सर्दी ने थोड़ी राहत दे दी थी. चार दिन से रुक-रुककर बर्फ गिरने के बाद आज कुछ देर को धूप निकल आई थी. एकदम मरियल, पीली-पीली. उसमें हल्की-सी तपन तो थी, पर बर्फ पिघलाने की ताकत बिलकुल नहीं थी.
(Jhol Khai Billi Hindi Story)
दोपहर ढलते ही बादल फिर घिर आए थे. रोशनी मद्धम पड़ने लगी थी. शाम पाँच-सवा पाँच तक ढलनेवाला दिन चार बजे से ही धुंधलाने लगा था.
धूप निकलने से उमाकांत को जो उम्मीद बंधी थी, बादलों के फिर गहराने से वह जाती रही. घर में घुसते समय चौथरे से ही उसकी नजर छत की तरफ थी. देहरी लाँघते समय कुलबुलाहट और तेज हो गई. ढलवाँ छत के नीचे कीड़ा लगी बल्लियाँ, जो छत के भार से पहले ही चरमरा रही थीं, बर्फ के अतिरिक्त वजन से एकदम झुक गई थीं. इस झुकाव ने ढलान में जगह-जगह झोल बना दिए थे, जिन्होंने पानी के कटाव को रोक दिया था. अब पिघलती बर्फ का सारा पानी अंदर टपकने लगा था.
सवेरे जब दिन खुल गया था, तभी छत की बर्फ साफ कर देनी चाहिए थी, उसने अपने-आप से कहा. पाथरों के मिलान खाँचों में कुछ बर्फ बच भी जाती तो वह दिन की धूप और अंदर जलती आग की गर्मी से अब तक पिघलकर साफ भी हो गई होती. अब अगर इस बर्फ के ऊपर और बर्फ पड़ गई, तब सँभाल पाएँगी ये बल्लियाँ छत के भार को!
तारा ने बेकार जिद की. सारा दिन लकड़ी फाड़ने में गुजर गया. लकड़ी भी चीड़ की होती तो एक बात थी. एक तरफ से कुल्हाड़ी चलाते जाते, फट्टे चटाचट अलग होते जाते. दाडिम की लकड़ी जान ले लेती है. सूखकर एकदम खड़खड़ हो तब भी उसके ऐंठदार घुमाओं में कुल्हाड़ी इथर मारो, दरार उधर पड़ती है. जरा-सा कच्चापन रह गया हो या उसने पानी पी लिया हो, तब उसको फाड़ना जान पर आफत मोल लेना ठहरा.
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इजा ने तभी कह दिया था, “आज लकड़ी फाड़ने का दिन नहीं ठहरा. -दो घाम पड़ने दो-लकड़ियों का पानी मर जाने दो, तब जाना.”
“लकड़ियों की तो ऐसी हो रही है कि खाना किसमें पकाऊँ हो जाती है. सर्दी का ये हाल है. रात-भर तापने को आग चाहिए. मौसम का क्या भरोसा करना हुआ.”
तारा ने रुकने की कोई गुंजाइश ही नहीं छोड़ी. सर्दी का बालिश्त भर का दिन कुल्हाड़ी चलाने में ही गुजर गया. उमाकांत ने छत को गौर से देखा. जानना चाहा कि पानी कहाँ-कहाँ से रीस रहा है ताकि छत साफ करने के बाद रिसाव पर पत्थर की खपच्चियाँ फँसा दे. पर पानी था कि अपने स्रोत का मुँह ही नहीं दिखा रहा था. दादर (बल्लियों के बीच बिछी खपच्चियाँ) के पीछे पता नहीं कहाँ-कहाँ से बल्लियों पर साँप की तरह लिपटता चला आ रहा था.
बाहर रोशनी अब ज्यादा नहीं थी. हवा भी गुम हो गई थी. बर्फ पड़ने के फिर पूरे-पूरे आसार बन गए थे. वह उठा और भार का अनुमान लगाने छत पर चढ़ गया. छत से लौटा उमाकांत लोहे के चौकोर बरसे को, जिसमें अधजली और गीली लकड़ियाँ फुसफुसाती आग के साथ ढेर सारा धुआँ छोड़ती जा रही थीं, इस कोने से उस कोने तक खिसकाता जा रहा था. पर एकदम सूखी जगह, जहाँ आलथी-पालथी मारकर आग सेंक सके, मिल ही नहीं पा रही थी. बल्लियों से टपकते पानी ने मिट्टी के लीपे फर्श को तर कर दिया था.
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उमाकांत को रह-रहकर अफसोस हो रहा था-वह इजा के कहने में क्यों आया. तीन साल से लग रहा है कि यह छत अब गई-तब गई. उसे कुछ-न-कुछ इंतजाम कर लेना चाहिए था. ये तो अच्छा है अब पहले जैसी बारिश नहीं हो रही. दो साल से वैसी बर्फ भी नहीं पड़ी. थोड़ी-बहुत पड़ी भी तो हाथ के हाथ बिला गई.
इजा तो एक भावना से बँधी है कि उसके बेटे मिल-जुलकर रहें-एक दूसरे का सहारा बनें. कम-से-कम घर के काम में तो आपस में हाथ बटाएँ. दुखी भी वह इसी कारण रहती है. वह ठहरी उस जमाने की जब लोगों को यहाँ की जमीन-खेती से मोह था. वह यह जो क्या समझती है कि जो शहरों में नौकरी करने लगे-वहीं मकान बनाकर बस गए, उनके लिए यहाँ का कुछ भी मोल नहीं रहा.
