बस्कोट (नेपाल) में जन्मे झूसिया दमाई (जन्म: 1910, मृत्युः 16 नवम्बर 2005) जितने नेपाल के थे उतने ही भारत के भी और जितने भारत में फैले हैं उतने ही नेपाल में भी. उनकी रिश्तेदारी, जाति-बिरादरी दोनों देशों में समान रूप से है. स्वयं उनके कुछ विवाह भारत में हुये तो कुछ नेपाल में. उनके कुछ ‘गुसाँई’ भारत में हैं तो कुछ नेपाल में. उनकी कुछ जमीन नेपाल में हैं तो कुछ भारत में. वह रणसैनी मन्दिर (नेपाल) के खानदानी दमुवाँ-वादक और वीरगाथा- गायक थे तो ढूंगातोली (भारत) में वह मन्दिर में जाकर ‘द्योल’ (नौबत) बजाते, चैत के महीने में घर-घर जाकर ऋतुरैण गाते/सुनाते थे-
(Jhusia Damai Folk Music artist Uttarakhand)
जो भागी जी रौलो सो ऋतु सुणलो.
जो पापी बड़न्छ कहाँ ई सुणन्छ रीत्यो.
द्विय दिन का ज्यूना म भलो नै बोलनू,
गिड़ला ऊँछी पलती भड़ पाय बिन्दी की बिनती,
कै भाँती करी हालछा साबा सर्द की.
(इस ऋतु में मैं हर वर्ष यह कथा तुम्हें सुनाऊँगा. कि भाग्यवान, पुण्यवान लोग इसे सुनेंगे. इस दो दिन की जिन्दगी में बोल-वचन ही तो रह जाते हैं आदमी के.)
यद्यपि झूसिया की बोली प्रचलित कुमाउँनी से कुछ भिन्न है. इस पर भी जब वह गाते थे तो शब्दों का संगीतमय तथा लयात्मक उच्चारण जटिलता को और बढ़ा देता था. किन्तु जब हम थोड़ा-सा गौर से उनकी मौखिक परम्परा को समझने की कोशिश करते हैं, उसे तत्कालीन ऐतिहासिक सामाजिक संदर्भों से जोड़ते हैं, तो झूसिया धीरे-धीरे समझ में आने लगते हैं.
दरअसल ‘लोक-थात’ की मौखिक परम्परा में वीरगाथा गायन ‘झूसिया’ का खानदानी पेशा था. सामान्यतया ‘ऋतुरैण’, जो कि भाई बहिन के स्नेहिल और वेदनापूर्ण उदास कथानक पर आधारित है और जिसे सुनकर आज भी माँ-बहिनें अनायास ही रुआंसी हो उठती हैं या रो पड़ती हैं- ऐसे कथानक भी ‘झूसिया’ वीरगाथा के अंदाज में ही गाते-सुनाते थे. इसलिये ‘झूसिया’ वीरगाथा गायक थे. वह जो कुछ गाते थे, उसे उन्होंने अपने पूर्वजों से सीखा था. उनके पिता ‘रनुवां दमाई’ और उनके अन्य पूर्वज भी गाथा-गायन, दमुवाँ-वादन ही किया करते थे. झूसिया की दोनों पत्नियाँ ‘सरस्वती’ और ‘हजारी’ उनके साथ ‘ह्योव’ भरतीं ‘भाग’ लगाती थीं. अभिप्राय यह कि झूसिया जो कुछ गाते थे वह उनकी परम्परा-परिपाटी रही. इसलिये उसमें तत्कालीन कुमाऊँ और नेपाल का सम्मिलित इतिहास, भूगोल, समाज व्यवस्था, आर्थिक-राजनैतिक दशा, धार्मिक- सांस्कृतिक मान्यताएँ सभी कुछ सन्निहित है.
बस्कोट, रणसैनी, पुजारागाँव-झूसिया जहाँ जन्मे, पले और बड़े हुये तक पहुँचने के लिये पिथौरागढ़ से जाना होता है झूलाघाट. फिर सीधी चढ़ाई (पैदल मार्ग) पहुँचाती है रणसैनी के पास कच्चे मोटर मार्ग में. जिस पर अभी जीपें ही चलती हैं. बैतड़ी से नेपाल के अन्य स्थानों के लिये ‘गोठलापानी’ से बसें मिलती हैं. ‘गोठलापानी’ की चोटी पर है ‘गढ़ी’. पश्चिमी नेपाल का यह क्षेत्र नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री लोक बहादुर चंद का भी इलाका है. यहीं जन्मे थे राजशाही के खिलाफ लोकतंत्र के समर्थक शहीद दशरथ चंद और यहीं जन्मे इन ‘चन्दों’ की, इनके पूर्वजों की वंशावली जानने-सुनाने वाले झूसिया दमाई.
