कुंवर सिंह नेगी (20 नवम्बर 1927 – 20 मार्च 2014)
कुंवर सिंह नेगी उत्तराखण्ड का एक ऐसा नाम हैं जिन्होंने लीक से अलग हटकर समाज के लिए अपना विशिष्ट योगदान किया. इन्होंने ब्रेल लिपि के संवर्धन की दिशा में महत्वपूर्ण काम करने के साथ ही कई महत्वपूर्ण ग्रंथों का ब्रेल में लिप्यान्तरण कर उसे नेत्रहीनों के लिए सुगम बनाया.
20 नवम्बर 1927 को पौड़ी के अयाल गाँव के निम्नमध्यमवर्गीय परिवार में जन्म लेने वाले कुंवर सिंह नेगी की प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा देहरादून में हुई. पढ़ाई में इनका मन जरा भी नहीं रमा. राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन की लहर में इनकी भी भागीदारी बनी और जल्द ही जेल जाने का मौका भी मिला. रिहा होने के बाद इन्होंने पढाई छोड़कर नौकरी करने का मन बनाया और 1944 में गढ़वाल रायफल्स में भर्ती हो गए. ट्रेनिंग पूरी करने के तुरंत बाद इन्हें द्वितीय विश्व युद्ध में झोंक दिया गया. कुंवर ने बर्मा में लड़ाई का मोर्चा लिया. यहाँ भी इन्होंने अपने शौर्य और पराक्रम का परिचय दिया.
लेकिन कुंवर सिंह नेगी इस सबके लिए नहीं बने थे. आगे का रास्ता अभी उनके सामने भी स्पष्ट नहीं था. इसी बेचैनी और छटपटाहट में जल्द ही उन्होंने ब्रिटिश सेना की नौकरी छोड़कर दोबारा पढ़ाई करने का मन बनाया मगर पारिवारिक निर्धनता की वजह से यह संभव न हो सका.
शिक्षा प्राप्त करने की इच्छा मन में पाले 1947 में इन्होंने देहरादून की एक प्रिंटिंग प्रेस में नौकरी शुरू की. इसके कुछ समय बाद कम्पोजीटर के रूप में दिल्ली की एक प्रेस में तथा बाद में सेना की प्रेस में नौकरी करने लगे. तीन साल बाद ही अंतरजातीय विवाह का साहसपूर्ण निर्णय लेने की वजह से परिवार तथा समाज से बहिष्कृत हुए. मजबूरन ससुराल में ही रहने को बाध्य हुए. इन विपरीत परिस्थितियों के बावजूद कुंवर सिंह ने नौकरी के साथ-साथ पुनः पढ़ाई भी शुरू कर दी. इस दौरान हाईस्कूल और इंटरमीडियेट की पढ़ाई करने के साथ ही कई प्रांतीय भाषाओं का भी अध्ययन किया.
स्नातक की पढ़ाई के दौरान उन्हें ब्रेल लिपि और भारत में उसकी दुर्दशा की प्रारंभिक जानकारी मिली. उन्हें जानकारी मिली कि अंग्रेजी की तरह हिंदी में नेत्रहीनों के लिए ब्रेल लिपि के विकास की दिशा में कोई ठोस काम नहीं हुआ है. यहाँ से कुंवर को वह रास्ता मिला जिसकी तलाश में वह छटपटा रहे थे और अपनी मंजिल तक पहुँचने का रास्ता तलाश रहे थे. उन्होंने ब्रेल लिपि और इसके साहित्य को अपने जीवन का सारतत्व बनाने का निर्णय लिया. उन्होंने ‘नैशनल इंस्टिट्यूट ऑफ विजुअली हैंडीकैपट’ देहरादून में ब्रेल ट्रांसलेटर के रूप में नई नौकरी शुरू कर दी. जाहिर है यह नौकरी उन्होंने ब्रेल लिपि और नेत्रहीनों के प्रति अपने दायित्वों के निर्वहन के जुनून को ध्यान में रखकर शुरू की थी. यह नौकरी उनके लिए साध्य नहीं बल्कि साधन थी, इस समाज के लिए कुछ कर गुजरने का जरिया.
