कोतवाल का हुक्का, हाल ही में प्रकाशित कथा संग्रह है, अमित श्रीवास्तव का. उत्तराखण्ड पुलिस महकमे में आईपीएस अधिकारी हैं. इससे पहले संस्मरण, कविता और उपन्यास विधा में अपनी सिद्धहस्तता तीन बहुचर्चित कृतियों के जरिए स्थापित कर चुके हैं. तहरीर, रोज़नामचा, शहादत और फैसला चार मुख्य शीर्षकों के अंतर्गत कुल 31 कहानियाँ हैं, इस संग्रह में. पाँच लम्बी और शेष लघुकथाएँ. फैसला में दो और बाकी तीनों शीर्षकों के अंतर्गत एक-एक लम्बी कहानियाँ हैं.
(Kotwal Ka Hukka Book Review)
कोतवाल का हुक्का, संग्रह की न सिर्फ़ प्रतिनिधि कहानी है बल्कि यह भी संकेत करती है कि कहानियों के कथ्य की परिधि भी कोतवाली ही है. कोतवाल का हुक्का, अप्रासंगिक हो चली रवायतों का प्रतीक भी है जिसे कथाकार ने नये कोतवाल के माध्यम से टाँड में फिंकवा कर वांछित बदलाव का इशारा भी किया है. कहानियों के प्रति पाठक का पहला आकर्षण तो यही है कि इस परिधि के प्लॉट्स व अनुभूतियों को लेकर किसी इनसाइडर कथाकार ने अबसे पहले इतना खुल कर लिखा नहीं है. परिधि के अंतर्गत उजले और स्याह दोनों पक्षों पर कथाकार की तटस्थता संग्रह का एक और सबल पक्ष है. इस परिधि को न्याय-मंदिर के प्रथम सोपान के गर्भ-गृह के रूप में भी समझा जा सकता है. तुलना भी की जा सकती है कि जिस तरह मंदिरों के गर्भ-गृह की फोटोग्रैफी प्रतिबंधित होती है उसी तरह यहाँ असली कहानियों का प्रकटीकरण.
कथाकार के सभी पाठक इस बात पर एकमत रहते हैं कि वो मूलतः कवि हैं. पोइट्री फर्स्ट के बीज-मंत्र से ही उनका सृजन पल्लवित होता है. काव्य-तत्व को अलग करते ही उनकी कहानियाँ, बिन पानी की तड़फड़ाती मछलियों-सी हो जाती हैं. कई लघुकथाएँ तो ऐसी भी हैं जिन्हें संग्रह से अलग, स्वतंत्र रूप से पढ़े जाने पर सभी कविता ही ठहराएंगे. कथाकार के काव्यानुराग के ही कारण उनकी अधिकांश कहानियों की क्लोजिंग क्लासिक खूबसूरती लिए हुए होती है.
कहानियों के प्लॉट से अधिक महत्वपूर्ण कथाकार का एंगल है. तामील दोयम शीर्षक न सिर्फ़ कहानी से पूरा न्याय करता है बल्कि इसके क़ानूनी अर्थ को भी एक तंज़-भरा विस्तार देता है. कथ्य की मौलिकता और पाठकों के लिए नवीनता एक बड़ा आकर्षण है. कहानियों में पाठक की मुलाक़ात, महिला पुलिसकर्मी की तफ़्तीश करते पति से होती है, हक़तलफ़ी में कसमसाता इंस्पेक्टर मिलता है, गाउन का गला और तहक़ीकात के सवालों का अन्तर्सम्बंध समझ आता है. नफ़री की कमी का रोना रोते अधिकारी और पूजा में पति की जगह उसकी पुरानी कमीज़ से काम चलाती पत्नी के बीच, अपने फर्ज़ से न्याय करने की कोशिश करता पुलिसकर्मी भी दिखता है, तो पूरी ज़िंदगी टेंट में बिताने वाले ख़ानाबदोश रहे पीएसी सिपाही से भी मुलाकात होती है, जो जीपीएफ की अर्ज़ी इस अरमान के साथ ले के साहब के पास आया है कि, कम से कम रिटायरमेंट के बाद तो एक अदद कमरे में सोना नसीब होगा. कस्टडी से भागना और भगाना एक ही बात मानी जाती है या ज़मीन का क़ानून, किताब के क़ानून से अलग होता है, जैसी इनसाइडर सूक्तियों का परिचय भी मिलता है.
