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  1. गोविन्द गोपाल

    उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में जिस ढंग से वनों का दोहन हो रहा है वह अभूतपूर्व तो है ही साथ ही साथ पूरे देश में सबसे अधिक गति से दोहन भी हो रहा है . इसके पीछे वन विभाग की लापरवाही और उस विभाग में फैला भ्रष्टाचार और निकम्मापन है, रिपोर्ट बनाते समय कागजों में वृक्षारोपण और कागजों में ही वनों का क्षेत्रफल बढ़ रहा है. पर धरातलीय सत्यता भिन्न है जिसे तेंदुवे बता रहे हैं . वनों के संरक्षण के लिए जो अधिकारी तैनात हैं , उन्हें अब तेंदुओं के , नरभक्षी होने पर जनताके दबाव में इन वन्य जीवों को मारने या पिंजड़े में कैंद करने की बुद्धि ही आ रही है . पर बंदरों के भोजन का क्याह्प्गा , पक्षियों का होगा बिना जंगल के ? इनमें से कोई इस सोच को बाहर आकर बोलना नहीं चाहता . जनता इतनी व्यस्त और मस्त है कि उसे भी सोचने का समय नहीं है. वनों की नाम पर ये फर्जीवाडा ही तेंदुवा दिखा रहा है मानव आबादी में आकर . वन पंचायतों की जमीनों में अतिक्रमण कर वहाँ रिसोर्ट और फैक्टरियाँ लागाई जा रही हैं और वन्य जीवों के रहने- छिपने के स्थान और खाने के सामान की कमी हो रही है. जंगलों में सुनियोजित ढंग से आग लगाईं जाती है और फिर वनस्पति शून्य होने पर उसमें खनन होता है और फिर लेवल आने पर उसमें मकान बना दिया जाता है और फिर उसे बेच दिया जाता है . प्लाट काटे जा रहे हैं वनों की जमीनों पर . पर उत्तरदायी अधिकारी मुंह नही फेरते तो ये वनों का नुकसान न होता. यदि कार्यवाही हुई होती तो ये स्तिथि नहीं होती . खुले आम देवदार के पेड़ सुखाये जा रहे हैं , पर नज़रों में पर्दा है , यदि कोई पत्र भेजता भी है तो उस पत्र का फुटबॉल बनाकर इधर- उधर करते ये लोग कुकुरी बाघ को मैसी बाघ बना देते हैं …. कोई चर्चा नहीं होती कोई परिचर्चा नहीं होती , मीडिया बन्धु लिखते हैं पर उत्तरदायी लोगों पर लॉबी हावी है …जब सैयां भये कोतवाल तो डर काहे का वाली कहावत चल पड़ती है . निष्ठावान अधिकारियों को पीछे धकेल दिया जाता है और उनको हतोत्साहित किया जाता है तो जंगल बचेंगे कैसे ? जब अक्ल के पीछे लठ्ठ लेकर घुमने वाले लोग हावी हो जाएंगे तो तेंदुवे आयेंगे बाघ आयेगा तो असामयिक मौत तो आयेगी ही मानवता को ….

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