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‘बाहर का कमरा उत्सुक और प्रसन्न चेहरों से अट जाता है. कोई अपने घर से बनी च्यक्ती (स्थानीय शराब) लाया है, कोई कुछ मीठा पकवान. दुनिया-जहान की बातें होती हैं. अचानक एक महिला उन्हीं दिनों लोकप्रिय हुआ नेपाली गीत गाना शुरू करती है –
तिमी पारि त्यो गाउॅं मा, म वारि यो गाउॅं मा
ऑंखा तर्दै तिम्लाई नै हेरि राखे को, नशा लागिस…
एक-एक करके सभी उसकी आवाज़ से अपनी आवाज़ मिलाते हैं और कोई नाचना शरू कर देता है. कमर और हाथों की शालीन लय और गति रं नृत्य की ख़ासियत होती है. ऐसा लगता है इस सभ्यता का हर व्यक्ति इस ख़ास नृत्य को सीखकर ही पैदा होता है.’(पृष्ठ-139)
ऑस्ट्रियाई मानवशास्त्री डॉ. सबीने लीडर और यायावर लेखक अशोक पाण्डे सन् 1994 से 2003 (9 वर्ष) के अन्तराल में लगभग 4 साल तक रं (शौका) जनजाति पर शोध कार्य हेतु उच्च हिमालयी क्षेत्र की चौंदास, दारमा, व्यॉंस और जोहार घाटियों में विभिन्न यात्राओं में रहे.
अशोक पाण्डे स्वीकारते हैं कि ‘इन यात्राओं ने मेरे जीवन को आकार देने में बड़ी भूमिका निभाई है’. इन शोध यात्राओं के एक हिस्से (जुलाई-अक्टूबर, 1996) को अशोक पाण्डे ने ‘जितनी मिट्टी उतना सोना’ यात्रा-पुस्तक में दर्ज किया है. स्थानीय जय सिंह इस यात्रा में उनका हमसफर रहा है.
(Jitni Mitti Utna Sona Book Review)
पिथौरागढ़ जनपद (उत्तराखण्ड), नेपाल और तिब्बत से सटे काली, गौरी और धौली नदी क्षेत्र (समुद्रतल से 4000 से 15000 फीट ऊंचाई) में अधिकांश बसासत शौका अथवा रं (रंङ) समाज की है. हमारे देश में रं (रंङ) समाज की बसासत मुख्यतया पिथौरागढ़ जनपद की धारचूला तहसील के ब्यांस, तल्ला दारमा, मल्ला दारमा और चौंदास पट्टी में है.
उच्च-हिमालयी क्षेत्र में ब्यांस घाटी- काली नदी, दारमा घाटी- धौली नदी और चौंदास घाटी- काली और धौली नदी के बीच में पसरा भू-भाग है. रं भाषा में ब्यूंखू (ब्यांस), दर्मा (दारमा) और बंबा (चौंदास) के सम्मलित क्षेत्र के 42 गांवों में ‘च्येपी सै सुमसा मा’ याने ‘चौदह देवता और तीस देवियों’ की भूमि रं संस्कृति और सभ्यता से रंगी है.
हिमालय शिखरों की छत्र-छाया में रं समाज के घर-गांव हैं. हिमालय उनके लिए चुनौती नहीं, रहवासी है. हिमालय में रह कर वे प्रकृति की विकटता का ही नहीं, उसकी विराटता को भी महसूस करते हैं. इस विकटता और विराटता में दोनों का सह-अस्तित्व और वैभव विकसित हुआ है. स्वाभाविक है कि, हिमालय के प्रति रं समाज का आकर्षण पारिवारिक आत्मीयता से ओत-प्रोत है.
यही कारण है कि, भारत, तिब्बत-चीन और नेपाल की सीमाओं से घिरे इस क्षेत्र में आज भी देशों की परिधि से बेफिक्र रं समाज समग्रता और जीवंतता में जीता है. अपनी शानदार संस्कृति पर बेहद गर्व करने वाले तीन देशों यथा – भारत, नेपाल और तिब्बत के रं रहवासियों को विएना से आई शोधार्थी सबीने लीडर ‘द पीपल ऑफ़ थ्री कंट्रीज’ कहती है.
