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‘लाया’ हिमालयी गाँवों की आर्थिकी की रीढ़ पशुपालकों का मेला

कभी हिमालय की तलहटी में बसे गाँवों की आर्थिकी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले पशुपालकों के त्योहार लाया का महत्वपूर्ण स्थान था, लेकिन सरकारों की बेरुखी और नियोजन की अक्षमता व विपणन की सही व्यवस्था न होने के कारण हिमालयी गाँवों की आर्थिकी की रीढ़ कहे जाने वाला यह त्योहार अब अपनी अंतिम सासें गिनता प्रतीत हो रहा है.
(Laya Festival Uttarakhand Rudraprayag)

इससे पहले की हम लाया के अन्य पक्षों पर नजर दौड़ाएं, उससे पहले जानते हैं कि ये त्योहार क्या, क्यों, कहाँ, कब कैसे मनाया जाता है. रूद्रप्रयाग जनपद के ऊखीमठ विकास खण्ड के कालीमठ व मद्यमहेश्वर घाटी के हिमालय की तलहटी में बसे गाँवों में सदियों से भेड़ बकरी पालन को प्रमुख व्यवसाय के रूप में अपनाया जाता रहा है. ये भेड़ बकरियां यहाँ के काश्तकारों की आर्थिकी की प्रमुख रीढ़ रही हैं.

भेड़ बकरियाँ यहाँ के काश्तकारों के लिए भोजन, वस्त्र नकदी के साथ-साथ वस्तु विनिमय का प्रमुख साधन रही हैं. वस्तु विनिमय में इन भेड़ बकरियों का प्रयोग बहुतायत रूप से होता रहा है. इनके गोबर ने यहाँ के मोटे अनाजों के लिए उर्वरता में भी बड़ी भूमिका निभाई है. चुगान के लिए खड़ी पथरीली चट्टानों पर चढ़ते वक्त आकस्मिक रूप से मृत भेड़ बकरियों का प्रयोग जहाँ भोजन के रूप में होता रहा है, वहीं इन भेड़ों से प्राप्त ऊन द्वारा बनने वाले दोखा (ऊनी कोट), लावा (ऊनी महिला धोती) के रूप में वस्त्रों की आपूर्ति में भी महत्ति भूमिका निभाई है. मृत भेड़ बकरियों की खाल ने यहाँ के वाद्य यंत्रों की पूड़ (वाह्य आवरण)के रूप में यहाँ के समाज में, सांस्कृतिक व धार्मिक अवयवों की विरासत को आगे बढ़ाने में यादगार भूमिका निभाई है. यहाँ के प्रत्येक परिवार का किसी न किसी रूप में इस व्यवसाय से वास्ता रहा है. यहाँ के भेड़ बकरी पालक परिवारों द्वारा होली के बाद चरने के लिए, अपनी पसंद के पालसी के साथ उच्च हिमालयी क्षेत्रों में भेजी गई इन भेड़ों के 5 गते भाद्रपद (20 या 21 अगस्त) को एक निश्चित स्थान पर सामूहिक रूप से ऊन उतारने के इस प्रक्रम को लाया कहते हैं. गढ़वाली भाषा में लाया का अर्थ होता है बाल काटना या बाल उतारना.

फोटो : हेमंत चौकियाल

‘कोस-कोस पर बदले पानी, तीन कोस पर बानी’ की तरह यहाँ के कई क्षेत्रों में लाया को लाय्या, लौ भी कहा जाता है. होली के बाद जब धीरे-धीरे वातावरणीय ठंड में कमी आने लगती है तो यहाँ के अधिकांश गाँवों में कुछ लोगों का पुश्तैनी काम इन भेड़ों को उच्च हिमालयी क्षेत्रों में चुगाने के लिए ले जाना होता है. इन व्यक्तियों को पालसी कहा जाता है. प्रत्येक गाँव में कुछ लोग पुश्तैनी रूप से पालसी का काम करते हैं. ये अपने साथ गाँव के कुछ उत्साही युवाओं को सहायक के रूप में लेकर भावी पालसी के रूप में प्रशिक्षित करते हैं. बाद में मुख्य पालसी के वृद्ध हो जाने पर ये युवा, पालसी का दायित्व संभाल लेते हैं.
(Laya Festival Uttarakhand Rudraprayag)

गाँव के परिवार अपनी पसंद के पालसी को अपनी भेड़ बकरियाँ चराने के लिए सौंप देते हैं. ये पालसी अपने आस पास के गाँवों की भेड़ों को ले जाकर उच्च हिमालयी क्षेत्रों में अवस्थित बुग्यालों के लिए प्रस्थान करते हैं. विशेषता की बात यह है कि जिस प्रकार एवरेस्ट या ऊँची चोटियों पर चढ़ने वाले स्वयं को कुछ कुछ समय के लिए बेसकैंप में रहकर हिमालयी पर्यावरण के प्रति अनुकूलित करते हैं ठीक वैसे ही ये पालसी भी भेड़ बकरियों को लेकर कुछ-कुछ दिनों निर्धारित स्थानों पर रुकते हुए उच्च क्षेत्रों के लिए बढ़ते हैं.
(Laya Festival Uttarakhand Rudraprayag)