इजा को पता नहीं क्यों भरोसा है-भाई लौटकर जरूर आएंगे.
“जड़-जमीन तो उनकी यहीं ठहरी.” यही विश्वास उसके भरोसे का आधार है.
इसी विश्वास के दम पर उसे उम्मीद थी कि मकान की मरम्मत तो वे करेंगे ही. इसी भरोसे से वह बार-बार उमाकांत को दिल्ली जाकर भाइयों को हाल बता आने को कह रही थी.
उमाकांत कहे, “चिट्ठी भेजी तो है,” वह पहले ही बोल देती थी, “ऐसी बात चिट्ठी-पतरी से जो क्या हो पाती है.”
पता नहीं उसे भाइयों पर वाकई इतना भरोसा है या वह अपने भरोसे को जिलाए रखने के लिए बार-बार विश्वास को जाँचती रहती है. हो सकता है वह उमाकांत का हौसला बनाए रखने के लिए अपने साथ-साथ उसको भी दिलासा देती रही हो.
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घर को लेकर जब भी बात होती है, मन खट्टा-सा हो जाता है. इजा के पास एक ही निदान है-भाइयों के पास जा.
जब उसको कहा, “घर का हाल क्या उनको पता नहीं है? बौज्य (पिताजी) की क्रिया-पीपल पानी को आए तो थे. अपनी आँखों से देख गए हैं. न्यारा ही हो जाएगा.”
“बाहर गए हुओं को यहाँ की रोज-रोज की परेशानी का क्या पता. उस समय दो दिन के लिए आए, बाप के गम में ही रहे. तू जाएगा तो समझ जाएंगे. क्यों नहीं करेंगे मदद, घर है उनका.” इजा भरोसा देने लगी थी.
“मदद किस बात की हुई. अपना घर सँभालना हुआ. हम पर क्या एहसान हुआ.” तारा इजा की बात पर उतना नहीं चिड़चिड़ाई थी, जितना लगातार भेजी चाहिए. पर वे तो चिट्ठी पर भी चुप बैठे हैं. कोई विलायत से तो आए नहीं हैं वे, इसी पहाड़ से गए हैं. अच्छी तरह जानते हैं-हर बरसात में पहाड़ खिसकते हैं तो खेत टूट जाते हैं करके. उन पर पग्यार (दीवार जैसी रोक व सहारा) देनी होती है. मेहनत तो होती ही है, पैसा भी लगता है. मकान के बारे में क्या बताना हुआ, पता ठहरा उनको चीड़ का दार (चौखट, बल्लियाँ आदि) कितने दिन चलता है करके. अकेले हम क्या-क्या कर सकते हैं.”
तारा की चिड़चिड़ाहट पर इजा बुरा मान गई, “मेरे बोलने का तो धरम ही नहीं रहा.” कहकर चुप हो गई.
उमाकांत को भी बुरा लगा. इजा को सुनाने की क्या जरूरत थी. वह किसी का पक्ष जो क्या ले रही थी.
“मकान ही बेढंगा हो गया है.” इजा और तारा की तुनका-तुनकी से उठी खीझ में उसने ऐसे कहा जैसे सारे फिसाद की जड़ यह मकान ही हो, “इतना बडा-होटल जैसा छः दर नीचे, तीन ऊपर के अंदरवाले और बाहर हाल जैसा चाख. किसके वश का है पूरे की मरम्मत करना. कम दार लगेगा इस पर.”
“मैं कुछ कहूँ तो ज्यू (सासजी) को बुरा लग जाता है.” तारा ने इजा की नाराजगी दूर करने के लहजे में आवाज को मुलायम किया, “इनको जो क्या कुछ कह रही हूँ मैं. अपनी परेशानियों को रोती हूँ. सौरज्यू (ससुरजी) अपने हाथ से तीन हिस्से कर जाते तो हमारे लिए इतनी आफत नहीं होती.”
“हमने अपने हाथ से कैसा बँटवारा करना था. अलग-अलग मकान जो होते तो ये तेरा-ये उसका कह देते. इसका कौन-सा हिस्सा अलग देख रही है तू. हर दीवार, बल्ली, दरवाजा साझी है. कहाँ से काटकर अलग करेगी. बँटवारा करके भी मुझे चैन आ जाएगा? हमारे लिए तो तीनों बराबर हुए. किसके हिस्से को टूटा देखकर अच्छा लगेगा मुझे? वे तो चले गए, मेरी आँखें भी बंद हो जाएँ तो जो मन में आए, करना.” इजा ने फैसला-सा सुना दिया.
बात हर बार की तरह आई-गई हो गई.
इस बरसात में इजा ने देख लिया था, छत के पत्थर भी खिसकने लगे हैं. पानी पीया दार ताकत चूक रहा है. बरसात-भर वह पानी रीसने की संभावित जगहों पर पत्थर की खपचियाँ लगाती रही थी.
तभी से उमाकांत को समझा रही थी, “माना उनको समझ नहीं है. बालबच्चे तो तेरे रहते हैं यहाँ पर. भाइयों को समझा-यह घर नहीं है, पितरों का स्थान है. आसरा है तुम्हारा. उनसे कह-कभी पाँच-दस दिन को भी यहाँ आओगे, तो कहाँ सिर छिपाओगे. उनको बोल-मैं मेहनत करूँगा, तुम पैसा दो. मरम्मत हो जाएगी. कोई नया मकान जो क्या बनवाना है. तेरे भाई हैं वे, इतनी बात भी नहीं समझेंगे.”
