आज सुबह तीन पानी के पास उस फ़कीर की लाश मिली थी.
कुछ दिन से शहर में एक फ़कीर को देखा जा रहा था. फ़कीर क्या, लोग तो उसे पागल समझ रहे थे. वो तो उसने जब, यूं ही बेवजह आँखें नहीं झपकाईं, किसी की बात का जवाब अजीब सी भाषा में नहीं दिया और बच्चों के खिलखिलाने पर किसी बच्चे के ऊपर पत्थर नहीं फेंके तब लोग उसकी लम्बी बेतरतीब दाढ़ी, फटे कपड़ों और कंधे से लटके बड़े से झोले के बाद भी उसे पागल न कहकर बाबा कहने लगे. बाबा किसी से बात नहीं करता था. यहाँ तक कि किसी से कुछ माँगता नहीं था, खाना भी नहीं. लोग खुद उसे खाना दे देते. किसी ने उसे सबके सामने खाते भी नहीं देखा. एक बात अजीब थी. उसके झोले में नहुत सी पुरानी लिसलिसी टॉफियाँ थीं जिन्हें वो मुहल्ले के बच्चों को देने की कोशिश करता था. इस बात का कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है कि कितने बच्चों ने उस टॉफी को लिया और खाया था. प्रमाण इस बात का भी नहीं है कि इस ज़माने में ऐसे फ़कीर के अचानक शहर में आने की इत्तिला लोगों ने पुलिस या किसी और एजेंसी को दी या नहीं. प्रमाण इस बात का अवश्य है कि आज सुबह किसी ने पुलिस कंट्रोल रूम को फोन पर जानकारी दी कि तीन पानी बैरियर के पास एक व्यक्ति मरा पड़ा है और इस बात का कि ये मौसम बेमौत मरने का नहीं है और इस बात का भी कि वो लाश कुछ दिन से शहर में दिख रहे बूढ़े साधू की लाश है. (Kotwal Ka Hukka)
बिल्कुल इसी कहानी की दूसरी शुरुआत
उसे देखने बहुत से लोग आए थे. थाना बेतालघाट से एसओ रमाशंकर, पुलिस लाइन से एचसी जगदीश प्रसाद, रिटायर्ड डिप्टी शम्भूदत्त जुयाल. पत्रकार देवीदीन ममगाई, दिनेश लाल, हॉकर दिलीपू. वस्त्र भंडार का मालिक डीडी पन्त, सुख श्रृंगार का सेल्समैन संतोख सिंह और सोनाघर का स्थाई चौकीदार बलदेव. बहुत से लोग. थाने के आगन्तुक रजिस्टर में कोई इंदिराज नहीं था इसका, न ही कोई लिस्ट बनाई गई थी इसलिए उन नामों को छोड़ देते हैं जो किसी बुरी तस्वीर की खोज में आए थे.
शम्भूदत्त ने उसे हाथ में लिया, उसकी गोलाइयों पर उंगलियाँ फिराईं, उसे मुंह की ऊंचाई तक ले गए फिर मुस्कुराकर रख दिया. कहते हैं आज से दस बरस पहले इस हुक्के को इस तरीके से उठाने, छूने की इजाज़त इसके मालिक रामबदन के अलावा बस दुलाराम को थी जो इसमें तम्बाकू-पानी, आग के इंतजामात और इसकी साफ़-सफाई देखता था. शंभूदत्त जैसे लोग इसे छूने की मात्र कल्पना ही कर सकते थे. हुक्का सुन्दर था और इससे ज़्यादा मजबूत था और इससे ज़्यादा ठसक वाला था. इसकी गर्दन पर वलय थे और कटोरी पर नक्काशी.
आज ही सुबह अखबार में यह ख़बर थी कि कालाढूंगी काण्ड के सारे मुकदमे वापस ले लिए गए हैं. कुछ साल पहले थाना कालाढूंगी जनता के गुस्से का शिकार बना था. पहले थाना परिसर में किसी लोकल नेता की हत्या किसी दूसरे प्रतिद्वन्दी ने की थी जिसकी प्रतिक्रिया में लोगों ने थाने को आग लगा दी थी. एक सिपाही की हत्या भी हुई थी. इस ख़बर का इससे कोई सम्बन्ध न होता अगर व्यवहार स्मृतियों से और स्मृतियाँ क़ानून से अलग, स्वतंत्र अस्तित्व न रखते. इस ख़बर और इस हुक्के के बारे में आज बाल काटते हुए रज्जू ने नए सीओ साहब को न बताया होता. घंटे भर इस हुक्के की बुलंद कहानी सुनने के बाद सीओ ने पहला काम थाने में उस हुक्के को ढूंढवाने का किया. बड़ी मशक्कत हुई. कागजों में कहीं कोई ज़िक्र नहीं था इसका, पुराने लोगों से बात की गई. बहुत खोजने के बाद काले कपड़े में लिपटा ये हुक्का मालखाने की टांड से बरामद हुआ.
इस बात का भी प्रमाण नहीं है कि फ़कीर अखबार पढ़ता था लेकिन इस बात का अवश्य है कि उसे खबरों की जानकारी शहर के जागने के पहले हो जाती थी.
और अब निश्चित तौर पर इसी कहानी की तीसरी शुरुआत
कोतवाल ने अपना हुक्का एक तरफ को रखा और उसके बाद वह हुआ जिसने इस जैसी हज़ारों कहानियों की नींव हिला दी.
इस कहानी की तीसरी शुरुआत किसी और तरीके से भी की जा सकती थी. यह कहा जा सकता था कि एक देश में एक बड़े प्रदेश में एक बड़े शहर की एक बड़ी कोतवाली में एक कोतवाल हुआ करते थे. नाम था उनका रामबदन सिंह. इस तरीके से कहानी की शुरुआत करने का मतबल कहानी को कविता की दृष्टि से देखना होगा. इस तरीके से कहानी की शुरुआत का मतलब पिटे हुए वर्तमान को मुग्ध इतिहास से बदलने की गरज पालने जैसा होगा. इस तरीके से कहानी की शुरुआत का मतलब जिंदगी को मछली की मरी हुई आंख से देखना होगा लेकिन मरी हुई मछलियां भी कुछ जिंदा तस्वीरों में कैद हो जाती हैं तो इस तरीके से कहानी की शुरुआत का मतलब उन जिंदा तस्वीरों की कैद मछलियों को उड़ा देना होगा इसलिए इस कहानी की तीसरी और आख़िरी शुरुआत फिर से की जाए.
