गढ़वाल हिमालय का गजेटियर लिखने वाले अंग्रेज़ आईसीएस अफसर एचजी वॉल्टन ने 1910 के जिस जोशीमठ का ज़िक्र किया है, वह थोड़े से मकानों, रैनबसेरों, मंदिरों और चौरस पत्थरों से बनाए गए नगर चौक वाला एक अधसोया-सा कस्बा है, जिसकी गलियों को व्यापार के मौसम में तिब्बत से व्यापार करने वाले व्यापारियों के याक और घोड़ों की घंटियाँ कभी-कभी गुंजाती होंगी. पुराने दिनों में इन व्यापारियों की आमदरफ़्त के चलते जोशीमठ एक संपन्न बाज़ार रहा होगा.
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अलबत्ता वॉल्टन के समय तक ये व्यापारी अपनी मंडियों को दक्षिण की तरफ यानी नंदप्रयाग और उससे भी आगे तक शिफ्ट कर चुके थे. वॉल्टन तिब्बत की ज्ञानिमा मंडी में, पीढ़ी-दर-पीढ़ी हर साल तिजारत के लिए जाने वाले उन भोटिया व्यापारियों की मंडियों के उन अवशेषों का भी ज़िक्र करते हैं, जो उन्होंने जोशीमठ में देखे थे. अलकनंदा नदी की ऊपरी उपत्यका में स्थित जोशीमठ की जनसंख्या 1872 में 455 थी, जो 1881 में बढ़कर 572 हो गई.
सितंबर 1900 में यह संख्या 468 गिनी गई लेकिन उस बार की जनगणना के समय बद्रीनाथ के रावल और अन्य कर्मचारी यहाँ उपस्थित नहीं थे. ये अनुपस्थित लोग तीर्थयात्रा के सीजन में यानी नवंबर से मध्य मई के दौरान बद्रीनाथ मंदिर में रह कर श्रद्धालुओं के रहने-खाने और पूजा-पाठ का इंतजाम किया करते थे.
जाड़े के मौसम में उन्हें जोशीमठ आना पड़ता, क्योंकि उन दिनों बद्रीनाथ धाम बर्फ के नीचे दब जाता है और कपाट बंद करने पड़ते हैं. कर्णप्रयाग से तिब्बत तक जाने वाला मार्ग चमोली, जोशीमठ और बद्रीनाथ से होता हुआ माणा दर्रे तक पहुँचता है. जबकि एक दूसरा मार्ग तपोवन और मलारी होते हुए नीति दर्रे तक.
परंपरागत रूप से बद्रीनाथ के रावलों और अन्य कर्मचारियों के शीतकालीन आवास के रूप में विकसित हुए जोशीमठ ने धीरे-धीरे गढ़वाल को सुदूर सीमांत माणा और नीति घाटियों की महत्वपूर्ण बस्तियों से जोड़ने वाले मार्ग के एक महत्वपूर्ण पड़ाव का रूप ले लिया होगा. इसके बाशिंदों में पण्डे, छोटे-बड़े व्यापारी और खेती का काम करने वाले साधारण पहाड़ी लोग थे.
जोशीमठ की उत्पत्ति की कहानी
उत्तराखंड के गढ़वाल के पैनखंडा परगना में समुद्र की सतह से 6107 फीट की ऊँचाई पर, धौली और विष्णुगंगा के संगम से आधा किलोमीटर दूर जोशीमठ की उत्पत्ति की कहानी उन्हीं आदि शंकराचार्य से जुड़ी है, आठवीं-नवीं शताब्दियों में की गई जिनकी हिमालयी यात्राओं ने उत्तराखंड के धार्मिक भूगोल को व्यापक रूप से बदल दिया था.
दक्षिण भारत के केरल राज्य के त्रावणकोर के एक छोटे से गाँव में जन्मे आदि शंकराचार्य ने वेदान्त दर्शन के प्रसार-प्रचार के उद्देश्य से बहुत छोटी आयु में अपनी मलयालम जड़ों से निकल कर सुदूर हिमालय की सुदीर्घ यात्राएँ कीं और असंख्य लोगों को अपना अनुयायी बनाया.
