भैरव शिव के उग्र रूप हैं. पशुपतिनाथ मंदिर, काठमांडू में भैरव के दो स्वरूपों उन्मुक्त भैरव व कीर्तिमुख भैरव के मुख्य दर्शन होते है. नेपाल की समृद्ध धरा शिव भूमि वर्णित है. वह जितनी मनमोहक दृश्यावलियों, हिम श्रृंखलाओं, अनगिनत वेगवान नदियों व सरस सलिल सरिताओं के निनाद से युक्त है उतनी ही विकराल घाटियों, पठारों और वनस्पति विहीन उच्च चट्टानों व शिखरों से भयाक्रांत करने वाली भी. ऐसी धरा में शिववास की संकल्पना उसके विविध स्वरूपों की पूजा-अर्चना के विधान से सम्बद्ध रही है.
(Kaal Bhairav Jayanti 2022)
पशुपतिनाथ के भैरव स्वरुपों में “उन्मत्त भैरव” व “कीर्तिमुख भैरव” के प्रति जनसमुदाय की आस्था व लोक विश्वास की भावना अनुकूलतम है. नेपाल के आराध्य देव पशुपति हैं मान्यता है कि नेपाल की उत्पति के साथ पशुपतिनाथ स्वरूप अवतरित हुआ. स्कन्दपुराण के हिमवत्खण्ड में नेपाल के वर्णन के साथ पशुपतिनाथ का महिमागान किया गया है. यहाँ शिव को किरातेश्वर रूप में पूजा जाता है. शिव यहां किरातेश्वर रूप धारण कर विचरण करते रहे. पशुपतिनाथ मंदिर के पूर्व में मृगस्थलीमा किरातेश्वर का अस्तित्व रहा.
शिव के संग उनका कुटुंब भी बड़ा हुआ. अर्धांगिनी उमा या पार्वती तथा उनके दोनों पुत्र रूपों में गणेश या विनायक तथा स्कन्द या कुमार हुए. कुमार की शक्ति कौमारी तथा गणेश की शक्ति रिद्धि-सिद्धि के साथ में उनका वाहन नंदी, त्यसपद्दि उदरमुख, बांदरमुख, भृंगी, चंद्र, महाकाल, कपर्दी, सोम व शुक्र के साथ विरभद्र व कीर्तिमुख शिव परिवार की पांत में हुए तो शिव के गण रूप में मान्य सभी देव, अर्धदेव, जीव व पशु भी इसी परिवार के हुए. इनमें सभी दिक्पाल, भूत-प्रेत-पिशाच, दानव, यक्ष, गन्धर्व व किन्नर अभिन्न संगी हुए. शिव ही हुए सभी प्राणियों के देव कि जिसने उनकी चाह की,उसे उन्होंने तुरंत अपने सेवक-सहचर-गण के रूप में अपनाया. इसी लिए शिव परिवार खूब बड़ा-ठुला हुआ तो शिवाले में भी सबकी उपस्थिति हुई.
शिवजू का भूत-प्रेत-पिशाच गण का मुखिया या प्रमुख चंडेश्वर हुआ इसीलिए शिवलिंग में अर्पित प्रसाद का पहला भाग भी उसका हुआ. मान्यता है कि शास्त्र सम्मत मुहूर्त में भैरव का ध्यान कर शिव पूजा हो तो सब विघ्न बाधा कट आरोग्य सिद्धि प्राप्त होती है. कीर्तिमुख के सम्मुख भक्तजन नरिबल फुटाएर यानि नारियल फोड़ इसका जल छिड़कते हैं.
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पशुपतिनाथ के महा स्नान और महाभोग के अवसर पर प्रत्येक पूर्णिमा के दिन भैरव के सम्मुख काले बोका यानी बकरे की बलि का विधान है. पहले कीर्तिमुख भैरब को भोग अर्पित होता है जिसके उपरांत ही पशुपतिनाथ को महाभोग लगाने की परम्परा है.
अष्टमी विशेष में फाल्गुन शुक्ल अष्ट्मी, मार्ग शुक्ल अष्टमी व चैत्र शुक्ल अष्टमी के साथ शिवि रात्री के दिन पहले कीर्तिमुख को पशुबलि सहित पूजा देने की परम्परा चली आ रही है. कीर्तिमुख पशुपतिनाथ के रौद्र स्वरूप हैं. प्रत्येक शनीचर वार को कीर्तिमुख के सम्मुख विराजे पशुपतिनाथ की ओर पंचमकार पूजा करने का विधान है. शनिवार के दिन की जाने वाली पूजा में दही, चिवड़ा, तिल व मलाई अर्पण करने का विधान है.
