18 सितम्बर 2000 की सुबह लेफ्टिनेंट हेमंत सिंह महर बिष्ट के नेतृत्व में सेना की एक टुकड़ी सीमा पर अपने कैम्प की ओर लौट रही थी. रात भर चले आपरेशन में यह टीम पाकिस्तान के तीन बंकरों को नेस्तनाबूद कर चुकी थी. भयानक गोला-बारूद के बीच सात पाकिस्तानी जवानों को मारकर लौट रही यह टीम सकते में आ गयी जब हवलदार का पैर दुश्मन की बिछाई माइन पर पड़ गया.
(Kargil Vijay Diwas Uttarakhand)
अचानक माइन फटने से हवलदार का पैर उखड़ गया पर टीम का नेतृत्व कर रहे लेफ्टिनेंट हेमंत सिंह महर बिष्ट ने अदम्य साहस का परिचय दिया और हवलदार को कंधे पर लेकर माइन्स के बीच से होते हुये उन्हें सुरक्षित स्थान पर पहुंचाया.
19 सितम्बर को दिन के समय नाले के पास दुश्मनों की हरकत के संकेत मिले. लेफ्टिनेंट हेमंत सिंह महर बिष्ट तीन जवानों के साथ दुश्मनों की तलाश में निकल पड़े. अचानक उन्हें 50-60 दुश्मन एक साथ दिख पड़े. लेफ्टिनेंट हेमंत सिंह महर बिष्ट ने तुरंत रेडियो से अपने बटालियन कमांडर को ख़बर की और ख़ुद मोर्चे पर डटकर फायर खोल दी.
मोर्चा संभालते हुये उन्होंने दो दुश्मनों को मार गिराया. इस दौरान लेफ्टिनेंट हेमंत सिंह महर बिष्ट के शरीर पर सात गोलियां लगी. इसी मोर्चे पर लेफ्टिनेंट हेमंत सिंह महर बिष्ट वीरगति को प्राप्त हुये. शहीद लेफ्टिनेंट हेमंत सिंह महर बिष्ट के अदम्य साहस व देशभक्ति के लिए मरणोपरांत शौर्य चक्र पदक दिया गया.
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लेफ्टिनेंट हेमंत सिंह महर बिष्ट की यह कहानी बिना उनके पिता लेफ्टिनेंट कर्नल (सेवानिवृत्त) गोबिंद सिंह बिष्ट के जिक्र के अधूरी है. लेफ्टिनेंट हेमंत सिंह महर बिष्ट को साहस और देशभक्ति अपने पिता से विरासत में मिली. पिता-पुत्र की इस जोड़ी ने ने मिलकर कारगिल युद्ध लड़ा और फतह हासिल की.
कारगिल युद्ध के समय लेफ्टिनेंट कर्नल गोबिंद सिंह 9 जम्मू कश्मीर लाइट इंफेंटरी के बरेली स्थित हेडक्वार्टर में तैनात थे और लेफ्टिनेंट हेमंत सिंह 7 गार्डस की बटालियन शाहजहांपुर में तैनात थे. कारगिल युद्ध छिड़ने पर पिता और पुत्र ने अपनी-अपनी बटालियन के साथ जम्मू-कश्मीर के लिए कूच किया था. दोनों ने कारगिल की लड़ाई अलग-अलग मोर्चों पर लड़ी.
अपने शांत वातावरण के लिये जानी जाने वाली सोर घाटी के पिता-पुत्र की इस जोड़ी को भारतीय इतिहास में कलयुग के अर्जुन और अभिमन्यु की जोड़ी के रूप में याद किया जायेगा. शहीद लेफ्टिनेंट हेमंत सिंह महर बिष्ट और उनके पिता कर्नल (सेवानिवृत्त) गोबिंद सिंह बिष्ट के शौर्य की इन गाथाओं के बूते ही देवभूमि आज वीरभूमि का पर्याय है.
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