आखिरकार 1895 में पेरिस के लुमिये भाइयों द्वारा आविष्कृत सिनेमा का माध्यम मूलत दृश्यों और ध्वनियों के मेल का ऐसा धोखा है जो अँधेरे में दिखाए जाने के बाद हर किसी को अपने सम्मोहन में कैद कर लेता है. इसी वजह से जब शुरू–शुरू में लोगों ने परदे पर चलती हुई रेलगाड़ी देखी तो वो डर गए. इस डरने या चमत्कृत होने का दोहन भविष्य के फिल्मकारों ने बार –बार किया.
अँधेरा होने पर बड़े परदे पर अपने जीवन की कहानी को फिर से देखना एक ऐसा अनुभव था जिसका आस्वाद एकदम अलहदा था. संवाद होने की वजह से यह नाटक के प्रभाव को तो समाहित करता था लेकिन सिर्फ नाटक नहीं था. ऐसा ही संगीत के होने की वजह से यह संगीत भी था लेकिन सिर्फ संगीत नहीं.
तब सिनेमा क्या था जो अपने जन्म के 120 साल बाद भी प्रासंगिक बना हुआ है? सिनेमा दरअसल शुद्ध तौर पर दृश्यों और ध्वनियों के मेल से बना एक ऐसा अद्भुत कला रूप है जो बड़े परदे पर अँधेरे में चमकने पर एक सर्वथा नया अनुभव प्रदान करता है.
इसकी अँधेरे में चमक और परदे की विशालता से आकृष्ट होकर कई सिनेकारों ने दृश्यों और ध्वनियों के मेल के कई प्रयोग किये. कई कलाकारों ने अपने मनमाफिक मेल को हासिल करने के लिये अद्भुत धैर्य और प्रतिभा का परिचय भी दिया. विश्व सिनेमा के इतिहास में इस मेल का एक बेहतरीन नमूना है सत्यजित राय द्वारा निर्देशित फिल्म ‘पथेर पांचाली’ का रेलगाड़ी वाला दृश्य.
यह जानना रोचक होगा कि क्या विभूति बाबू ने भी अपने उपन्यास में रेलगाड़ी के दृश्य को उतना ही महत्व दिया था जितना मानिक दा (सत्यजित राय का घरेलू नाम) देने के कारण अपनी नौकरी से मिलने वाली साप्ताहिक छुट्टी में कांस के खेत में पागल कलाकार की तरह रेल के दृश्य को कैद करने के लिए पूरे साल इन्तजार करते रहे. इस विख्यात दृश्य को सत्यजित बाबू को कांस के खेतों के बैकग्राउंड में फिल्माना था क्योंकि श्वेत–श्याम रंग योजना में कांस का सफ़ेद रंग बहुत सटीक था और जब आखिरकार यह फिल्मा लिया गया तब गाढ़े सफ़ेद फूलों के बैकग्राउंड में खूब घना काला धुंआ उड़ाती रेलगाड़ी को देखना किसी को भी अजीब रहस्य में उलझा देता है.
शायद अपनी फिल्म में इस दृश्य को वे इसी लिए इतना महत्व दे रहे थे ताकि आने वाली पीढ़ियाँ सिनेमा के असल मजे का आनंद ले सकें. पहली बार जब वे इस दृश्य योजना को अधूरा फिल्माकर दूसरे सप्ताहांत फिर से छायांकन के लिए लौटे उनके दुर्भाग्य से कांस के फूलों के मीठेपन के कारण जानवर उस भूदृश्य के महत्वपूर्ण कारक कांस के फूलों को पूरा चट कर चुके थे और फिर अगली बरसात के लिए मानिक दा ने पूरे एक साल का इंतज़ार किया.
संजय जोशी पिछले तकरीबन दो दशकों से बेहतर सिनेमा के प्रचार-प्रसार के लिए प्रयत्नरत हैं. उनकी संस्था ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ पारम्परिक सिनेमाई कुलीनता के विरोध में उठने वाली एक अनूठी आवाज़ है जिसने फिल्म समारोहों को महानगरों की चकाचौंध से दूर छोटे-छोटे कस्बों तक पहुंचा दिया है. इसके अलावा संजय साहित्यिक प्रकाशन नवारुण के भी कर्ताधर्ता हैं.
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