कला साहित्य

कोऊ न जानत कवि की पत्नी के मन की पीर

“कब से ऐसा महसूस हो रहा है?”

“ये क्या बकवास है? अरे इसमें महसूस जैसा क्या है, मैं हूँ कवि, तो हूँ.”

“मैं आपसे नहीं, आपकी पत्नी से पूछ रहा हूँ.”

“अरे डाक्साब,पहिले तो ठीक हते. फिर करोना आई गवा. कुलदेवी की ऐसी किरपा हुई कि घर मा किसी को करोना नाहीं भवा. पर ये जाने कौन दुसरी ब्याध पकड़ लिये. मैं कवि हूँ, मैं कवि हूँ- बस यही बतराते घूमते हैं.”

“हुँ, तुम क्या समझोगी अनपढ़ औरत! मैं तुम्हारे ही हक़ में लिख रहा हूँ सब.”

“अरे चुप कर जाओ. मुन्नू चाचा खेत दाब लिए, हुआं हक़ में लड़े? जाय के गोली चलाओ हुआं. निकल जाय सब कबता-फबता. डाक्साब आप पूछो!”

“जी तो कब से ये इस तरह का व्यवहार कर रहे हैं?”

“मार्च से मान लेओ. पहिले तो कम रहा. फिर मोबाइल चलाना बढ़ता गया और बीमारी भी संगे-संगे बढ़ गई. सुरु में मोबाइल देख कर हँसें, मुस्कराएं. अकेले में खुदई गुदगुदाय जाएं. बच्चा कहें- पापा बौउरा गए. पूरे दिना मोबाइल टुन्न-टुन्न बजै. हम कहे चलो कछु करत होऐंगे. फिर कमरा बन्द करन लगे. सब को डाँट दें कि कोई भीतर मति अइयो. तीन-तीन घण्टा कमरा बंद रहे. एक दिन हम लेट कर नीचे से झांक कर देखे तो हाय दैया, देखैं कि साहिब मोबाइल को चालू करिके, उसमें खुद की फोटू देख कर कछु बड़बड़ा रहे है- बो जाता है, खाता है, सरसराता है. हम तो घबराय गए. बच्चों से कहे- जल्दी से दरबज्जा तोड़ देओ, पापा पगला गए.”

“अरे उसको लाइव…”

“आप चुप रहिये. तो आगे बताइये आप. और क्या सिम्पटम आये.”

“तो डाक्साब एक दिन हम पीछे से झाँक कर देखे कि जे करत का हैं. का देखत हैं कि ढेर औरतें साड़ी-ऊड़ी पहिने खड़ी हैं, उनकी फोटुअन पै अँगूठा घिस रहे हैं. दुई-दुई घण्टा यही करें.”

“खाने-पीने में कोई बदलाव?”

“खाने-ऊने में तो कोई ऐसा बदलाव नाही है. हाँ, खाने की फोटू खींचन लगे हैं. अउर हंगते में भी मोबाइल ले जा रहे हैं.”

“हूँ…”

“डाक्साब! एक दिन जोर से कहे- मैं कवि हूँ. हमने हाथ जोड़ कर कहा- मान गए भैया, मान गए. फिर बोले- आज से कपड़ा मैं खुद धोऊंगा. वो का कहिते हैं, जो मजदूर लोग करते हैं…. सिरम! बोले- मैं सिरम करूँगा. हम कहे- करौ! दूसरे दिन बोले एइसा है तू कपड़ा पहले भिंजा दिया कर, मैल फूल जाएगा तब मैं धो लूँगा. हम कहे-ठीक. फिर तीसरे दिन बोले- तू ऐसा कर साबुन लगा दे, मैं रगड़ दूँगा. चौथे दिन कहें- तू भिंजा कर, साबुन लगा कर, रगड़ कर, पानी में डाल दे बस! बाकी निचोड़-ऊचोड़ कर मैं सुखा दूँगा. अंत में बोले तू भिगो कर, रगड़ कर, धो कर अलगनी पै डाल दे बस! बाकी चिमटी-ऊमटी मैं लगा दूँगा. हम कहे- तुमसे कौउन कह रहा है ये सब करने को. बोले- मुझे तुम्हारी पीड़ा दूर करनी है. हम कहे- अरे भैया हमे कोई पीड़ा-ऊड़ा नहीं है. बोले- नहीं, तुझे पीड़ा है, तू नहीं जानती, मैं कबि हूँ.”

“और कोई ख़ास बात?”

“हाँ खाने की बात पै धियान आया. एक दिन, हमें तो लगत कछु नसा-पत्ता किये रहे, चौउका में आये अउर बोले, वही- मैं सिरम करूँगा. आज से खाना मैं बनाऊँगा. हमने कही- लेओ बनाओ. हमऊ महरी सै गोड़ दबवावें. तो ऊ दिन तौ बहुतई बढ़िया, रुच कय खाना बनाये. फिर दूसरे दिन कहें- एक काम करो, तुम सब्जी काट के अउर आटा मांड़ के धर दो बस! बाकी मैं कर लूँगा. फिर तीसरे दिन बोले- तुम सब्जी काट के अउर रोटी बना के धर देना, बाकी मेहनत मैं कर लूँगा. हम कहे- ठीक. चौथे दिन कहे- तू रोटी बना के, सब्जी पका के धर देना बस! बाकी परसना-ऊरसना हम कर लेंगे. हम फिर कहे- तुमसे कौउन कह रहा है ये सब करने को. तो फिर बोले- मुझे तुम्हारी पीड़ा दूर करनी है. हम फिर कहे- अरे भैया हमे कोई पीड़ा-ऊड़ा नहीं है. तो फिर वही- तुझे पीड़ा है, तू नहीं जानती, मैं कबि हूँ.”

