Featured

कहो देबी, कथा कहो – 5

पिछली कड़ी

साहित्य की प्रयोगशाला

नैनीताल मेरे लिए साहित्य की प्रयोगशाला भी रहा जहां मैंने साहित्य की बारहखड़ी लिखी और पढ़ी. गांव से दूर सपनों के शहर में पढ़ने के लिए जरूर चला आया था लेकिन पढ़ते-लिखते, उठते-बैठते, सोते-जागते घर-गांव याद आता रहता. वे साथी, वे लोग, वे खेत, वे जंगल, वे पेड़-पौधे, वे पशु-पक्षी… कभी आंखों के सामने वे लोग आ खड़े होते तो पढ़ते-पढ़ते कभी कानों में हमारे गोरु-बाछों के गले की घंटियां टुन-टुना जातीं. कभी सहसा गोरु-भैंस अड़ा (रंभा) पड़ते तो कभी घिनौड़ियां और सिटौले चहचहा उठते. बैठे-बैठे कई बार तो मन में आए हुए वे लोग बातचीत करने लगतेः ‘भया छाल छै?’ (भैया तू ठीक है?)… ‘च्यला कि पढ़नारछै?’ (बेटा क्या पढ़ रहा है?)’… ‘पढ़ ईजू पढ़, खूब पढ़’… ‘ददा, घर कब आलै?’ (ददा, घर कब आओगे?) … ‘तां कस मांनछै तू?’ (तहां कैसा लगता है तुझे?) … ऐसी ही तमाम बातें. क्या जवाब देता उन्हें? उनकी आवाजें कानों में गूंजती रहतीं. कुछ नहीं छूट रहा था मुझसे. सब कुछ साथ चल रहा था. सभी कुछ. छुट्टियों में गांव-घर जाता और फिर सभी यादें ताजा हो जातीं. सोचता रहता- क्या करुं, क्या करुं इन उमड़ती-घुमड़ती यादों का?

मैंने उन्हें शब्दों में कागज पर उतारना शुरु किया. इससे बड़ा सुकून मिला. एक दिन अपनी डायरी में लिखा, ‘कुनकुनी वैसाख की दुपहरी. मकान के पार सड़क पर हम निकल आते थे. दाड़िम के पेड़ तले. चांदी के बालों वाली आमा बैठी रहती थी – दूर ताकते हुए. कभी-कभार बूढ़ी अंगुलियों से चांदी के बालों को खुजला लेती.’

‘सड़क पर पेड़ की छाया में लाल फूल गिरते थे. मैं मिट्टी में रेखाएं खींचता था. भाई पत्थर का घर बनाता था. बड़े चचा का लड़का किसी घुघुती को मारने की ताक में रहता.’

‘बगल में घर्रर्रर्र- घर्रर्रर्रर्र उमेदिया दर्जी की मशीन चलती थी. उसकी छोटी-छोटी लड़कियां अपने गंदे कपड़ों पर भिनकती मक्खियों को उड़ाते हुए टुकुर-टुकुर हमें ताकतीं. दाड़िम की चोटी पर कोई घुघुती कु र्र र्र र्र … कु र्र र्र र्र विलाप करती थी. मैं और भाई कहते थे बड़े चाचा के लड़के से – नैं मार ददा, घुघुती मंदिर में घात डालती है.’

‘बचपन में चचेरी बहिनों को दाड़िम के लाल-लाल फूल बटोर कर बारातें सजाते हुए चुपचाप देखता रहता था. आज वे ब्याही जा चुकी हैं… मैं उन बारातों में उछलने कूदने वाला बाराती कभी नहीं बना. उन्होंने सदा ही मुझको दुल्हन का भाई चुना जो अपनी सिसकती बहिन को समझा-बुझा कर, उसके साथ ही रो-धो कर उसे गुड्डे के घर तक छोड़ आता है और फिर आंसू पीकर बुझे हुए, उदास मन से सूने घर की ओर लौट आता है…. आज उनकी शादी हो गई है. मैं जानता हूं, उतनी चहल-पहल उनकी शादी में नहीं हुई जितनी दाड़िम के फूलों की बारातों में. आज भी मैं वही भूमिका निभा रहा हूं.’ (सोमवार, 22 फरवरी 1965)

