दक्षिण भारत में बारह वर्ष बाद फिर बहार के दिन आ गए हैं. पश्चिमी घाट की ऊंची पहाड़ियों पर प्रकृति अपनी कूंची से नीला रंग भरने लगी है. रंगो-बू की यह बेशकीमती बहार वहां खिल रहे नीला कुरिंजी के फूलों से आ रही है. जानकार लोग बता रहे हैं कि अगस्त से लेकर अक्टूबर माह तक वहां फूलों की यह बहार बनी रहेगी. लोन्ली प्लेनेट ने एशिया में वर्ष 2018 की सबसे खूबसूरत जगहों में पश्चिमी घाट को भी शामिल किया है. यह तय है कि देश-विदेश के लाखों सैलानी इस वर्ष नीला कुरिंजी की स्वप्निल तथा सम्मोहक नीली बहार को देखने के लिए आगामी तिमाही में केरल की मुन्नार और तमिलनाडु की नीलगिरि पहाड़ियों की राह पकड़ेंगे.
पिछली बार भी नीला कुरिंजी के फूल बारह वर्ष बाद 2006 में खिले थे. तब दक्षिण भारत के कोडइकनाल, नीलगिरी, अन्नामलाई और पलनी की पहाड़ियों में ऐसी ही बहार आई थी. बल्कि, अगस्त से दिसंबर तक तमिलनाडु में क्लावररई से केरल में मुन्नार के पास वट्टावडा तक चारों ओर जैसे प्रकृति ने नीले-बैंगनी रंग के गलीचे बिछा दिए गए हों. हकीकत तो यह है कि पिछले 150 वर्षों में उन पहाड़ों पर केवल चौदहवीं बार नीला कुरिंजी के फूल खिले हैं! नीले-बैंगनी फूलों की उस बहार के कारण ही नीलगिरि पर्वतमाला का नाम नीलगिरि पड़ गया.
नीला कुरिंजी प्राचीनकाल से ही दक्षिण भारत में उगता रहा है. पश्चिमी घाट की पहाड़ियों में हर बारहवें साल इसकी नीली बहार आती है. उस बहार को देख कर प्राचीन तमिल कवियों ने बड़ी सुंदर कविताएं रचीं. ‘तमिल संगम’ की तमाम प्राचीन कविताओं में नीला कुरिंजी का गुणगान किया गया है. उनमें एक राजा की प्रशंसा करते हुए लिखा गया है कि वह राजा उस राज्य में राज करता था, जहां नीला कुरिंजी के फूलों का शहद खूब होता था! तब दक्षिण भारत के उस पर्वतीय प्रदेश को नीला कुरिंजी प्रदेश कहा जाता था. वहां के आदिवासी ‘मुरुगन’ देवता की पूजा करते थे. उनका मानना था कि जब मुरुगन ने आदिवासी वधू ‘वल्ली’ से विवाह रचाया तो उन्होंने नीला कुरिंजी की वरमाला पहनी थी. और हां, तमिलनाडु के वलपराई और केरल में मन्नार के बीच की पहाड़ियों में ‘मुडुवर’ जनजाति के लोग रहते हैं. वे अपनी उम्र का हिसाब नीला कुरिंजी के खिलने से जोड़ते है. यानी, नीलाकुरिंजी जितनी बार खिला, उतनी उनकी उम्र!
सन् 1836 में अंग्रेज वनस्पति विज्ञानी राबर्ट वाइट पलनी पर्वमाला में पहुंचा. वहां उसने इस नीले-बैंगनी फूल की बहार देखी तो देखता ही रह गया. उसने इस फूल के बारे में लिखा. तब उस क्षेत्र से बाहर के लोगों को इस पौधे के बारे में पता चला. एक और वनस्पति विज्ञानी कैप्टन बेडोम ने भी सन् 1857 में कुरिंजी के बारे में काफी लिखा. कोडइकनाल के कैथोलिक पादरियों ने भी कुरिंजी के खिलने का रिकार्ड रखा. नीलगिरि की पहाड़ियों में सन् 1858 से नीला कुरिंजी के खिलने की पूरी प्रमाणिक जानकारी उपलब्ध है. यह जानकारी वहां कोटागिरि में बसे काकबर्ने नामक निवासी की दादी ने स्थानीय कोटा और टोडा लोगों से पूछ-पूछ कर लिखी थी.
अपनी बहार से पूरे पहाड़ों को किसी कैनवस की तरह नीले-बैंगनी रंग में रंग देने वाले इस झाड़ीदार पौधे को वनस्पति विज्ञानी स्ट्रोबाइलेंथीज कुंथियाना कहते हैं. इस पौधे के वंश में लगभग 200 प्रजातियां पाई जाती हैं. इन सभी प्रजातियों के पौधे एशिया में ही पाए जाते हैं. उनमें से करीब 150 प्रजातियां भारत में पाई जाती हैं. पश्चिती घाट, नीलगिरि और कोडइकनाल में करीब 30 प्रजातियां उगती हैं. इस पौधे की कुछ प्रजातियां हर साल भी खिलती हैं. लेकिन, कई प्रजातियां कई साल के अंतर पर खिलती हैं. स्ट्रोबाइलेंथीज कुंथियाना 12 साल में एक बार खिलता है.
