चौमू देवता का मूलस्थान चम्पावत जनपद में गुमदेश स्थित चमलदेव में है किन्तु चम्पावत के अतिरिक्त पिथौरागढ़ में वड्डा के निकट चौपाता तथा अल्मोड़ा की रयूनी तथा द्वारसों पट्टियों और उनके निकटवर्ती इलाकों में भी इसका प्रभाव है. इसके चार मुंह होने के कारण इसे चौमूं भी कहा जाता है. इसके स्वरूप तथा इसके सम्बन्ध में व्यक्त संकल्पना से यह स्पष्ट है यह चतुर्मुखी पशुपति (शिव) का ही प्रतीक है. वैसे इसकी तुलना वैदिक देवता पूषन से भी की जाती है जिसे रास्ता भूल जाने वालों का मार्गदर्शक माना जाता है. इसके रथ को बकरों द्वारा खींचा जाता है और यह चारागाह में जाने वाले पशुओं का रक्षक है. इसीलिये रास्ता भूल गयी गायों को बटोर कर सकुशल गोठ में ले आने के लिए उसकी स्तुति की जाती है. अल्मोड़ा जनपद में मूलतः इसकी स्थापना रयूनी तथा द्वारसों पट्टियों की सीमा पर की गयी है और एक मंदिर स्थापित किया गया है.
इसकी स्थापना के सम्बन्ध में एक जनश्रुति प्रचलित है जिसके अनुसार लगभग पांच सौ वर्ष पूर्व एक व्यक्ति जिसका नाम रणवीरसिंह राणा था, अपनी पगड़ी में नर्मदेश्वर का एक स्फटिक शिवलिंग लेकर चम्पावत से अपने गाँव जा रहा था जो कि रानीखेत के समीप था. द्यारीघाट (रयूनी) के निकट वह शिवलिंग पगड़ी समेत नीचे गिर पड़ा. उसने उसे उठाकर पुनः सिर पर रखने का यत्न किया पर वह उसे उस स्थान से हिला भी न सका. तब उसने आसपास से कुछ लोगों को बुलाकर इस निश्चय के साथ उसे एक बांज वृक्ष की जड़ में रखवा दिया कि अगले दिन आकर वह वहीं पर उसकी स्थापना करवा देगा. किन्तु इसके निमित्त जब वह अगले दिन वहां पहुंचा तो उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब उसने देखा कि रात में ही वह लिंग वहां से उठ कर रयूनी तथा द्वारसों की सीमा पर एक छोटी सी पहाडी पर स्थित एक अन्य बांज वृक्ष की जड़ में स्थानातरित हो गया था. जब गाँव वालों को इस चमत्कारिक घटना का पता चला तो उन्होंने सम्मिलित रूप से इसके लिए वहीं पर एक मंदिर का निर्माण करवा दिया.
एटकिंसन के अनुसार चैत्र तथा अश्विन के नवरात्रों में यहाँ पर विशेष पूजाओं का आयोजन होता है जिनमें चतुर्मुखी शिवलिंग के ऊपर दूध का अभिषेक किया जाता है तथा सैकड़ों दीप जलाए जाते हैं. साथ ही बकरे की बलि भी दी जाती है. बलि किये गए पशु का सिर (सिरी) इन दो गाँवों में बांटे जाने का रिवाज है. वांछित कामनाओं के पूरा होने पर लोग यहाँ घंटियाँ भी चढ़ाते हैं. चितई और घोड़ाखाल के ग्वल देवता के मंदिरों के सामान यहाँ भी अनगिनत घंटियाँ देखी जा सकती हैं.
परम्परागत रूप से द्वारसों या रयूनी से नई गाय खरीदने पर खरीददार के लिए अपने गाँव में इसकी पूजा करना आवश्यक माना जाता है. वहां के लोगों की मान्यता है कि जब तक इस पर गाय का दूध चढ़ता रहेगा उसकी निरंतर वंशवृद्धि होती रहेगी. यह भी माना जाता है कि जो लोग ऐसा नहीं करते उनके दूध पर न तो मलाई जमती है न दही जमता है.