पुश्तैनी रूप से इनके इलाके व स्थान निश्चित होते हैं. उच्च हिमालयी क्षेत्र में ये पालसी जहाँ अपने टेंट गाड़ते हैं उस स्थान व निर्मित टेंट रूपी संरचना को “आँजा” कहा जाता है. ये टेन्ट बांस, रिंगाल व स्थानीय घास (मांमचा), व प्लास्टिक शीट से बने होते हैं. जहाँ वातावरण से अनुकूलित होने के लिए ये पालसी कुछ दिनों रूककर धीरे-धीरे भेड़ बकरियों सहित ऊपरी हिमालयी क्षेत्रों में बढ़ते हैं. इन कुछ कार्यों को वे पालसी लोग परम्परा के रूप में निभाते हैं.

गौर किया जाय तो इन परम्पराओं के पीछे कितना विशद अनुभव और गहन विज्ञान है कि ये परम्परा मानव व पशुओं को पर्यावरण के प्रति अनुकूलित करने के लिए ही बनी थी. इन भेड़ बकरियों के साथ, इन पालसियों का एक और विश्वसनीय साथी साथ रहता है और वो है इनका कुत्ता. ये प्रत्येक टोले के साथ दो या दो से अधिक (भेड़ बकरियों की संख्या के अनुसार) आवश्यकतानुसार रहते हैं. आदि काल में मानव ने जंगली पशुओं में जिसे अपना सबसे नजदीकी विश्वसनीय जानवर बनाया वह कुत्ता ही था. पालिसी इन कुत्तों को इतना प्रशिक्षित कर देते हैं कि उनकी अनुपस्थिति में ये भेड़े जहाँ खड़ी की गई होती हैं घंटों वहीं खड़ी रहती हैं. कुत्ते इन्हें इंचभर भी आगे नहीं बढ़ने देते. ये कुत्ते रात के समय भी जंगली पशुओं से भेड़ बकरियों की सुरक्षा करते हैं. बाघ भालू के आक्रमण के समय ये कुत्ते सामूहिक आक्रमण कर बाघ भालू को घायल कर भागने पर मजबूर कर देते हैं. कई बार तो ये बाघ भालू को भी चीर-फाड़ कर रख देते हैं.
(Laya Festival Uttarakhand Rudraprayag)

आज से तीन दशक पहले तक रुद्रप्रयाग जिले की मदमहेश्वर घाटी और कालीमठ घाटी के ये गाँव भेड़ बकरी पालन और इनसे प्राप्त वस्तुओं के व्यापार की एक बड़ी मण्डी के रूप में प्रसिद्ध थे. इस क्षेत्र की भेड़ बकरियों, ऊन व ऊन से बनी वस्तुओं को खरीदने के लिए दूर दूर से व्यापारी और जरूरतमंद लोग इस घाटी का रूख करते थे. लोग यहाँ प्रतिवर्ष 20 या 21 अगस्त को होने वाले लाया मेले में आकर बड़ी मात्रा में भेड़ बकरियों की काली व सफेद ऊन खरीदते थे जिससे बाद में स्वेटर, मौजे, दस्ताने बनाकर बड़े बाजारों में ऊंचे दामों पर बेचकर अच्छा मुनाफा कमाया जाता था. मांस के शौकीन लोग ऊच्च हिमालयी क्षेत्रों के बुग्यालों में मुलायम घास के साथ उगने वाली जड़ी-बूटियों को खाकर निरोग व तंदुरुस्त हुई भेड़ बकरियों को खरीदते थे.

इस अवसर पर स्थानीय अनाज उत्पादों, रिंगाल से बनी वस्तुओं के साथ ऊन से बने वस्त्रों, जिनमें दोखा (ऊनी कोट), पाखला (ऊनी धोती या साड़ी), कम्बल प्रमुख होते थे, का व्यापार होता था. इस एक दिनी मेले में ही भेड़ बकरी पालने वाले प्रत्येक परिवार की इतनी आमदनी हो जाती थी कि वो सालभर के लिए अपनी रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने के लिए पूंजी कमा लेता था. दिन भर इन सब गतिविधियों के साथ-साथ पालसी और भेड़ के मालिकों के बीच के मेहनताने की लेन-देन की प्रक्रिया भी इसी दिन सम्पन्न हो जाती है. नवजात मेमनों को नमक खिलाने और घर पर उनकी सुरक्षित परवरिश के लिए छोड़कर पुनः पालसी ऊन निकाली हुई, बड़ी भेड़-बकरियों के साथ आगामी दो-तीन महीनों के लिए अर्थात दीपावली तक के लिए पुनः वापस उच्च हिमालयी क्षेत्रों के लिए चले जाते हैं. यह सारी प्रक्रिया ही लौ अथवा लय्या कही जाती है. जिसका स्थानीय भाषा में अर्थ होता है ‘बाल काटना’.
(Laya Festival Uttarakhand Rudraprayag)

