अमूमन किसी भी शहरी यात्री के लिए पहाड़ों की ओर आकर्षित होने के दो मुख्य कारण होते हैं. एक तो प्राकृतिक सुंदरता और शुद्ध हवा, दूसरा लोकल खाना और पहाड़ी लोग. इनमें से हम कितना कुछ पहाड़ों में बचा पाए हैं यह विचारणीय है. बात करेंगे अपने राज्य उत्तराखंड की. प्राकृतिक सुंदरता में हमारा राज्य किसी भी विदेशी स्थल को मात देने का दम रखता है. यकीन न हो तो स्विट्जरलैंड घूम आइये और उसके बाद औली आइयेगा तो आपको स्विट्जरलैंड वाली फीलिंग यहीं आने लगेगी. लेकिन बात यह है कि हम इस सुंदरता को संजो कितना पा रहे हैं? (Local Cuisine and Uttarakhand Tourism)
गुप्ता बंधुओं की शादी के चर्चे विदेशों तक में चले. सरकार ने शादी के बदले राजस्व वसूली का ढोल खूब पीटा और उत्तराखंड को वेडिंग डेस्टिनेशन के बाबत प्रोमोट करने की बात भी खूब चली. लेकिन शादी के बाद छोड़ा गया सैकड़ों टन कूड़ा व ओवर फ्लो करते सेफ्टिक टैंकों ने एक नई बहस छेड़ दी कि क्या भविष्य में इस तरह के आयोजनों की अनुमति दी जानी चाहिये जो हिमालय की खूबसूरती पर धब्बा लगा रहे हैं. (Local Cuisine and Uttarakhand Tourism)
एक टाइम के मुनाफे के लिए हम जीवन पर्यन्त मुनाफा देने वाले स्थलों को इस तरह से बर्बाद करने के लिए तो किसी को नहीं सौंप सकते. करोड़ों रूपया शादी में बहाने वाले गुप्ता बंधुओं के लिए सफाई के नाम पर 5.5 लाख रूपए नगर पालिका को देना ऊँट के मुँह में जीरे जैसा है लेकिन उस कूड़े व मल-मूत्र की वजह से औली की जो नकारात्मक पहचान बनी और आसपास बीमारियॉं फैलने का खतरा पैदा हुआ उसकी जिम्मेदारी आखिर कौन लेगा? इस विषय पर स्थानीय प्रशासन के साथ-साथ राज्य सरकार को भी गंभीरता से सोचना चाहिये.
प्राकृतिक सुंदरता के बाद शुद्ध हवा की बात करें तो अकेले गढ़वाल में वाहनों का ऐसा रेला निकलता है कि कई बार घंटों तक जाम में फंसे रहना पड़ता है. गाड़ियों की चैकिंग के नाम पर सिर्फ बैरिकेडिंग नजर आती है. चार-धाम व हेमकुंड की तरफ जाने वाले यात्रियों के वाहनों के मानकों की अगर ऋषिकेश में ही जॉंच कर ली जाए तो आधे से ज्यादा वाहनों को वहीं से वापस अपने घरों की ओर रुखसत होना पड़ेगा. हाल यह रहता है कि एक मोटरसाइकिल में तीन सवारी बिना हेल्मेट के नजर आ जाती हैं और उस पर भी मोटरसाइकिल के साइलेंसर या तो खुले हुए या फिर मॉडिफाइड. खुले साइलेंसर एक तो जम कर धुँआ छोड़ते हैं ऊपर से ध्वनि प्रदूषण करते हैं सो अलग.
राज्य में किसी भी गाड़ी से फिलहाल ग्रीन टैक्स जैसा कोई टैक्स नहीं वसूला जाता जबकि होना यह चाहिये कि पहाड़ों में पब्लिक ट्रांसपोर्ट को बढ़ावा देने व प्रदूषण को कम करने के लिए प्राइवेट गाड़ियों पर ग्रीन टैक्स लागू किया जाना चाहिये जिससे राजस्व पैदा हो सके और उसका उपयोग पहाड़ों के विकास के लिए किया जा सके.
शहरों या दूसरे राज्यों से आने वाले यात्रियों में लोकल खाने को लेकर अलग ही उत्सुकता होती है. लेकिन उन्हें निराशा तब हाथ लगती है जब किसी भी ढाबे में खाना खाने के लिए रूकने पर उन्हें वही जंक फूड परोसा जाता है जिसे शहरों में खा-खाकर वो ऊब चुके हैं. पराठे, चाऊमीन, मैगी, स्प्रिंग रोल, मोमोज, फ़्राइड राइस, राजमा-चावल, तंदूरी रोटी और भी न जाने कितना कुछ माणा की उस आख़िरी दुकान तक भी पहुँच चुका है जहॉं आप इस उम्मीद से जाते हैं कि शायद पहाड़ी खेतों में पैदा हुआ कोई स्थानीय व्यंजन आपकी थाली में परोसा जाएगा.