कुंवर सिंह नेगी ने बांग्ला, उड़िया, गुरमुखी (पंजाबी), मराठी, गुजराती, उर्दू और रूसी भाषा में कई किताबों का ब्रेल में लिप्यान्तरण किया. इनके द्वारा 300 से ज्यादा पुस्तकें ब्रेल में लिप्यन्तरित की गयी या ऐसा करने में योगदान दिया गया. इनमें सिखों की धार्मिक पुस्तकों के अलावा इस्लाम और बौद्ध धर्मों के महत्वपूर्ण ग्रन्थ शामिल हैं. कई क्षेत्रीय भाषाओं के बेल में लिप्यान्तरण तथा गुरमुखी की ब्रेल लिपि तैयार करने वाले वह पहले व्यक्ति हैं. इन्होंने सुरजीत सिंह बरनाला की पुस्तक ‘माई अदर टू डाटर्स’ का भी ब्रेल में लिप्यान्तरण किया.
कुंवर सिंह नेगी ने नेत्रहीनों के लिए ‘शिशु आलोक’ तथा ‘नयनरश्मि’ मासिक पत्रिकाओं का भी ब्रेल में प्रकाशन किया. इसके अलावा वे नेत्रहीनों के लिए सामजिक कामों में भी सक्रिय रहे. वे ‘भारत नेत्रहीन समाज’ पंजाब, ‘नैशनल फेडरेशन ऑफ़ ब्लाइंड’ दिल्ली, से जुड़े रहकर नेत्रहीनों के लिए सामाजिक कार्य करने के लिए तत्पर रहे. जब सरकारी विभाग द्वारा गुरमुखी की किताबों का ब्रेल में लिप्यान्तरण बंद कर दिया गया तो कुंवर सिंह नेगी ने इस दिशा में आगे काम करने के लिए नौकरी छोड़कर ‘महाराजा रणजीत सिंह ब्रेल प्रेस सोसाइटी’ की स्थापना की.
इनके उत्कृष्ट कार्यों के लिए भारत सरकार द्वारा इन्हें 1981 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया, वह भी बगैर विभागीय सिफारिश के. 1990 में इन्हें पुनः पद्मविभूषण से नवाजा गया. ‘शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमिटी’ द्वारा इन्हें ‘सिख गौरव’ पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया.
जैसा की हमारा राज्य और सरकारें अक्सर किया करती हैं, कुंवर सिंह नेगी को भी बिसरा दिया गया. अपने जीवन को नेत्रहीनों को समर्पित कर देने वाले उत्तराखण्ड के इस सपूत का आखिरी वक़्त बुरा बीता. उन्होंने एक उपेक्षित जीवन ही मिल पाया. जिस व्यक्ति को हमारे समाज का नायक और प्रेरणास्रोत होना चाहिए था वह भुला दिया गया. अपने आखिरी दिनों में कुंवर सिंह नेगी को ढंग का इलाज भी नहीं म्किल पाया. 2009 में खराब माली हालत की वजह से तत्कालीन नारायण दत्त तिवारी सरकार ने सरकारी मदद से इनका आप्रेशन करवाया. 2009 में नेगी उस समय मीडिया की सुर्ख़ियों में आये जब यह तथ्य सामने आया की अपनी खराब आर्थिक स्थिति की वजह से वे एक पेसमेकर का खर्चा भी नहीं उठा सकते.
खराब हालातों के वजह से वे दिल्ली के गोविन्द बल्लभ पन्त अस्पताल में चल रहे अपने इलाज को अधूरा ही छोड़ देने को विवश हुए. 20 मार्च 2014 को लगातार गिरती सेहत के कारण देहरादून में उनका निधन हुआ.
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
लम्बी बीमारी के बाद हरिप्रिया गहतोड़ी का 75 वर्ष की आयु में निधन हो गया.…
इगास पर्व पर उपरोक्त गढ़वाली लोकगीत गाते हुए, भैलों खेलते, गोल-घेरे में घूमते हुए स्त्री और …
तस्वीरें बोलती हैं... तस्वीरें कुछ छिपाती नहीं, वे जैसी होती हैं वैसी ही दिखती हैं.…
उत्तराखंड, जिसे अक्सर "देवभूमि" के नाम से जाना जाता है, अपने पहाड़ी परिदृश्यों, घने जंगलों,…
शेरवुड कॉलेज, भारत में अंग्रेजों द्वारा स्थापित किए गए पहले आवासीय विद्यालयों में से एक…
कभी गौर से देखना, दीप पर्व के ज्योत्सनालोक में सबसे सुंदर तस्वीर रंगोली बनाती हुई एक…