इस दौरान सावन मास की समाप्ति तक इन भेड़ों के प्रवास को लगभग पाँच माह पूरे हो जाते हैं. इन पाँच माहों में इन भेड़ों की ऊन काफी हद तक बढ़ जाती है. इसी ऊन की कटाई-छंटाई और इस बीच नए जन्मे मेमनों को नमक खिलाने के लिए भेड़पालक पालसी सभी भेड-बकरियों को गाँव के सबसे नजदीकी बुग्याल (घास के मखमली मैदान) में एक निश्चित तिथि (5 गते भाद्रपद, 20 अगस्त)को उच्च हिमालयी क्षेत्र से वापस लेकर आते हैं. जहाँ पर इनके मालिकों के साथ साथ दूर-दूर से भेड़ बकरियों के खरीददार भी आते हैं. इस दौरान भेड़ बकरियों के क्रय-विक्रय के अलावा ऊन से बनी विभिन्न वस्तुएं जैसे दोखा (ऊनी कोट), लवा (ऊनी धोती या साड़ी), कम्बल, पंखी आदि के साथ-साथ स्थानीय कृषि उत्पादों व वन ऊपज उत्पादों जिनमें रिंगाल से बनी वस्तुओं जैसे कण्डी,टोकरी, चटाई जैसी वस्तुओं का व्यापार होता था.

इस मेले का एक खास आकर्षण होता है पळया का चुनाव. भेड़ बकरियों के दल के उस सबसे बलिष्ठ भेड़ या बकरी को पळया कहा जाता है जिसकी जिसकी खास परवरिश होने के कारण जो अन्य भेड़ या बकरियों से सबसे जादा बलिष्ठ, हृष्ट-पुष्ट व मोटी-तगड़ी हो. विभिन्न पालिसियों के भेड़ बकरियों के झुंड में से पळया का चुनाव लोकतांत्रिक पद्धति से किया जाता है. चुनाव करने के लिए प्रत्येक गाँव से एक पुराने व अनुभवी व्यक्ति (पूर्व पालसी) को आमन्त्रित किया जाता है. चार-पाँच गांवों के इन अनुभवी व्यक्तियों के इस दल द्वारा अपनी सामूहिक सहमति से पळया का चुनाव किया जाता है.
(Laya Festival Uttarakhand Rudraprayag)

पळया को चयनित करने के बाद सम्मान व पुरस्कार के रूप में उस पळया के पालक पाल्सी,उसके मालिक और पळया को बुग्यालों से लाये गये ब्रह्मकमल के फूलों की एक खूबसूरत माला पहनाई जाती है. माला के लिए इन ब्रह्मकमलों को ये पाल्सी उच्च हिमालयी क्षेत्र से अपने साथ चुनकर लाते हैं. प्रत्येक पालसी अपने गाँववासियों और भेड़-बकरियों के मालिकों के लिए इन ब्रह्म कमलों को कई किलोमीटर दूर से नंगे पांव चलकर प्रसाद स्वरूप में लाते हैं. यहाँ ब्रह्म कमल को देव पुष्प माना जाता है और इसे नहा-धोकर ही छुआ जाता है. प्रसाद स्वरूप बाँटने के लिए इसे नंगे पाँव, स्नान कर व स्वच्छ वस्त्र पहन कर ही तोड़ा जाता है.

गाँववासी भी अपने-अपने पालसियों के लिए घरों से पूरी-पकौड़ी, घी आदि बनाकर लाते हैं, जिसका लेन-देन भी इसी दौरान किया जाता है. प्रत्येक वह परिवार जिसकी भेड़ बकरियां चराने के लिए पालसी को सौंपी गई होती हैं, वह परिवार यहीं पर पूर्व निर्धारित मेहनताना पालसी को सौंपती है. इस मेहनताने में नकदी के अलावा, वस्तु, वस्त्र, खाद्य पदार्थ आदि चीजें होती हैं, जिसे पालसी आवश्यकतानुसार अपने पास रखकर, बाकी सामग्री अपने परिवारजनों को सौंप देते हैं, क्योंकि पालसी यहीं से पुन:कम ऊँचाई वाले बुग्यालों की ओर लौट जाते हैं, जहाँ से ने अत्यधिक ठंड बढ़ने व बर्फवारी शुरू होने पर अक्टूबर (दीपावली के आसपास) निचले स्थानों से होकर, अपने घरों को आते (लौटते) हैं.

