प्रसिद्ध समाज सुधारक हरिप्रसाद टम्टा ने सन् 1935 में लिखा कि ‘सन् 1911 में जार्ज पंचम के अल्मोड़ा आगमन पर आयोजित समारोह में उन्हें और अन्य शिल्पकारों को शामिल नहीं होने दिया गया था. मुझे अब तक याद है कि लोगों ने यहां तक कह दिया था कि अगर मुझ जैसे दरबार में शामिल होंगे तो बलवा हो जायेगा… इन्हीं बातों के बदौलत मेरे दिल में इस बात की लौ लगी थी कि मैं अपने भाईयों को दुनिया की नजरों में इतना ऊंचा उठा दूंगा कि लोग उन्हें हिकारत की निगाहों से नहीं बल्कि मुहब्बत और बराबरी की नजरों से देखेंगे…’
(कुमाऊं में शिल्पकार आन्दोलन की झलक, डॉ. मुहम्मद अनवर अन्सारी, पहाड़-4, पृष्ठ-214-217, सन् 1989)
Kafalta Massacre
उत्तराखंड में आजादी से पूर्व मुंशी हरि प्रसाद टम्टा, खुशीराम आर्य, बलदेव आर्य से लेकर जयानंद भारती जैसे कई अन्य व्यक्तित्वों ने शिल्पकार वर्ग में सामाजिक चेतना को उभारने के सार्थक प्रयास किए. परन्तु यह खेदजनक स्थिति है कि उत्तराखंड में सामाजिक भेदभाव का यह सिलसिला आज भी बदस्तूर जारी है. मसलन, अस्सी के दशक तक शिल्पकार बन्धुओं की बारातों पर सवर्णों के आक्रमणों की घटनायें यदा-कदा सुनाई देती रही हैं. इसका सबसे भयानक रूप सन् 1980 में कफल्टा गांव में देखने को मिला था.
अल्मोड़ा जनपद के कफल्टा गांव में 9 मई, 1980 को विवाह समारोह में घटित संघर्ष में 15 लोग मारे गए थे. इस वीभत्स घटना पर डॉ. शेखर पाठक ने अपनी रिर्पोट में लिखा कि ‘पहाड़ में फिर आदमी मारे गये हैं. पर पहाड़ के टूटने-रगड़ने, सरकारी गोली चलने या मोटर दुर्घटना के कारण नहीं. इस बार पहाड़ के एक गरीब हिस्से ने इसके दूसरे हिस्से को मारा है. एक हिस्से के पास परम्परा की कट्टरता थी और दूसरे हिस्से के पास इसे तोड़ने का इरादा. परिणाम किसी के पक्ष में नहीं गया. दोनों पक्षों की पराजय हुयी क्योंकि फिर एक बार पहाड़ ने अपने आप पर हमला किया है.’
(कफल्टा कांडः दमितों का दमन, डॉ. शेखर पाठक, नैनीताल समाचारः पच्चीस साल का सफर, पृष्ठ-208-212, वर्ष-2003)
Kafalta Massacre
विगत वर्ष टिहरी गढ़वाल के श्रीकोट गांव में 26 अप्रैल, 2019 को फिर विवाह समारोह में हुये हत्याकांड ने हम सबको स्तब्ध कर दिया है. मित्र जबर सिंह वर्मा ने इस जघन्य घटना पर बहुत ही सार्थक लिखा कि ‘आखिर पढ़े-लिखे होने के बावजूद भी हम सच को स्वीकार करने और उसका सामना करने को तैयार क्यों नहीं हो पा रहे हैं? यह मनुवादी जाति व्यवस्था न तो आज के किसी सवर्ण ने बनाई, न ही आज के किसी दलित ने अपने सिर पर रखकर उसे स्वीकारी है. जब हम इस व्यवस्था को पैदा करने के लिए ही जिम्मेदार नहीं हैं तो इसे बनाए रखने को क्यों जिम्मेदार बने? वो भी तब, जबकि इससे देश और समाज का बुरा हो रहा है. इसलिए इसे पुरखों से विरासत में मिली बुरी परंपरा के तौर पर स्वीकार कर इसके खात्मे के लिए आज के पढ़े-लिखे समाज को आगे आना चाहिए. ठीक उसी तरह जैसे सती प्रथा, विधवा विवाह, बलि प्रथा, पर्दा प्रथा जैसी पुरानी बहुत सी परंपराएं थी. समय के साथ उनके दुष्परिणामों को आमजन ने स्वीकारते हुए उन्हें खत्म कर दिया था.’
(जबर सिंह वर्मा, फेसबुक पोस्ट, 8 मई, 2019)
वास्तविकता यह है कि उत्तराखंड के ग्रामीण क्षेत्रों में सवर्ण अपने जातीय अहम और अहंकार से अभी भी लबालब हैं. आज के दौर में सवर्णों में उपजी शिथिलता, अकर्मण्यता और उनके लिए घटते रोजगार का एक प्रमुख कारण वे सीधे तौर पर शिल्पकार वर्ग को दिए जाने वाले आरक्षण को मान रहे हैं.
निःसंदेह शिल्पकार वर्ग की ग्रामीण युवा पीढ़ी सवर्णों के बच्चों के मुकाबले शिक्षा प्राप्त करने में पठन-पाठन में अच्छा प्रर्दशन कर रही है. सरकारी के साथ निजी क्षेत्र में रोजगार हासिल करने में युवा शिल्पकार अन्य के मुकाबले बेहतर स्थिति में है. नतीजन, उनकी आर्थिक स्थिति सुदृढ़ हुई है. परन्तु सवर्णों की जातीय मानसिकता के चलते वे चाह कर भी वापस गांवों में नहीं बसना चाहते हैं. शिल्पकार वर्ग के वापस अपने गांव न बसने का एक प्रमुख कारण यह भी है. शिल्पकार वर्ग के गांवों से पलायन को तेजी से खाली और वीरान होते उनके पहाड़ी पैतृक घरों से इस तथ्य को भली-भांति समझा जा सकता है.