इजा के समझाने से भावना ही बदल गई. कुछ उम्मीद-सी बन गई कि भाई मकान की मरम्मत को तैयार हो जाएंगे. इसी भरोसे में उसने विचार बना लिया-गेहूँ बोते ही दिल्ली हो आऊँगा. लौटकर दीदी के वहाँ जाऊँगा. जंगल का गाँव है उसका. जंगलात वालों से उठ-बैठ है. दाव लगा, दो-एक पेड़ तूड या कनार का मिल जाए तो कहना क्या. पक्का दार बन जाएगा. नहीं तो चीड़ के पेड़ उनके अपने भिड़ों (दो खेतों के बीच का पहाड़ी फासला) में ही होंगे. वहाँ हमारे जैसा इलाका जो क्या हो रखा है कि जरा से काम के लिए छोटा-बड़ा जैसा पेड़ मिला, काट लिया. वहाँ अपने भिड़ों के पेड़ों के अलावा चीड़ का साझा जंगल भी है. उसकी हिफाजत भी करते हैं वे. हमारे यहाँ के लोग तो पेडों के दुश्मन हो गए हैं. नहीं तो क्या था यह जो नीचे का हिस्सा है गोचर वाला, वहाँ चीड़ के पेड़ खुद हमने देखे हैं. उन्हें रहने देते तो यहाँ भी अब तक जंगल हो गया होता. पर यहाँ तो खुराफाती ज्यादा हैं. जहाँ चार हाथ का पेड़ हुआ, कुछ नहीं तो सब्जी की बेल को सहारा देने के लिए काट लिया. आज पछता रहे हैं. अब आ रहा है होश. अब हो रहे हैं वनीकरण वाले. अब लगाए हैं पेड़. उनको भी रहने दें, तब है. अभी से हो रही है-गोचर बंद करा दिया. गाय-बछिया कहाँ चराएँ.
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सोचा था, दो-तीन तगड़े पेड़ मिल जाएँ तो काम चल जाएगा. उसमें सारा दार बन जाएगा. पेड़ मिले तो वहीं चिरवा भी लूँगा. गाड़ी इधर को आती ही है. ड्राइवर-कंडेक्टर को चाय-पानी के पैसे देकर थोड़ा-थोड़ा करके गाड़ी की छत पर रखवा लाऊँगा.
सोचा तो यह भी था कि मिर्च अच्छी हो गई और भाव ठीक निकल आया तो अपने हिस्से के पैसे भी हाथ के हाथ मिला दूंगा. बेकार का अहसान सिर पर नहीं रखूगा.
दिल्ली जाने पर दो महीने बेकार हो गए. जाने के बाद नहीं लौटने के दस बहाने हो जाते हैं. वहाँ जाकर पता चला, कुबेर दत्त की लड़की की शादी ठहर गई है. कुनबे का मामला था-चाचा का लड़का है. रुकना पड़ा.
बाहर चीड़ के पत्तों की स्याँ-स्याँ बंद हो गई थी. उमाकांत का ध्यान उधर तब गया, जब कमरे में भर आया गीली लकड़ियों का धुआँ साँस में अटकने लगा.
बरसे से आग उठ ही नहीं रही थी. लकड़ियाँ मोटी थीं. उन्होंने पानी भी खूब पी रखा था. आग उठाने के लिए इस वक्त पतली लकड़ियों की जरूरत थी. वे आग भी देतीं और मोटी लकड़ियों का पानी भी पाट देतीं. पर पतली लकड़ियाँ चूल्हे के लिए थीं. वहाँ मोटी लकड़ियों से काम नहीं चलता. फू-फू ही होती, आग नहीं उठती. रात-भर लगे रहते तब भी खाना नहीं बनता.
धुएँ को निकासी के लिए उसने खिड़की का पल्लू खोला ही था कि ठंडक की लहर छाती को चीर गई. झुरझुरी से बदन काँप उठा. उसने थोड़ा साहस किया. दूसरा पल्लू भी खोल दिया. ठंडक अंदर को दौड़ी चली आई. लेकिन तब तक शरीर ने उस तापमान से समझौता कर लिया था.
बाहर झाँका तो हक्का-बक्का रह गया-बर्फ गिर रही थी, जैसे चुपके से सन्नाटे का फायदा उठा रही हो.
“बाहर तो बर्फ गिरने लगी.” अनायास बोले इस वाक्य ने चूल्हे के पास बैठी इजा और तारा को हिला-सा दिया.
“फिर लगने लगी बर्फ पर आग.” तारा की चौंक में आशंका और निरीहता भी झलक रही थी.
“बर्फ तो तभी से गिरने लगी थी, जब हवा चलनी बंद हो गई थी.” इजा की आवाज पर वह चौंका. वह शाम से ही चूल्हे के पास बैठी बच्चों को किस्सा सुना रही थी. उसे बर्फ गिरने का पता कैसे चला.
इजा के ऐसे अप्रत्याशित व्यवहार से वह अक्सर चकित रह जाता है.