यह भी विश्वास किया जाता है कि नवप्रसूता गाय का अशौचलकाल (दस दिन) का तथा सायंकाल का बासी या मिलावट वाला दूध चढाने से पशुहानि होती है. पशुओं के खो जाने पर इसकी मनौती मानने से वे अपने आप घर आ जाते हैं. पहले जब ये पशुचारक लोग शीतकाल में भाबर के निचले क्षेत्रों में जाया करते थे तो गायों के खूंटों को चौमू का प्रतिनिधि मान कर उनकी पूजा की जाती थी अन्यथा पशुहानि होने की संभावना रहती थी. जो गाय चौमू को चढ़ाई गयी होती है उसका दूध शाम को नहीं पिया जाता है.
इसके बारे में यह भी प्रसिद्ध है कि एक बार इनका नाम सुनकर अल्मोड़ा के चंदवंशी राजा रत्नचंद इनके दर्शनों को जाना चाहते थे पर यात्रा के लिए शभ मुहूर्त न मिलने से नहीं जा सके. तब चौमू ने स्वप्न में आकर राजा से कहा – “मैं यहाँ का राजा हूँ, तू नहीं! तू क्या मेरी पूजा करेगा?” कहते हैं राजा फिर नहीं गया.
जैसा कि ऊपर बताया गया है कि रयूनी तथा द्वारसों के अलावा चौमू चम्पावत जनपद की गुमदेश पट्टी, सोर की सौन पट्टी तथा काली के उस पार से पश्चिमी नेपाल के इलाके का भी एक बहुमान्य देवता है. गुमदेश में मड़गाँव के सौन ही उसके पुजारी व डंगरिया (धामी) होते हैं और उसका भण्डार भी उन्हीं के संरक्षण में रहता है. इससे सम्बद्ध सभी समारोहों में इन्हीं की विशेष भूमिका रहती है. चैतोल (चौमू की रथयात्रा) के समय इसके डोले का उठाना, उसे गाँवों में घुमाना, मंदिर की परिक्रमा करवाना सब कुछ इन्हीं के जिम्मे होता है.
इसका मूलस्थान यद्यपि गुमदेश में काली एवं सरयू के संगमस्थल पंचेश्वर के पास माना जाता है, जहाँ अखिलतारिणी पर्वतश्रृंखला के पूर्वी ढाल पर एक रमणीक स्थान पर इसका प्राचीन मंदिर है तथा वहां पर उत्तरायणी के दिन एक मेले का भी आयोजन किया जाता है किन्तु इन क्षेत्रों में गुमदेश के चमलदेव के अतिरिक्त सोर पट्टी में वड्डा के नज़दीक चौपखिया के चौमू का विशेष प्रभाव है. चौपखिया का मंदिर अपनी सुन्दर मूर्तियों के लिए विशेष चर्चित है.
इन दोनों स्थानों में नवरात्रियों के अवसर पर बड़ी धूमधाम से चौमू देवता के डोले निकाले जाते हैं. इन देवयात्राओं का आयोजन अश्विन मास की नवरात्रियों की नवमी तिथि को तथा चमलदेव में दशमी को किया जाता है.
गुमदेश के चौमू देवता (चमलदेव) के विषय में उल्लेखनीय है कि चौमू देवता के मंदिर के नाम से ख्यात यह मंदिर मूलतः एक शिवालय है. ज्ञात नहीं इसे कब और कैसे चौमू का मंदिर बना दिया गया. हो सकता है मूलतः यहाँ पर चतुर्मुखी शिव की मूर्ति रही हो जिसकी चौमुखी महादेव के नाम से प्रसिद्धि हो. कालान्तर में नाम की साम्यता अथवा भ्रम या अज्ञानवश इसे सोर-पिथौरागढ़-अल्मोड़ा में बहुपूजित चौमू का नाम दे दिया गया हो. दूसरा एक कारण यह भी हो सकता है कि लोक परम्परा में चौमू को चतुर्मुखी शिव का अवतार माने जाने से दोनों के बीच का भेद समाप्त कर दिया गया हो.
