केओ कार्पिन के संग मौत का खेल
– प्रिय अभिषेक
कुछ चीज़ें ज़िन्दगी में किसी धूमकेतु की तरह आती हैं. आती हैं ,कुछ पल साथ रहती हैं और यकायक गायब हो जाती हैं.
व्यक्ति के स्तर पर कोई खिलौना, वस्त्र, मित्र, प्रेमी- प्रेमिका, कोई शिक्षक, सायकिल , या ज़िन्दगी के किसी दौर में चढ़ा कोई नशा जैसे ज्योतिष-कुंडली भी हो सकता है.
समष्टि-सभ्यता के स्तर पर इनमें किसी हिट फ़िल्म या गाने का नशा हो सकता है.जैसे गोरे-गोरे मुखड़े पे काला-2 चश्मा गीत.कोई टेलीविज़न का धारावाहिक हो सकता है.जैसे शांति और तारा. कपड़े या बालों की कोई स्टाइल हो सकती है जैसे बेलबॉटम या पीछे गर्दन तक लंबे बाल. आज कल की दाढ़ी-मूछों की, एक साइड से सफाचट बालों की स्टाइल भी यही है और आने वाली पीढ़ियाँ भी अपने पापाओं-चाचाओं की इन स्टाइल्स में फोटो देख कर उसी तरह हँसेंगी जैसे हम अपने पापा-चाचा की बेलबॉटम ,लंबे कॉलर की शर्ट और कान के ऊपर बाल वाली फोटो को देख कर हँसते हैं.
इसी तरह एक समय भारतीय समाज में धूमकेतु की तरह उदित हुआ था – केओ कार्पिन हेयर ऑइल.
भारत के सभी घरों में इसकी उपस्थिति अनिवार्य थी. इसकी प्रतिस्पर्धा में था डाबर आंवला तेल, पर कुछ कमज़ोरी से.
यह वह समय था जब घर ,भगवान के लिये जलाई गई अगरबत्ती से पहले, केओ कार्पिन से महकता था.
विद्यालयों की प्रार्थना सभायें और कक्षायें केओ-कार्पिन की भीनी -भीनी सुवास से सुवासित रहतीं. बीच-बीच में कहीं आँवला तेल की महक भी आ जाती थी. छात्र अधिकतम शरीफ दिखने की लालसा में अधिकतम केओ कार्पिन का सेवन कर अपने बालों को अपने कपाल से पूर्णतः चिपका कर विद्यालय आते थे. कन्यायें भी केओ-कार्पिन में अपने बाल डुबो कर दो अर्धवृताकार चोटियाँ बना कर आतीं. और विद्यालय में ही क्या , युवाओं ने इसके अन्य प्रयोग भी खोज डाले थे.
उस समय सिरसागंज जैसे छोटे कस्बे में हेयर जैल नामक वस्तु अज्ञात थी. युवा केओ-कार्पिन में थोड़ा सा पानी मिलाकर लगाते और ख़ुद को किसी साल्सा डांसर की तरह समझते. शादी-विवाह में इस तरह जाने की बात ही अलग थी. मांगे का कोट और ललाट पर आते हल्के गीले से बाल किसी विवाह में किसी सुनयना के फिदा होने की गारंटी होते.
ये वो समय था जब अर्थव्यवस्था और राजनीति डगमगा रहीं थी. अमिताभ की फिल्में फ्लॉप हो रहीं थी. और निराश मध्यवर्ग वनडे क्रिकेट में वेंकटपति राजू की ठुकाई से और निराश हो चुका था. राहत केवल विनोद राठौड़ के गीतों से मिल रही थी. ऐसे ही समय मे भारतीय घरों में खेला जा रहा था मौत का खेल.
परन्तु ये मौत का खेल वैसा खेल नहीं था जैसा आज के पाठक समझ रहे हैं.
मम्मी ने बोला बेटा मैं नहाने जा रही हूँ, दूध गैस पर रखा है ,देखना! और हम भूल गये. शुरू हो गया मौत का खेल.
ऑफिस से पिताजी घर आये और हम उन्हें खेलते हुए मिले. मौत का खेल.
पेंसिल बॉक्स या टिफिन स्कूल में भूल आये. मौत का खेल.
बनी सब्ज़ी पर हमने मना कर दिया की हम घुइयाँ नहीं खाते! मौत का खेल.
जिस भी दिन मम्मी-पापा को मास्साब मिल गये; घर या बाज़ार में. मौत का खेल.
मम्मी-दीदी के गीले पौंछे से क़दम के निशाँ बनाकर निकल गये. तब मौत का खेल नहीं, तब होता था- मौत का ताण्डव.
