पिथौरागढ़ की रामलीला में सबसे लंबे समय तक एक ही पात्र का अभिनय करने का कीर्तिमान संभवतः कल्लू चाचा उर्फ़ खुदाबख्श के नाम होगा. कल्लू चाचा ने किशोरावस्था से बुढ़ापे तक एक ही पात्र किया – शूर्पणखा का.
गोश्त का कारोबार करने वाले खुदाबख्श की दुकान चंचल सिंह बिष्ट मालदार के यहां किराए में थी. खुदाबख्श की आर्थिक तंगहाली से सभी वाकिफ़ थे. तंगहाली का हाल कुछ यूं था कि वह तय किया गया मासिक किराया नियमित रूप से नहीं चुका पाते थे.
चंचल सिंह बिष्ट कभी रामलीला देखने आयें या न आयें शूर्पणखा प्रसंग की रात जरूर आते थे. कल्लू चाचा का एक साल के किराये का हिसाब मुनीम से जुड़ाकर जितनी भी राशि बकाया होती उतनी राशि का पुरस्कार कल्लू चाचा के नाम घोषित करते.
हर साल रामलीला में शूर्पणखा प्रसंग की रात के बाद कल्लू चाचा और चंचल सिंह बिष्ट के लेन-देन का नया वित्तीय वर्ष चालू होता. कल्लू चाचा और चंचल सिंह मालदार के बीच यह सिलसिला तब तक चलता रहा जब तक कल्लू चाचा शूर्पणखा का किरदार निभाते रहे.
खुदाबख्श के जीवन से जुड़ा एक बड़ा मार्मिक प्रसंग कुछ यूं है –
एकबार रामलीला के कुछ दिनों पहले ही कल्लू चाचा के परिवार में किसी की मृत्यु हो गई. स्वाभाविक ही मान लिया गया कि गमी के इस माहौल में कल्लू चाचा चालीसवें से पहले शूर्पणखा का किरदार नहीं निभा पायेंगे.
कल्लू चाचा यूं भी कभी तालीम में आते नहीं थे सो दूसरे कलाकार को इस कार्य के लिये तैयार किया गया. ठीक शूर्पणखा वाले प्रसंग की रात कल्लू चाचा रामलीला पधारे.
दुविधा की स्थिति में बड़े असमंजस में उन्हें पूरी बात बताई गयी. कल्लू चाचा टस से मस नहीं हुए और बोले रामकाज में कोई चीज आड़े नहीं आ सकती और कल्लू चाचा शूर्पणखा का किरदार निभा कर ही माने.
कल्लू चाचा के साथ सालों तक शूर्पणखा के मशालची मसीह समुदाय के मिस्टर चीम रहे. मिस्टर चिम गैस की बत्तियों के काम में लच्छी मिस्त्री का हाथ बटाया करते थे.
यह लेख पहाड़ पत्रिका के पिथौरागढ़-चम्पावत अंक में छपे महेंद्र सिंह मटियानी के लेख का अंश है. काफल ट्री ने पहाड़ पत्रिका के पिथौरागढ़-चम्पावत अंक से यह लेख साभार लिया है.
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मेरे स्वर्गीय मौसा शेख ज़मीर बख्श के पिता जी थे स्वर्गीय ख़ुदा बख़्श उर्फ़ कल्लू चाचा उर्फ़ सोर वाले चच्चा (य आखिर वाल नामल मेरि इज उनर जिकर करछी ) शूर्पणखा की शानदार भूमिका अदा करते थे पिथौरागढ़ सदर की रामलीला में। उस बिजली नहीं थी लेकिन रामलीला रातभर होती थी। अहमद बख्श पेशावर से आकर रामलीला में सितार बजाते थे। हिन्दू-मुस्लिम एकता रामलीला के साथ-साथ मुहर्रम में भी दिखाई देती थी। मेरे मौसा संगीत कलाकार थे जिनका हारमोनियम-बेंजो-तबला होली की बैठकों से लेकर रामलीला के मंच तक सुना जाता और सराहा जाता था। आज की नई पीढ़ी को यह एक काल्पनिक कहानी लग सकती है इस सच्चाई को उजागर करने वाले बहुत कम बुजुर्ग अब इस दुनिया में हैं।