498 में मलाबार तट पर पहुंचा था. पता नहीं, उसके नाविक अपने साथ ‘मेज़’ लाए या नहीं लेकिन वैज्ञानिक इतिहासकार कहते हैं पुर्तगालियों के साथ हरी-मन भरी मक्का हमारे देश में पहुंची. वह ‘मेज़’ से ‘मक्का’ कैसे हो गई, यह भाषाविज्ञानियों के शोध का विषय है.
लेकिन, मेरे लिए अमीर खुसरो की ‘हरी थी,मन भरी थी, नौ लाख मोती जड़ी थी’ पहेली अभी हल नहीं हुई है. इसमें पहेली में पहेली है. अगर इस पहेली का अर्थ है मक्का तो फिर अमीर खुसरो ने उस पर पहेली कैसे लिख दी. अमीर खुसरो का जन्म तो 1253 में हुआ और निधन 1325 में. पुर्तगाली आए 1498 में और उसके बाद. तो, पहेली यह है कि मक्का उससे पहले कौन लाया? अमीर खुसरो ने इसे दो-पौन दो सौ साल पहले कहां, किस राजा के बाग़ में देख लिया?
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इस पहेली का हल अभी खोजा जाना है. यह वैज्ञानिकों, भाषाविज्ञानियों और साहित्यकारों की साझा ज़िम्मेदारी है. तभी तो कहता हूं दोस्तो, विज्ञान और साहित्य को क़रीब लाओ. विज्ञान के कई रहस्य साहित्य के दरवाज़ों के भीतर मिलेंगे. ठीक कह रहा हूं न?
बहरहाल, किसान मंडी से बेटी वाणी दस रूपए प्रति भुट्टा के हिसाब से हमारे लिए ताजा, स्वादिष्ट भुट्टे ले आई है. कल और आज भून कर खाए. लेकिन, पहेली बरकरार है- अमीर खुसरो ने चौदहवीं शताब्दी में मक्का की फसल पर भुट्टे कहां देख लिए कि वे पहेली लिख गए-
हरी थी, मन भरी थी,
नौ लाख मोती जड़ी थी
राजा जी के बाग़ में
दुशाला ओढ़े खड़ी थी !
अरे हां, एक बात और. मां भी तो मुझे बचपन में एक पहेली सुनाती थी-
आटनी रे बाटनी
हाथ ले चुचाट हुंछ
खुकुरी ले काटनी !
मतलब, आटनी रे बाटनी, हाथ से तोड़ने पर चुचाट होता है, इसलिए खुकुरी से काट लेते हैं.
बहरहाल, यह पहेली तो शायद हमारे पहाड़ों में काकुनी यानी मक्का की खेती शुरू हो जाने के बाद ही गढ़ी गई होगी.
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वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.
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