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इन अनुयायियों के लिए उन्होंने चार दिशाओं में चार मठों का निर्माण किया- पूर्व में उड़ीसा के पुरी में वर्धन मठ, पश्चिम में द्वारिका का शारदा मठ, दक्षिण में मैसूर का श्रृंगेरी मठ और उत्तर में ज्योतिर्मठ यानी जोशीमठ. जोशीमठ के बाद बद्रीनाथ में नारायण के ध्वस्त मंदिर के पुनर्निर्माण का कार्य पूरा कराने के उपरान्त वे केदारनाथ गए, जहाँ 32 साल की छोटी सी उम्र में उनका देहांत हो गया.
आदि शंकराचार्य को मिला दिव्य ज्ञान
जोशीमठ की ऐतिहासिक महत्ता इस जन-विश्वास में निहित है कि आधुनिक हिन्दू धर्म के महानतम धर्मगुरु माने जाने वाले आदि शंकराचार्य ने यहाँ शहतूत के एक पेड़ के नीचे समाधिस्थ रह कर दिव्य ज्ञान हासिल किया था. इसी कारण इसे ज्योतिर्धाम कहा गया. यह विशाल पेड़ आज भी फलता-फूलता देखा जा सकता है और इसे कल्पवृक्ष का नाम दे दिया गया है. फ़िलहाल इस वृक्ष से लगा मंदिर भी टूट चुका है और वह गुफा भी ध्वस्त हो चुकी है, जिसके बारे में कहा जाता है कि वहाँ शंकराचार्य ने साधना की थी.
जोशीमठ के बारे में अनेक धार्मिक मान्यताएँ प्रचलन में हैं. यहाँ भगवान नृसिंह का मंदिर है, जहाँ भक्त बालक प्रह्लाद ने तपस्या की थी. अनेक देवी-देवताओं के मंदिरों के अलावा यहाँ कई देवताओं, जैसे ब्रह्मा, विष्णु, शिव, गणेश, भृंगी, ऋषि, सूर्य और प्रह्लाद के नाम पर अनेक कुंड भी हैं. ये तथ्य इस छोटे से पहाड़ी नगर को देश के धार्मिक मानचित्र पर एक महत्वपूर्ण बिंदु बनाते हैं.
टिहरी गढ़वाल में जन्मे समकालीन कवि और पत्रकार शिवप्रसाद जोशी अपनी कविता ‘जोशीमठ के पहाड़’ में लिखते हैं:
दिन में ऐसे दिखते हैं
कोई सफ़ेद दाढ़ी वाला बाबा
ध्यान में अचल बैठा है
कभी एक हाथी दिखता है
खड़ा हुआ रास्ता भूला हो जैसे
जोशीमठ में आकर अटक गया है
बर्फ़ के कपड़े पहने
सुंदरी दिखती है पहाड़ों की नोकों पर
सुध-बुध खोकर चित्त लेटी हुई
कहीं गिर गई अगर
कुमाऊं-गढ़वाल से कैसे जुड़ा है जोशीमठ
कुमाऊं-गढ़वाल के इतिहास के बहुत महत्वपूर्ण तार भी इस सुंदर नगर से जुड़े हुए हैं. इस हिमालयी भूभाग पर लंबे समय तक राज्य करने वाले कत्यूरी शासकों की पहली राजधानी भी यहीं थी और ज्योतिर्धाम कहलाती थी.
कत्यूरी सम्राट श्री वासुदेव गिरिराज चक्र चूड़ामणि उर्फ़ राजा बासुदेव ने इसे अपनी सत्ता का केंद्र बनाया था. एटकिंसन के मशहूर हिमालयन गजेटियर में सर एचएम एलियट के हवाले से फारसी इतिहासकार राशिद अल-दीन हमदानी के ग्रन्थ ‘जमी-उल तवारीख’ का उल्लेख करते हुए कत्यूरी राजा बासुदेव के बारे में लिखा गया है कि वह जोशीमठ में कत्यूरी साम्राज्य का संस्थापक था. कालान्तर में इस राजधानी को कुमाऊँ के पास बैजनाथ ले जाया गया.
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कैसे बदली कत्यूरों की राजधानी
कत्यूरों की राजधानी के जोशीमठ से बैजनाथ ले जाए जाने के पीछे क्या कारण रहा होगा, इस बाबत एक गाथा प्रचलित है. राजा वासुदेव का एक वंशज राजा शिकार खेलने गया हुआ था. उसकी अनुपस्थिति में मनुष्य का वेश धरे भगवान नृसिंह उसके महल में भिक्षा मांगने पहुँचे.
रानी ने उनका आदर सत्कार किया और भोजन करा कर राजा के पलंग पर सुला दिया. राजा वापस लौटा तो अपने बिस्तर पर किसी अजनबी को सोता देख कर आग बबूला हो गया और उसने अपनी तलवार से नृसिंह की बांह पर वार किया.
