समाज

आखिर क्यों भूल गये हम ‘कालू महर’ को

भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में उत्तराखण्ड के काली कुमाऊं यानि वर्तमान चम्पावत जनपद का अप्रतिम योगदान रहा है. स्थानीय जन इतिहास के आधार पर माना जाता है कि लोहाघाट के निकटवर्ती सुई-बिसुंग इलाके के लोगों की स्वाधीनता संग्राम में बहुत ही सक्रिय भूमिका रही थी. इनमें कालू महर का नाम प्रमुखता से लिया जाता है. स्थानीय लोग इन्हें प्रमुखतः ’काल्मारज्यू’ के नाम से जानते हैं. कालू महर का जन्म बिसुंग के थुवा महर गांव में 1831 में हुआ था. अपने किशोरावस्था के दौर से ही कालू महर ने बिट्रिश हुकूमत का विरोध करना प्रारम्भ कर दिया था.
(Kalu Singh Mahara)

अंग्रेजों द्वारा वर्ष 1815 में उत्तराखण्ड के भू-भाग को गोरखाओं से छीनकर अपने अधिकार में लेने के बाद कुमाऊं और गढ़वाल के आधे हिस्से (वर्तमान पौड़ी और चमोली जनपद) को मिलाकर कुमाऊं कमिश्नरी में शामिल कर लिया था. गढ़वाल के शेष हिस्से (वर्तमान टिहरी व उत्तरकाशी जनपद का अधिकांश भाग) को अंगे्रजों ने टिहरी के राजा सुदर्शन शाह को सौंप दिया था. 1857 में जब देश का पहला स्वतंत्रता संग्राम लड़ा गया तब दुर्गम क्षेत्र होने के कारण उत्तराखण्ड में इसका विशेष प्रभाव तो नहीं पड़ा पर काली कुमाऊं की जनता ने अपने वीर सेनानायक कालू महरा की अगुवाई में विद्रोह कर ब्रिटिश प्रशासन की जड़ें एक तरह से हिला ही दी थीं.

 उत्तराखण्ड के स्वाधीनता आंदोलन के इतिहास को देखा जाय तो क्रान्तिकारियों के तौर पर कालू महर व उनके अन्य साथियों का नाम पहले पायदान पर आता है. उनकी शौर्यता व वीरता के किस्से आज भी जब-तब सुनाई देते हैं, परन्तु यह विडम्बना ही है कि कालू महर व उनके साथियों को हमारा समाज वह मुकाम नहीं दे पाया जिसके वे असल हकदार थे.

इतिहासकार राम सिंह अपनी पुस्तक राग-भाग काली कुमाऊं में जनश्रुति को आधार मानकर लिखते हैं कि बिसुंग के लोगों के स्वाभिमानी व विद्रोही तेवर को देखकर अंग्रेजों ने उनके गांवों को कई बार उजाड़ने की भरपूर कोशिसें करीं. बिसुंग के लोग अंग्रेजों से मुकाबला करने के लिए टनकपुर के उपर बस्तिया गांव तक जाया करते थे. अंग्रेजों की पकड़ से बचने के लिए बिसुंग के रणबांकुरे दिन में मायावती के जंगलों में रहते और रात होते ही अपने गांव लौट आते थे.
(Kalu Singh Mahara)