उस रात 2:00 बजे कोतवाल रामबदन सिंह ने अपने आप को एक ऊंची चट्टान पर खड़े हुए पाया जिसकी एक तरफ बहुत गहरी खाई थी. उनका एक कदम आगे बढ़ाने का मतलब उस गहरी खाई में गिरते हुए जाना था. बहुत दिनों तक गिरते हुए जाना था रामबदन सिंह के दूसरी तरफ सदर मालखाने से भी पुरानी एक खंडहर हो रही हवेलीनुमा बिल्डिंग थी. खंडहर समझे जाने की दशा में वो अपने हवेली होने के सबूत इस तरह से पेश करती कि जैसे शहर की बदनाम गली में किसी बेपनाह हुस्न की मलिका अब बूढ़ी होकर अशक्त हो गई हो और गली से गुजरने वाले हर शख्स को उसके ग्राहक होने के ग़लीज़ और गीले उलाहने सुनाती हो. हवेली समझे जाने का उसका आग्रह किसी नई बहू की तरह इठलाता और फिर ठीक-ठीक समझे जाने से पहले सीढ़ियों पर चढ़कर ऊपर चला जाता. रामबदन सिंह को बेपनाह प्यास लग गई थी. दो रास्ते थे. उन्हें कुँए में उतरना था या गले में रस्सी डालकर इंतज़ार करना था. काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
चारों तरफ विद्रोह की आवाजें थीं. उसने घोड़ा लाल किले की तरफ मोड़ दिया. लाल किले की दीवारों पर आज सुर्ख़ी ज़्यादा थी. लगता था मिर्च रगड़ दी गई हो. देखने भर से आँख में जलन उठती थी. हाथ लगाने से हाथ छरछरा उठते थे. उसने हाथ बाँध लिए. उसे हाथ बाँध कर रास अपनी कुहनियों के बीच फंसाकर घोड़े दौड़ाने का अभ्यास था. एक पगड़ी वाले ने वहीं ज़मीन पर अपनी पगड़ी खोलकर एक चादर सी फैला रक्खी थी. चादर पर बहुत सी गिन्नियां पड़ी थीं. कोतवाल को देखते ही उसने एक गिन्नी उठाई और बोला `ले… ये ले जा.’ कोतवाल ने गिन्नी पकड़ने के चक्कर में हाथ आगे बढ़ा दिया. रास छूट गई. घोड़े ने सवार को गिराना चाहा कि आकाशवाणी सी होने लगी `उठो उठो… घोड़े से गिरना शुभ नहीं होता… उठो रास थामो… फिर से उठो… साहब उठो…’
दुलाराम पंजे दबा रहा था और बड़बड़ाता जा रहा था `ये साले कल के छोकरे इनकी इतनी औकात… उठो साहब आज तो देर ही हो गई… साहब उठो’
रामबदन हड़बड़ा कर उठ बैठे.—
—`क्या हुआ साब जी आपको इतना पसीना क्यों हो रहा’ दुलाराम ने पूछा
—`कुछ नहीं… क्या बात है… क्या कह रहे थे… क्या समय हुआ अभी’ रामबदन ने दो नहीं कई प्रश्न पूछे
—`सात बजे हैं… ऊ ससुरा जमादार सिंह आया है कह दूँ बाद में आए?’ दुलाराम हिक़ारत से बोला
ओह्ह तो रामबदन की आँख लग गई थी आजकल थकान ज़्यादा होती है. `नहीं भेज दो, और ज़रा चाय भिजवाओ’ रामबदन पैर फैलाकर दुबारा लेट गए.
—`ठीक है भिजवाता हूँ… मैं भी ज़रा बाज़ार हो आता हूँ’ अब तो साहब भी इस ससुरों को सर पर चढ़ाएंगे बड़बड़ करते हुए दुलाराम चला गया
कहानी की शुरुआत सिर्फ कहानी की शुरुआत होती है.
आज़ादी एक राजनैतिक शब्द था
देश को आज़ाद हुए तीस–चालीस साल हो गए थे. आज़ादी एक राजनैतिक शब्द था जिसे कुछ संस्थाओं ने अपने पास गिरवी रख लिया था.
जमादार सिंह ने इलिकसन लड़ने की ठानी है. उसका विचार है उसे कोई नहीं हरा सकता. लाइन नम्बर एक से बारह और गफूर बस्ती में थोड़ी मुश्किल है. उसके लिए प्रबंध भी कर लिया है. जावेद अंसारी को अपना एजेंट बनाएगा. जावेद से सब डरते हैं उधर. जावेद उधर का जमादार सिंह है. बाकायदा कम्प्रोमाइज़ किया गया है. सट्टे बिना उसकी इजाज़त नहीं छूटेंगे. जज फारम साइड और नई बस्ती में थोड़ी दिक्कत है. यहाँ कुछ खेल करना पड़ेगा. वैसे देखा जाए तो यहाँ भी उसका नाम ही बस उसका सबसे बड़ा विरोधी है. तल्ली बमौरी जहां सरकारी बंगले हैं वहां क्या दिक्कत. वहां वोटिंग होती ही कितनी है. अब बस एक ही आदमी रह गया है साधने को. कोतवाल रामबदन. आज उधर को ही चलना पड़ेगा.
शाम का वक्त था. वैसे तो ये कोतवालों की गश्त का वक्त हुआ करता था. खासकर रामबदन की दिनचर्या का अनिवार्य हिस्सा. वो शाम को अपनी जीप में निकलते थे. शहर का राउंड लेने के लिए. अलग-अलग रास्तों से. कभी मुखानी से पीली कोठी का रस्ता ले लिया कभी नवाबी रोड से दमुआढूंगा का. बीच में रमोला पानवाले की दुकान फिक्स थी. जीप दस मिनट को उधर रुकती थी. कहते हैं कि पान वाला कुछ ख़ास था. कोतवाल को किसी ने गश्त के दौरान मुस्कुराते नहीं देखा. पानवाला बड़े अदब से मगही पान का बीड़ा थमाता था. मगही, जिसे वो मघई कहता कहाँ से लाता था ये किसी को नहीं बताता लेकिन खिलाता उसका पूरा रौब गांठकर. उस दौरान दोनों के बीच कुछ खुसुर-पुसुर भी होती थी. क्या, ये जानने का हक़ किसी को भी नहीं था. साथ में आए सिपाही भी उस वक्त दूर खड़े बीड़ी सुलगा रहे होते थे. गश्त से लौटकर रामबदन थोड़ी देर को थाने के अहाते में बैठते थे. और उसके बाद तकरीबन डेढ़ घंटे का अज्ञातवास लेते. अज्ञातवास के पहले का समय नए-पुराने दरोगाओं को सिखलाई का भी था. यही वो समय था जब कभी-कभी शहर का कोई मुअज्जिज भी आकर मिल लिया करता था. लेकिन अकेले आना होता था. अज्ञातवास के पहले भीड़-भाड़ पसंद नहीं करते थे रामबदन. बहुत हल्के मूड में होते थे. जमादार सिंह ने यही समय चुना था मिलने का.
उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी परिसर में घुसने की. उसने पहला रूल ही तोड़ दिया था. अपने साथ दस-बारह लोगों को ले जाकर. हालांकि कोतवाल ने आज इस बारे में कुछ कहा नहीं. वो दाहिनी ओर पीपल के पेड़ के नीचे बिछे तख़्त पर विराजमान थे. उनकी तख़्त पर बस एक दरी बिछाए जाने की हिदायत थी. चादर बिछाने को वो मेहरारूपना मानते थे. सफ़ेद कुर्ता पायजामा और गले में एकमुखी रुद्राक्ष की माला.
उन्होंने पूछा `हां भुला कैसे आए’ यद्यपि वो सब जानते थे.
जमादार सिंह भी जानता था कि वो सब जानते हैं. उसने कहा `दाज्यू आप तो सब जानते ही हो…’ और संक्षेप में उसने पूरी वोट-गणित समझा दी और लगभग गिड़गिड़ाते हुए कहा `बाकी आप का साथ रहा तो…’
रामबदन ने चुपचाप सब सुना. हुक्का गुड़गुडाते रहे. फिर अचानक बोले `अरे खड़े क्यों हो बैठ जाओ’
ये शुभ संकेत था चेले आस-पास जगह देखने लगे. कोतवाल साब ने कभी अपने आजू बाजू कुर्सी नहीं रक्खी. बैठ बस वही सकते थे. जमादार सिंह तखत पर उनके पैताने बैठ गया. बाकी कोई पेड़ के चबूतरे कोई कहीं. `अरे दुलाराम…’ उन्होंने हांक लगाई
जवाब में दूर से ही संतरी पहरे के सिपाही ने बताया कि दुलाराम बाज़ार गया है.