इस सन्दर्भ में यह भी बताया जाना चाहिए कि पिथौरागढ़ जनपद में चौमू को शिव का स्वरूप माना जाता है. पिथौरागढ़ के रयांसी गाँव के पार्श्व में अवस्थित चौमू देवता के मंदिर के प्रांगण में अश्विन की नवरात्रियों में इसके सम्मान में एक मेले का आयोजन होता है जिसे चौपख्या का मेला कहा जाता है. एतदर्थ चौमू के डंगरिये को एक पालकी में बिठाकर ढोल-नगाड़ों के बीच ले जाया जाता है. देवता का अवतरण होने पर वह खेलने अर्थात नाचने लगता है. जनसमूह उसके समक्ष अपनी व्यथाओं को प्रस्तुत करता है तथा मुक्ति के उपायों के बारे में जानकारी चाहता है. धामी उन्हें आशीष के रूप में पुष्प व अक्षत देता है जिन्हें वे श्रद्धा से ग्रहण करते हैं.
चमलदेव में चौमू के सम्मान में इस मेले का आयोजन चैत्र मास की नवरात्रियों के दौरान दशमी को किया जाता है. चैत्र मास में आयोजित किये जाने के कारण इसे चैतोल भी कहा जता जाता है. यों तो चैतोल का आयोजन सोर और सीरा में भी किया जाता है पर यह उससे इस रूप में भिन्नता रखता है कि उन स्थानों में तो केवल एक रात्रि व तीन दिन (नवमी) तक सीमित होता है किन्तु यहाँ पर इसे तीन दिन तक मनाया जाता है.
गुमदेश के चौमू के बारे में एक और जनश्रुति यह है कि प्राचीन समय में वहां पर एक दैत्य रहता था जो बारी-बारी से प्रत्येक परिवार के एक व्यक्ति की बलि लिया करता था. लोगों ने इससे मुक्ति पाने के लिए अपने कुलदेवता चौमू के समक्ष गुहार लगाई. चौमू ने अपने दो गानों को वहां भेजा किन्तु शक्तिशाली दैत्य ने एक की तो जीभ काट डाली जिससे वह लाटा (गूंगा) कहलाया जाने लगा तथा दूसरे का पैर तोड़ दिया. अंततोगत्वा उसके अत्याचारों से तंग आकर चौमू के अनुरोध पर देवताओं ने उसे मार कर चमलदेव के प्रांगण में गाड़ दिया. आज भी जब चौमू देवता का डोला चमलदेव में पहुंचता है तो उसका धामी इस स्थान पर अपने दंड से एक प्रहार करता है.
चौमू के विषय में यह भी कहा जाता है कि वे सात भाई थे जिन्होंने गोरखपंथी विचारों के परसार के लिए सात आश्रम स्थापित किये थे. काली के उस पार के क्षेत्रों में चौमू के प्रभाव के बारे में भी देखा जाता है कि वहां पर धमकुड़ी, सुराड़ एवं सन्तोला आदि में इसके मंदिर हैं और चैतोल के अवसर पर वहां के लोग चमलदेव आकर इसकी पूजा करते हैं.
(प्रो. डी. डी. शर्मा की पुस्तक ‘उत्तराखंड ज्ञानकोष’ के आधार पर)
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2 Comments
Kartik Bhatt
Bhai plzzzzzz ek article पिथौरागढ़ के मजिरकंडा में manmahesh स्वामी और असुर देवता के टॉपिक पर भी बनाओ
Shobhna Pant
Very nice article….चमदेवल है चमलदेव नहीं