यहीं पर मैं याद करना चाहता हूँ ‘झूसिया’ के बड़े बेटे चक्रराम दमाई को जो गीत और नाटक प्रभाग नैनीताल में कलाकार थे और जिन्हें ‘झूसिया’ के साथ गाते-बजाते-नाचते हमने देखा-सुना है. चक्रराम दमाई कई अर्थों में ‘झूसिया’ के टक्कर के ही नहीं बल्कि उनसे आगे के थे- खास तौर पर ढोल वादन में. दुर्भाग्यवश वह पहले ही चल दिये. (Jhusia Damai Folk Music artist Uttarakhand)
हाँ, तो हम फिर आ जाते हैं ‘झूसिया’ पर. झूसिया माने-सामन्ती मानसिकता लिये वर्तमान के द्वंद्वों को बड़ी सहनशीलता और चातुर्य के साथ समरस करने वाला एक गपोड़’ व्यक्ति. ‘नोटों’ और विक्टोरियाई रुपयों की खन-खन से औरत खरीदने वाला व्यक्ति. एक मछली कम हो जाने पर या मछली खा लेने पर, औरत को घर से निकाल देने वाला व्यक्ति. और अपने जीवन की इन घटनाओं को गर्व से सुनाने वाला व्यक्ति. जीवन में पाँच शादियाँ करने वाला व्यक्ति, दो पत्नियों में बड़ी सहजता से सामंजस्य बिठाये रखने वाला व्यक्ति.
लोक द्वारा विस्मृत लोकगायिका कबूतरी देवी का इंटरव्यू
और इन सबके साथ-साथ कालीतट की भारतीय और नेपाली साझी संस्कृति की मौखिक परम्परा की महत्वपूर्ण और जीवंत कड़ी बन जाने वाला व्यक्ति. कहने का मतलब एक इतिहास थे झूसिया दमाई जिसमें उनकी ‘जग-सुनी’ भी है और ‘आप-बीती’ भी. बड़ी कुशलता के साथ ‘जग-बीती’ में ‘आप-बीती’ जोड़ देते थे वह
गंगा बीच छाड़ि गे छै, न वार नै पार
तेरा पीछा लागी रयूँ,
हाँ ऽऽ बयासी साल में तुमार शरण में आयूँ राजा,
है ऽ राजा उ ऽ ता ऽ रिऽ ये पार हा ऽऽ आ ऽऽ
(बीच गंगा-धार में छूटा हुआ बेसहारा मैं, तुम्हारा सहारा पा रहा हूँ अब- बयासी वर्ष की उम्र में. सो हे मित्रो! पार लगा देना मेरी नय्या.)
यह ‘संग्राम कार्की’ वीरगाथा में गाया गया ‘बैर’ का टुकड़ा है. जिसमें झूसिया अपना दुख, अपनी बात कह गये हैं. वीरगाथा में वर्तमान को जोड़ गये हैं. वर्तमान को जोड़ने का यह क्रम झूसिया में ही नहीं सभी ‘असल’ लोक-गायकों में अकसर मिलता ही है. और यही रचनात्मकता किसी भी लोकगायक को अपने समय का लोक नायक’ बनाने में महत्वपूर्ण कारक बनती है. हमारे समय के अन्य लोकगायकों-गोपीदास, जोगाराम, मोहन सिंह रीठागाड़ी- सभी में यह गुण मौजूद था.
यहाँ पर प्रसंगवश यह बात कही जानी चाहिए कि जीवन तो सदा प्रवहमान है ही लेकिन उसकी ‘लोकथात’ के प्रवाह को बनाये रखने में उसे अभिव्यक्ति देने वाले लोककलाकार मुख्य भूमिका निभाते हैं. वेदपाठी और ‘लोक-कण्ठी’ में एक अन्तर यह भी है. लोक कलाकारों के इसी महत्वपूर्ण योगदान के कारण ही लोक की मौखिक परम्परा सदा प्रवहमान, गतिशील और जीवंत रहती है. किसी भी लोककलाकार का योगदान यही होता है कि वह अपनी रचनात्मकता उस ‘लोकथात’ में जोड़ देता है जो उसे पीढ़ी दर पीढ़ी से मिली होती है
गढ़ चम्पावत को दरबार म
बड़ी राजा ईजड़, का पाठ बीजड़
का पाठ कलिश, का पाठ गुणापिङा….
(गढ़ चम्पावत में- बड़े राजा ईजड़, ईजड़ के पुत्र बीजड़, बीजड़ के कलिष, कलिष के गुणापिङा….)
