बेशक यात्रावृतान्त आपने बहुतेरे पढ़े होंगे. सामान्यतः कोई यायावार कहीं भ्रमण पर जाता है तो यात्रा के दौरान विभिन्न मुकामों का यात्रा वृतान्त, मार्ग में आई कठिनाइयों अथवा सुखद अनुभवों, भौगोलिक परिवेश, रहन-सहन आदि अपने अल्पप्रवास में जो कुछ देखता है, महसूस करता है, उसे उसी रूप में बयां कर यात्रावृतान्त लिख डालता है. पाठक वर्ग लेखक के साथ आभासी तौर पर भ्रमण करता हुआ, मनोरंजन के साथ ही सरसरी तौर पर वहां जो कुछ देखता, लोगों से जो जानकारियां हासिल होती हैं, उनको कागज पर उकेर देता और बन जाता है एक यात्रावृतान्त लेकिन जब एक यायावर 9 सालों (1994 से 2003) तक किसी क्षेत्र विशेष की लगातार पैदल यात्रा कर रहा हो, वहां के लोगों के घरों पर बतौर मेहमान रहा हो और वह भी महज एक घुमक्कड़ की तरह नहीं बल्कि शोधकार्य के उद्देश्य को लेकर तो निश्चित ही उसके द्वारा लिखा गया यात्रावृतान्त अधिक रोचक, प्रामाणिक तथा समाज विशेष के आचार-विचार, व्यवहार, इतिहास, भूगोल व समाज के ज्यादा करीब होगा.
(Jitni Mitti Utna Sona Book Review)
लपूझन्ना, बब्बन कार्बोनेट, और तारीख में औरत जैसी चर्चित पुस्तकों के अलावा दर्जनों पुस्तकों के अनुवाद के बाद वर्ष 2022 में जितनी मिट्टी उतना सोना के लेखक अशोक पाण्डे की कलम जब चलती है, तो पाठक को अपने साथ उसी दुनियां में ले चलती है, जहां लेखक स्वयं विचरण कर रहा होता है.
यात्रावृतान्त “जितनी मिट्टी उतना सोना’’ जब मैं पढ़ना शुरू करता हॅू तो यात्रावृतान्त के साथ-साथ चलते हुए सहज ही मेरा ध्यान इस ओर भी केन्द्रित रहता है, कि इस पुस्तक के शीर्षक “जितनी मिट्टी उतना सोना’’ के नाम का चयन किस आधार पर किया होगा. स्वाभाविक है कि एक पुस्तक लेखन के श्रमसाध्य कार्य को पूरा करने पर नाम पुस्तक के शीर्षक चयन पर अटकता है और कोई भी लेखक अनायास या अकारण ही शीर्षक नहीं चुनता, बल्कि उस नाम में पूरा कलेवर समेटने का प्रयास करता है. इसी तलाश में सीमान्त के रं समाज के विभिन्न गांवों का भ्रमण करते हुए जब आधी पुस्तक पढ़ चुका होता हॅू, तो पहुंच जाते हैं व्यांस घाटी के कुटी गांव में. यहीं पर्दा उठता है “जितनी मिट्टी उतना सोना’’ शीर्षक के नामकरण से.
“जब मै उनसे गांव के उद्गम के बारे में पूछता हॅू, वे हमें एक और लोकगाथा सुनाते हैं. यह लोकगाथा ‘महाभारत’ के लेखक वेदव्यास के बारे में है. इस गाथा के अनुसार वेद व्यास सबसे पहले कुटी गांव में आकर बसे थे. पहले पूर्वजों को लेकर सभी रं गाथाओं में एक दिलचस्प तत्व है। यह पहला मिथिकीय पूर्वज बसने के लिए उपयुक्त स्थान की खोज कर रहा एक यात्री हुआ करता था. उसके पास हमेशा एक तराजू भी होता था. वह इस तराजू के एक पलड़े में मुट्ठीभर सोना रखता और अपनी यात्रा के दौरान पड़ने वाली जगहों की मुट्ठी भर मिट्टी दूसरे पलड़े में. जहां भी दोनों का भार एक होता , वह वहीं बस जाता. बताया जाता है, वेदव्यास के साथ भी कुटी में यही हुआ.’’ (पृष्ठ सं0-113)
(Jitni Mitti Utna Sona Book Review)
इस प्रकार पुस्तक के शीर्षक के संबंध में मेरे मन में तैऱ रहे प्रश्न का उत्तर भी मुझे मिल गया और यह भी कुटी गांव में स्थित वेदव्यास की गुफा से ही इस घाटी का नाम व्यांस घाटी पड़ा. लेखक की यह यात्रा महज यायावरी न होकर शोध के उद्देश्य से की गयी यात्रा है और शोधकर्ता भी सूदूर आस्ट्रिया की रहने वाली महिला सबीने. जिसके सहयात्री के रूप में लेखक अशोक पाण्डे जानकारियां जुटाते हैं, बतौर प्राथमिक डेटा के. ब्यांस, चैंदास तथा दारमा घाटी के गांवों के दुर्गम रास्तों पर