गांव से कालेज तक की यादें मन में कौंधती रहतीं. कालेज में सड़क किनारे की धुआंती चाय की दूकान के खड़कदा अक्सर खांसते-खांसते खम्म से सामने आ खड़े होते, जैसे पूछ रहे हों- ‘और कैसा चल रहा है सब कुछ? ख्वां… ख्वां…’ मैंने कलम ली और खड़कदा को कागज पर उतारना शुरु किया – ‘दुमंजिली, छोटी-सी सुंदर पहाड़ी चाय की दूकान, कालेज के मुख्य गेट से थोड़ा ही नीचे. ऊपरी मंजिल में किनारे पर एक जलती अंगीठी जिसके ऊपर एक केतली पानी हर समय उबलता रहता. दीवाल के सहारे लगे एक तख्ते में पान के पत्तों की एक गड्डी और दो मिट्टी की पुरानी हांडियों में कत्था और चूना. इधर दीवाल के सहारे एक लकड़ी का संदूक और उधर के किनारे पर एक काला-सा, छोटा-सा टीन का बक्स. और, जिनके सहारे दूकान अपना महत्व रखती है, वह हैं- कुछ बीड़ी व सलाई के ब्रुश, और कुछ खुले डिब्बे दो-चार तख्तों पर. यही है उस छोटी-सी कोठरी की छोटी-सी झांकी. और, इसी अंगीठी के कोयले एक चिमटे से ठीक करते हुए, आग फूंकते हुए हमें बैठा मिलेगा- अपना खड़कदा….

‘जब हम आए थे, इन्हें यों ही मुंह में नारियल की नली लगाए हंसते हुए बातों में व्यस्त पाया था. अपने मकान के चारों ओर झूलते नंबर-22 सेब के हरे-हरे दानों को देख कर हर्षाते रहते थे. उस समय जब कोई छात्र बातें करने को नहीं मिलता, यहीं पर खड़कदा पर्वतीय ग्राम-गीतों की कुछ पंक्तियां गा देता- ‘निबास घुघुती निबास निबास…’ और उसके मकान की बगल में बने घास के ऊंचे लुट के सिरे पर बैठी घुघुती दिन की धूप में गाती रहती… घुघुती… बासूती…’

मैंने यह कहानी लखनऊ से छपने वाली पत्रिका ‘त्रिपथगा’ को भेज दी जिसमें वह कुछ माह बाद छप गई. कहानी की एक प्रति ददा को दी जिसे देख कर वे बहुत खुश हुए. उन्होंने खड़कदा को भी मेरी ‘खड़कदा’ सुनाई. कई और लोगों को भी पढ़ने को दी. दो साल बाद खड़कदा के बारे में सुना तो दिल धक्क से रह गया. डायरी में लिखा- ‘मेरी कहानी ‘खड़कदा’ के नायक खड़कदा की इसी दिसंबर में मृत्यु हो गई है. बहुत उदासी और खेद हुआ… खड़कदा का वह हंसमुख चेहरा आंखों के संमुख तैर रहा है.’ (रविवार, 21 फरवरी 1965)

बटरोही और मैं अक्सर मिलने लगे. जब भी मिलते कहानियों पर चर्चा करते. ‘धर्मयुग’, ‘सारिका’, ‘कहानी’, ‘नई कहानियां’, ‘ज्ञानोदय’, ‘माध्यम’, ‘उत्कर्ष’ आदि पत्रिकाओं का इंतजार रहता. पत्रिका मिलते ही कहानी पढ़ने-सुनाने के लिए झपटते. पत्रिका लेकर किसी चाय, काफी की दूकान में जाकर कोने की सीट पर बैठ जाते और ध्यान से कहानी सुनते-सुनाते. उस पर चर्चा करते. हमने उन दिनों छप रही हिंदी की तमाम कहानियां इसी तरह पढ़ीं. ‘धर्मयुग’ में प्रकाशिेत कथा-दशक की हर कहानी और उसके लेखक के बारे में पढ़ा. कहानियां पढ़ने के साथ-साथ हम उस बारे में लेखकों को पत्र भी लिखा करते थे. मैं उन दिनों डा. धर्मवीर भारती, भीष्म साहनी, कमलेश्वर, शैलेश मटियानी, डा. बालकृष्ण राव, राजकमल चैधरी, राम नारायण शुक्ल, पानू खालिया, रमेश बक्शी आदि लेखकों को पत्र लिखा करता था. मैं जिस होटल में खाना खाता था, उसमें काम करने वाला लड़का बिशन सुबह इमामदस्ते में मसाला कूटते-कूटते अपनी उम्र के लड़के-लड़कियों को साफ-सुथरी यूनीफार्म में अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ने के लिए जाते हुए देखता रहता. मैंने उस पर एक कहानी लिखी- ‘सड़क पर बिछी नजरें’ और कमलेश्वर को भेजी. उन्होंने कहानी पसंद की और उसके कुछ पहलुओं को और उभारने का सुझाव दिया.