पशुपतिनाथ के मंदिर प्रांगण में भैरव की मूर्ति शिला रूप में स्थापित है. इस समूचे परिसर में भैरव के दो स्वरूप विद्यमान हैं. इनमें से पहला पशुपतिनाथ मंदिर की मुख्य परिधि में दक्षिण दिशा की ओर है जिसे उन्मत्त भैरव कहा जाता है तथा दूसरे हैं कीर्तिमुख भैरव जिनके शिर का भाग यहां स्थित है. भैरव के उग्र-तांत्रिक रूप इन मूर्तियों में निहित हैं.
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उन्मुक्त भैरव का मंदिर पशुपतिनाथ मंदिर की दक्षिणी दिशा में सीधे आगे पड़ता है. इस मंदिर के दो तल हैं. विक्रमी संवत 1525 में पशुपतिनाथ के तात्कालिक पुजारी पंडित श्री नारायण भट्ट नै उन्मत्त भैरव की इस धातु प्रतिमा की विधिपूर्वक स्थापना आरम्भ की. विक्रमी संवत 1527 तक इस मंदिर की सज्जा पूर्ण रूप से संपन्न हो गई थी मंदिर के भीतर उन्मत्त भैरव की प्राण प्रतिष्ठा हुई. इस मूर्ति के निर्माण में धातु पत्रों का प्रयोग किया गया किन्तु पश्चिम दिशा की ओर इनके अलंकरण में यह अंतर रखा गया कि इस दिशा के हिस्से में उन्मत्त भैरव निर्वस्त्र रहें.
पशुपतिनाथ का दक्षिण मुख अघोर है जो ज्यादा भयावह रूप में दिखाई देता है. इसी मुख के आगे लगभग आठ फिट की दूरी पर उन्मत्त भैरव की मूर्ति स्थापित है. पीतल के पत्रों से बनी यह प्रतिमा अपने स्वरूप में बेताल माथि या श्वास नमा रूप में बनी. इसके हाथों में खड़ग, डमरू, कर्त, नागपास, त्रिशूल सहित खाटवाङ्ग, नरमुंड व कपाल पात्र हैं. संहार को तत्पर उन्मत्त भैरव की इस छवि का सम्मिलत प्रभाव भय व रोमांच उत्पन्न करता है तो भक्त जन आश्वस्त रहते हैं कि आसुरी विकार के समूल मर्दन को उन्मत्त भैरव सदैव जाग्रत रहते हैं.
पशुपतिनाथ के दर्शनीय स्वरूप में कीर्तिमुख भैरव हैं. पशुपतिनाथ मंदिर के दक्षिण पूर्व प्रांगण में कीर्तिमुख भैरव के शिर स्थापित हैं जिनकी मुखाकृति शोभनीय है. कीर्तिमुख भैरव की “ठुला आँखा” अर्थात बड़े-बड़े नयन हैं, “फुकेको नाक” अर्थात ऊपर को आई नाख के साथ ओठ रहित स्वरूप का मात्र ऊपरी अर्थात सिर की भव्य प्रतिमा है, शरीर का शेष भाग नहीं.इस स्वरूप के धारण की कथा पद्मपुराण में वर्णित है.
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जालान्धर नामक दैत्य माता पार्वती के अप्रतिम सौंदर्य से सम्मोहित हो गया.उस मोहिनी स्वरूप से वह ऐसा वशीभूत हुआ कि अब वह यह निर्णय कर बैठा कि वह इस अपूर्व रुपमती का वरण करेगा. उसका घनिष्ठ मित्र हुआ राहु. अपने ह्रदय की बात राहु को बता उसने अपने मंतव्य को पूर्ण करने हेतु सहायता व युक्ति चाही. राहु ने मित्रता का निर्वाह कर माता पार्वती के सम्मुख जा उनसे शिव जी के औघड़ रूप, उनके फक्कड़पन व सुख सुविधा से परे रह अपनी मस्ती में रहने का व्यंग किया. राहु बोला कि शिव तो खुद विरक्त हैं व आप जैसी सुंदरी को भी समस्त सुख -सुविधाओं से दूर किये हुए हैं. जालां धर के पास सब कुछ भोग – विलास है. हर कामना को पूर्ण करने की अभिलाषा है.
माता पार्वती ने शिवजी को राहु का कहा सुनाया. सब सुन कर शिव जी की रीस बढ़ती गई क्रोध पराकाष्ठा पर जा पहुंचा और तब उनका तीसरा नेत्र खुला जिसमें से एक विशाल पुरुष भैरव का उदय हुआ. शिव के त्रिनेत्र से प्रकट भैरव ने राहु को खा जाने के लिए हुंकार भरी. अब राहु भागा. भैरव ने उसी वेग-आवेग में राहु को ऐसा भयभीत किया, चारों दिशाओं से घेर हैरान-परेशान किया कि राहु समझ गया कि उसकी अधोगति आ ही गई. अंततः अपनी प्राण रक्षा के लिए राहु शिव जी के चरणों में गिर पड़ा. लाचार-कातर राहु क्षमा मांगने लगा कि जालान्धर के बहकावे में आ उससे अक्षम्य अपराध हो गया. बुद्धि भ्रष्ट हो गई. खूब रोया गिड़गिड़ाया. अब शिव तो हुए औघड़दानी. कहा, चल तुझे माफ़ किया.
