पिथौरागढ़ से झूलाघाट जाने वाली सड़क पर एक छोटा सा क़स्बा है वड्डा. वड्डा आस-पास के पचासों गांवों का एक पुराना बाजार है. 1972-73 के आस-पास तक झुलाघाट को जाने वाली सड़क पुरानी वड्डा बाज़ार से होकर जाती थी. वर्तमान नई सड़क इन्हीं वर्षों में शुरु हुई. पिथौरागढ़ से झूलाघाट जाते हुये इसी नई सड़क पर बांये हाथ पर है सौन स्वीट्स. वड्डा और उसके आस-पास के सभी गांव के लोगों ने सौन स्वीट्स की मिठाई खाई होगी. आज सौन स्वीट्स वड्डा बाज़ार की एक लोकप्रिय मिठाई की दुकान है लेकिन इसके पीछे मेहनत है जोगा सिंह सौनजी की.
जोगा सिंह जी की यह दुकान आज उनके दोनों बेटे ललित और नरेंद्र चलाते हैं. सौन परिवार की इस दुकान की एक ख़ास बात इस परिवार का व्यवहार है. जोगा सिंह जी की तरह ही उनके दोनों बेटे मृदुभाषी हैं. पिछली 20 जुलाई के दिन जोगा सिंह सौन जी को 82 बरस पूरे हो गये. इसी दिन काफल ट्री के सहयोगी गुंजन सिंह गोबाड़ी ने उनसे और उनके बेटों से बातचीत की. उसी बातचीत का हिस्सा पढ़िये: संपादक
सौन गांव के जोगा सिंह सौनजी का बचपन
जोगा सिंह सौन 20 जुलाई 1937 को पिथौरागढ़ के सौन गांव में जन्मे. सौन गांव वड्डा से करीब आठ किलोमीटर की दूरी पर है. जोगा सिंह जी जब छः बरस के थे तो उनके पिता मान सिंह सौन का निधन हो गया. बचपन के बारे में पूछने पर वह बताते हैं कि मेरे बाबू पिथौरागढ़ के ही कांट्रेक्टर पुनेड़ा जी के साथ बर्मा में काम करते थे. मैं इकलौता बेटा था अपने ईजा-बाबू का. फिर अचानक बाबू की मृत्यु हो गयी. बाबू के जाने से ईजा थोड़ा मानसिक तनाव के वजह से अपने मायके चली गयी. तब मुझे मेरे कका-काकी ने पाला.
जोगा सिंह सौन जी के परिवार की आर्थिक हालत ऐसी नहीं थी कि वह स्कूल वगैरा जा सकें. गांव में दिन भर गाय भैंस चराते थे और कभी-कभी वड्डा बाजार में लकड़ी के गट्ठे ले जाकर लकड़ी बेच आते. तब के दिनों को याद करते हुये वह कहते हैं
आठ किमी हुआ वड्डा बजार. पैसे कमाने के लिये लकड़ी के गठ्ठर ले जाने वाले हुये बजार में बेचने को. कभी-कभी एक ही दिन में दो चक्कर लगा लेते थे. एक चक्कर के सात आने बनने वाले हुये क्या आता था उतने में एक भेली गुड़ आने आला हुआ तब सात आने में.
जोगा सिंह जी जब 11 बरस के थे तो आर्थिक तंगी के चलते गांव से वड्डा चले आये. तब वड्डा में डूंगर सिंह सौन जी की मिठाई की दुकान होती थी. जोगा सिंह जी ने अपनी पहली नौकरी बुडलगांव के डूंगर सिंह सौन के यहां की. इसके बाद अगले 23 साल तक उन्होंने उसी दुकान में काम किया. तब वड्डा की बाज़ार पुरानी सड़क पर ही थी. नई सड़क बाद के वर्षों में बनी. उस समय के वड्डा बाजार के बारे में जोगा सिंह जी कहते हैं कि साठ के दशक में पिथौरागढ़ झूलाघाट रोड बन गयी थी. यह सड़क पुरानी वड्डा बाज़ार से होकर जाती थी. उस समय भी वड्डा में बीस-पचीस दुकानें हुआ करती थी. तब केवल केमू की बस ही चलती थी. बाद में सत्तर के दशक से रोडवेज की गाड़ी भी शुरु हुई. जब रोडवेज की गाड़ी शुरु हुई तो वड्डा में एक टिकट घर भी खुला बाद में अस्सी के दशक में यह बंद कर दिया था. छोटी गाड़ियां तो बाद में नब्बे के बाद शुरु हुई थी.