एक बार को कुमाऊँ की पहाड़ी सड़कों पर निकल जाने पर आपको पहाड़ी खाने के नाम पर मंडुवे की रोटी, गडेरी की सब्ज़ी, भट्ट की चुड़कानी और डुबके, गहत और लोबिया की दाल, राई डला खीरे का रायता, भांग की चटनी आदि किसी न किसी ढाबे पर मिल ही जाएगा लेकिन गढ़वाल की सड़कों के किनारे बने ढाबों में ये सब मिल पाना आसान नहीं है. किसी प्रायोजित आयोजन पर जरूर आपको झंगूरे की खीर या कोदे/मंडुवे की रोटियॉं तो मिल जाएँगी लेकिन ढाबों पर अगर आप ये सब खोजने लगें तो बमुश्किल ही कोई ढाबा मिले जहॉं ये व्यंजन उपलब्ध हों.
एक दिन बद्रीनाथ दर्शन के बाद जब हम कुछ मित्र सुबह का नाश्ता करने एक ढाबे पर पहुँचे तो तंदूर के पास बैठे अंकल मंडुवे का आटा गूँथ रहे थे. पहली बार किसी ढाबे में मंडुवे का आटा गुँथता देख अनायास ही मुँह से निकल गया “वाह अंकल! मंडुवे की रोटी बना रहे हैं. हमारे लिए भी चार प्लेट लगा दीजिये.” अरे बेटा ये तो हम अपने लिए बना रहे हैं. यात्री कहॉं मंडुवे की रोटी खाते हैं-अंकल ने जवाब दिया. यह सुनते ही हमारे कान खड़े हो गए. मैंने कहा अंकल आपको क्या लगता है दिल्ली से आने वाले यात्री आपके यहॉं छोले-भटूरे खाने आते हैं? वो तो उनकी मजबूरी हो जाती है ये सब खाना क्योंकि आप लोग पहाड़ी खाने के नाम पर कुछ भी ऐसा नहीं बनाते जो विशिष्ट हो.
अगर आप पहाड़ी खाने के नाम पर दो-चार व्यंजन भी बनाने लगें तो आपके ग्राहकों की पसंद स्वत: बदलने लगेगी. अंकल को बात कुछ-कुछ तो समझ आने लगी थी लेकिन पहाड़ी खाना परोसे जाने को लेकर उनमें कोई उत्सुकता नहीं थी. शायद उन्हें छोले-भटूरे और राजमा-चावल बनाने में कम मेहनत नज़र आ रही थी इसलिए पहाड़ी खाना बनाने के उत्पादों की अनुप्लब्धता का हवाला देकर उन्होंने पल्ला झाड़ लिया.
अब बात लोकल लोगों की. पलायन का हाल हम देख ही चुके हैं. खुद सरकार 700 से ज्यादा गॉंवों को ‘घोस्ट विलेज’ घोषित कर चुकी है और यह आँकड़ा सरकारी व कागजी है. मतलब की अगर जमीनी हकीकत देखी जाए तो इससे भी ज्यादा घोस्ट विलेज पहाड़ों में मिल जाएँगे. अब जब गॉंव के गॉंव खाली होंगे तो आख़िर यात्री वहॉं करने क्या आएँगे. यात्रियों को न सिर्फ सुरक्षा की दृष्टि से स्थानीय लोगों का साथ चाहिये होता है बल्कि उस पर्यटन स्थल को जानने समझने, उसकी भौगोलिक परिस्थितियाँ जानने व स्थानीय लोक संस्कृति को देखने के लिए भी लोगों का साथ चाहिये होता है. लेकिन पलायन ने राज्य का ऐसा हाल किया है कि कई ऐसे सुंदर पर्यटन स्थल हैं जहॉं स्थानीय लोगों की अनुप्लब्धता के कारण यात्री जाने का संकट मोल नहीं लेते.
‘घोस्ट विलेज’ को ‘होस्ट विलेज’ में तब्दील करने की उत्तराखंड सरकार की योजनाओं से एक उम्मीद नजर तो आती है कि भविष्य में होम स्टे के चलते शायद वीरान हो चुके गॉंवों में फिर से स्थानीय लोगों के साथ पर्यटक भी विचरण करते नजर आएँ लेकिन इसके लिए राज्य पर्यटन मंत्रालय को इस लक्ष्य पर विशेष ध्यान देना होगा.
अपार संभावनाओं से भरे इस प्रदेश में पर्यटन सबसे बड़ा फैक्टर साबित हो सकता है. लेकिन उसके लिए जरूरत है सतत पर्यटन विकास की. जो कुछ औली में हुआ उससे सबक लेने की और पर्यटन को नियमित करने की. बेस्ट फिल्म प्रोमोशन फ्रेंडली स्टेट, 2019 का खिताब जीतने वाले इस राज्य को जरूरत है ऊपर दिये दो मुख्य कारकों में काम करने की जिससे सतत पर्यटन को बढ़ावा दिया जा सके और पर्यावरण व स्थानीय व्यंजनों को बचाया जा सके तथा मूलभूत सुविधाओं को मुहैया करवाकर लोगों की गॉंवों की तरफ वापसी को सुनिश्चित किया जा सके.
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नानकमत्ता (ऊधम सिंह नगर) के रहने वाले कमलेश जोशी ने दिल्ली विश्वविद्यालय से राजनीति शास्त्र में स्नातक व भारतीय पर्यटन एवं यात्रा प्रबन्ध संस्थान (IITTM), ग्वालियर से MBA किया है. वर्तमान में हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय के पर्यटन विभाग में शोध छात्र हैं.
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