शिव के त्रिनेत्र से जो भैरव उत्पन्न हुआ था वह कहाँ शांत होता. अब उसने जिद पकड़ ली कि राहु को तो वह खायेगा ही. उसे खाये बिना चैन न लेगा, हुआ तो वह शिव से ही निकला शिव जी ने कहा भी कि राहु को उन्होंने उसकी भूल के लिए जीवन दान दे दिया है सो अब तू भी अपनी जिद छोड़ और इसे माफ कर. पर कहाँ क्रोध से भनभनाता भैरव अपने ही आंग को खाने लगा और गर्दन तक का भाग खा गया.शिवजी उसके इस कृत्य को देख विस्मित हुए. शांत हो के निर्देश के बाद उसे वरदान दिया और कहा कि तूने मेरे लिए अपनी सेवा भावना बनाये रखी, स्वामि भक्ति की कीर्ति पताका लहराई इसलिए अब तुझे सब कीर्तिमुख कहेँगे. अब से तू मेरे आग्नेय कोण का रक्षक हुआ. मेरे समीप ही रहेगा.
(Kaal Bhairav Jayanti 2022)
इसी वृतांत के आधार पर पशुपतिनाथ में रक्षक के रूप में कीर्तिमुख की स्थापना की गई. शिवपुराण में कीर्तिमुख की उत्पत्ति की इसी कथा का वर्णन किया गया है. शिव के इस भैरव की इतनी मान्यता हुई कि मात्र कीर्तिमुख के दर्शन से ही पशुपतिनाथ की कृपा प्राप्त होने का अधिमान स्थापित हुआ. काठमांडू नेपाल में मुख्य मंदिर परिसर में स्थापित कीर्तिमुख की धातु से बनी यह मूर्ति बारह सौ वर्ष पूर्व की बनी बताई जाती है.
पशुपतिनाथ मंदिर के साथ भैरव के स्वरूपों में काल भैरव हनुमान ढोका, काठमांडू में विराजे हैं तो हलचौक में आकाश भैरव जिन्हें सव भकुदेव या बांग ड्या कहा जाता है. इन्द्र चौक, काठमांडू में हाथा या श्वेत भैरव हैं तो शांत भैरव या लाकेड्या मजिपाठ में. कीर्तिपुर में बाघ भैरव है तो बूंगामती ललितपुर का हयाग्रीव भैरव. ज्ञानेश्वर में आनंद भैरव हैं तो टुडिखेल का महा अंगकाल भैरव. टेकु में पछली भैरव के साथ मचाली भैरव विराजे हैं. लीली ललितपुर में टीका भैरव हैं तो बटुक यानी छोटे भैरव.
भैरव मंदिरों की प्रधानता जिस तरह नेपाल में काठमांडू पशुपतिनाथ में दिखाई देती है उसी प्रकार उत्तराखंड की सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा में इनके विविध स्वरूप अष्ट भैरव के स्वरूप में विद्यमान हैं.इनमें पांडे खोला का खुटकुनिया भैरों,खजाँची मोहल्ले का काल भैरव, पुलिस लाइन के पास का बटुक भैरव, कैलाश होटल के पास का शंकर भैरव, बस स्टेशन के पास बाल भैरव, माल रोड के समीप शैव भैरव, नारायण तेवाड़ी दीवाल के समीप वन भैरव व नन्दा देवी मंदिर के पास लाडला या लाल भैरव स्थापित हैं.
महादेव के रूद्र रूप ‘काल भैरव’ हैं. शिव के रक्त से उत्पन्न काल भैरव को तंत्र का देव कहा गया जो भूत, प्रेत, पिशाच, कोटरा, पूतना व रेवती जैसे शिव के गणों के अधिनायक हुए. ईश्वर की उपासना के समस्त साधन ही तंत्र हैं जिसका अभिप्राय है विस्तार पूर्वक तत्व को अपने अधीन करना. इसी कारण जिस विधि से विस्तारपूर्वक मंत्रार्थो-अनुष्ठानों का विचार ज्ञात हो व जिसका अनुसरण करते कर्म हो, समस्या का समाधान हो, वही तंत्र है. वाममार्ग में पंचमकार अर्थात- मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा व मैथुन द्वारा साधना की जाती है. तांत्रिक साधना के पांचो अंगों पटल, पद्धति, कवच, सहस्त्रनाम और स्त्रोत से परिपूर्ण शास्त्र ही तंत्र शास्त्र कहलाता है. तंत्र-मन्त्र साधकोँ हेतु महादेव के रूद्र रूप भैरव की उपासना का यही निहितार्थ है.
(Kaal Bhairav Jayanti 2022)
जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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