1857 के विद्रोह का असर हालांकि तत्कालीन उत्तराखण्ड में उस समय उतना सशक्त रूप में नहीं था लेकिन छुट-पुट तौर पर विद्रोह होने की आशंका बनी हुई थी. इसी वजह से कुमाऊं कमिश्नर रैमजे ने उस समय यहां मार्शल लॉ भी घोषित किया हुआ था. अगर कोई भी व्यक्ति विद्रोही बनने की चेष्टा करता या विद्रोहियों के प्रति सहानुभूति रखता था तो उसे जेलों में ठूंस दिया जाता अथवा गोली मार दी जाती. नैनीताल के फांसी गधेरे में बागियों को फांसी भी दी जाती. कालू महर व उसके विद्रोही साथियों के बारे में प्रो. शेखर पाठक, इतिहासकार, लिखते हैं ’’काली कुमाऊं के कुछ प्रभावशाली लोग विद्रोहियों के सम्पर्क में थे. विशेष रूप से बिसुंग पट्टी के मुखिया कालू मेहरा का विद्रोही फजलहक से सम्पर्क था… कदाचित सितम्बर 1857 में आनन्द सिंह फर्त्याल कालू महर, बिशना करायत, माधो सिंह, नूर सिंह तथा खुशा सिंह आदि उस समय भाबर थे. तभी बरमदेव थाने पर विद्रोहियों ने हमला किया था.  8 जनवरी 1858 की इस अधिसूचना के बाद कि सप्ताह भर के भीतर कुमाऊंवासी अपने घर लौट आयें, ज्यादातर लोग वापस आ गये. कालू महर विद्रोहियों के पास रहे और आनंद सिंह फ़र्त्याल तथा बिशना को गिरफ्तार कर फांसी दे दी गईं, कालू महर तथा अन्य लोगों पर राजद्रोह का अभियोग चलाया गया. कालू महर को अनेक जेलों में घुमाया भी गया. कदाचित बाद में उसे भी फांसी दे दी गई. हल्द्वानी, रुद्रपुर, कोटाबाग, कालाढूंगी में विद्रोहियों और कंपनी सेना का जोरदार संघर्ष हुआ.’’

अवध के नवाब वाजिदअली शाह की ओर से कालू महर को लिखे गए गुप्त पत्र का संदर्भ देते हुए बद्रीदत्त पाण्डे अपनी पुस्तक कुमाऊं का इतिहास में जिक्र करते हैं कि ’’कुमाऊं के लोग क्रान्ति में सम्मिलित होंगे तो उन्हें जितना धन मांगेंगे, दिया जायेगा और कुमाऊं प्रदेश पर कुमाऊं के लोगों का शासन रहेगा और मैदानी प्रदेश पर नवाब का. कालू महर ने अपने साथियों से गुप्त मंत्रणा कर यह आभास किया कि कुछ लोग नवाब के पक्ष में होंगे और कुछ कम्पनी सरकार के पक्ष में और जो धनराशि मिलेगी, उसे सभी लोग आपस में बांट लेगें. उक्त मंत्रणा के अनुसार कालू महर, आनंद सिंह फ़र्त्याल तथा विशन सिंह करायत लखनऊ में नवाब से मिलने चले गए. माधो सिंह फ़र्त्याल, नर सिंह लटवाल तथा खुशहाल सिंह आदि ने कम्पनी का पक्ष लिया.’’

जनश्रुति के आधार पर कुछ लोग कहते हैं कि जब कालू महर को अंग्रेजों ने मारने का आदेश दिया था तो वे नेपाल चले गए थे. उनके बारे में एक अन्य किंवदन्ती यह भी चली आई है कि जब कालू महर को कैद कर लिया गया था तब अल्मोड़ा के सामने की पहाड़ी पर स्थित ढौरा गांव में उन्हें छुड़ाने के लिए उनके कुछ साथियों ने अल्मोड़ा के जोशी लोगों से परामर्श लिया था और तय रणनीति के तहत ढौरा में रात में खूब मशालें जलाई गईं और बन्दूकों से हवाई फायर किये गये ताकि उस जगह पर एक बड़ी फौज होने की उपस्थिति का भ्रम हो सके. हकीकत में उनकी यह योजना कामयाब भी रही. अंग्रेजों ने सोचा कि कालू महर की सेना दलबल के साथ अल्मोड़ा की तरफ ही बढ़ रही है. उस समय अंग्रेज संख्या में कम थे सो भयभीत होकर उन्होंने कालू महर से समझौता करने का प्रस्ताव रख दिया था. काली कुमाऊं के लोग कहते हैं विद्रोह शान्त होने के बाद काल मारज्यू (कालू महर) कई सालों तक अपने गांव के घर पर ही रहे. स्थानीय किंवदन्ती के अनुसार कालू महर किसी समय अकूत सम्पति के मालिक थे उनके पास हल जोतने का फाल भी तब सोने का हुआ करता था. बाद में चोरों द्वारा उनके घर से सारा सामान चोरी कर लिए जाने से उनकी आर्थिक हालत बहुत कमजोर हो गई थी. ऐसी दशा में बिसुंग गांव के वासियों ने उनकी हर सम्भव सहायता कर उनके कष्टों को कम करने की भरपूर कोशिस भी की थी (राम सिंह, राग-भाग, काली कुमाऊं).
(Kalu Singh Mahara)