तो ऐसा ही एक खेल जिला फ़िरोज़ाबाद के कस्बा सिरसागंज में खेला गया.
पिताजी केओ कार्पिन की शीशी खरीद कर लाये. वो भी छोटी नहीं , बड़ी वाली. ये भारी, मोटी काँच की बोतल. वक़्त कोई शाम का था. मम्मी-पापा बाहर गये हुए थे. और हम दोनों भाइयों ने इस काँच की बोतल से ‘कैचम-कैच’ खेलने का निर्णय लिया.
‘और बोतल हाथ से छूट गई तो?’हमने छोटे भाई से पूछा.
‘यही तो है मौत का खेल!’ भाई ने मुस्कुरा कर कहा. और एड्रेनेलिन हमारी रगों में दुगनी गति से दौड़ने लगा.
उस भारी काँच की शीशी से हमारा खेल आरम्भ हुआ. ये समय क्लाइव राइस वाली अफ्रीकी टीम का था, न की केप्लर वेसेल्स-जोंटी रोड्स वाली टीम का.
तो पहले एक-दो बार के बाद ही कैच ड्रॉप हो गया. ये किसने किया ये आज भी हम दोनों भाइयों के बीच विवाद का विषय है. बहरहाल वो मोटी-भारी काँच की शीशी ,हमारी खुशियों के साथ सीमेंट वाले फर्श से टकरा कर चकनाचूर हो गई. मौत अब हमारे सिर पर नाच रही थी.
वो कीमती केओ कार्पिन हमारे इस कांड की ख़बर सभी को बताने के लिये ज़मीन पर बह निकला. उसकी खुशबू हवाओं से हमारी चुगली करने लगी. अब पहला काम तत्काल खुद को आपदा राहत देने का था.
सबूत मिटाने के लिये सबसे पहले,उस वक़्त मध्यवर्गीय घरों में पैरपोश के तौर पर प्रयोग होने वाले, जूट के बोरे को फैले तेल के ऊपर रखा गया. पर तेल हमारे अनुमान से अधिक था. शीघ्र ही बोरेे ने अपनी पूर्ण क्षमतानुसार तेल सोख लिया और बाकी तेल उसके ऊपर निकल आया. उसके ऊपर फिर से एक बोरा रखा गया, जो दूसरे कमरे का पैरपोश था. पर वो बोरा भी हारी बोल गया. और घर में दो ही बोरे थे. इधर घर की कुंडी खटकी.
फिर हमारी नज़र गत्ते के उस डिब्बे पर गई जिसमें उस वक़्त हमारे नेकर टी शर्ट का सैट आया था. उस डिब्बे को उन बोरों के ऊपर रखा गया. और रहे-सहे सबूत मिटाने के लिये उसके भी ऊपर विराजमान हुए हमारे जूते और चप्पल.
अब हम आश्वस्त थे की कमरे के कोने में बने इस छोटे से अरावली के पर्वत पर किसी की नज़र नहीं जाएगी. और तेल की तो किसी को कभी ज़रूरत पड़ेगी ही नहीं.
‘और पापा ने देख लिया तो?’ भाई ने पूछा. कुंडी अब लगातार खटक रही थी.
हमारे मन में अब मौत के खेल से बचने के लिये रणनीति बनने लगी. की किसी पेशेवर मुक्केबाज़ की तरह अपने दोनों हाथों को किस तरह रखना है की चांटे का प्रभाव कम से कम हो. किस तरह ‘डक’ करके बचना है. सिर को किस तरह ढकना है की पिताजी के हाथ में कम से कम बाल आयें.और सबसे अंत मे किस तरह सामान्य बन कर दरवाज़ा खोलना है कि जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो. सब विचार कर हमने दरवाज़ा खोल दिया.
पिताजी अंदर आये. और जाहिर है सबसे पहले उनकी नज़र हमारे बनाये उस पहाड़ पर गई.
‘ये क्या है?’ उन्होंने पूछा.
‘वो … केओ कार्पिन की बोतल फूट गई, गिर कर’, हमने कहा.
‘काँच तो नहीं लगा पैर में?’
‘नहीं!’, अब हम मौत के खेल के लिये तैयार थे.
‘कोई बात नहीं बेटा’, यह कह कर पिताजी चले गये.
हम दोनों भाइयों ने एक दूसरे की ओर देखा. दरवाजे से ठंडी हवा का एक झोंका आया.
मूलतः ग्वालियर से वास्ता रखने वाले प्रिय अभिषेक सोशल मीडिया पर अपने चुटीले लेखों और सुन्दर भाषा के लिए जाने जाते हैं. वर्तमान में भोपाल में कार्यरत हैं.
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