भीष्म जी और शैलेश मटियानी के पत्र बहुत आत्मीय होते थे. शैलेश दाज्यू ने एक पत्र में कुछ इस तरह लिखा था- ‘अपने जीवन में किसी पेड़ की तरह बढ़ने की कोशिश करना जो स्वयं अपनी जड़ों पर खड़ा रहता है, उस बेल की तरह नहीं जो दूसरों के सहारे आगे बढ़ती है और सहारा गिरने पर खुद भी गिर जाती है.’ ‘कहानी’ पत्रिका के सहायक संपादक रामनारायण शुक्ल मेरी कहानियों को अलग प्रकार की कहानियां कहा करते थे और लिखने के लिए बहुत प्रेरित करते थे.

वन सेवा की परीक्षा देने गया तो टैगोर टाउन में ‘माध्यम’ पत्रिका के संपादक डा. बालकृष्ण राव के घर ‘अमरावती’ में उनसे मिलने गया. ‘माध्यम’ के सितंबर 1965 अंक में मेरी कहानी ‘दाड़िम के फूल’ छप चुकी थी. उन्होंने निरंतर लिखने और ‘माध्यम’ के लिए भी लिखते रहने की राय दी. सरस्वती प्रेस में रामनारायण शुक्ल और हिंदी साहित्य सम्मेलन में बैकुंठनाथ मेहरोत्रा, अज्ञान और श्रीराम वर्मा से भेंट की. शाम को काफी हाउस में भी रामनारायण शुक्ल और ज्ञान प्रकाश आदि लेखकों से भेंट हुई. लौटते समय लखनऊ से होकर आया. दिन 12 नवंबर 1965. वहां ‘उत्कर्ष’ के संपादक गोपाल उपाध्याय के अलावा काफी हाउस में कामतानाथ, जेम्स पीटर आकाश और श्रीराम शुक्ल से मिला.

‘दाड़िम के फूल’ कहानी की कहानी भी मजेदार है. हुआ यह कि एक दिन बटरोही ने कहा, उसने एक नई कहानी लिखी है- बुरांश का फूल. हम हर बार की तरह एक चाय की दूकान में गए. कोने की मेज पर जमे. बटरोही ने कहानी सुनाना शुरु किया. मैं दम साधे सुनता रहा. कहानी कुछ इस तरह थी कि कथा-नायक खड़क सिंह को अपनी ठकुराई पर बड़ा नाज है. जो कहता है, वह करता है. कहे हुए से पलटता नहीं. उसकी पत्नी मधुली किसी बात पर नाराज होकर मायके चली जाती है. लौटती नहीं. कहता है, उसे मैं लाऊंगा नहीं. ठाकुर हूं. जो कह दिया, कह दिया. आगे चल कर खड़क सिंह अकेला पड़ जाता है. कई कठिनाइयां आती हैं. परेशान होता है. पत्नी की कमी खटकती है. लेकिन, उसे ला नहीं सकता क्योंकि ‘थूका हुआ नहीं चाटूंगा.’ वह अपनी बात पर अड़ा रहता है.

कहानी खत्म हुई. बटरोही ने कहा, ”इस घटना को मैं जानता हूं. पहचान में ही घटी.“

मैंने पूछा, ”तो क्या वह आदमी अपनी अकड़ में पत्नी को लेने गया ही नहीं?“

उसने जो कहा, उसे सुन कर मैं परेशान हो गया. वह आदमी अगर पत्नी को ले आया तो फिर मधुली का क्या दोष? यह मधुली के साथ अन्याय है, कहानी में ही सही. लेटा पर सो नहीं पाया. इस कहानी के जवाब में रात भर बैठ कर मैंने भी एक कहानी लिखी- ‘दाड़िम के फूल’. इसमें मधुली का पक्ष था. वह इंतजार करती रही, करती रही कि खड़क सिंह अब आएगा, अब आएगा. लेकिन, वह नहीं आया. सात साल बीत गए…. आखिर, आस खत्म हो जाने पर मधुली को भी लगा कि खड़क सिंह अब उसे लेने कभी नहीं आएगा और हां, गांव के जिबुवा की स्त्री भी कभी लौट कर नहीं आएगी…जिबुवा, मतलब गांव की सीमा पर रहने वाला जवान एकलकट्टू आदमी.