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रं समाज का आधार, अतीत और आयाम घुमक्कड़ी रहा है. पर इनकी हिमालयी यात्रायें घुमक्कड़ी भर नहीं हैं. सच यह है कि, ये रं समाजी लोगों की अपने आधारभूत जीवन और जीविका के लिए की गई जरूरतें और जिज्ञासायें हैं. देश-दुनिया में तेजी से हो रहे शैक्षिक, सामाजिक और राजनैतिक बदलावों ने हिमालय के सीमान्त समाजों की जीवन शैली को भी प्रभावित किया है. इस बदलाव को स्वीकारते हुए अपनी सामाजिक और सांस्कृतिक मौलिकता को बरकरार एवं जीवंत रखने के कारण रं समाज के पैतृक जीवन मूल्य उन्हें विशिष्ट बनाये हुए है.
रं घाटी के गांवों में आज भी स्थानीय संस्कृति और उद्यमशीलता का बोलबाला है. इसका प्रभाव एवं प्रवाह उनके विचार, व्यवहार, उद्यम और लेखन में आना स्वाभाविक है. यायावरी और उद्यमशीलता की पैतृक विरासत को लिए रं (शौका) हिमालयी ज्ञान और हुनर का धनी समाज है. प्रसिद्ध इतिहासविद् डॉ. शिवप्रसाद डबराल ने ‘उत्तराखण्ड के भोटांतिक’ पुस्तक में लिखा कि ‘यदि प्रत्येक शौका अपने संघर्षशील, व्यापारिक और घुमक्कड़ी जीवन की मात्र एक महत्वपूर्ण घटना भी अपने गमग्या (पशु) की पीठ पर लिख कर छोड़ देता तो इससे जो साहित्य विकसित होता, वह सामुदायिक साहस, संयम, संघर्ष और सफलता की दृष्टि से पूरे विश्व में अद्धितीय होता’ (‘यादें’ किताब की भूमिका में-डॉ. आर.एस.टोलिया)
बिट्रिश कालीन डिप्टी कमिश्नर चार्ल्स ए. शेरिंग ने सन् 1906 में लंदन से प्रकाशित किताब ‘वेस्टर्न तिब्बत एंड ब्रिटिश बॉर्डरलैंड’ और ‘नोट्स ऑन भोटियाज ऑफ कुमाऊं-गढ़वाल’ में रं घाटी एवं समाज पर व्यापक और गहन लिखा है. लॉन्गस्टाफ, हेनरी रैमजे, शिप्टन, डब्लू. जे. वेव, ट्रैल, बैटन, ई. टी. एटकिन्सन, स्मिथ आदि के रं समाज पर शोधपरख विवरण हैं.
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इसी तरह, बद्रीदत्त पाण्डे-‘कुमाऊं का इतिहास’, डॉ. शिवप्रसाद डबराल-‘उत्तराखण्ड के भोटान्तिक’, रतन सिंह रायपा-‘शौका सीमावर्ती जनजाति (सामाजिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन)’, डॉ. आर. एस. टोलिया-‘बिट्रिश कुमाऊं-गढ़वाल’, प्रो. शेखर पाठक-‘अतुल्य कैलास: मानसरोवर- एक बहुसांस्कृतिक-धार्मिक क्षेत्र के सीमापारीय अन्तर्सम्बन्ध’ और प्रो. शेखर पाठक एवं प्रो. ललित पन्त- ‘कालापानी और लिपूलेख: एक पड़ताल’ प्रकाशित किताबें रं समाज पर महत्वपूर्ण संदर्भ साहित्य हैं.
इसी क्रम को आगे बढ़ाते हुए चर्चित लेखक और घुमक्कड़ अशोक पाण्डे की ‘जितनी मिट्टी उतना सोना’ शोध यात्रा-किताब 34 अध्यायों में रं समाज के विविध आयामों को जानने और समझने की दृष्टि लिए हिंद युग्म, प्रकाशन से वर्ष-2022 में प्रकाशित हुई है. ये यात्रा-पुस्तक उच्च-हिमालयी पारिस्थिकीय में विकसित रं समाज के मन-मस्तिष्क में समायी विराटता और वैभव को महसूस कराने के साथ, पाठकों को जीवनीय कष्टों से ‘परे हट’ कहने का साहस भी देती है.
विगत शताब्दी के आखिर दशक की ये यात्रा इन क्षेत्रों में मोटर मार्ग आने से पहले की है. लिहाजा, इस यात्रा-वृतांत में सड़कों से आई कृतिमता से बचकर स्थानीय प्रकृति और समाज अपने मौलिक रूप में मुखरित एवं वर्णित है. काली, कुटी और धौली नदी-घाटी की वन्यता और वहां के लोगों के जीवन और जीवका का प्रवाह इसमें निर्बाध रूप प्रवाहित है.