कोतवाल ने अपना हुक्का एक तरफ को रक्खा और पैर फैलाते हुए कहा `बड़ा दर्द हो गया है एड़ियों में… दुलाराम ये पंजे तोड़ देता है बड़ा आराम मिलता है’
जमादार सिंह थोड़ी देर के लिए जड़ हो गया. कायदे से उसे अब हरकत करनी थी. उसने चोर निगाह से साथ आए लोगों की पर नज़र डाली. साथी समझदार थे वो आजू-बाजू देखने लगे. फिर उसने धीरे से कोतवाल के पैर अपनी गोद में रक्खे और उंगलियाँ धीरे-धीरे चटकाने लगा.
बहुत कम लोगों को ये जानकारी थी कि जमादार सिंह, होने वाले विधायक, ने कोतवाल के पैर दबाए थे. पर्चा भरने के महज एक हफ्ता पहले. अब इस जानकारी से कोई इत्तेफ़ाक रक्खे या ना रक्खे, दुलाराम को किसी अनिष्ट की आहट लग गई थी और वो इस बात, मुलाक़ात और पूरे घटनाक्रम को खारिज करता रहता था.
दुलाराम कौन था?
बुलंद इकबाल की महकती तस्वीर
दुलाराम कौन था
दुलाराम है एक खोते का नाम
तो खोता राम कंवारा रह गया
रामबदन का पर्सनल नौकर. पिछले कई सालों से… किसके पिछले? आपको सावधान रहना चाहिए. बताने वाले की हर बात आँख मूंदकर मान लेना अपराध होता है. अब आप खुद से पूछिए कि किसके पिछले. तो पिछले कई सालों से दुलाराम रामबदन के साथ था. साथ मतलब उनके घर की देखरेख में. वो जहां-जहां पोस्टिंग पर जाते, दुलाराम उनके साथ-साथ जाता. एक रुकी हुई उम्र के दुलाराम से लगकर दो लाइन की एक पैरोडी और दो कहानियां बताने वाले ने मुझे बताई थीं.
एक कहानी ये है कि दुलाराम रामबदन को उनकी तराई के थानों में पोस्टिंग के दौरान मिला था. उन दिनों पंजाब आतंक के साए में था और नैनीताल जिले के निचले हिस्से उन आतंकी दुनालियों के लिए शरणस्थली के रूप में थे. हाथियों से भी ऊंची घास और मच्छरों वाले इस इलाके में कोई रहना नहीं पसंद करता था. इसे खेती और रहने लायक बनाने में बहुत मशक्कत करनी पड़ी थी. बिरजराज शर्मा लक्कड़ के ब्योपार, हरजिंदर सिंह के साथ खानदानी दुश्मनी और अपनी घनी मूंछों के लिए विख्यात थे. कुख्यात भी कहा जा सकता था क्योंकि आस-पास के इलाकों में गरीबों के लिए खौफ़ का पर्याय थे. लोगों की ज़मीनें दबंगई से दबा लेना इनका मुख्य काम था. लेकिन पुलिस के साथ व्यवहार बना कर रखते थे. हरजिंदर के साथ कई पीढ़ियों से दुश्मनी पक्की वाली थी. दोनों तरफ के चार-चार लोग खेत रहे थे. हरजिंदर के भी कमोबेश यही काम थे. दोनों का ही इलाके में दबदबा था. उन्हीं दिनों या उन दिनों के ठीक पहले के दिनों में तराई के इन बड़े-बड़े घासों वाले गाँवों और गंवईं शक्ल के कस्बों में डकैतों ने भी दबदबा बना रक्खा था. हर हफ्ते-दस दिन में कहीं न कहीं कोई वारदात हो ही जाती थी. पुलिस की धर-पकड़ भी चालू थी. पुलिस का ज़्यादा दबाव होने पर कुछ दिन डकैतियों में फरक पड़ता लेकिन उस दौरान रोड होल्डअप और छिनैती बढ़ जाती. उस दौरान काशीपुर थाने की रिपोर्टिंग चौकी पतरामपुर में इंचार्ज बनकर आए रामबदन . तब इनकी मूंछे इतनी बिखरी और अस्त-व्यस्त सी नहीं होती थीं. तलवार कट और किनारों पर हल्की सी उठान के साथ. उत्साह भी उठान पर था. रात-रात भर गश्त करनी पड़ती थी लेकिन चेहरे पर शिकन नहीं. उन दिनों नए थानेदार या इंचार्ज की ज्वाइनिंग होने पर सलामी देने का ट्रेंड था. डकैत डकैती डालकर अपने होने की हुंकार भरते. इनके साथ भी यही हुआ. ज्वाइनिंग के पहले पखवाड़े में ही सहजनपुर गाँव में डकैती पड़ी. सलामी मिल गई. अब बारी जवाब देने की थी. रामबदन ने एक्टिव गैंग्स का डोज़ियर पलटा. पिछली डकैतियों की मोडस ऑपरैंडी समझी. पुराने इंचार्ज के मुखबिर तोड़े. कुछ अपने नए बनाए और घात लगाकर बैठ गए इंतज़ार में.
एक रात मुखबिर ख़ास ने बताया कि ठाकुरद्वारे के किसी गाँव में वारदात हो सकती है. ठाकुरद्वारा अलग थाना था. लेकिन अच्छी बात ये थी कि उस गाँव में जाने के लिए एक पुलिया सी पड़ती थी, जिसके इस किनारे दौलतपुर गाँव था जो इनके चौकी क्षेत्र में आता था. समय और भूगोल की गणना करके रामबदन अपने साथ पांच सिपाही और एक दरोगा को लेकर पुलिया के पास वाले आम के बाग़ में घात लगाकर लेट गए. इसके बाद की कहानी के कई वर्ज़न हैं. कुछ लोग ये कहते हैं कि भोर होने से पहले उधर से आते कुछ लोगों के साथ इनकी मुठभेड़ हुई जिसमें तीन डकैत मारे गए और डकैती का माल बरामद हुआ. कुछ कहते हैं कि ये लोग उस गाँव में जाकर इन तीन डकैतों को पकड़ लाए और… कुछ कहते हैं ये गाँव भी नहीं गए बस हिकमत और हनक से… कई कहानियों में ये भी एक है कि बाकी पुलिसवालों ने कुछ नहीं किया. उन डकैतों को भी जाने कैसे ख़बर लग गई कि एम्बुश लगा हुआ है. वे पुलिया से पांच सौ मीटर दक्षिण से नदी में उतरे और धीरे-धीरे पार करने लगे. घात में आँखे दस गुना काम करती हैं और कान बीस गुना. रामबदन को आभास हो गया कि दक्षिण की ओर कुछ हलचल है. इन्होंने चुपचाप जाकर देखने की सोची और अकेले ही उधर बढ़ लिए. इनके पहुँचने तक लगभग पूरा गैंग पार होकर जंगल में पहुँच चुका था. बस एक आख़िरी हिस्सा रह गया था जिसमें दो लोग थे. इन्होंने आव देखा ना ताव और नदी में छलांग लगा दी. उन दोनों में से भी जो तेज और छरहरा था वह निकल भागा. दूसरा इनकी गिरफ़्त में आ गया. इन्होंने वहीं पानी के अन्दर उसकी कनपटी पर रिवॉल्वर सटा दी. कहते हैं इसके बाद उसी से आवाज़ लगवाई. उसे बचाने तो कोई नहीं आया लेकिन पेड़ों के पीछे हलचल देखकर रामबदन ने फायर झोंक दिया. तीन वहीं ढेर हो गए. आवाज़ सुनकर थोड़ी देर में बाकी पुलिसवाले भी आ गए. लूट का माल बरामद हो गया. और बरामद हो गया दुलाराम. कोई कहता है डकैत इसे बंधक बनाकर अपने साथ ले जा रहे थे. रामबदन ने छुड़ा लिया तब से भक्त हो गया और साथ लग लिया. कोई कहता है ये भी डकैतों की टोली में था रामबदन ने इसलिए जान बक्शी क्योंकि इसी ने बाकी तीन डकैतों को मरवाया और माल बरामद करवाया. जो भी हो दुलाराम तभी से रामबदन का रात-दिन का साथी कम सेवक है.