बर्फ गिरने का उसे पता चल गया था, उसने बताया क्यों नहीं. वह बर्फ की मात्रा को भी जरूर जान रही होगी. हो सकता है इस समय वह उसी दिव्य दृष्टि से बल्लियों की ताकत भी माप रही हो कि कितना भार और सह सकती
बर्फ गिरने के जिक्र से आए व्यवधान में भी इजा ने किस्से को छोड़ा नहीं. उसकी तन्मयता और गहरा गई. बाहर की तरह उसके भीतर भी छा गए सन्नाटे में उसकी आवाज और साफ सुनाई दे रही थी. कोई चाहे तो उसमें से भय, हताशा, रोष या निराशा के चिह्न ढूँढ़ सकता था.
वह ठंड से जुड़े कई किस्से बता चुकी थी. अब गाँव के पुराने रूप पर आ गई थी. बता रही थी, पहले गाँव सामनेवाले पहाड़ की खोल में था-जहाँ अब मिर्च के खेत हैं. बताते हैं, एक बार पूरा पहाड़ गाँव पर गिर गया. सारे मकान टूट गए. (Jhol Khai Billi Hindi Story.)
तारा भी इजा के किस्सों को उसी तन्मयता से सुन रही थी. बीच-बीच में अपनी प्रतिक्रिया की चेपियाँ भी लगा देती थी, “यहाँ के टीले से तो लाख दर्जा अच्छी जगह ठहरी वह. दोनों ओर से पहाड़ों की ओट है. कैसा घुम्म रहता है वहाँ पर. हवा बाहर-ही-बाहर निकल जाती है.” तारा इस जगह की हवा से ज्यादा ही आतंकित है. उसे ठंड लगती भी ज्यादा है. जेठ के महीने में भी अच्छी बारिश हो जाए और शाम को हवा जोर पकड़ ले तो तारा, “जाड़ा तो मेरे पेट में ही बैठ गया है,” कहकर गड़गड़ाने लगती है.
“वहाँ पौन (हवा) का फुफाट तो कम हुआ ही, बाकी का भी सारा आराम ठहरा. आज तो एक भैंस और एक जोड़ी बैलों को ही कैसे पालते हैं हो जाती है. पहले गाय-भैंस खूब पालते थे लोग. जहाँ घास-लकड़ी, पानी की भरमार हुई, वहीं खुश ठहरा आदमी. इसलिए बसे होंगे हमारे बुजुर्ग वहाँ.” तारा की प्रतिक्रिया को माँ ने विस्तार दिया.
“फिर मकान यहाँ किसने बनाए आमा?” बच्चों की समझ में सखों का महत्त्व नहीं आ रहा था. भारी-भरकम बातों में उलझने की बजाय वे अपना वंशइतिहास जानने के ज्यादा इच्छुक लग रहे थे. उनकी तन्मयता उन्हें इजा के और करीब ले आई थी. तारा के “पीछे हटो, क्या चूल्हे में ही घुस जाओगे” की झिड़कियों का भी उन पर कोई असर नहीं हो रहा था.
“तुम्हारे परदादा ने बनाया, और किसने. वे बड़े हिम्मतवाले थे. इतना बड़ा मकान है हमारा. इसका ये हिस्सा जिसमें हम बैठे हैं और इसके साथ वाला हिस्सा उन्होंने खुद बनाया. पत्थर निकाले, दार बनाया और खान से छत के पाथर निकाले. तीसरा वाला हिस्सा बाद में तुम्हारे बूबू (दादाजी) ने बनवाया. उन्होंने सोचा था, तीन बेटों के लिए तीन घर हो जाएँगे.” कहते-कहते माँ की आवाज मद्धम-सी पड़ गई.
जब भी घर, जमीन और भाइयों का जिक्र आता है, माँ ऐसे ही बुझ जाती है. इसके अंदर कुछ उमड़ता है-जिसे वह व्यक्त करना चाहती है या व्यक्त नहीं करने की जिद में उसे भीतर को घुटती है. तब उसके चेहरे की झुर्रियाँ ज्यादा काली और गहरी हो जाती हैं-स्वर अस्पष्ट हो आता है.
उमाकांत उस बदले लहजे से परेशान भी हो उठता है और कभी-कभी ऐसे सहम जाता है जैसे भीतर से भीग गया हो और सिकुड़न को थामने के लिए फैलाव चाहता हो.
“तू चाख में इस बरसे से क्यों चिपका बैठा है. ये लकड़ियाँ अभी जो क्या पकड़ेंगी आग. जब धुएँ से इनका पानी पट जाएगा, तब सुलगेंगी. तब तक अंदर आ जा. इतनी अच्छी आग हो रही है यहाँ.” इजा ने सिर्फ उसे बुलाने को ही आवाज नहीं दी थी. घर का प्रसंग फिर उठ जाने से उसके भीतर जो मथ रहा था और उसमें से उमाकांत के लिए जो करुणा उपजी थी, माँ को उसे उगलने का बहाना भी चाहिए था.
माँ के लहजे से ही वह समझ गया था-वह अब इतनी द्रवित हो चुकी होगी कि उसके विचारों में उमाकांत एकदम निरीह प्राणी बन गया होगा. इस निरीहता के लिए वह कहीं न कहीं अपने को भी कसूरवार मान रही होगी.
पता नहीं ऐसी भावना उसके अंदर खुद ही जाग्रत हुई है या बौज्यू (पिताजी) ने जिलाई है. बौज्यू आखिरी के दिनों में इस अपराध-बोध से घिरे रहने लगे थे, “तेरी जिंदगी मैंने खराब की है उमा.” उनके मुँह से अचानक निकली यह बात उसे भी बेध जाती थी.