दक्षिण भारत के पहाड़ों में नीला कुरिंजी के पौधे करीब 30 से 60 से.मी. ऊंचे होते हैं. लेकिन, अनुकूल दशाओं में 180 से.मी. तक भी ऊंचे हो जाते हैं. चमकीले नीले बैंगनी फूल घंटियों की तरह दिखाई देते हैं. केरल में इडुक्की जिले में अनाइमुडी की चोटी दक्षिण भारत की सबसे ऊंची चोटी है. उसके चारों ओर का क्षेत्र इराविकुलम कहलाता है. यह राष्ट्रीय पार्क है और नीला कुरिंजी का संरक्षित क्षेत्र है. उसी जिले के देवीकुलम तालुके में 32 कि.मी. क्षेत्र में कुरिंजीमाला संरक्षित क्षेत्र बनाया गया है.
लेकिन, पिछले 100 वर्षों में दक्षिण भारत की पहाड़ियों पर इस मनोहारी नीले रंग की रंगत धीरे-धीरे काफी कम हो गई है क्योंकि नीला कुरिंजी के पौधे कम हो गए हैं. जानते हैं, क्यों? क्योंकि जंगलों को काट कर चाय बागान बनाए गए, इलायची की खेती की गई और वहां अनजाने पेड़ लगाए गए जैसे युकिलिप्टिस, अकेसिया. ऊपर से जंगल की आग. उसने नीला कुरिंजी के पौधों को साल-दर-साल बुरी तरह जलाया.
लेकिन अब, नीला कुरिंजी को बचाने के लिए कई तरह के प्रयास किए जा रहे हैं. ‘कुरिंजी बचाओ’ अभियान शुरू किया गया है. वर्ष 2006 में बैंक में काम करने वाले राजकुमार ने तिरूअनंतपुरम में ‘कुरिंजी बचाओ अभियान परिषद्’ बनाई. ‘कुरिंजी बचाओ’ अभियान में वन और वन्य जीव विभाग, पर्यटन विभाग, गैर सरकारी संस्थाएं और तमाम लोगों ने अपनी भागीदारी निभाई. वे लोग हर साल कोडइकनाल से मुन्नार तक की पैदल यात्रा करते रहे हैं. नीला कुरिंजी की रक्षा के लिए जंगलों की आग को रोकने की भी कोशिश की जा रही है. कोडइकनाल की पहाड़ियों में इसके और अधिक पौधे लगाने की भी कोशिशें की गई हैं.
2189पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए 2006 में केरल में ‘नीला कुरिंजी उत्सव’ मनाया गया. उसमें केरल सरकार के पर्यटन विभाग, वन और वन्य जीव विभाग तथा कई अन्य विभागों ने भाग लिया. पुडिचेरी के सालिम अली इकोलाजी स्कूल में नीला कुरिंजी पर वैज्ञानिक खोज कर रहे हैं. इस प्यारे और निराले नीले-बैंगनी फूल की ओर सबका ध्यान आकर्षित करने के लिए भारत सरकार ने 29 मई 2006 को एक डाक टिकट जारी किया. इसे ‘जानिए भारतीय डाक टिकटों के जरिए प्रकृति के रहस्य’ योजना के तहत जारी किया गया.
चकित होने की बात तो यह है कि नीला कुरिंजी के पौधे उत्तराखंड के पहाड़ों में भी होते हैं. वहां गांवों में, कुमांउनी में लोग इसे जोंणला और गढ़वाली भाषा में जिमला या जानू कहते हैं. अंग्रेज वन अधिकारी ए.ई. ओस्मास्टन ने 12 वर्ष में खिलने वाले इस पौधे का नाम स्ट्रोबाइलेंथीज वालचिआई बताया है. वहां इसकी एक और प्रजाति स्ट्रोबाइलेंथीज एट्रोपुरपुरेयस भी कई वर्ष बाद खिलती है.
मैंने वहां बचपन में जोंणला के फूल देखे थे. सुंदर नीले-बैंगनी फूल. तब इतनी बहार आई थी इन फूलों की कि उस साल मधुमक्खियों के झुंड़ के झुंड़ आ गए थे. उन्होंने तमाम पेड़ों की टहनियों और मकानों की छतों पर अपने छत्ते बना लिए थे. हजारों मधुमक्खियां जोंणला के फूलों का शहद जमा कर रही थीं. अब तो वहां जगलों में हर साल भयानक आग लगने के कारण न जाने जोंणला बचा भी है या नहीं. अगर बचा है तो उन पौधों की संख्या बढ़ानी चाहिए ताकि उत्तराखंड के पहाड़ों में भी नीली बहार आ सके.
लोकप्रिय विज्ञान की दर्ज़नों किताबें लिख चुके देवेन मेवाड़ी देश के वरिष्ठतम विज्ञान लेखकों में गिने जाते हैं. अनेक राष्ट्रीय पुरुस्कारों से सम्मानित देवेन मेवाड़ी मूलतः उत्तराखण्ड के निवासी हैं और ‘मेरी यादों का पहाड़’ शीर्षक उनकी आत्मकथात्मक रचना हाल के वर्षों में बहुत लोकप्रिय रही है.
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