नौकरी करते हुये जब नौ साल हो गये तो जोगा सिंह जी ने बीस बरस की उमर में सीमखोला गांव में एक बिना छत का एक मकान लिया. तब उसकी कीमत छः सौ रुपया थी. मकान कि मरम्मत करने के बाद वह अपनी माता मानकी देवी को अपने साथ ले आये. उस दिन को याद करते हुये जोगा सिंह जी कहते हैं कि तब मामा ने ईजा के साथ एक भैंस भी भेजी ईजा वहीं रहने लग गयी. ब्या भी मैंने 25 साल की उमर में किया. यहीं सूजाई गांव से किया था. मैं तो दुकान में हुआ, मेरी घरवाली ने ही सारा घर संभाला. घर में गाय-भैंस पाला खेती-पाती बच्चे सब मेरी घरवाली भागीरथी देवी ने ही संभाला था.
दुकान शुरु करने के बारे में वह बताते हैं सन 1972-73 में वड्डा की नई सड़क बनी होगी. नई वाली सड़क में तब कोई चाय की दुकान नहीं थी. 1974-75 में मैंने एक छोटी सी जगह पर टिनसेट के अंदर चाय की दुकान खोल दी. नई रोड में चाय की पहली दुकान मेरी ही थी. जब दुकान शुरु की थी तब मेरे पास छः गिलास कांच के थे और चाय बनाने के लिये 250 ग्राम चायपत्ती. इतने के साथ ही शुरु की हुई मैंने ये दुकान. बाद में आलू मटर भी बेचे.
वह बताते चलते हैं कि बरसात के दिनों में कभी दूध बच जाता तो दूध घोटकर खोया बनाते और थोड़े-थोड़े लड्डू पेडे भी बनाते. बाद में लड़के बड़े हो गये तो काम में हाथ बटाने लगे. एक साल हमने चौपखिया के मेले के दिन से चाय-पानी के साथ मिठाई की दुकान भी शुरु कर दी.
दोनों बेटे के बिना अधूरी है यह कहानी
अपने परिवार के बारे में जोगा सिंह जी कहते हैं कि मैंने अपने बच्चे 16 साल किराये के मकान में रखे फिर 1988 में नौ मुट्ठी जमीन ली. उस समय नौ मुट्ठी जमीन 7000 की ली थी तब मिस्त्री एक दिन की मजदूरी बीस रुपया लेता था और लेबर 15 रुपया. जोगा सिंह जी के दोनों बेटे वर्तमान में दुकान चला रहे हैं. उनके छोटे बेटे नरेंद्र सिंह ने बताया कि पिताजी के बाद बड़े भाई ने भी खूब मेहनत की. आठवीं के बाद से ही उन्होंने दुकान पर बैठना शुरु कर दिया था दसवीं के बाद तो भाई साहब पूरी तरह दुकान में ही लगे रहे.
सौन स्वीट्स अभी दस लोगों को सीधा रोजगार दे रहा है. लोकल में पच्चीस-तीस परिवारों का दूध सौन स्वीट्स में आता है. मिठाई के लिये उपयोग में लाया जाने वाला खोया स्थानीय दूध से ही निर्मित होता है. स्थानीय दूध से बनी सौन स्वीट्स की सुस्वादु मिठाईयों का ज़ायका पूरे पिथौरागढ़ में लोकप्रिय है. इस कर्मठ परिवार को भविष्य के लिये हमारी ओर से शुभकामनाएं.
बातचीत में सहयोग के लिये आनन्द सिंह रावत और योगेश सिंह सौन का विशेष आभार.
-गुंजन सिंह गोबाड़ी
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