दूसरी कहानी में ज़रा झोल है. कहानी और झोल इस तरह से है. किसी एनकाउन्टर की जांच के दौरान कुछ समय के लिए रामबदन की तैनाती जनपद पिथौरागढ़ कर दी गई थी. वहां से टेम्पोरैरी थाना गुंजी. कैलाश मानसरोवर यात्रा के समय कुछ समय के लिए इस अति दुर्गम पहाड़ी स्थान पर खोला जाता था ये थाना. वहीं मिला था दुलाराम. कहते हैं अपनी भेड़ों-बकरियों के साथ ऊपर जाते समय किसी पुलिसवाले की शिकायत लेकर इनके पास आ गया था. उसकी शिकायत थी कि `दरोगाजी ने बाईस बकरियों के इग्यारे की जगह बाईस रूपे ले लिए.’
दरअसल दरोगा बरजनाथ आज़ाद लगातार तीसरे साल पनिशमेंट पोस्टिंग पर गुंजी भेजे गए थे. पुरानी पोस्टिंग में इनके बहुत से कारनामे थे. ये अपनी हरियाणवी-दिल्ली-अवधी मिश्रित अलहदा ज़ुबान और हवा में भी पैसे बना लेने की कला के लिए जाने जाते थे. गुंजी में इन्होंने अपनी कला की ऊंचाइयां प्राप्त कर ली थीं. सर्दियों में ऊपरी पहाड़ों के बाशिंदे गृहस्ती की ज़रूरी चीज़ों और डंगरों को लेकर निचले इलाकों में आ जाते हैं. गर्मी की शुरुआत में अपने सब असबाब समेटे ये पहाड़ों की ओर कूच करते हैं. एक दिन ऐसे ही आज़ाद ने एक फीता लिया और एक ऊपर जाने वाले झुण्ड को रोककर उनकी बकरियों के कान नापने लगे. ये पिछले के पिछले साल की बात थी. नापते जाते और पांच इंच से ज़्यादा लम्बाई के कान वाली बकरियों को एक तरफ धकेलते जाते. लोगों ने पूछा ये क्या है तो खुलासा किया कि `देख लियो भाई जे पांच इंच से कम के हुए थारी बकड़ियों के कांण तै तो ले जा सकत हो उप्पर जे जादा के हुए ते जाएँगी सब आर्मी मेस में. फरमान आयो है सुण लो सबन.’
सब के सब सकते में आ गए. अब क्या हो. चिरौरी की गई दरोगा जी से. फिर मामला आठ आने फी बकरी पर फिक्स हुआ. अब लोग आते अपनी बकरी के कान नपवाते और महसूल चुका कर आगे जा पाते. दुलाराम इस बात की शिकायत लेकर आया था कि रेट तो आठ आने फी बकरी फिक्स हुआ था लेकिन दरोगा जी कह रहे कि आठ आने फी कान.
रामबदन ने दरोगा को बुलवाया. खरी खोटी सुनाई. दुलाराम से कहा कि अब तुम और सभी लोग बिना पैसा दिए पहाड़ों की ओर आ जा सकते हो. फिर इस बात की सूचना नीचे जिला कप्तान को भिजवाई और बदले में नीचे के थाने में तबादले की सौगात पाई. आज़ाद को दुबारा सस्पेंड किया गया लेकिन पनिशमेंट के लिए इससे ऊपर कोई पोस्ट ही नहीं मिली इसलिए सीधे इलाहाबाद पुलिस मुख्यालय अटैच कर दिया गया. कहते हैं कि दुलाराम रामबदन की इस इमानदार अदा पर फ़िदा होकर साथ ही नीचे चला आया.
झोल ये है कि रामबदन की सेवा पंजिका में इस गुंजी तैनाती का कोई अंकन नहीं है.
नितांत अंदरूनी सूचनाओं से लबरेज़ तीसरी कहानी में कहन ये है कि दुलाराम रामबदन के इतना करीब है कि जैसे उसके आगे का नाथ और पीछे का पगहा वही हो. इस कहानी में दुलाराम के शादीशुदा न होने और रामबदन के वैवाहिक जीवन के कुछ अपुष्ट सामान्यीकृत समीकरण हैं. ये कहानी ऐसी है कि उसे कहने में मर्यादा के पर्दे उठ जाने का डर है. यहाँ बताने वाले की बात को मानकर मूल कहानी पर लौटा जा सकता है.
जमादार सिंह के जाने के बाद रामबदन बहुत देर तक वहीं लेटे रहे. उनकी गणित के अनुसार अब सुरेश उंगली का संदेश भी आना चाहिए था. उसने भी संकेत दिया था. तेरह मुकदमों में वांछित सुरेश उंगली को रामबदन ने ही गिरफ़्तार किया था. आज ढाई साल हो गए जमानत नहीं होने दी साले की. अब अपनी माँ को इलेक्शन लड़वाना चाहता है. पिछले कुछ सालों से विधायक चंद्रेश पन्त के लिए काम करता था. अन्दरखाने में. अब गौला नदी खनन के पट्टे को लेकर कुछ विवाद हो गया है.
`बहुत बुरा समय आ गया है’ कोतवाल ने मन ही मन कहा . जाने किस बाबत कहा, सुरेश उंगली की माँ का इलेक्शन लड़ना या अब तक इस बात के लिए कोतवाल की चौखट पर न आना. `एक ज़माना था जब ऐसे अपराधी और ऐसे जनप्रतिनिधि… वो भी क्या दिन थे…’ उसने दुबारा हुक्का उठाया और गुड़गुड़ाने लगा.
रामबदन के अच्छे दिन उर्फ़ जवानी के दिन उर्फ़ आहूं आहूं आहूं
बुलंद इक़बाल की तस्वीरें थीं उनके अल्बम में. उन तस्वीरों की छायाप्रतियाँ थीं. तस्वीरों से ज्यादा छायाप्रतियां थीं.
ये टुकड़ा कहानी में क्षेपक की तरह आया है. नहीं! लाया नहीं गया है, आया है. वैसे दरोगा कौम के पुलिस वालों के जीवन में जवानी भी क्षेपक की तरह आती है हालांकि उन्हें ये गलत गुमान रहता है कि वो ताउम्र जवान हैं.
बिजनौर जिले में पोस्टिंग थी उनकी. मुरादाबाद में हिन्दू-मुस्लिम दंगे भड़क गए थे. आस-पास के जिलों से बहुत मात्रा में फ़ोर्स ड्यूटी के लिए बुलाया गया था. इन्हें भी बुलाया गया था. शहर के उस इलाके में जहां सूरज भी धर्मस्थलों से पूछकर निकलता था, हालात ज़्यादा ख़राब थे. दिन दहाड़े चाकूबाजी, आगजनी और लूटपाट हो रही थी. अँधेरे में तो लोग निकलने से भी डरने लगे थे. सड़कें बलवे की गवाही देती थीं और गलियाँ कत्लगाह बन चुकी थीं. लोगों का विश्वास टूट चुका था. उसे जोड़ने के पुरजोर प्रयास किये जा रहे थे. फ्लैग मार्च निकले जा रहे थे. पीस कमेटी की मीटिंग बुलाने की कोशिश की जा रही थी. रामबदन का तरीका अलग था. उन्होंने ऊपरवालों का भरोसा टूटने नहीं दिया. ऐसा पहली बार हुआ था कि उनके डाकुओं वाले डोज़ियर में दंगाइयों का नाम शामिल हुआ. लिस्ट बनाई फिर एक गाड़ी बुलवाई. मिनी बस. जहां पुलिस जाने से परहेज करती थी, पहुँच गए अपने चुनिंदा साथियों के साथ. दोनों तरफ के बवाली लीडरों को बिना किसी चेतावनी के उनके घर और अड्डों पर जाकर उठा लिया. हालांकि ये आरोप आज तक नहीं छुड़ा पाए कि किसी एक मजहब का सपोर्ट किया. मरने वालों की संख्या इस बात की गवाही देने आती है. उसके बाद की इन्क्वायरी भी ऐसे निपटाई जैसे फूंक मारकर धूल उड़ाई हो. इंस्पेक्टर हुए बिना कोतवाली का इंचार्ज बनाया गया.
