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केदारनाथ पर महत्त्वपूर्ण लेख

मन्दाकिनी नदी के स्त्रोत प्रदेश में भारतखण्ड शिखर के पदतल में 11753 फीट की ऊंचाई पर अत्यन्त भव्य दृश्यावली के मध्य में केदारनाथ का प्राचीन एवं विशाल मन्दिर है. इतनी ऊंचाई पर एवं इतनी सुन्दर कलाकृति वाला कोई अन्य मन्दिर देश-भर में कहीं नहीं है. मन्दिर हिमनिर्मित चौरस बगड़ के मध्य में, ऊंचे एवं विशाल चबूतरे पर खड़ा है. चबूतरे पर चढ़ने के लिए सीढ़ियां बनी हैं. गर्भ-गृह भीतर से लगभग 27 फीट वर्गाकार है. मन्दिर में कोई प्रतिमा या शिवलिंग नहीं है. यहां एक अनगढ़ शिला पड़ी है जो. लगभग तीन हाथ चौड़ी कुछ अधिक लम्बी तथा इतनी ही ऊंची है. नीचे शिला कहां तक चली गई है, इसका पता नहीं है. इस शिला के चारों ओर चौकोना चौकोर अर्घा है, जो सामान्य अर्घों के समान न होकर छिला हुआ चौकोर मेंडर है. अर्घा और शिला अलग-अलग पत्थर के हैं.
(Kedarnath Temple Shiv Prasad Dabral)

राहुल के अनुसार इतना बड़ा अर्घा बनाने के लिए शिला उठा लाना भीमसेन का ही काम होगा. केदार-शिला और अर्घा के बीच कुछ हाथ गहरी पोली जगह विदित होती है. मन्दिर के बाहर खुदाई करने पर प्राप्त एक खंडित शिलालेख के आधार पर राहुल का अनुमान है कि यहां चौथी पांचवीं शती में एक मन्दिर था, जो निश्चय ही केदार-शिला को ढकने के लिए बनाया गया होगा. अस्तु चौथी-पांचवीं शती से बहुत पहले ही केदार शिला के लिए उस विशाल अर्घा का निर्माण हुआ होगा. गर्भगृह संभवत: पुराने मन्दिर के समय से ही चला आता है, पर सभा-मंडप पीछे से जोड़ा गया विदित होता है.

गर्भगृह में अर्घा के पास चारों कोनों पर बहुत मोटे चार पाषाण-स्तंभ है, जिनकी बगल से होकर भीतर ही भीतर केदारशिला की परिक्रमा की जाती है. अन्य मन्दिरों में प्राय: पुजारी को छोड़कर कोई दूसरा व्यक्ति प्रतिमा को नहीं छू सकता, पर शिवमन्दिरों पर श्रद्धालु स्वयं शिव पर जल चढ़ाते हैं. केदार मन्दिर में केदार-शिला पर श्रद्धालु स्वयं घृत-लेपन करते हैं. श्रद्धालुओं के प्रवेश, केदार-शिला-पूजन एवं परिक्रमा को ध्यान में रखकर गर्भगृह को अपेक्षाकृत बड़ा बनाया गया है. गर्भगृह की दीवारें प्राचीन मन्दिरों के समान बहुत मोटी एवं विशाल शिलाओं से बनाई गई हैं. कुछ शिलाएं तो इतनी बड़ी हैं कि वहां किसी प्रकार के यंत्र द्वारा ही पहुंचाई गई होंगी. दीवारों की शिलाओं को कल्पलता, पुष्प आदि की चित्रावली से सजाया गया है. ये अलंकरण एवं उनके मध्य की मूर्तियां उसी समय की होनी चाहिए जब चौथी पांचवी शती के मंदिर के स्थान पर वर्तमान मन्दिर की स्थापना हुई थी.
(Kedarnath Temple Shiv Prasad Dabral)

गर्भगृह के बाहर भी सभामंडप में कोई गवाक्ष नहीं है, पर द्वारों से ही पर्याप्त प्रकाश पहुंच जाता है. मंडप में भी भीतर की ओर चार विशाल पाषाण स्तंभ हैं. इन्हें भी अलंकृतं किया गया है. तथा मंडप की दीवारों पर बनी ताकों में आठ पुरुष परिमाण मानव-मूर्तियां हैं, जिन्हें पांच पांडव, द्रौपदी आदि बनाकर यात्रियों को दिखाया जाता है. राहुल के अनुसार इनका संबंध पांडवों से नहीं शैवाचार्यों से है. उनके अनुसार केदारनाथ का प्रथम मन्दिर उस समय बना था, जब यहां पाशुपतों का गढ़ था. गुप्त-शासनकाल में भारत में सर्वत्र शैवमत का बोलबाला था. केदारनाथ में शिवजी का, उज्जयिनी में महाकाल का एवं कांची में पार्वती-परमेश्वर का ही जयनाद घोषित होता था. यही नहीं, इन्दोनेशिया और इन्दोचीन तक शैवमत की विजय दुन्दुभि बंज रही थी.
(केदारनाथ मंदिर की दुर्लभ तस्वीरें)

1951 में, जब राहुल जी केदार मन्दिर में दर्शन करने गए थे, तो उन्होंने भाव-विभोर होकर लिखा था- इन्दोचीन (कम्बोज) के विशालमन्दिर और इनके भीतर के शिलालेख मुझे याद आने लगे, जिनमें शंकर की पूजा के लिए वृहत् आयोजन का सविस्तार वर्णन था, जो कि अब इतिहास की वस्तु बन चुके हैं. शैव साधु सैकड़ों की संख्या में वहां रहते थे और उनके महन्त के वैभव के सामने आज के रावल किसी गिनती में नहीं. परन्तु मुझे वह वैभव आकृष्ट नहीं करपाया, मैं आकृष्ट होता था उस शतरुद्री के पाठ से, जो त्रिपुण्डधारी, यज्ञोपवीती, रुद्राक्षमाली वेदपाठियों के मुख से सस्वर निकलता था. मैं आकृष्ट होता था, उस अगर-तगर की धूप-धूमों और फूलों की नाना प्रकार की सुगंधियों से, जो आज से डेढ़ हजार वर्ष पूर्व के मन्दिरों में उड़ती थी. अब भी मुझे मालूम होता है कि वह मेरी नासिका द्वारा भीतर प्रविष्ट होकर मेरे मस्तिष्क को भीनी-भीनी सुगन्धि से भर रही है. उन जगमगाते हुए शिवालियों में सर्वत्र सौन्दर्य, कला और स्वच्छता का अखंड राज्य था. सभी वस्तुएँ शिवं, सन्दरं थीं.

केदारनाथ मन्दिर के गर्भगृह की दीवारों पर तीन या अधिक शिलालेख हैं. वे गहरे खुदे हैं. पर शतियों के धूप के धुंए से तथा तीर्थयात्रियों के द्वारा घी के हाथों के पोंछने से अक्षर भर गए हैं. 1951 में राहुल जी ने उन्हें पढ़ने का प्रयत्न किया था, और उनमें से एक में …रजदेव के… पढ़ा था. उनके अनुसार उन लेखों की लिपि उसी प्रकार की है, जैसी कत्युरी ताम्रशासनों में प्रयुक्त है.
(Kedarnath Temple Shiv Prasad Dabral)

शिव प्रसाद डबराल की किताब कैंत्युरी राजवंश उत्थान एवं समापन से साभार.

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