उधर खड़क सिंह सोच में पड़ जाता है. वह अपनी भूल अनुभव करके सात सालों में जो कुछ हुआ, उसे भूल जाना चाहता है और चल पड़ता है मधुली के मायके की ओर. चढ़ाई में थक कर गांव की सीमा पर जिबुवा के मकान के पिछवाड़े सुस्ताने के लिए बैठता है कि उसे भीतर से किसी स्त्री का स्वर सुनाई देता है. वह चैंकता है कि हैं इस जिबुवा ने कहां से घर बसा लिया? उसे आवाज साफ सुनाई दे रही थी, “मैं तो खैर बच्ची ही थी. नादानी में भाग आई उसके पास से, लेकिन वह तो समझदार मरद था. उसे किसी का क्या डर था. ले जाता आकर मुझे. पर उस पर ठकुराई का जोम सवार था. बोला कि जो चाहे मुझे रखे, वह तो कभी मुझको लेने नहीं आएगा.”

उस नारी कंठ को पहचान कर खड़क सिंह सन्न रह गया….रह-रह कर यही कचोट उठती कि उसने बहुत देर कर दी. आखिर मधुली कब तक प्रतीक्षा करती?…’

कहानी पूरी करके मुझे बड़ी राहत मिली कि मैं मधुली को न्याय दिला सका. एक-दूसरे की रचना सुन कर उन दिनों मन में तुरंत प्रतिक्रिया होती थी. इससे हमारी रचनात्मकता बढ़ी.

मन में बादलों की तरह उमड़ते-घुमड़ते गांव के बिंब कहानियों में तब्दील होने लगे. कई बिंब थे…

‘चौतरे के चौखटे पर बैठे काका झुरझुरा गए. दोनों पांव दूसरी सीढ़ी के पत्थर पर टिके हैं. मकान की छत का लंबा साया धीरे-धीरे नीचे उतरता हुआ काका के सफेद बालों, कपाल की गहरी रेखाओं तथा मुख से बटनहीन कुरते से झांकती गर्दन व छाती की असंख्य झुर्रियों का हिसाब जोड़ता हुआ घुटनों तक उतर चुका है. चंद क्षणों में वह काला साया दूसरी सीढ़ी से भी नीचे खिसक जाएगा.

लेकिन, काका क्या देख रहे हैं अपलक उस ओर? छत की मुंडेर पर एक कौवा बैठा है. उसकी चमकती, गोल-गोल दो छोटी आंखें केंद्रीभूत हो गई हैं उस जगह पर जहां काका निरंतर देख रहे हैं. कई बार कौवा मुंडेर पर असंतुलित हो उठा. कई बार इधर-उधर गिरने लगा. काका ने बस एक चोर नजर, कनखियों से ऊपर देखा. कौवा उनके सिर के ऊपर मुंडेर पर झुका हुआ था. आंगन में पड़ रहे मुंडेर के उस भाग के लंबे साए में कौवे की हरकत का अंदाज अच्छी तरह लगाया जा सकता था. यही वजह थी कि काका ने बस एक बार चोर निगाहों से कौवे को देखा और फिर उसकी स्थिति का अनुमान उसके हिलते साए से लगाते रहे.

मुंडेर पर हिलता हुआ कौवे का साया अचानक जोर से झपटा. काका स्थिर निगाहों से देखते रहे. चौंच में एक केंचुआ दबोचे कौवा उड़ कर फिर सिर के ऊपर मुंडेर पर जाकर बैठ गया….

उन्होंने कौवे की घूरती नजरों की ओर देखा. वे देखते रहे और देखते ही रहे. स्थिर, अपलक! फिर एक निगाह चारों ओर फेरी, चारों ओर, और काका ने पाया कि वे अकेले थे, बिल्कुल अकेले’. (मानुख जोन, ‘कहानी’, 1966)

मैं बचपन में देखे बकरियों की बलि के दृश्य किसी भी तरह नहीं भूल पा रहा था.

‘ध्यान कुटि, कुटि ध्यान, घ्यान घ्यान, कुटि कुटि…! चितई के गोल्ल मंदिर के आगे का थल बकरियों से भरा था. पुजारी जीत सिंह और आसपास के गांवों के ग्रामीण चितई गोल्ल मंदिर के आगे उमड़ पड़े थे. दोड़म गांव के प्रधान बीर सिंह ने पूजा डाली थी….नैनू-गोधनी ढोली ढोल-दाबुक और नगाड़ा दमदमा रहे थे…घ्यान कुटि, कुटि घ्यान, घ्यान घ्यान, कुटि कुटि…!