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‘धौलीगंगा का बहाव आक्रामक और शोरभरा है – वह भयाक्रांत कर देने वाले क्रोध के साथ बह रही लगती है. बड़े-बड़े पत्थर उसके बहाव में यूं बह रहे हैं जैसे कि वे गत्ते के बने हुए हों. नदी के उस तरफ़ की पहाड़ियां बेहद हरी हैं. मेरे भीतर फ़ेदेरिको गार्सिया लोर्का गूंजने लगता है – ‘वेर्दे, के ते कीयेरो वेर्दे, वेर्दे’ (हरे, हरे, कितना प्यार करता हूं तुझे ओ हरे) इस हरे लैंडस्केप के सौंदर्य को बिगाड़ते बहुत सारे पीले-भूरे भूस्खलन भी हैं.’ (पृष्ठ-17)
सामान्यतया यात्रा-वृतांत आत्म-मुग्घता से ग्रसित होते हैं. अपना और क्षेत्र विशेष का कथित श्रेष्ठता बोध करना उनका मूल भाव बन जाता है. ये यात्रा-किताब इन व्याधियों से ग्रसित होने से बची है. इसमें स्थानीय प्रकृति और परिवेशीय समाज के प्रति आत्म-मुग्धता की जगह जमीनी हकीकत और उसके प्रति जज्ब़ा है. यह रं समाज की समग्र जीवन-चर्या की मौलिकता भी है.
लेखक ने संस्मरणों में अपने से ज्यादा अहमियत परिवेशीय समाज और प्रकृति को दी है. साथ ही, क्षेत्र के पिछडे़पन और भौगोलिक विकटता को कोसने के बजाय उसमें नई उद्यमीय जीवन संभावनाओं को तलाशने और उसे हासिल करने के प्रयासों को सार्वजनिक किया है. इस मायने में यह किताब अधिक आकर्षक, विशिष्ट और उपयोगी है.
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यह यात्रा-किताब रं समाज के अतीत को जानने, वर्तमान को समझने और भविष्य की दिशा इंगित कराती है. यह रं समाज के ऐतिहासिक, सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक और आर्थिक पक्षों और वर्तमान में उनकी चुनौतियों से रू-ब-रू कराने का ज़रिया बनी है. स्थानीय पारिस्थिकीय को खत्म करने में अनियंत्रित दोहन की चिन्ता और चिन्तन इसमें है.
यह किताब बताती है कि तिब्बती नाक-नक़्श देखकर (संभवतया बिट्रिश कालीन डिप्टी कमिश्नर चार्ल्स ए. शेरिंग) सरकारी रिकार्ड में रं समाज का नाम ‘भोटिया’ दर्ज हो गया था. रं समाज के मन-मस्तिष्क में इसकी कसक आज भी है. क्योंकि, इस ऐतिहासिक त्रुटि के कारण यह थोपी हुई पहचान आज भी प्रचलन में है.
इस यात्रा-पुस्तक में उत्तराखण्ड के सीमान्त क्षेत्र के परिदृश्य के साथ-साथ अतीत, विगत और वर्तमान में भारत, नेपाल, तिब्बत और चीन के आपसी रिश्तों और विवादों की पड़ताल है. समृद्ध जल-प्रवाह काली, गौरी और धौली नदी के बारे में तथ्यात्मक बातें हैं. ये किताब सन् 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद उत्तराखण्ड के सीमान्त क्षेत्रों में चीन-तिब्बत के साथ सदियों पूर्व के परम्परागत व्यापार के समाप्त होने के कारण आई आर्थिक एवं सांस्कृतिक त्रासदी को भी रेखांकित करती है.
ज्ञातव्य है कि, अतुल्य कैलास मानसरोवर मार्ग में स्थित यह संपूर्ण क्षेत्र सन् 1962 के भारत-चीन युद्ध से पूर्व प्रसिद्ध व्यापारिक केन्द्र की पहचान लिए हुए था. स्थानीय सीमावर्ती समाज अचानक आए इन बदलावों के लिए बिल्कुल तैयार नहीं था. इस नाते, भारत-चीन के बीच होने वाले युद्ध के बाद दोनों ओर के सीमावर्ती समाज के राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक रिश्तों पर पड़ी दरार के कुप्रभावों का मूल्यांकन इस किताब में है.