पैदल चलकर ग्रामीणों से वहां की धार्मिक मान्यताओं, गांव का इतिहास, मिथकीय पात्र, खान-पान, तीज-त्योहार, धार्मिक उत्सव जो बातें स्थानीय लोगों से बातचीत के बाद उभरकर सामने आती हैं, लगता है कि हम किसी दूसरे लोक में विचरण कर रहे हैं. ग्रामीणों की गजब की किस्सागोई, एक ही घटना के पीछे कई-कई मिथकीय जनश्रुतियां आपको अन्त तक बांधे रखती हैं. उन दुरूह रास्तों पर जहां आप जाने की सोच तक नहीं सकते, वहां के सजीव चित्र मानस पर उभर आते हैं. यदि आप गम्भीरता से पढ़ रहे हों तो कई प्रश्न तथा उनका समाधान आपको स्वयं ही मिलते जाता है. लेखक ने जिन गांवों का भ्रमण किया, ये सभी रं समाज के गांव हैं और उनके गांव से आप रं समाज के जाति के नामों का भी सहज अन्दाजा लगा सकते हैं. जैसे नाबी के नबियाल, नपलच्यू के नपल्याल, कुटी के कुटियाल, तिदांग के तितियाल, गर्ब्यांग के गर्ब्याल, बूदी के बुदियाल, गुंजी के गुंज्याल आदि आदि.
ऐसे ही बतौर पाठक जब मैं कुटी गांव के पवित्र श्यबजैकलिन का मिथकीय निम्न प्रसंग पढ़ रहा था – दैवीय द्वारा कुटी को प्रदत्त यह सबसे पवित्र वस्तु मानी जाती है, जिसके सम्मान में हर साल कुटी में एक उत्सव आयोजित होता है. कथा है कि बिल्कुल आरंभ में श्यबजेकलिन को श्यंग सै के थान के समीप मुख्य वेदी पर रखा रहता था. तो एक प्रश्न स्वाभाविक रूप से मन में कौंधा कि कहीं यह शिवजीक लिंग (शिवजी का लिंग) शब्द से बनते बनते श्यबजेकलिन तो नहीं बन गया? खैर ! ये अपने-अपने ढंग से सोचने का नजरिया है, कहने का तात्पर्य यह है कि यात्रा वृतान्त को पढ़ते हुए आपको भी अपने अपने नजरिये से कई बातें सोचने को विवश करता हैं.
यात्रावृतान्त रं समाज के विभिन्न गांवों से गुजरते हुए यात्रावृतान्त आपको कई ऐसे व्यक्तित्वों से रूबरू कराता है, जिनमें किस्से कहानियां से भरा रोचक इतिहास है, जोखिम भरे रास्तों से गुजरने का रोमांच है, गांव विशेष के अपने अपने कुलदेवता हैं और उनसे जुड़े रोचक मिथकीय पात्र हैं , धार्मिक उत्सव व मेले हैं तथा हास-परिहास भी.
“मामू समझते हैं, कि मैं अभी बच्चा हॅू.’’ रास्ते में पड़े एक पत्थर का फटने कों तैयार अपने जूते से ठेलते हुए वह कहता है। “ मैंने तो बीड़ी -सिगरेट भी पी रखी है और वो चीज भी.’’ वह महिलाओं के थेलै में भरी च्यक्ती की बोतल के बारे में इशारे से बताता है. मैं उसे कहना चाहता हॅू कि उसे इन सब आदतों से फिलहाल दूर रहना चाहिये, पर वह अपनी बक-बक जारी रखता है. किताबें उसे पसन्द नहीं है सो उसने स्कूल जाना बन्द कर दिया है. बड़ा होकर वह अपने इलाके का सबसे बड़ा चरवाहा बनना चाहता है. मैं इसकी वजह जानना चाहता हॅू तो वह बताता है कि ज्यादातर बड़े चरवाहों के पास खूब पैसा होता है और उन्हें घूमने को बहुत मिलता है. उनमें से कुछ तो इतने अमीर हैं कि जाड़ों में काठगोदाम तक पहुंच जाते हैं, जहां से रेल में बैठकर दिल्ली जाया जा सकता है. वह मुझे पूछता है? “आपने रेल देखी है?’’ मेरे हां कहने पर उसकी आंखों में क्षणिक क्रोध आती है और वह अपने विचारों में खो जाता है.’’ (पृष्ठ सं0-122)
(Jitni Mitti Utna Sona Book Review)
जाहिर है कि सीमान्त के इन दूरस्थ गांवों के बच्चों के लिए काठगोदाम और दिल्ली जैसी जगहें विदेश से कम नहीं हैं. हालांकि यह यात्रावृतान्त लिखा अब गया है, लेकिन वृतान्त आज से 25वर्ष से अधिक पुरानी स्मृतियों पर आधारित है. इन 25 सालों में परिस्थितियां बदली हैं, और जिन गांवों की मीलों पैदल यात्रा लेखक द्वारा की गयी है, उनके करीब तक मोटरमार्गों का निर्माण हो चुका है.