(Kotwal Ka Hukka Book Review)
कथा-उपन्यास में शाब्दिक मितव्ययिता का निर्वाह कम हो पाता है पर कथाकार ने मात्र 27 पंक्तियों में (कॉज ऑफ डेथ) में बखूबी, रस्सी पर चलने जैसे संतुलन की दरकार रखने वाली पुलिस-सेवा की दुश्वारी को कुशलता से चित्रित किया है – पोस्टमार्टम रिपोर्ट में रामभजन, निलम्बित उपनिरीक्षक, कैदी नम्बर तीन सौ नौ के मरने का कारण, हालाँकि दिल का दौरा जैसा कुछ लिखा था.
कथाकार, संग्रह के आमुख में पाठकों से निवेदन करता है कि कहानियों को लेखक से अलगा कर देखें. हमने ऐसे ही देखा, पढ़ा और समझा भी कि ये आईपीएस अमित श्रीवास्तव की कहानियाँ नहीं है बल्कि उस अमित श्रीवास्तव की कहानियाँ हैं जिसे अपने परिवेश के अंधकार को देख कर रोना आता है, पर जो अपने आँसुओं को थाम कर अंधेरे से दो-दो हाथ करने के लिए दृढ़-संकल्पित है. शिल्प, भाव-बोध, भाषा की नवीनता, परम्परा से विद्रोह और प्रयोगशीलता जैसे समकालीन हिंदी कहानी के लक्षण समीक्ष्य कथा-संग्रह में दिखते हैं. यथास्थिति का अस्वीकरण और बेहतर भविष्य की तलाश वाला कथाकार का वैचारिक आधार भी कहानियों में सुस्पष्ट है.
145 पृष्ठों का समीक्ष्य कथा-संग्रह, सुंदर कलेवर में, काव्यांश प्रकाशन ऋषिकेश द्वारा प्रकाशित किया गया है. मूल्य दो सौ रुपए मात्र है. कथासाहित्य में रुचि रखने वाले पाठकों के लिए तो संग्रह पठनीय है ही, नवप्रवेशी पुलिसकर्मियों और अधिकारियों के लिए उनके भावी कार्यक्षेत्र का व्यवहारिक मार्गदर्शक भी है.
(Kotwal Ka Hukka Book Review)
कृति – कोतवाल का हुक्का
लेखक – अमित श्रीवास्तव
प्रकाशक – काव्यांश प्रकाशन, ऋषिकेश
मूल्य – रु0 200/-
समीक्षक – देवेश जोशी
–देवेश जोशी
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1 अगस्त 1967 को जन्मे देवेश जोशी फिलहाल राजकीय इण्टरमीडिएट काॅलेज में प्रवक्ता हैं. उनकी प्रकाशित पुस्तकें है: जिंदा रहेंगी यात्राएँ (संपादन, पहाड़ नैनीताल से प्रकाशित), उत्तरांचल स्वप्निल पर्वत प्रदेश (संपादन, गोपेश्वर से प्रकाशित) और घुघती ना बास (लेख संग्रह विनसर देहरादून से प्रकाशित). उनके दो कविता संग्रह – घाम-बरखा-छैल, गाणि गिणी गीणि धरीं भी छपे हैं. वे एक दर्जन से अधिक विभागीय पत्रिकाओं में लेखन-सम्पादन और आकाशवाणी नजीबाबाद से गीत-कविता का प्रसारण कर चुके हैं.
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