किताब बताती है कि इसके बावजूद आज भी, उच्च-हिमालयी क्षेत्र में पल्लवित रं समाज की सामाजिक अभिवृत्ति-हिम्मत और हौंसले से नई समृद्धता की ओर अग्रसर है. चौदांस, ब्यांस और दारमा क्षेत्र और समाज की संस्कृति, जीवन निर्वाह और वहां प्रवाहित काली, कुटी और धौली गंगा का परिचय कराते हुए धारचूला, तवाघाट, सोबला, दर, स्येला, नंगलिंग, बालिंग, सौन, दुग्तू, दांतूं, बोन, फिलम, तीदांग, बीदांग, सिन-ला, जौलिंगकौंग, कुटी, नाबी, गुंजी, रौंगकौंग, नपल्च्यू, गर्ब्यांग, छियालेख, बूंदी, मालपा, बिंदाकोटी, मांगती, पांगला, दंदौला, रुंग, सिरखा, सिरदंग, पांगू, ठाणीधार से पुनः तवाघाट और धारचूला की 5 माह की यह यात्रा रोमांचक ही नहीं इस संपूर्ण क्षेत्र को जानने-समझने के द्वार भी खोलती है.
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पर्वत, झील, बुग्याल, दर्रे, शिखर और ग्लेशियरों से गुजरती घनघोर जंगलों में स्थित उड्यार (गुफा) में बैठकर बारिश, तूफान और बर्फवारी को सहने का रोमांच लिए यह अदभुत यात्रा है –
‘मैं एक बिल्कुल दूसरा रास्ता लेता हूं और सेकेंडों के भीतर ग्लेशियर की तलहटी पर पहुंच जाता हूं. सबीने भी वहीं है और गुस्से भरी आंखों से मुझे देख रही है. अचानक मुझे गड़गड़ाहट सी सुनाई देती है और मैं जहां खड़ा था वहां से तेज़ी से भागता हुआ अपने साथ सबीने को घसीटता हुआ दूसरी जगह पहुंच जाता हूं. कुछ ही पलों में उस पिछली जगह पर ढेर सारे पत्थर गिरते हैं. वह और भी पगला जाती है.’ (पृष्ठ-61)
सिनला दर्रे (समुद्रतल से 18,030 फीट की ऊंचाई) के आर-पार के दुर्गम अजपथों को एक-दूसरे के साथ खुद को खुद से हौंसला देकर कामयाब होने का किस्सा भी आपकी नज़र हाजिर है –
‘साहब मैं नहीं जानता था कि इतनी मुश्किल होगी. मैं वापस जाना चाहता हूं. मेरे छोटे-छोटे बच्चे हैं, साहब.’ वह फफककर रोने लगता है. भाग्यवश सबीने काफ़ी पीछे है और इस दृश्य को देखने के लिए सिर्फ़ जयसिंह ही मेरे साथ है.’ मेरी समझ में नहीं आ रहा उससे क्या कहूं. अपने दिमाग़ में किसी उचित वाक्य की संरचना करता हुआ मैं उसके कंधे थपथपाता हूं. जयसिंह एकदम हक्का-बक्का है-मेरी तरह. ‘देखो लाटू काकू, हम सब के अपने परिवार हैं. हम भी थक गए हैं और चिंतित हैं पर आप तो हमारे गाइड हैं. हम सब आप के ही तो भरोसे हैं. अगर आपने जाना है तो आपकी इच्छा है पर हम कहां जाएंगे?… लाटू सबीने के थके हुए चेहरे पर दृढ़ इच्छाशक्ति देखता है-अचानक कोई चीज उसे प्रेरित करती है-वह उठता है और तीव्र गति से चलना शुरू कर देता है-आंसुओं को पोंछने की परवाह किए बग़ैर. (पृष्ठ, 89-90)
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लेखक का भोगा और लिखा उक्त विवरण हम पाठकों के लिए रोमांच और दुष्कर है. पर, उच्च-हिमालयी निवासियों के लिए अपनी दिनचर्या में किसी एक दिन का सामान्य हिस्सा भर है –
‘हमें रास्ते का अगला छोर दिख रहा है, जिसके आगे सब साफ़ है… उसे पार करने का हम विचार कर ही रहे हैं कि सामने की तरफ़ के छोर पर कहीं से आ रही एक बूढ़ी स्थानीय महिला मलबे पर हमारी दिशा में चलना शुरू करती दिखाई देती है. उसके पैरों में रबड़ की चप्पलें हैं और पीठ पर बोझा. वह किसी तरह पांव टिकाती एक-एक क़दम बढ़ा रही है, जो कभी एड़ियों तो कभी पिंडलियों तक मलबे में धंसे जा रहे हैं. हम थमी हुई सांसों से उसे देख रहे हैं. जयसिंह चीख़कर आवाज़ लगाता है –
‘आराम से काकी, डरना मत. धीरे-धीरे आओ.’