ये घटना व्यक्ति और संस्था के साझे इतिहास में आख़िरी दीवार के टूटने के जैसी थी. इसके बाद घटना परिघटना में, व्यक्ति चरित्र में और दोनों का साझा असर संस्कृति में तब्दील हो जाता है.
बहुत कम समय में रामबदन, रामबदन जैसे बन गए थे. कड़क, तेज और लापरवाही की हद तक बेफिक्र. रामबदन अपना हस्ताक्षर करने में हिन्दी में ही पूरा नाम लिखते थे. पर लिखावट में भी एक लापरवाही थी जिस वजह से `म’ और `द’ अक्षर घिसट जाते थे और हस्ताक्षर `न’ पर समाप्त होता था. कुल जमा असर `राबन’ का हुआ करता था जो कि बहुतों के अनुसार चरित्र से मेल खाता था. कुछ तो ये भी कहते कि उनके चरित्र में राम और रावण का संगम है. जो भी हो रामबदन सिंह जहां भी रहे, जिस भी थाने में रहे वहां अपराध कम रहा.
इनके पास एक डोज़ियर हुआ करता था. अपराधियों के नाम-पते, गाँव-ठिकाने, हुलिए और मोडस ऑपरैंडी की तफ़सील वाला. डकैती के गैंग इनके टिप्स पर थे. घटनास्थल को लगभग सूंघ कर बता देते थे कि किस गैंग कारस्तानी है. चोरी-डकैती का माल खरीदने वाले सुनार, कबाड़ी और सफ़ेदपोश दुकानदार इनकी रडार पर रहते थे. इनका इस्तेमाल अपने तरीके से करते थे. अपराध, अपराधी, माल मसरूक़ा और याफ्ता के अन्तर्सम्बन्ध का समीकरण परिस्थिति के हिसाब से कर लिया करते थे. उन दिनों अंदरूनी किस्सों में इनकी लोकप्रियता डकैतों के समानांतर ही मानी जाती थी.
अपने शिखर जवानी के और मुखर कहानी के इन्हीं दिनों में इन्हें हुक्का पीने का शौक हुआ. शराब नहीं पीते थे. महफ़िलों में नहीं जाते थे. लंगोट के कच्चे होने की भी कोई कहानी प्रचलन में नहीं थी लेकिन हुक्का. यही एक व्यसन था जो अंततः उनका स्टाइल स्टेटमेंट साबित हुआ.
आपने देखा हुक्का इस कहानी को जोड़ देता है. इतना कि इसे अगर कहानी का सूत्रधार मान लिया जाता तो सहूलियत रहती.
नदी और हवा अपने रास्ते बना लेते हैं. हुक्कों के बारे में ये कहना ओवरस्टेटमेंट हो जाएगा.
सब कुछ बहुत भयावह था. लोगों ने दुलाराम–सखाराम को इस शहर की एक ख़ास गली के ख़ास मकान में बंदी बना लिया था.
वहां एक कस्बाई शहर था. भौगोलिक रूप से जहां अब भी है. वैसे तो ये एक तरह का ट्रांज़िट टाउन था. पहाड़ की ओर जाने वाले लोग दो घड़ी रुककर सांस लेकर आगे बढ़ जाते थे.
वैश्विक स्तर पर सरकारों पर से भरोसा टूटने के दिन थे. कम अज कम ये अर्द्ध सत्य सा अर्द्ध भ्रम फैलाया गया था. दरअसल भरोसा कई सालों से टूट रहा था. जिसके अनगिनत सम्भावनाओं के बीच सबसे दुष्ट सम्भावना पर काम किया गया. सरकार के गैर जिम्मेदार आचरण को पूंजी की सदाशयता और व्यक्ति की उन्नति के सब्जबाग से भरे बाज़ार से प्रतिस्थापित कर दिया गया. ये मरम्मत या मुलम्मे का काम नहीं था. सोने की भंगुरता को पीतल पर सोने के पानी से बदल दिया गया था.
अर्द्ध सत्य की तरह अर्द्ध भ्रम को ईमानदारी से बरतने वाले अन्य शहरों की तरह ही ये हल्द्वानी शहर भी ये बात मानता था कि ये सबकुछ इस कस्बाई शहर में नहीं हुआ था. लेकिन इस भ्रम के पीछे हुआ ये था कि शहर भूल चुका था कि यहां कभी हल्दू यानि कदम्ब के पेड़ की वजह से इसे ये नाम मिला था. अब पेड़ किसी सड़क को ठंडी नहीं बनाते थे ये भी इसे बाहर से आने वाले किसी सिरफिरे जिलाधिकारी ने याद दिलाया था. बेशक ये वो शहर था जहां एक जिलाधिकारी सारे अतिक्रमण पर भारी पड़ने वाला था. लेकिन वह बाद की बात थी. वो हुक्के के वहां टिकाए जाने और टांड़ से उतारे जाने के बीच की बात थी. अभी तो जेल चौराहे से जेल की ओर सड़क अब भी जाती थी. उस चौराहे और उस सड़क की वजह से लोग जानते थे कि वहां एक जेल थी. शहर ये भूल चुका था कि इसी जेल में कुख्यात मिथकीय स्तर तक पहुंच जाने वाले डाकू सुल्ताना को फांसी हुई थी.
शहर में बदलाव की कई परतें होती हैं. सबसे पहले व्यक्ति बदलते हैं. फिर पीढ़ियाँ. शहर का मिजाज़ और रंग सबसे बाद में बदलते हैं. कई पीढ़ियों के बदलाव के बाद शहर का नम्बर आता है. जिन स्थानों के बदलाव में बाहरी दख़ल का हिस्सा ज़्यादा मात्रा में होता है या जो इनड्यूज्ड चेंज होते हैं वहां ये प्रक्रिया थोड़ी बदल सकती है. अभी शहर को उदासीनता से काटते हुए किसी बाईपास की ज़रूरत तो महसूस नहीं हो रही थी लेकिन मुख्य बाज़ार की बढ़ती भीड़ हाईवे पर दुकानों के शिफ्ट करने की कवायद के पहले चरण में आ चुकी थी. शहर के सटे हुए बाहरी गांव में अब भी किसी मोटर का आना कौतूहल का विषय था और तराई को जोड़ने वाले रस्ते अब भी रोड होल्डप और छिनैती के डर से जूझ रहे थे.
कुल मिलाकर कदम्ब के पेड़ अब भी घने थे बस बीज उड़कर नष्ट हो रहे थे.
इस छोटे से कस्बाई शहर में नई पीढ़ी ने अपनी रंगत बदल ली थी. पहाड़ से उतरने वालों को भी मैदान का पहला स्वाद मिलता था. कॉलेज के नए लौंडे अब ज़रा अकड़ के निकलने लगे थे. छोटे-मोटे दुकानदारों से वसूली का हक़ उन्हें हासिल हो रहा था. हालांकि `शहर का सबसे बड़ा गुंडा कौन? कोतवाल!’ वाला डाइलॉग अब भी बोला जाता था लेकिन बोलते समय एक हल्का सा पॉज़ आने लगा था.