बांह पर घाव हो गया जिससे रक्त के स्थान पर दूध बहने लगा. घबरा कर राजा ने रानी को बुलाया जिसने उसे बताया कि उनके घर आया भिक्षु साधारण मनुष्य नहीं भगवान था. राजा ने क्षमा माँगी और नृसिंह से अपने अपराध का दंड देने का आग्रह किया.
नृसिंह ने राजा से कहा कि अपने किए के एवज में उसे ज्योतिर्धाम छोड़ कर अपनी राजधानी को कत्यूर घाटी अर्थात बैजनाथ ले जाना होगा. उन्होंने आगे घोषणा की, “वहाँ के मंदिर में मेरी जो मूर्ति होगी उसकी बाँह पर भी ऐसा ही घाव दिखाई देगा. जिस दिन मेरी मूर्ति नष्ट होगी और उसकी बाँह टूट कर गिर जाएगी, तुम्हारा साम्राज्य भी नष्ट हो जाएगा और दुनिया के राजाओं की सूची में से तुम्हारे वंश का नाम हट जाएगा.”
इसके बाद नृसिंह ग़ायब हो गए और राजा को कभी नहीं दिखाई दिए लेकिन उनकी बात का मान रखते हुए राजा ने वैसा ही किया.
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भगवान नृसिंह का स्थान आदि शंकराचार्य ने लिया
इस कथा के एक दूसरे संस्करण में भगवान नृसिंह का स्थान आदि शंकराचार्य ले लेते हैं, जिनके साथ हुए धार्मिक विवादों के चलते कत्यूरी राजधानी को जोशीमठ से हटाया गया. एटकिंसन के गजेटियर में उल्लिखित इस गाथा के दूसरे संस्करण को लेकर आगे कयास लगाया गया है कि आदि शंकराचार्य द्वारा जोशीमठ में ज्योतिर्लिंग की स्थापना किए जाने के बाद ब्राह्मणों और बौद्धों के बीच वर्चस्व कायम करने की होड़ चल रही थी जिसके दौरान सद्यः-प्रस्फुटित शैवमत के अनुयायियों ने दोनों को परास्त कर जनता के बीच अपनी धार्मिक श्रेष्ठता सिद्ध की.
जोशीमठ के मंदिर में रखी काले स्फटिक से बनी नृसिंह की मूर्ति के बारे में कहा जाता है कि उसका बायाँ हाथ हर साल कमज़ोर होता जाता है. जनश्रुतियों में कत्यूरी राजा को मिले अभिशाप के आगे का हिस्सा यह माना जाता है कि स्वयं भगवान विष्णु ने कहा था कि जिस दिन मूर्ति का हाथ पूरी तरह छिन्न-भिन्न हो जाएगा, बद्रीनाथ धाम का रास्ता सदा के लिए अवरुद्ध हो जाएगा क्योंकि तब नर और नारायण पर्वत एक दूसरे में समा जाएँगे और भीषण भूस्खलन होगा. उसके बाद बद्रीनाथ के मंदिर को जोशीमठ से आगे भविष्य बद्री नामक स्थान पर ले जाना पड़ेगा.
फूलों की घाटी का रास्ता
गढ़वाल का समग्र इतिहास लिखने वाले विद्वान शिवप्रसाद डबराल तो जोशीमठ को महाभारत के काल से जोड़ते हैं और पाणिनि के ‘अष्टाध्यायी’ को उद्धृत करते हुए तर्क देते हैं कि प्राचीन काल का कार्तिकेयपुर नगर और कोई नहीं यही जोशीमठ था. आज के जोशीमठ को देखने पर वॉल्टन के गजेटियर का जोशीमठ किसी दूसरे युग का सपना सरीखा लगता है.
बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में पर्यटन के क्षेत्र में हुई ज़बरदस्त बढ़ोत्तरी के परिप्रेक्ष्य में जोशीमठ इस मायने में बेहद महत्वपूर्ण जगह बन गई कि यहाँ से होकर फूलों की घाटी का भी रास्ता जाता है और हेमकुंड साहिब का भी.
धार्मिक महत्त्व की कितनी ही अन्य जगहों के मार्ग भी यहीं से शुरू होते हैं. इलाक़े में पर्यटन की अपार संभावनाओं को देखते हुए यहाँ से कुल 12 किलोमीटर दूर स्थित सुन्दर स्थल औली में एक बड़े स्कीइंग सेंटर की शुरुआत की गई जहाँ जाने के लिए 3915 मीटर लंबा रोपवे सिस्टम भी बनाया गया.