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“किसी की जिंदगी कोई खराब नहीं करता, बौज्यू. अपनी-अपनी तकदीर होती है.”
तब उमाकांत खुद भी एक आवेग में बह जाता था. कुछ ऐसा कर दिखाना जिससे बौज्यू को लगे-उमाकांत का गुजारा हो जाएगा.
बौज्यू खुद भी इस ‘कुछ ऐसे’ की जुगत पर सोचने लगते थे. बिना बात के खुद ही बड़बड़ाने लगते थे, “हो क्या सकता है यहाँ बिना पानी के. खाली मेहनत से जो क्या हो जाएगा. पानी डंगरों के पीने को पूरा नहीं पड़ता. बारिश का अब यह हाल है कि या तो बरसेगा नहीं, या चैत-बैशाख-भादों में बरसेगा. जब फसल काटने को तैयार खड़ी होगी. निखालिस खेती के सहारे किसकी गुजर हो सकती है यहाँ.”
बौज्यू ने कोशिश भी की. कुछ पेड़ लगवाए-सेब और अखरोट के. वे खास पनपे नहीं. अखरोट का एक पेड़ बचा है-अब फल देने लायक हो आया है. सेब के पेड़ कुछ बच गए थे. पर सेब चला नहीं. मिठास पूरी नहीं आती थी उसमें. खटास रह जाती थी. बिकता बिलकुल नहीं था. कोई खरीददार ही नहीं था. कभी सेर-दो सेर बिक गया तो उससे क्या होना था.
देखा जाय तो सेब की फसल कुछ नहीं ठहरी. नाजुक इतनी हुई कि जरासी बयार में फूल झड़ जाएँ. धार में बसा यह गाँव हवा का ही मारा हुआ है. ओले पड़ जाएँ तो सब खत्म. पेड़ भी चार-पाँच साल में ही सूखने लगे. लोग बताते हैं-दवा-दारू भी होती है इनकी. कटाई-छंटाई भी होती है बल. यहाँ किसके पास था इतना बघत. प्राप्ति ही नहीं थी, दिलचस्पी भी खत्म हो गई. सुनते हैं चौबटिया, दूनागिरी में लोग फल और आलू का धंधा कर रहे हैं. वे रोड के किनारे हैं, खरीददार मिल जाते होंगे. यहाँ के लिए तो मिर्च ही ठीक है. जमकर मेहनत कर सकी और बारिश टैम पर हो गई तो कुछ-न-कुछ निकल ही आता है.
बौज्यू पता नहीं क्यों इतने परेशान हो आए थे. मैं अकेला तो नहीं जो इन पहाड़ी खेतों के सहारे टिका हुआ हूँ. लाखों हैं. अपना-अपना बघत सभी निकाल रहे हैं. समय भी पहले जैसा नहीं रहा कि पैसा देखने को तरस जाएँ. काम भी मिलता रहता है. मिर्च, नींब, चौलाई से घर का खर्च भी निकल आता है. हां, नौकरी जैसे ठाठ नहीं ठहरे. यही अफसोस रहा बौज्यू को कि उन्होंने लगी लगाई नौकरी छुड़वा दी.
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“मुझे क्या पता था ऐसा हो जाएगा करके.” खुद ही अपने को दोषमुक्त भी करने लगते थे. कभी-कभी भाइयों को कोसने पर भी उतर आते थे. इजा टोकती थी, “अच्छा लग रहा होगा तुम्हारे मुंह से ये अनाप-शनाप बकना.”
“क्या करूँ तो, मझदार में छोड़ दिया उन्होंने इसे.” बौज्यू स्पष्टीकरण देने लगते थे.
उस समय जो तय हुआ था, वह तब के समय अनुसार ठीक ही था.
तीनों भाई दिल्ली में नौकरी करते थे. दो सरकारी नौकर हो गए थे. उमाकांत एक कंपनी में था. तीनों साथ थे. बीबी-बच्चे गाँव में थे. बारी-बारी से एक के बच्चे आ जाते थे. खाना बनाने, लत्ते-कपड़े धोने का सुख मिल जाता था.
बौज्यू थकने लगे. हल चलाना उनके लिए कठिन हो गया. खेती पिछडने लगी, तब उन्होंने कहा, “अब मेरी सामर्थ्य से बाहर है. तुममें से एक भाई को घर रहना पड़ेगा.” फिर समझाने भी लगे, “इसमें मुश्किल भी क्या आ रही है. दो शहर में कमाओ-एक घर सँभाले. सबसे अच्छा कारोबार रहेगा तुम्हारा.”
उस वक्त बौज्यू का ऐसा सोचना गलत नहीं था. पूरा पहाड़ मनीऑर्डर से पल रहा था. जो बाहर नौकरी पर थे, उनकी भावना भी यही थी-घर चलाने
और उसे संभालने के लिए पैसा कमाने की. शहरों में ही बस जाएँगे, किसने सोचा था.
बौज्यू ने जो रास्ता सुझाया था, उसमें सरकारी नौकरी छोड़ना ठीक नहीं समझा गया. प्राइवेट नौकरी छोड़कर उमाकांत घर आ गया.
समय तो बाद में बदला. एक हवा-सी चल पड़ी. शहरों में नौकरी कर रहे लोगों ने धड़ाधड़ जमीन खरीदकर मकान बनवा लिए. तब यहाँ रहनेवालों की समझ में कहाँ आया था कि बाहर गए हुओं से नाता अब कमजोर हो जाएगा.