समय बदल रहा था बहुत तेजी के साथ. समय मापने के परंपरागत साधनों से सम्भल नहीं पा रहा था. जनवरी होती थी, तो लगता था अभी फरवरी आएगी, मार्च आएगा लेकिन होता यह था कि दिसंबर आ जाता था. एक साल बीतता था तो ऐसा लगता था कि पूरा दशक ही बीत गया है. `कल की ही बात थी’ का मतलब बहुत पहले हो जाता था और `एक समय की बात थी’ का तर्जुमा कई ज़माने पहले का कोई ज़माना हो जाता था. मतलब यह कि समय एक टांग रखने से पहले दूसरी उठा लेता था. न जाने कहां जाने की जल्दी थी उसे. दादा पोती से कहता तो ठीक था लेकिन अब बाप बेटे से और कभी-कभी तो बड़ा भाई अपने छोटे से ये कहने लगा था `हमारे जमाने में…’
लोगों ने दुलाराम-सखाराम को इसी अर्द्ध-सत्य और अर्द्ध-भ्रम वाले कस्बाई शहर में इज्ज़तनगर मुहल्ले में लक्ष्मी नागर के मकान में बंदी बना लिया था.
लक्ष्मी नागर को शहर के सभी शरीफ, बदमाश लोग जानते थे. एक समय तो यहाँ तक था कि छोटे-मोटे काम करवाने के लिए उसकी खुशामद करनी पड़ती थी. कारण यह था कि प्रदेश के एक बड़े और बुजुर्ग हो चले नेता का जवान दिल कभी लक्ष्मी के लिए भी धड़का था. उस नेता का दिल ऐसी कई लक्ष्मियों के लिए धड़क चुका था. उस धड़कने की वजह से बहुत सी लक्ष्मियाँ सत्ता के गलियारे में, सीढ़ियों पर, दरवाज़े पर यहाँ तक कि गोल कमरों के अन्दर पहुँच चुकी थीं. इस लक्ष्मी की पहुँच इतनी न होते हुए भी वो उन दलालों तक ज़रूर पहुँच रखती थी जो गलियारे तक पहुंचाने का काम करते थे. लेकिन अब समय गिर गया था लक्ष्मी के लिए. नेताजी का पराभव हो रहा था और शहर में शक्ति-केन्द्रों का बदलाव हो चला था. अब लक्ष्मी को मशक्कत करनी पड़ रही थी. उसके इस्तेमाल के तरीके भी बदल चुके थे. पहले लोग अपना काम बनाने के लिए उसकी खुशामद तक करते थे अब उसे रोटी के लिए इस्तेमाल होना पड़ता था. उसके घर की चौखट पर सर दिए देखे गए व्यापारी, छुटभइय्ये नेता, सभासद यहाँ तक कि सरकारी अधिकारी अब उससे कन्नी काट चुके थे. कुछ लोगों की आवाजाही अब भी थी लेकिन अब मायने बदल चुके थे. ज़रूरत-मांग और पूर्ति का समीकरण उलट चुका था. वो नगरवधू के पद से उतर चुकी थी और इधर ज़रूरत के हिसाब से वह नई उम्र की लड़कियों को उस रास्ते पर चलने के गुण सिखाती थी.
लक्ष्मी के इतिहास के बारे में ज़्यादा किसी को नहीं पता था. बस इतना था कि उसका बाप जंगलात विभाग में गार्ड और माँ बला की खूबसूरत महिला थी. किसी की माँ को बला की खूबसूरत महिला कहना सभ्य समाज की हाथ मसलाऊ असभ्यता थी. लक्ष्मी जैसियों के केस में असभ्यता भी आह भरने लगती थी. लक्ष्मी को सौन्दर्य विरासत में मिला था. उसने उसका उपयोग भर किया था.
रामबदन को पता चल गया था कि हेड मुहर्रिर सखाराम लक्ष्मी के ठिये पर जाता है. खुद ये तो लँगोट के कच्चे न थे. जवानी के दिनों की बात और थी. लेकिन किसी और के लिए रोड़ा नहीं बनते थे. अब लेकिन पानी सर के ऊपर से जा रहा था. दीवान सखाराम ने दुलाराम को भी लत लगा दी थी. उसे भी कभी-कभी अपने साथ ले जाने लगा था. रामबदन अभी लगाम कसने की सोच ही रहे थे कि आज ये घटना हो गई.
देखिये, कोई भी बात आख़िरी नहीं होती, खासकर कहानियों में.
कहानी का अंत सिर्फ कहानी का नहीं होता
शाम का वक्त था. आम तौर पर इस समय दुलाराम उन्हें शाम की गश्त से लौटकर आने के बाद चाय पिलाकर हुक्का थमा देता था और उनके पैर चांपता था. रामबदन की एड़ियों में दर्द की शिकायत रहती थी. दुलाराम उनके पैरों के पंजे और एड़ी पकड़ कर जोर लगाकर घुमाता था. ऐसा कभी-कभी ही होता था कि दुलाराम इस समय बाज़ार जाए. आज उसने रामबदन को हुक्का थमाने के बाद पूछा कि ज़रा बाज़ार तक हो आए कुछ ज़रूरी काम है. रामबदन ने जाने दिया. थोड़ी देर बाद ही ये घटना हो गई थी.
लोग सखाराम से नाराज़ थे.
इज्ज़तनगर मुहल्ला था वो. गफूर बस्ती के ठीक पीछे. नगरपालिका अध्यक्ष का घर भी वहीं पड़ता था. रामबदन के बहुत अहसान थे उनके ऊपर. इधर घट रही घटनाओं के बाद भी रामबदन को विश्वास था कि उनके एक इशारे से रामसेवक राजभर, अध्यक्ष नगरपालिका परिषद, मामले को मोड़ने में जुट जाएंगे. रामबदन ने एक कारखास सिपाही भेजा उनके पास. कहलवाया कि सीधे वहीं पहुंचे, मैं भी आ रहा हूँ. एक-एक सन्देश जमादार सिंह और व्यापार मंडल अध्यक्ष नवीनचन्द्र दीक्षित के पास भी भिजवाया. इससे ज़्यादा की ज़रूरत नहीं थी. इसकी भी ज़रुरत नहीं पड़ती लेकिन आजकल हवा का रुख़ देखकर चलना पड़ता है. और हवा विपरीत दिशा बह रही थी. काफी देर सोचने के बाद उन्होंने एक संदेशा उंगली की माँ को भी भिजवाया. कहा कि तैयार रहे बस.
सोचते-सोचते ही रामबदन ने हुक्के की तीन लम्बी खींच ली और फिर उसे हाथ में पकड़े देर तक यूं ही देखते रहे. अपनी अंगूठियों से उसपर हल्की थाप सी दी और फिर उसे वहीं तखत के किनारे टिकाकर वर्दी मंगवाई. ऐसा कम ही होता था. कोतवाल रामबदन को वर्दी में और वह भी शाम के वक्त कम ही देखा गया था. उनका ट्रेड मार्क अन्य लोगों से बहुत अलहदा था. सफ़ेद झक कुर्ता पजामा. चाहे जिले का कप्तान आ जाए या कोई और कोतवाल सफ़ेद कुर्ते-पजामे में ही स्वागत करता मिलता था. उसका प्रभामंडल ही ऐसा बन गया था कि वरिष्ठ अधिकारी चाहते हुए भी कुछ कहते नहीं थे. इस धज में तब ही विचलन आता था जब आईजी बिक्रमजीत सिंह का आगमन हो. पक्का साहब. कड़क रौबदार और पक्के पुलिसवाले. खतरनाक से खतरनाक ऑपरेशन में टीम को साथ लेकर और सबसे आगे चलने वाले साहब. एक जमाने में रामबदन और पक्का साहब ने एक साथ मिलकर कई दुर्दांत अपराधियों की नाक में नकेल डाली थी. इसलिए दोनों एक दूसरे को सम्मान देते थे.