जोशीमठ का सामरिक महत्व
तिब्बत से नज़दीकी होने के कारण इसके सामरिक महत्व को देखते हुए स्वतंत्रता के बाद भारत सरकार ने यहाँ अनेक सैन्य व अर्ध-सैनिक बलों की इकाइयों को तैनात किया. इनमें सबसे बड़ा नाम गढ़वाल स्काउट्स का है. गढ़वाल राइफल्स की एक विशिष्ट बटालियन के रूप में तैयार की गई गढ़वाल स्काउट्स एक एलीट इन्फैन्ट्री बटालियन है जिसे लंबी रेंज के सर्वेक्षण और ऊँची जगहों पर युद्ध करने में महारत हासिल है.
देश की सबसे गौरवशाली सैन्य-संपदाओं में गिनी जाने वाली इस बटालियन का मुख्यालय स्थाई रूप से जोशीमठ में है. 2011 की जनगणना के मुताबिक़ जोशीमठ की आबादी करीब सत्रह हज़ार हो चुकी थी. तमाम सैन्य इकाइयों-टुकड़ियों को गिना जाय तो आज यह आबादी अनुमानतः पचास हज़ार का आँकड़ा छू रही है.
मुकेश शाह जोशीमठ में व्यापार करते हैं. इस नगर में यह उनकी चौथी पीढ़ी निवास कर रही है. उनका मानना है कि बद्रीनाथ मार्ग पर होने के कारण जोशीमठ में व्यापार करने के बेहतरीन मौक़े थे जिसके चलते उनके दादा ने यहाँ आकर बसने का निर्णय लिया.
आसपास के गाँवों में खूब खेती होती थी जिनसे आलू, राजमा, चौलाई, उगल और कुटू जैसी चीज़ों की भरपूर पैदावार मिलती थी. श्रेष्ठ गुणवत्ता वाली इन चीज़ों की दूर-दूर से मांग आती थी. मुकेश शाह के परिवार ने भी शुरू में यही कार्य किया.
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फ़िलहाल वे हार्डवेयर और होटल जैसे व्यवसायों में संलग्न हैं. इन वजहों से जोशीमठ ने पहाड़ के मूल निवासियों से इतर भी अनेक लोगों को यहाँ बसने के लिए आकर्षित किया. तमाम तरह के मानवीय श्रम और कौशल का काम करने वाले मज़दूर और कारीगर भी यहाँ के रोजमर्रा जीवन में रच-बस चुके हैं.
ठोस चट्टानें नहीं, रेत, मिट्टी और कंकड़-पत्थर
वैज्ञानिक और विशेषज्ञ बताते हैं कि जिस ढाल पर यह ऐतिहासिक नगर बसा हुआ है वह एक बेहद प्राचीन भूस्खलन के परिणामस्वरूप इकठ्ठा हुए मलबे के ढेर से बना है. इसका अर्थ यह हुआ कि इस नगर के घर जिस धरती पर बने हुए हैं उसके ठीक नीचे की सतह पर ठोस चट्टानें नहीं, रेत, मिट्टी और कंकड़-पत्थर भर हैं. ऐसी धरती बहुत अधिक बोझ बर्दाश्त नहीं कर पाती और धंसने लगती है.
आज से क़रीब आधी शताब्दी पहले गढ़वाल के तत्कालीन कमिश्नर महेश चन्द्र मिश्रा की अध्यक्षता वाली एक कमेटी ने 1976 में प्रकाशित की गई अपनी एक रिपोर्ट में चेताया था कि जोशीमठ के इलाक़े में अनियोजित विकास किया गया तो उसके गंभीर प्राकृतिक परिणाम होंगे.
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शिवप्रसाद जोशी जोशीमठ वाली अपनी कविता का अंत यूँ करते हैं:
लोग कहते हैं
दुनिया का अंत इस तरह होगा कि
नीति और माणा के पहाड़ चिपक जाएंगे
अलकनंदा गुम हो जाएगी बर्फ़ उड़ जाएगी
हड़बड़ा कर उठेगी सुंदरी
साधु का ध्यान टूट जाएगा
हाथी सहसा चल देगा अपने रास्ते
-अशोक पांडे
यह लेख बीबीसी हिन्दी से साभार लिया गया है.
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