Kafalta Massacre
यह अच्छी तरह समझा जाना चाहिए कि हजारों सालों से लेकर आज तक उत्तराखंड के ग्रामीण समाज की सामाजिकता और आर्थिकी को जीवंत करने में शिल्पकार बन्धुओं की प्रमुख भूमिका रही है. आज भी जो कुछ लोक का तत्व हमारे पहाड़ी समाज में दिखाई और सुनाई दे रहा है उसका मुख्य संवाहक शिल्पकार वर्ग ही है.
उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दौर में शिल्पकार वर्ग की उपेक्षा करके वे अनजाने में ही सही पहाड़ी विचारधारा से किसी हद तक दूर जरूर हुए हैं. परन्तु अभी भी वक्त है पहाड़ी जन-जीवन की पैतृक सामाजिक समरसता और सादगी के प्रवाह को हम नई पीढ़ी की ओर निरंतर और निर्बाध रूप में बहने दें. इसके लिए जाति की जड़ता जाये तो उसके जाने का जश्न मनायें. ताकि हमारी नई पीढ़ी जाति के दायरे से बाहर निकल सके. और ऐसे पहाड़ी समाज को विकसित करें जिसमें जाति से बजाय अपने जम़ीर से लोग अनुशासित और आनंदित होना सीख सकें. इसमें ही हम-सबकी भलाई और खुशहाल भविष्य सुरक्षित है.
Kafalta Massacre
(वरिष्ठ पत्रकार व संस्कृतिकर्मी अरुण कुकसाल का यह लेख उनकी अनुमति से उनकी फेसबुक वॉल से लिया गया है)
काफल ट्री के फेसबुक पेज को लाइक करें : Kafal Tree Online
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में आज से कोई 120…
उत्तराखंड के सीमान्त जिले पिथौरागढ़ के छोटे से गाँव बुंगाछीना के कर्नल रजनीश जोशी ने…
(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में…
पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…
आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…
“भोर के उजाले में मैंने देखा कि हमारी खाइयां कितनी जर्जर स्थिति में हैं. पिछली…
View Comments
ये अरुण कुकसाल और मुहम्मद अनवर अंसारी उत्तराखंड को कितना जानते हैं ? अब उत्तराखंड के बारे में बाहरी लोग बतायेंगे कि उत्तराखंड में सामाजिक समरसता का क्या स्तर हैं ?
पूरी तरह गलत इनको उत्तराखंड का ज्ञान नहीं है
ये लोग गलत गलत लिख कर पहाड़ के लोगों को बदनाम कर रहे है, मुहम्मद अनवर अंसारी, क्या ये पहाड़ का ठेकेदार है। जाके अपने धर्म के बारे में लिखे की हर आतंकवादी इनके ही धर्म का क्यों है कैसे पूरा विश्व इनसे परेशान है। हर तरफ जिहाद ने नाम पर गुंडागर्दी, आतंकवाद फैला रहे है। पहाड़ के सीधे लोगों का फायदा उठा कर वहां पर गन्द फैला रहे है। पहाड़ के लोगों की ईमानदारी, सच्चेपन की हर जगह मिसाल है मगर इन पर हर जगह थू थू हो रही है, समाज बढ़ाने में कोई योगदान नही मगर देश द्रोह, आतंकवाद, और हर देशविरोधी गतिविधियों में ये शामिल है
सवर्ण और शिल्पकारों के बीच खाई खोदने का बेहतरीन प्रयास! पच्चीस साल पहले मैं मेरा शिल्पकार दोस्त एक बिस्तर पर सोते थे, खाना पीना साथ बैठ कर होता था। लड़ाई झगड़ा लड़कपन पर आधारित था न कि जातिवाद पर।
मुझे याद है बचपन में जब में नाना नानी के गांव जाता था तो कुछ जातियों के लोग जब घर आते थे तो उनके साथ बात चीत तो बड़े अच्छे ढंग से होती थी पर उनके बैठने के स्थान ,उनके खाने के बर्तन अलग होते थे।
शिल्पकार जाति से जातिये परहेज जेसा पूर्व मे था वेसा ही आज भी है पर्वतिये स्थानो के मंदिरो मे इनका प्रवेश वार्जित है, जब की गौ मास खाने वाले विदेशीयो का अभिनन्दन मंदिरो मे ओर अपने घरो मे स्वर्ण जातियो के लोग लालच पूर्व करते है l
भगवान बद्रीनाथ मंदिर के संरक्षक साऊथ साइड के है नहीं तो शिल्पकार जाति के लोगो का प्रवेश वहां भी वार्जित हो जाता यह बिलकुल सत्य है l
अगर किसी को इसका बोध करना हो तो पर्वतिये स्थान मे जा कर तसल्ली कर ल्वे
विरेंग्री आग्री
Y dono log apni apni roti dekh rahe h, badnam pahad ko kar rahe h, ab to Abdul Ansari hamari jamino k kabja karna chahte h, savdhan raho, ekjut raho, jai uttarakhand jai bharat
इस तरह के लेख सामाजिक दूरी बनते है , ये बिल्कुल ग़लत विचारधारा और संकीर्ण मानसिकता का परिचय देते हैं