रामबदन ने अपनी जीप में चार सिपाहियों को बिठाया और लक्ष्मी के घर की ओर रुख़ किया.
हर शहर की तरह ही इस शहर में भी एक तिकोनिया चौराहा था. तीन कोनों का तिकोनिया लेकिन रुतबा चौराहे का. इसी तिकोनिया पर आज शहर के इतिहास की एक जटिल और निर्णायक घटना का मंचन होना था. क्योंकि भीड़ दोनों बंदियों दुलाराम-सखाराम को अब लक्ष्मी नागर के मकान से निकाल कर खींचते-पीटते हुए तिकोनिया तक पहुँच चुकी थी. इन दोनों को लक्ष्मी के घर से अशोभनीय स्थिति में बरामद किया गया था. अब दोनों के कपड़े फट चुके थे. सखाराम की वर्दी के बटन टूट गए थे और बेल्ट खुलकर गिर चुकी थी. टोपी का भी कोई पता नहीं था.
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रामबदन जीप से उतरे. उतरने से पहले उन्होंने भीड़ की नब्ज टटोलने के लिए उन नारों और गालियों को ध्यान से सुना जो लोग चीख रहे थे और इस जीप को देखते ही जो बढ़ गए थे. इधर कई सालों में ऐसा नहीं हुआ था. जब से इन्होने इन्चार्जी सम्भाली है बहुत से बड़े-बड़े झगड़े-फसाद-दंगे, यहाँ तक कि पुलिस विरोध प्रदर्शन भी झेले और निबटाए हैं लेकिन आज उन्हें भीड़ की शक्ल कुछ अलग लग रही थी. पहली बार नहीं हुआ था कि भीड़ बेकाबू सी लग रही हो या उनके भीड़ में पहुँचने पर नारे तेज हो गए हों. ऐसा कई बार हुआ कि तेज होते हुए नारों के बीच रामबदन पहुँचते और अपने दाहिने हाथ को लहराकर उठाते. पहले पंजे खुले रहते फिर धीरे-धीरे उंगलियाँ सिमटतीं और बस एक तर्जनी खुली रह जाती जो आकाश की ओर होती. फिर उसे वहीं आकाश की दिशा में बार-बार हिलाते और आँखें सिकोड़ते हुए रामबदन पूछते हूँ `अब मैं आ गया हूँ… एक-एक करके बताओ किसे क्या तकलीफ़ है…’ कुछ लोग अति उत्साह में आगे बढ़ते. आगे बढ़ने वाले को कुछ लोग रोकते. बस इसी बीच उन्हें घूरते-तौलते रामबदन को वह कमज़ोर कड़ी मिल चुकी होती जिसे उंगली के छोर से खिसकाना भर होता. भीड़ भरभराकर टूटती और बिखर जाती. ऐसा भी होता कि वो उंगली अपने ही पीछे चोट करती, पुलिस के कुछ लोग लाइन हाज़िर हो जाते और मुकदमे की तलवार दोनों ओर लटक जाती.
रामबदन ने अपनी बेल्ट बैठे-बैठे ही टाईट की. अब नारे सखाराम हाय-हाय की जगह दुलाराम हाय-हाय में तब्दील हो चुके थे. बीच-बीच में पुलिस-प्रशासन हाय-हाय तो हो ही रहा था. उन्हें मालूम हो गया था कि दुलाराम तो मुहरा है जिसे लक्ष्य करके दरअसल वो रामबदन पर निशाना साधना चाह रहे हैं. वर्ना दुलाराम से किसी को क्या दुश्मनी? अब देर नहीं करनी चाहिए.
रामबदन जीप से उतरे. हल्की लहर के साथ दाहिना हाथ उठाया और कमजोर कड़ी को पहचानने की गरज से तर्जनी को आकाश की ओर उठाते हुए अपनी समझ में भरपूर गरज कर पूछा `अब मैं… बताइये किसे क्या तकलीफ़ है…’ उन्हें अपनी आवाज़ जाने क्यों मिमियाती हुई सी लगी. गला खंखारा और फिर आवाज़ ऊंची करते हुए पूछा `बताओ किसे क्या तकलीफ़ है’
`तकलीफ़ गई भाड़ में’ एक लहराती हुई सी आवाज़ आई `बकवास करता है’
रामबदन ने उस दिशा में देखा. कमज़ोर कड़ी ढूंढनी चाही. नहीं मिली. एक साथ कई आवाजें आ रही थीं. `ये आए हैं मामला सुलटाने पहले अपने आदमियों को कंट्रोल कर लें फिर…’
`देखिये पहले शांत हो जाइए वरना…’ रामबदन ने अपनी बची हुई सारी अकड़ इकट्ठा की. सामने दिख रहे चेहरों में से ज़्यादातर नए थे. उन्हें उन आँखों की तलाश थी जो एक बार देखने पर ही झुक जाती थीं.
`ए उंगली मत दिखा’
भीड़ की ये भाषा रामबदन के लिए नई थी. एक गोल चेहरे वाला लड़का आगे बढ़ आया था. रामबदन गुस्से से कांपने लगे. उनका हाथ बगल में लगे होल्स्टर की तरफ गया फिर कुछ सोचकर उसने बाईं तरफ निगाह दौड़ाई. नवीन चन्द्र जोशी अपने साथियो के साथ खड़े थे. रामबदन से नजरें मिलते ही उन्होंने अपनी गर्दन घुमा ली. मतलब साफ़ था. रामबदन को मालूम था कि नवीन चन्द्र अब आगे नहीं आने वाले. ये वही नवीन चन्द्र हैं जिन्हें व्यापार मंडल में नए उभरते लौंडों ने चुनौती दे रक्खी थी. मामला अध्यक्षी से ज़्यादा रामलीला ग्राउंड और हाट के मैनेजमेंट को लेकर फंसा था. कई सालों से ये नवीन चन्द्र या उनके ख़ास करीबी लोगों के हाथ में था. इधर व्यापार मंडल में दो फाड़ हो चुकी थी और दुर्गा पूजा में देवी पंडाल के विवाद के बाद से ही मामला गरम था. कोतवाल ने इन लौंडों को दबा रक्खा था. एक तरह का अहसान था नवीन चन्द्र के ऊपर कोतवाल जिसे चुकाए जाने की अपेक्षा रखता था. नवीन चन्द्र ने गर्दन जिधर घुमाई रामबदन ने उधर देखा.
रज्जू पलड़िया! ओह तो ये मामला है!
रज्जू पलड़िया का दिखने वाला पेशा पत्रकारिता था. न दिखने वाले बहुत से. कोतवाल ने उसके इन न दिखने वाले पेशों की नस दबा रक्खी थी. नवीन चन्द्र की कुछ आपत्तिजनक फ़ोटो रज्जू के कैमरे में कैद थीं. जिनके प्रिंट उसके घर भिजवाने और ख़बर `शहर का एक व्यापारी रंग-रंलियाँ मनाते हुए पकड़ा गया’ में एक व्यापारी की जगह नाम खोल देने की धमकी के एवज में बहुत कुछ वसूला जा चुका था. जिस तरह की फ़ोटो थीं उससे साफ़ ज़ाहिर था कि एक साज़िश के तहत सब शूट किया गया था. आज रज्जू ने नवीन चन्द्र को कोतवाल की सहायता में न आने का कहकर दुबारा वसूली कर ली थी.