तीन-चार मिनट की मशक्कत के बाद वह हमारे ठीक सामने है. वह बोझा नीचे रखती है, चप्पल उतारती है और पास में बह रहे साफ़ पानी के एक धारे पर पहले उन्हें फिर अपने पैरों को साफ़ करती है. जयसिंह उससे कुछ पूछता है, लेकिन वह जवाब नहीं देती. अपना काम पूरा करके वह चप्पल पहनती है, बोझा पीठ पर लादती है और धीमी रफ़्तार से ऊपर लामारी की तरफ़ जाने वाले रास्ते पर चल देती है. जैसे कुछ हुआ ही न हो. उसके लिए यह रोज़मर्रा का काम है.’ (पृष्ठ-186)
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इन पंक्तियों को पढ़ते हुए मुझे अपने साथियों के साथ 10-15 अक्टूबर, 1990 में की गई सुंदरढुंगा ग्लेशियर यात्रा की याद आई, जब जातोली गांव के पास हमारे सामने ऐसा ही दृश्य उपस्थित हुआ था. यह किताब रं समाज की पथ-प्रदर्शक (रं भाषा में अमटीकर) रही जसुली बूढ़ी शौक्याणी (समुद्रतल से 11हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित दांतू गांव की दानवीरा जसुली बूढ़ी शौक्याणी ने सन् 1870 में तत्कालीन कुमांऊ कमिश्नर हेनरी रैमजे की सलाह पर अपने अकूत पैतृक धन को कुमांऊ-गढ़वाल, तिब्बत और नेपाल-प्रमुखतया कैलास-मानसरोवर यात्रा मार्ग में अनेकों धर्मशालाओं को बनाने हेतु दान कर दी थी.) तथा सन् 1936 में स्थापित नारायण स्वामी आश्रम की कई वर्षों तक संचालिका रही गंगोत्री गर्ब्याल (समुद्रतल से 10500 फीट ऊंचाई पर स्थित ब्यांस घाटी के गर्ब्याग गांव की गंगोत्री गर्ब्याल दीदी ने इस सीमान्त क्षेत्र में शिक्षा और सामाजिक सेवा की अलख जगाने में अग्रणी भूमिका निभाई थी.) की याद दिलाती है.
अशोक पाण्डे और सबीने की ये यात्रायें एक शोधार्थी के बतौर सम्पन्न हुई हैं. वे इस दौरान रं समाज की परंपराओं, गीतों, कथाओं और गाथाओं को संकलित करते हैं. इनमें से कुछ का विवरण इस किताब में है. जिनमें, प्रमुखता से प्रकृति मुखर है, मानव उसका एक अंश भर है. किस्से दर किस्से सुनते-सुनाते और उनको लिपिबद्ध करते हुए अशोक और सबीने रं समाज के जीवन के मर्म और दर्द को भी आत्मसात करते जाते हैं. रं समाज को वे केवल देखते और उनके साथ रहते भर नहीं हैं, वरन उनके सिरी-नमस्या (बेटा-बहू) बन कर जीना शुरू कर देते हैं. दो घुमक्कड़ों का यह मधुर मिलन आज के दुनियादारी जीवन में दुर्लभ सुखद संयोग है –
‘यह मेरी मां की निशानी है. आज से तुम्हारी हुई.’ सबीने संकोच करती रही पर जबरन उसे थमाते हुए वे बोले ‘आप लोग मानो चाहे न मानो आज से मैंने तुम दोनों को अपना बेटा-बहू मान लिया. मतलब, सिरी-नमस्या.’
(Jitni Mitti Utna Sona Book Review)
संभवतः दुनिया के इतिहास में इतना संक्षिप्त वैवाहिक अनुष्ठान कहीं न हुआ होगा. सनम काकू के फ़ैसले पर मोहर लगाते हुए पुरोहित बनाकर लाए गए कॉमरेड धरम सिंह ने गिलास भर दिए. सुबह-सुबह दावत शुरू हो गई.’ (पृष्ठ-167)
निःसंदेह, हिमालय प्रेमी घुमक्कड़ों और शोधार्थियों के लिए यह एक जरूरी यात्रा-किताब है.
अमेजन पर किताब यहां उपलब्ध है – जितनी मिट्टी उतना सोना
– डॉ. अरुण कुकसाल
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वरिष्ठ पत्रकार व संस्कृतिकर्मी अरुण कुकसाल का यह लेख उनकी अनुमति से उनकी फेसबुक वॉल से लिया गया है.
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