“वॉयलेंट कब से होने लगे?”

“वॉयलेंट? आप प्रतिरोध को वॉयलेंस कहेंगे?”

“आप से कहा न आप चुप बैठिये! तो ये हिंसक कब से हुए, मतलब झगड़ा कब से करने लगे?”

“तो एक दिन जाने कौन झोंक में रहें, बोले आज से सब्जी मैं लाऊँगा. वही- सिरम करना है. तो हम थैला पकड़ा दिये कि जाओ. लौउट के आये तो देखें सौ ग्राम कद्दू और दुई किलो चौलाई भर लिआये हैं. हम अपना कपार पकड़ के बैठ गए. हम कहे- माफ करो कबिराज. सुनकर एकदम्मे भड़क गए- कबिराज किसको कहती है, किसको बोला कबिराज? हम कहे- तुमही तो बोले रहे मैं कबि हूँ. तो चीखें- तो ‘राज’ क्यों जोड़ा. मैं क्या गधा हूँ जो ‘राज’ में छिपे ब्यंग को न समझ सकूँ. तो हमने बदल के कहा- माफ करो कबि महोदय. अब और जोर-जोर से चीखन लगे- महोदय क्यों जोड़ा, महोदय क्यों जोड़ा? हम तो ऐसे चकराए कि का बताएं. हम बोले- तुम जो भी हो, हमें माफ़ कर देयो. तो कहें- जो भी क्यों हूँ, मैं कबि हूँ. फिर रोउन लगे कि तुम काहे माफी माँगती हो. माफी तो हमें माँगनी है. हजारों साल से कितनी पीड़ा है तुमें. हम कहे अरे भगवान हमें कोई पीड़ा-ऊड़ा नाही है. तो फिर वही कहें- तुझे पीड़ा है, तू नहीं जानती, मैं कबि हूँ.”

“हूँ…” डॉक्टर साहब डायरी में कुछ लिखते जा रहे थे “आगे बताइये, कोई और ख़ास बात?”

“बात का बताएं, बस यहिय्ये है कि बार-बार पूछत रहे कि तेरी पीड़ा मुझे दूर करनी है. बता कैसे करूँ? हम कहे- सच्ची बताएं? बोले-हाँ. हम फिर पूछे- बिल्कुल सच्ची? बोले- हाँ, हाँ. तो हमने कही जो काम तुम सुरु किये थे चौउका, बासन, कपड़ा वाला, वो सच्ची में करो. बस इतना सुनते दहाड़ मार-मार कर रोउन लगे. हमारे चरन पकड़ कर बोले- बस वो काम छोड़ कर कोई औउर काम बता दे. वो छोड़, कुछ भी करूँगा. तेरी पीड़ा दूर करनी है, मैं कबि हूँ.”

डॉक्टर साहब कुछ देर डायरी में लिखते रहे. “का लिख रहे हो डाक्साब? पर्चा बनाय दो.”

“पितृसत्ता का डिल्यूज़न
समझता है वह
सदियों में निर्मित
भेदभाव जनित पीड़ा को
क्षण में मिटाना है उसे”

“हाय दैया, डाक्साब तुम भी…”

“तू चुप कर.” शर्मा जी यकायक अवसाद से बाहर आ गए, “वाह डॉक्टर साहब, वाह! आगे…”

“बस रसोई की आग से
बुझा सकता है वो अपनी
पितृसत्ता की आग
और कपड़े धो कर मिटाएगा
अत्याचारों के दाग”

“वाओ, अमेज़िंग लाइन्स. सो पावरफ़ुल, यट सो डेलिकेट.”

“वैसे आप मोबाइल ही यूज़ करते हैं?” डॉक्टर साहब ने शर्मा जी से पूछा.

“नो, नो. समटाइम्स डीएसएलआर. कैमरा अच्छी क्वालिटी का ही होना चाहिये.” शर्मा जी ने उत्तर दिया.

“एक मिनट, मेरी वाइफ़ का फोन है. हाँ डार्लिंग, तुम क्लिनिक से फ्री हो गई? बस मैं भी होने वाला हूँ. अच्छा सुनो… आज से खाना मैं बनाऊँगा. शर्मा जी आपकी वाइफ़ के लिये दवाई लिख रहा हूँ. दे दीजियेगा.”
(Satire by priy abhishek)

प्रिय अभिषेक
मूलतः ग्वालियर से वास्ता रखने वाले प्रिय अभिषेक सोशल मीडिया पर अपने चुटीले लेखों और सुन्दर भाषा के लिए जाने जाते हैं. वर्तमान में भोपाल में कार्यरत हैं.

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  • कवि और मोबाइल का खूब समावेश कर व्यंग किया लेकिन यह सच्चाई भी है किसी भी मनोचिकित्सक से मालूम कर लें मनोरोगी की तादाद बहुत बढ़ गई हैं खास तौर से नवयुवक युवतियों की ।
    एक बार पुनः बधाई अभिषेक जी

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