“ उनके शीतकालीन घरों के बारे में एक उल्लेखनीय बात यह है उनमें से अधिकांश नेपाल में हैं, जहां उनकी अपनी जमीनें तो हैं ही , वहां वे वोट भी दे सकते हैं. जाहिर है वे भारत में भी वोट देते हैं. दो-दो देशों की नागरिकता के साथ सरकारें बनाने की प्रक्रिया में सहयोग देने का ऐसा दुर्लभ विशेषाधिकार सचमुच विरल है.
हमें बताया जाता है कि व्यापार समाप्त हो जाने से पहले अनेक रं लोगों के पास तिब्बत में जमीन और अन्य सम्पत्तियां हुआ करती थी. यह सूचना सबीने को बहुत उत्साहित करती है और उसे लगता है कि उसने अपनी थीसिस के लिए एक अच्छा टाइटिल मिल गया है – ‘द पीपल ऑफ़ थ्री कन्ट्रीज’. ’’ (पृष्ठ-40)
सचमुच जितनी समृद्ध रं संस्कृति और इसका इतिहास है, उतनी ही दिलचस्प हैं वहां की सामाजिक परम्पराएं और राजनीतिक अधिकारों की विरासत. तीन-तीन देशों की नागरिकता की एक अद्भुत मिशाल. हालांकि तिब्बत से व्यापार बन्द होने के बाद तिब्बत की नागरिकता तो नहीं रही लेकिन दो देशों की नागरिकता भी विरल है.
आमतौर पर भोटिया अथवा शौका के नाम से पहचाने जाने वाले इस समाज के लोग स्वयं को रं कहलाने में गर्व अनुभव करते हैं. लेखक बताते हैं, कि वास्तव ये रङ शब्द है, उनकी भाषा में जिसका शाब्दिक अर्थ बाँह अथवा बल होता है. जिस प्रकार गङ्गा में उस वर्ग का पंचमाक्षर का उपयोग न करते हुए अनुस्वार का प्रयोग कर हम गंगा लिख दिया करते हैं, उसी तरह रङ को रं लिखा जाने लगा.
कुल मिलाकर यदि आपको सूदूर सीमान्त की समृद्ध संस्कृति को जानने की चाहत हो, दुर्गम और जोखिम भरे रास्तों पर यात्रा करने के संस्मरणों के प्रति रूचि हो, उच्च हिमालयी क्षेत्रों की बहुमूल्य वनस्पतियों व जड़ी-बूटियों के प्रति दिलचस्पी हो और हिमालयी क्षेत्रों के मौसम, भौगोलिक संरचना तथा इतिहास और पारिवारिक व सामाजिक संरचना जानने की उत्सुकता हो तो निश्चय ही आपको पुस्तक में यह सब कुछ मिलेगा और आप एक नये परिवेश व समाज से रूबरू होकर स्वयं को समृद्ध महसूस करेंगे.
(Jitni Mitti Utna Sona Book Review)
अमेजन पर किताब यहां उपलब्ध है- जितनी मिट्टी उतना सोना
पुस्तक – जितनी मिट्टी उतना सोना
लेखक – अशोक पाण्डे
प्रकाशक – हिन्दयुग्म प्रकाशन, सेक्टर-20 नोएडा
पृष्ठ संख्या – 208
मूल्य – 249 रूपये
भवाली में रहने वाले भुवन चन्द्र पन्त ने वर्ष 2014 तक नैनीताल के भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय में 34 वर्षों तक सेवा दी है. आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से उनकी कवितायें प्रसारित हो चुकी हैं.
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