कल्पना ही की जा सकती है कि आम जन जीवन से दूर, दैनिक आवश्यकताओं, भोजन, शयन को सीमित कर, एक पासली ऋषियों का सा जीवन इस दौरान व्यतीत करता है. उच्च हिमालयी क्षेत्रों में अवस्थित बुग्यालों के भ्रमण के दौरान ये पालसी देश की सीमाओं के सजग प्रहरी की भूमिका भी निभाते हैं. जम्मू कश्मीर, हिमांचल जैसे अन्तरराष्ट्रीय सीमा से लगे राज्यों में भारत के ये पालसी, सदियों से भारतीय सेना के लिए संदिग्ध गतिविधियों की जानकारी देने वाले गुप्तचरों की महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते आए हैं. 1999 के कारगिल युद्ध में, पाकिस्तानी घुसपैठियों की पहली पहल खबर भारतीय सेना को इन्ही पालिसियों (जम्बू-कश्मीर क्षेत्र के) द्वारा दी गई थी. उत्तराखंड की चीन से लगी अन्तराष्ट्रीय सीमा की सुरक्षा और घुसपैठियों के कारनामों की जानकारी के लिए ये पालसी, भारतीय सेना के लिए देवदूत सदृश होते हैं.
(Laya Festival Uttarakhand Rudraprayag)

लेकिन बढ़ती भौतिकता व प्रौद्योगिकी का एक बड़ा दुष्प्रभाव यह हुआ कि सदियों से चली आ रही इस खूबसूरत और उत्पादक लोकपरंपरा में भी वक़्त के साथ-साथ आज बहुत बदलाव नजर आ रहा है. धीरे-धीरे इस क्षेत्र में पशु पालकों का मोह इन भेड़ बकरियों से दूर होता जा रहा है जिस कारण इन वस्तुओं के ग्राहक भी कम होते जा रहे हैं. लोगों ने विदेशी वस्तुओं व वस्त्रों को तो तरहीज दी लेकिन सदियों से प्रचलित इन वस्तुओं का उपयोग लगभग बंद सा कर दिया, जिसका सीधा प्रभाव इस क्षेत्र पर पड़ा.

आज स्थिति यह है कि ऊन के कोई खरीददार न होने से मजबूरन इन भेड़ बकरी पालकों को ऊन यहीं लाया स्थलों पर छोड़नी पड़ती है. कारण कि अब न इस ऊन के खरीददार हैं न ही ऊनी वस्त्रों को बनाने वाले कारीगर. क्योंकि ऊन के इस पूरे काम में ऊन कातने से लेकर वस्त्र बुनने तक की पूरी प्रक्रिया में लम्बा वक्त और बहुत धैर्य की जरूरत होती है. इसलिए युवा इस काम में रूचि नहीं ले रहे. सरकार के स्तर पर भी इस काम को प्रोत्साहित करने की कोई योजना नहीं. इस कारण अब काश्तकार रस्म के तौर पर लाया का मेला आयोजित तो होता है पर उसकी वो रौनक, लोगों का वह उत्साह कहीं दूर चला गया. दिन प्रतिदिन स्थिति यह हो रही है कि धीरे-धीरे लोग इस व्यवसाय को तिलांजलि दे रहे हैं. आवश्यकता इस बात की है कि इस विषय पर सरकार और उसका ऊन-रेशा बोर्ड को गंभीरतापूर्वक विचार कर कोई ठोस योजना बनाकर, उसका प्रचार प्रसार करे, जिससे स्थानीय युवा परम्परागत रूप से चले आ रहे इस व्यवसाय में रूचि बनाये रखें जिससे अन्य स्थानीय युवाओं को रोजगार भी मिले और हमारी धरोहर और विरासत को एक समुचित पहचान भी मिल सके. सरकार का यह कदम न केवल हिमालय वासियों को सुरक्षित रखने के लिए कारगर साबित होगा बल्कि हिमालय की सेहत को सुधारने के इन घाटियों से पलायन रोकने में भी मददगार और कारगर साबित होगा.
(Laya Festival Uttarakhand Rudraprayag)

हेमंत चौकियाल

रा.उ.प्रा.वि. डाँगी गुनाऊँ में प्रधानाध्यापक हेमंत चौकियाल मूल रूप से अगस्त्यमुनि (रूद्रप्रयाग) के रहने वाले हैं. हेमंत चौकियाल, शैलेश मटियानी राज्य शिक्षक सम्मान सहित साराभाई टीचर साइन्टिस्ट नेशनल अवार्ड से सम्मानित शिक्षक हैं.

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