“अपना ही खर्च पूरा नहीं पड़ रहा है” की रट तभी से शुरू हो गई थी. उसी ने रिश्तों में भी बँटवारा कर दिया. बस, आते-जातों के हाथ चिट्ठी-पतरी, चाय की पुड़िया, किलो-आधा किलो मिठाई या माँ-बाप के लिए सौ-पचास रुपए के आदान और यहाँ की एक आध सेर भट-गहत जैसी दालों, मडुवे का आटा, मोटा पहाड़ी खीरा या सेर-आध सेर घी के प्रदान में ही रिश्ते अटक गए थे. ब्याह-शादी, पूजा-पाठ के लिए सैलानियों की तरह आए लोग यहाँ को समस्याओं का रोना क्यों सुनें. दूसरों के दुखड़े में कब तक उलझते रहें.
बौज्यू तीन-चार बार दिल्ली गए थे-‘उमाकांत का कुछ प्रबंध करो कहने को. झगड़ भी आए, “तुम्हारी सलाह पर ही मैंने उनकी नौकरी छुड़वाइ है. घर वही सँभाल रहा है. उसका गुजारा कैसे होगा. थोड़ा-थोड़ा पैसा दो, मैं उसके लिए दुकान जैसी खोल देता हूँ.”
भाइयों ने क्या कहा, बौज्यू ने कभी विस्तार से नहीं बताया. कभी गुस्से में बड़बड़ा जरूर जाते थे, “पता नहीं पैसा ही नहीं है उनके पास या कुछ करना ही नहीं चाहते.”
माँ ने दूसरी आवाज दी, “तुझे वहाँ जाड़ा नहीं लग रहा?”
उसने बरसे को खिसकाकर खिड़की के पास रख दिया. एक पल्लू आधा खोल दिया ताकि धुआँ बाहर को निकलता रहे.
चूल्हे के पास वाकई तपन थी. बर्फीली हवा का वहाँ कोई असर नहीं था. माँ ने बच्चों को खिसकाकर उसके बैठने को बोरी बिछा दी.
“चूल्हे में दो लकड़ियाँ और डाल दे.” माँ ने तारा से कहा. उसके कहने का आशय यही था कि सब यहीं बैठेंगे तो आग का फैलाव तो चाहिए.
“लकड़ियों का तो ऐसा टोटा पड़ गया है इस साल की क्या बताऊँ.” माँ के कहने पर तारा ने चूल्हे में लकड़ियाँ तो डाल दीं. पर उसकी आवाज में जो लचक आ गई थी, उसने उमाकांत के साथ माँ को भी सहमा दिया. पता नहीं वह लकड़ियों की कमी के लिए कह रही थी या उसको उलाहना दे रही थी कि जब लकड़ियाँ जमा करने का मौका था, तब उसे दिल्ली घूमने की हो रही थी.
बुरा तो उसे लगा. कम-से-कम इजा की बात पर ऐसा उलाहना नहीं देना चाहिए था. पर वह चुप ही रहा. तारा की शिकायत वाजिब भी थी. उसे राशन की तरह लकड़ियों की भी किफायत करनी पड़ रही थी. जैसे-तैसे समय निकालकर उसने कुछ लकड़ियाँ इकट्ठी की थीं. अब अगर पूरे माघ ऐसी ही बर्फ गिरती रही तो सूखी लकड़ियों की छील भी नहीं मिलनेवाली.
दिल्ली जाना वास्तव में बेकार रहा. बड़ा काम तो रह ही गया. घर के छोटे-मोटे काम भी नहीं निपट पाए. भाइयों ने एक तरह से साफ ही मना कर दिया, “घर को तो तू अपना ही समझ. सब तेरा ही है. यहाँ हमारा आनेवाला कौन है. ये बच्चे जो राशन का थैला उठाने में शर्म महसूस करते हैं, पहाड़ का काम क्या करेंगे. जैसा तू ठीक समझता है, वैसा कर. रहना तुझे है, हमसे पूछने की क्या जरूरत है. पैसे-टक्कों का हाल तो भइया ये है-तू यहाँ के खर्चों को नहीं जानता. बस, पोल दबी है, दबी ही रहने दे.”
तारा को सबसे ज्यादा यही बात अखरी थी, “छोड़ देंगे वे अपना हिस्सा. तुम भी चुपचाप चले आए. कह देते घर चलो करके-बँटवारा कर लो. अपने हिस्से को रखो, बेचो, चाहे टूट-फूट जाने दो. हमें कोई मतलब नहीं. क्या हो रहा था उन्हें पैसा लगाने को-पाँच-पाँच, छ:-छ: हजार तनख्वा मिलती है बल. उनका नहीं है ये मकान. किसी और के घर पर तो लगा नहीं रहे थे. हक के टैम पर तो सब खड़े हो जाएंगे. आज जिसको मुसीबत आ रही है, उसको आ रही
इजा तो भाइयों का जवाब सुनकर ही सन्न रह गई थी, तारा के गुस्से से और भी सहम गई.
इस वक्त तो तारा के बदले लहजे में इजा को वही रोष लगा होगा. तभी वह खामोश हो गई. उसने एक बार तारा की ओर देखा और संदर्भ ही बदल दिया, “आज पिनालू की सब्जी बनी है, तेरे पसंद की.”