 कालू महर के जीवन, व्यक्तित्व के और स्वाधीनता संग्राम में उनके दिये योगदान से जुड़े जन इतिहास को एकत्रित करने, प्रकाशित व अप्रकाशित दस्तावेजों, पुस्तकों आदि के संग्रहण, डॉक्युमेंट्री निर्माण, तथा अध्ययन पर खेतीखान (लोहाघाट) के सामाजिक अध्येता देवेन्द्र ओली विगत कई सालों से काम कर रहे हैं. देवेन्द्र ओली का कहना है कि आज से लगभग बीस साल पहले कालू महर से सम्बन्धित कोई भी चित्र उपलब्ध नहीं था सो उन्होनें उनका रेखाचित्र बनवाने की योजना सोची. प्रारम्भ में इस कार्य में तमाम कठिनाईयां भी आईं. अन्ततः किसी तरह गांव में रह रहे कालू महर की तीसरी पीढ़ी के वंशजों की मुखाकृति को ध्यान में रखकर अलग-अलग चित्रकारों की मदद से उनके काल्पनिक रेखाचित्र तैयार करवाने में वे सफल रहे. आखिर में प्रतीकात्मक चित्र के तौर पर उनका एक रेखाचित्र फाइनल किया गया. देवेन्द्र ओली अपने निजी प्रयासों से कालू महर के इस चित्रों की प्रतियां उत्तराखण्ड सरकार व केन्द्रीय सरकार में आसीन उच्च पदस्थ लोगों को भेंट भी कर चुके हैं. दिल्ली के वरिष्ठ लेखक,पत्रकार चारु तिवारी के अनुसार कालू महर पर ‘क्रियेटिव उत्तराखण्ड-म्यर पहाड़’ की ओर से एक पोस्टर भी जारी किया गया है.

कालू महर का रेखाचित्र. सौजन्य: देवेंद्र ओली

निश्चित तौर पर कालू महर उनके अन्य साथियों की शौर्यता व वीरता को देखते हुए उत्तराखण्ड के स्वाधीनता संग्राम के आन्दोलन में प्रथम क्रांन्तिकारी सेनानी होने का खिताब हासिल है पर अभी भी उन पर गहन शोध व अध्ययन करने की महति जरुरत दिखाई देती है. इसके लिए सामाजिक अध्येताओं ,इतिहासकारों, स्थानीय लोगों तथा प्रशासन व सरकार में बैठे लोगों को इस दिशा में साथर्क पहल करनी होगी. विद्यालयों और उच्च शैक्षिक संस्थानों के पाठ्यक्रमों में भी कालू महर के जीवन तथा स्वाधीनता संग्राम से जुड़े प्रसंगों को शामिल करने के प्रयासों से भी कहीं-न-कहीं नई पीढ़ी को ऐतिहासिक जानकारी प्राप्त हो सकेगी.
(Kalu Singh Mahara)

-चन्द्रशेखर तिवारी

नोट: उच्चारण के आधार पर कालू महर को कालू महरा और कालू मेहरा भी लिखा जाता है.

सन्दर्भ

1.सर फरोशी की तमन्ना- डॉ. शेखर पाठक
2.राग-भाग, काली कुमाऊं- राम सिंह
3.कुमाऊं का इतिहास – बद्री दत्त पांडे
4.स्वतंत्रता आन्दोलन तथा स्वातंत्र्योत्तर उत्तराखंड – मदन मोहन करगेती
5.उत्तराखंड के प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी- डॉ. धर्मपाल मनराल/ डॉ. अरुण मित्तल
6.कालू महर का रेखाचित्र- सौजन्य देवेंद्र ओली

अल्मोड़ा के निकट कांडे (सत्राली) गाँव में जन्मे चन्द्रशेखर तिवारी पहाड़ के विकास व नियोजन, पर्यावरण तथा संस्कृति विषयों पर सतत लेखन करते हैं. आकाशवाणी व दूरदर्शन के नियमित वार्ताकार चन्द्रशेखर तिवारी की कुमायूं अंचल में रामलीला (संपादित), हिमालय के गावों में और उत्तराखंड : होली के लोक रंग पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं. वर्तमान में दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र में रिसर्च एसोसिएट के पद पर हैं. संपर्क: 9410919938

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इसे भी पढ़ें: कुमाऊं का स्वतंत्रता संग्राम

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