कोतवाल ने एक गहरी सांस ली और दाहिनी तरफ देखा. दाहिने रामसेवक राजभर मुस्कुराते खड़े थे. उनकी आदत थी हर हाल मुस्कुराने की. कोतवाल ने बुरा नहीं माना. और दिन होता कोई तो शायद मान भी जाते. हमेशा की तरह राजभर अपने सभासदों के एक ख़ास समूह के साथ खड़े थे जिन्हें वो मुहल्ला स्वयंसेवक कहते थे. न तो राजभर न ही इन स्वयंसेवकों ने कोतवाल के उधर देखने पर कोई हरकत की. राजभर मुकुराते रहे. अभी आठ-दस महीने पहले ही नगरपालिका का कोई टेंडर खुला था. सम्भवतः सफाई और कूड़ा उठाने का. उस टेंडर के खुलने वाले दिन अच्छा खासा बवाल हुआ था. कुछ सभासदों ने अध्यक्ष पर पक्षपात का आरोप लगाकर मेज-कुर्सियां तोड़नी शुरू कर दी थीं. राजभर ने तत्काल कोतवाल को कहलवाया था. कोतवाल ने आकर मामला रफा-दफ़ा करवा दिया. हालांकि विरोधियों की बातों में दम था. तो आखिर बात क्या है? कोतवाल ने सोचा.
रावत! ओह तो ये मामला है!
बवाल करने वाले वो सभासद पूर्व अध्यक्ष रावत जी की लॉबी के थे. अन्दर खाने ये ख़बर चल रही है कि रावत ने कोतवाल को साध लिया है. उनके भाई की बिटिया कोतवाल के परिवार में ब्याही जाने वाली है. पिछले महीने कोतवाल दो दिन की छुट्टी में बरेली गए थे उन्हीं दिनों रावत भी शहर के बाहर थे. दोनों के घर-बाहर की ख़बर रखने वालों ने ये बात फैलाई थी कि दोनों बरेली में विवाह की बात के लिए इकट्ठे हुए थे. दोनों को इस बात की जानकारी थी लेकिन दोनों में से किसी ने भी आज तक इस बात का खंडन नहीं किया था. कोतवाल की जवाबदेही किसी से बनती नहीं थी, और रावत को इस बात से फायदा ही था. उसने यही भ्रम रहने दिया कि कोतवाल का हाथ उसके कंधे पर है.
उधर से अब कोई उम्मीद नहीं थी. राजभर चुनाव में कंधे पर कोतवाल के हाथ की कीमत जानता था. कोतवाल ने डिग्री कॉलेज वाली सड़क पर नज़र दौड़ाई. जमादार सिंह वहीं एक तरफ चाय के ठिये के पास खड़े थे. ठिया बंद था. उसके सामने एक बेंच पड़ी थी. जमादार बेंच के पास अपने साथियों के साथ खड़े थे. कोतवाल ने सबसे अधिक आशा से इधर देखा था. कोतवाल के देखते ही जमादार सिंह ने अपना दाहिना पैर उठाया और बेंच पर रख दिया. फिर दाहिने हाथ से जंघे पर तबला सा बजाने लगे. मतलब साफ़ था. कोतवाल की किस्मत ने साथ छोड़ा था समझ ने नहीं. उन्हें पिछले ही हफ़्ते की वो शाम याद आ गई. जब उन्होंने अपने पैरों के पंजे…
अब कोई रास्ता नहीं बचा था. भीड़ बात सुनने को तैयार नहीं थी. हो हल्ला भी बढ़ता जा रहा था. कोतवाल ने दुबारा प्रयास किया. `देखिये हम तत्काल मुकदमा लिख कर आगे की कार्यवाही करने के लिए तैयार हैं. आप लोग क़ानून अपने हाथ में मत लीजिये.’
`अरे चल मुकदमा लिखेंगे’ बहुत सा शोर और एक आवाज़ आई. उन्होंने दुबारा दुलाराम-सखाराम को पीटना शुरू कर दिया.
`थाने, लाइन और दूसरे थानों से फ़ोर्स आने में वक्त लगेगा.’ ड्राइवर ने पीछे से कान में कहा. `मैंने चलते समय सेट पर बता दिया था.’
कोतवाल के पास अब कोई चारा नहीं रह गया था. उनकी आँखों के सामने लोग ख़ाकी वर्दी फाड़ रहे थे. कोतवाल ने अपनी कैप सर पर दबाई और भीड़ में घुस गए. थोड़ी देर तक जद्दोजहद चलती रही. फिर कोतवाल ने अपनी पिस्टल निकाल कर लहराई. कुछ असर हुआ. भीड़ सहम कर दोनों को छोड़कर पीछे हटी. कोतवाल ने ऊपर आसमान को दिखाते हुए एक फायर किया. सब अपनी जगहों से पीछे को हटने लगे. कोतवाल ने दुलाराम सखाराम के हाथ पकड़े और खींच कर ले चले. कुछ देर तक तो एक ख़ामोशी सी छाई रही फिर खुसर-पुसर हुई और फिर हल्ला.
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`रोक ओए पकड़ लो ओए जाने ना पाएं….’ कोतवाल ने आव देखा ना ताव और दौड़ लगा दी. लोगों ने पीछे से दौड़ लगा दी. कोतवाल, दुलाराम, सखाराम आगे और भीड़ पीछे. तिकोनिया से सीतापुर आँख अस्पताल से जिलाधिकारी आवास से तहसील से कोतवाली गेट. भागते हुए दुलाराम-सखाराम. भागते हुए कोतवाल. भागता हुआ रामबदन.
आस-पास दुकानों में खड़े, घरों की छतों पर चढ़े, कचहरी-स्कूल-कॉलेज-दफ्तरों में आये शहर के तमाम लोगों ने देखा. मिलिट्री के खाली ट्रक ने, बिजली के खम्बों ने और उस नभ में बहुत देर तक अटक गई पतंग ने देखा. वो दृश्य इन सबकी स्मृतियों में कैद है.
बस अड्डे की बाउंड्री से लगी तम्बाखू की उस दुकान ने भी देखा. उस दिन के बाद दुकान से तम्बाकू कोतवाली नहीं गया.
इस कहानी में आगे दौड़ने का कोई मायने नहीं है. ये दृश्य वहीं ठिठक गया है. साल दर साल. उस चौराहे पर, गलियों में आस-पास सब जगह.
नया कोतवाल नई तबियत का था. उसने आते ही कोतवाल का हुक्का कपड़े में लपेटकर मालखाने के पीछे वाली टांड पर रख दिया.
आख़िरी ख़बर जो कोतवाल रामबदन के बारे में मिली थी वह यही कि वो वापस चला गया था. इस घटना के तुरंत बाद तबादला और कुछ समय बाद ही उसका रिटायरमेंट हो गया था. वो शराब पीने लगा था क्योंकि हुक्का पीना छोड़ दिया था. और बाद की ख़बर थी कि हुक्के ने उसे वापस बुलाया था इसलिए वो चिलम पीने लगा था. कुछ बहुत बाद की अपुष्ट ख़बर थी कि वो बैरागी फ़कीर हो गया था.
उसके बाद की ख़बर दरअसल कहानी के शुरुआत की बात थी.
जौनपुर में जन्मे अमित श्रीवास्तव उत्तराखण्ड कैडर के आईपीएस अधिकारी हैं. अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी तीन किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता), पहला दख़ल (संस्मरण) और गहन है यह अन्धकारा (उपन्यास).
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