“पिनालू-गडेरी की सब्जी हुई तो इनकी सग्यान (त्यौहार) हो जाती है.” तारा ने मुस्कराते हुए एक उड़ती नजर उस पर डाली और चूल्हे से बाहर निकल आई आग को अंदर करने के लिए लकड़ियों को भीतर खिसकाने लगी.
उनके गमगीन चेहरे भी हल्के हो गए. लगा, लकड़ियोंवाली बात उसने यों ही परेशानी में कही थी.
“बाहर देख तो आते-कितनी बर्फ पड़ रही है.” बल्लियों की ओर देखते हुए तारा ने कहा.
“देखने से कम जो क्या हो जाएगी.” उमाकांत खीझ-सा गया.
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“बीच की बल्लियों पर टेक लगानी जरूरी हो गई है. रात-बिरात में ज्यादा बर्फ गिर जाए-न सँभाल सकें बल्लियाँ इतना वजन.” तारा ने उमाकांत की खीझ पर उतना ध्यान नहीं दिया, जितना बल्लियों पर दे रखा था.
“ऐसी अनहोनी की क्यों सोचती है. कोई घास-फूस से ढकी छत जो क्या है. है तो चीड़ की लकड़ी, पर एकदम पक्की लगवाई थी तेरे ससुर ने. जातेजाते भी अपनी ताकत दिखा जाएगी.” माँ का स्वर काफी मुलायम था.
इस ढाँढस से उसकी चिंता कम तो नहीं हुई-टूटा साहस थोड़ा सिमट गया था. तारा ने उस सिमटे साहस को फिर बिखरा दिया.
वह परात धोए का पानी बाहर फेंकने गई थी. वहीं से बोलती आई, “बर्फ के तो ये-ये डल्ले पड़ रहे हैं.”
उसकी आवाज में छिपे डर ने खामोशी को और गहरा दिया. खाना खाते समय कोई बोल नहीं रहा था. बीच-बीच में मुँह चलाने की चप-चप आवाज ही सन्नाटे को तोड़ती थी. माँ को यह चुप्पी ज्यादा अखर रही थी शायद, “मेरी शादी के साल भी इतनी ही बर्फ पड़ी थी. कई दिनों तक चारों ओर सफेद-ही सफेद नजर आता था.”
माँ की सूचना ने खामोशी को तोड़ा-अच्छा. इतने साल बाद पड़ रही है इतनी बर्फ. अभी पड़ना था इसे, जब हमारे घर की हालत खस्ता हुई पड़ी है.
“माघ की बर्फ गेहूँ के लिए अच्छी होती है. माघ में पड़े ह्यों (बर्फ) तो कहाँ रखू ग्यों (गेहूँ) किस्सा ठहरा. देख लेना इस साल गेहूँ इतने होंगे कि दुकान से लाने की जरूरत नहीं पड़ेगी.” बताने में ही माँ के चेहरे पर चमक आ गई. वह चमक तारा के चेहरे तक फैल गई, “चलो, कोई तो फायदा हुआ बर्फ का.” तारा ने ऐसे कहा जैसे गेहूँ से उसका भंडार अभी भर गया हो.
चटख की आवाज इसी समय आई थी.
हाथ पर पकड़ी रोटियाँ छूट गईं-जैसे ततैया ने डंक मार दिया हो और उसको भगाने के लिए हाथों को छटपटाना पड़ा हो. नजरें बल्लियों की ओर ऐसे तन गईं जैसे चौकी पर पहरा दे रहे सिपाही ने आक्रमण की आहट पाकर बंदूक तान दी हो.
भय ने आवाजें बंद कर दी थीं. एक सांकेतिक भाषा बन गई थी-आँखों की. वह इतनी मुखर थी कि बोलने की जरूरत ही नहीं पड़ रही थी.
कमरे में रोशनी बहुत कम थी. एक लालटेन जल रहा था. थोड़ा-सा प्रकाश चूल्हे में जल रही लकड़ियों का था. ये दोनों रोशनियाँ मिलकर भी धुएँ की चादर को पार नहीं कर पा रही थीं.
माँ ने लालटेन ऊपर की. बल्लियों पर थोड़ी रोशनी पड़ी. तरेड़ ढूँढ़ने के लिए रोशनी अब भी कम थी. बल्लियों पर जमी कालिख की मोटी परत अंदरूनी चटक को ढकने का ही काम कर रही थी.
उमाकांत के कहने से पहले ही तारा ने दरवाजा पूरा खोल दिया. शीत लहर भीतर को दौड़ आई. उसकी परवाह किसको थी. कोई खौफ ही नहीं रह गया था उसका.
बच्चे दरवाजे पर खड़े कर दिए गए, ताकि अनहोनी की आशंका में वे बाहर को लपक लें.
चड़क की आवाज फिर आई. उसने सबको दहला दिया.
इजा ने उमाकांत को लालटेन उठाने को कहा और खुद छिलकों (चीड़ के गाँबवाली ज्वलनशील लकड़ी) के बंडल का मशाल थामे, तीनों दरों और चाख की एक-एक बल्ली को देखती चली गई.
उमाकांत और तारा उसके पीछे थे. माँ एकदम अविचलित थी-बिलकुल शांत. उसकी चाल और नजर में ऐसा सम्मोहन था कि उमाकांत और तारा आधे घंटे तक उसके कदमों का अनुकरण ही करते रहे.
“आमा, बर्फ गिरनी बंद हो गई है.” मोहन दरवाजे से बाहर निकल गया था. चौतरे से ही उसने दादी को आवाज दे दी थी.