पीठ पीछे छिपाए हुए बड़याठ को बीर सिंह ने झटके से सामने खींच लिया और एक पैनी दृष्टि उसकी ओर डाली. धार पर तिरछी उंगलियां फेरीं. कुछ कुरकुरी सी महसूस हुई. एक हल्की मुस्कान मोटी-काली मूंछों के आरपार नाच गई. उसी नपे-तुले अंदाज से तीखे बड़याठ को पीठ छिपाते हुए बीर सिंह ने एक नजर चारों तरफ डाली. लोग आपस में खुसुर-फुसुर कर रहे थे. धोती के लंबे छोरों को उसने दोनों हाथों से कमर में खोंस लिया, हाथों की दृढ़, शिला-मूर्तियों के सख्त उभारों जैसी, पेशियों पर उंगलियां फेरीं और उसकी डरावनी गिरगिट जैसी आंखों में खून उतरने लगा. अचानक लपक कर उसने बड़याठ हाथों में मजबूती से पकड़ लिया. आंगन में बिछे पटाल जैसा पक्का चैड़ा सीना ऊपर-नीचे होने लगा. मूंछें फड़कने लगीं. क्रूर दृष्टि से उसने सामने देखा. पुजारी जीत सिंह बकरियों के कानों में हाथ से पानी डालता जा रहा था- छपाक्!! नदी-रौखड़ के सफेद शिलाखंडों-सी पचासों बकरियां थल में खड़ी थीं. पिठी-अक्षत लगी बकरियां कान फटफटा चुकीं, अंग-अंग झटक चुकीं, तभी-
बोल चितई के गोल्ल देवता की…

जै ऽऽऽऽ

बोल हरु सैम की…

जै ऽऽऽऽ…

और जै की इस कर्णभेदी आवाज ने नैनू गोधनी के ढोल-नगाड़ों को भी मात दे दी. सारी बकरियां बिलबिला उठीं. प्रधान बीर सिंह उनके बीच में कूद पड़ा- ख्याच्च…प्याच्च…म्यां ऽऽऽऽ शिबौ….शिब….चुप!

…मन में उथल-पुथल मची हुई थी…मगनुवां मैंने तुझे लड़के की तरह पाला है रे!… मेरा अपराध क्षमा कर देना. स्वर्ग में हरुसैम के गोठ की शोभा बढ़ाना अब…. मगनुवां भी जैसे उसका आशय समझ गया था. चुपचाप सिर झुका लिया और आंखें मूंद कर जैसे कहने लगा…स्वामी, अगर
ऐसे तुम अपनी घरवाली बचा सकते हो तो मारो बड़याठ…मालकिन जी जाएं…मेरा भी जनम सफल हो जाएगा.

दिल को कठोर बना लिया पधान ने.

घ्यान कुटि, कुटि…

थ्याच्च!

च्च च्…जै इष्ट देवता!

मैदान साफ हो गया. धूल में लुढ़कती मगनुवां की सजीली आंखें बीर सिंह की आंखों में अब भी झांक रही थीं.’…(बलि का बकरा, ‘माध्यम’, अप्रैल 1966)

“मतलब यह कि गांव को भूल ही नहीं पा रहे थे?”

“नहीं, वहां की तमाम बातें मन में उमड़ती रहती थीं. मैं उन्हें कहानियों में ढालता रहा. मैंने एक और कहानी लिखी- क्रौंच-वध. सुनाऊं?”

“ओं”

(जारी)

 

वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Kafal Tree

Recent Posts

कुमाउँनी बोलने, लिखने, सीखने और समझने वालों के लिए उपयोगी किताब

1980 के दशक में पिथौरागढ़ महाविद्यालय के जूलॉजी विभाग में प्रवक्ता रहे पूरन चंद्र जोशी.…

3 days ago

कार्तिक स्वामी मंदिर: धार्मिक और प्राकृतिक सौंदर्य का आध्यात्मिक संगम

कार्तिक स्वामी मंदिर उत्तराखंड राज्य में स्थित है और यह एक प्रमुख हिंदू धार्मिक स्थल…

5 days ago

‘पत्थर और पानी’ एक यात्री की बचपन की ओर यात्रा

‘जोहार में भारत के आखिरी गांव मिलम ने निकट आकर मुझे पहले यह अहसास दिया…

1 week ago

पहाड़ में बसंत और एक सर्वहारा पेड़ की कथा व्यथा

वनस्पति जगत के वर्गीकरण में बॉहीन भाइयों (गास्पर्ड और जोहान्न बॉहीन) के उल्लेखनीय योगदान को…

1 week ago

पर्यावरण का नाश करके दिया पृथ्वी बचाने का संदेश

पृथ्वी दिवस पर विशेष सरकारी महकमा पर्यावरण और पृथ्वी बचाने के संदेश देने के लिए…

2 weeks ago

‘भिटौली’ छापरी से ऑनलाइन तक

पहाड़ों खासकर कुमाऊं में चैत्र माह यानी नववर्ष के पहले महिने बहिन बेटी को भिटौली…

2 weeks ago