झूसिया दमाई मूलत: वीरगाथा-गायक थे. ‘संग्राम-कार्की’ उनकी प्रिय वीरगाथा है. झूसिया इसे जहाँ से चाहें शुरू कर सकते थे, जहाँ से चाहें समेट सकते थे. संग्राम-गाथा झूसिया की जेब में समझिये. संभवत: यही कारण है कि लोक की मौखिक परम्परा की जितनी भी शैलियाँ झूसिया के पास थीं, लोकाभिव्यक्ति की जो बहुरंगी अभिव्यंजना और स्पष्टता उनके पास थी, सौन्दर्यबोध की जो गहराई थी, मुहावरों और ध्वनि बिम्बों का जो खजाना था, लोकसंगीत-लोक लयकारी की जो विविधता थी, उन सबका सर्वाधिक प्रयोग झूसिया इस गाथा को गाने-सुनाने में करते थे.
झूसिया का संग्राम कार्की सुन लिया तो शिल्प (फॉर्म) के स्तर पर समझिये झूसिया पूरे सुन और देख लिये. ‘देख लिये’ इसलिए कि झूसिया वीरगाथा सिर्फ सुनाते नहीं बल्कि सुनाने के साथ-साथ उसकी नृत्यात्मक अभिनयात्मक अभिव्यक्ति भी करते थे.
वीरगाथा-गायन में उनके इतना चर्चित होने का एक मुख्य कारण उनकी अभिनयात्मक-नृत्यात्मक अभिव्यक्ति भी है, जो उन्हें छत्तीसगढ़ की प्रसिद्ध पण्डवानी गायिका तीजनबाई के नजदीक ले जाती है. झूसिया दमाई को देखकर तीजनबाई और तीजनबाई को देखकर झूसिया दमाई बरबस याद आ जाते हैं. कथा-बखानी में, बात को समझाने में, कथा आगे बढ़ाने में ‘तीजन’ का शिल्प जिस तरह उनकी मदद करता है, कथा-गायन की एकरसता तोड़ता है- बिलकुल वही बात, वही तेवर झूसिया में देखने को मिलते थे. बल्कि तीजन से झूसिया एक कदम आगे ठहरते हैं अपने हुड़का-वादन के कारण. यहाँ पर मैं झूसिया को तीजन से महान साबित नहीं कर रहा हूँ, यह न मेरा उद्देश्य है और न वास्तविकता. मैं बस अपनी बात को समझाने के लिए तीजन का सहारा भर ले रहा हूँ. यह सच्चाई है कि नाचते-नाचते हुड़का बजाना, उस पर लयकारी दिखाना, ताल से खेलना अद्भुत होता था झूसिया का. (Jhusia Damai Folk Music artist Uttarakhand)
गाथा-गायन प्रस्तुत करते समय ‘झूसिया’ की एक निश्चित वेष-भूषा होती थी- रंग-बिरंगा घेरदार पेटीकोट नुमा झगुला, कुर्ता, वास्कट, पगड़ी, कमर में फेटा और हुड़के में बँधी चँवर गाय के पूँछ की लटी, जो उनकी पीठ पर नृत्य के साथ अद्भुत गति से डोलती रहती थी. उनका ‘हुड़का’ भी सामान्य हुड़का नहीं था, उसमें अपेक्षाकृत भारी-भारी घाँट-घण्टियाँ लगी थीं, जो उन्हें अलग-अलग मन्दिरों से सम्मान के तौर पर मिली थीं. हुड़के के इसी वजन के कारण वह हुड़के को कंधे में डालने के साथ-साथ उसक एक ‘ताँणा’ (डोरी-संतुलित करने के लिये) कमर में भी बाँधते थे, जो सिर्फ उनकी ही विशेषता थी. अपनी उक्त वेश-भूषा में सज-सँवर कर नृत्य के साथ गाथा गायन करते हुए ‘झूसिया’ कथा के सूत्रधार होते थे और पात्र भी, गायक होते थे और वादक-नर्तक भी. बिना वेश-भूषा के अपने गायन को तो वह कार्यक्रम ही नहीं मानते थे.
एक साक्षात्कार में उन्होंने अपने आकाशवाणी कार्यक्रमों के संदर्भ में कहा है-‘खाली ‘ट्यैस्ट’ होता है वहाँ आवाज का, बंद कमरे में, और सिर्फ ढाई हजार रुपया मिलता है हमेशा. कोई प्रोग्राम नहीं होता वहाँ.’ मतलब स्टूडियो रिकार्डिंग कोई कार्यक्रम नहीं था उनकी नजर में. (Jhusia Damai Folk Music artist Uttarakhand)
(गिरीश चन्द्र तिवारी ‘गिर्दा’ का यह लेख पहाड़ पत्रिका के पिथौरागढ़-चम्पावत अंक से साभार लिया.)
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