इजा ने ‘अच्छ-5-5-आ’ भर कहा और एक लकड़ी से बल्लियों को ठोक कर देखती रही. आवाज और स्वर को भाँपती रही.
निरीक्षण का काम पूरा कर वह बाहर आई. आकाश की ओर देखा. घुप्प अँधेरे में निगाह छत के किनारे से आगे नहीं जा सकी. मौसम का थोड़ा अनुमान हवा की रफ्तार से लग रहा था-बर्फ शायद जब नहीं गिरेगी. हवा जरा भी और तेज हुई तो बादलों को फाड़ देगी.
उमाकांत और तारा अब भी टकटकी बाँधे उसकी ओर देख रहे थे. जैसे पूछ रहे हों-बल्लियाँ बचेंगी या नहीं?
इजा ने जो अनुभव किया, उसी पर विचारते हुए कहा, “फावड़ा लाओ, छत पर पड़ी बर्फ साफ करनी पड़ेगी.”
“इतनी बड़ी छत की बर्फ साफ होगी इस वक्त?” तारा ने असमंजस में कहा.
“जितनी हो सकती है, उतनी तो करें.” माँ ने थोड़ी झिड़की-सी दी.
उमाकांत फावड़ा लेकर पिछवाड़े के खेत की तरफ बढ़ गया, जहाँ से छत पर चढ़ना आसान था.
तारा, बच्चे और माँ छिलकों की रोशनी लिए उसके पीछे-पीछे खेत तक आ गए.
उमाकांत जैसे ही छत की ओर लपक रहा था, माँ ने रोक दिया, “नहीं, तू नहीं. बल्लियाँ कमजोर हैं. भारी आदमी का भार नहीं सँभाल पाएगी. ला, मुझे दे फावड़ा.”
“तुमसे होगा ये काम?” तारा ने उमाकांत के हाथ से फावड़ा खुद लेते हुए कहा, “लाओ, मैं करती हूँ.”
“नहीं, तेरा वजन तो और भी ज्यादा है. मैं ही जाऊँगी.” माँ की आवाज में ऐसी कड़क और पैनापन था कि कोई उससे जिद नहीं कर पाया.
हवा की रफ्तार थोड़ा और तेज हो गई थी. उससे भरोसा बँध रहा था कि फिलहाल और बर्फ गिरने के आसार नहीं हैं.
ठंड जरूर बढ़ गई थी.
जब तक माँ छत पर रही किसी को ठंड नहीं लगी. छत से उतरते समय माँ के हाथ-पैर अकड़ गए. उमाकांत, तारा और बच्चे भी ठिठुरने लगे.
माँ को सहारा देकर उतारना पड़ा. वह इतनी ठिठुर गई थी कि उसके दाँत किटकिटाने लगे.
जब तक तारा उसे पकड़कर अंदर लाती, उमाकांत ने बरसे में आग जाग्रत कर दी. इतनी देर से गरमाई लकड़ियों ने ऐसी आग पकड़ी कि धूनी जैसी जग गई. गीले कपड़े बदलकर माँ तारा के सहारे बरसे के पास आ गई. आग की लपटों ने उसकी झुरझुरी को दबाना शुरू किया तो उसकी साँस लौट आई.
(Jhol Khai Billi Hindi Story)
इस बीच तारा काली मिर्च की चाय बना लाई, जिसकी चूंट ने माँ को ऐसी राहत दी कि उसके बोल फूट गए-उसमें कुछ देर पहलेवाला कड़कपन फिर लौट आया.
“उमा, तू इस हिस्से की मरम्मत करवा ले. चाख में एक दीवार देकर इस हिस्से को बिलकुल अलग कर ले ताकि, उधर अगर टूटता भी है, तो उसका असर इधर न हो.” चाय का आखिरी घुट लेने के बाद बोली, “मेरे चाँदी के जेवर हैं-उन्हें बेच और कल ही अपनी दीदी के वहाँ जा. पेड़ का इंतजाम कर आ. चिरवा उसे. कल ही अपने भाइयों को भी चिट्ठी लिख दे-माँ ने घर का बँटवारा कर दिया है. उधर के दो दर उनके हैं. जेवरों में मेरी एक नथ बची है. जब वे घर आएँ, उसे आपस में बाँट लें. जमीन तो पितरों की है, जब चाहो उसका बँटवारा कर लेना.” उसकी आवाज इतनी शांत और गठी हुई थी कि उसमें लेशमात्र भी झोल नहीं था.
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तारा और उमाकांत सन्न रह गए. उन्होंने माँ को गौर से देखा-होश में तो है! माँ जली लकड़ियों से अंगारे अलग कर, दूंठों को लपटों के हवाले करने में लगी हुई थी. अंगारों से उड़े राख के चिट टुकड़े उसके चेहरे पर फैलते जा रहे थे. उन्होंने चेहरे की पहचान को छिपा दिया था.
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15 मार्च 1950 को अल्मोड़ा के मानिला गाँव में जन्मे क्षितिज शर्मा की कहानी ‘किसी को तो रहना है यहाँ’ उनकी किताब ‘उत्तरांचल की कहानियां‘ से ली गयी है. भवानी के गाँव का बाघ, ताला बंद है, उकाव, समय कम है, पामू का घर, क्षितिज शर्मा की कुछ अन्य कृतियां हैं.
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बहुत दिनों के बाद इतनी शानदार कहानी पढ़ी ।हर लिहाज से बेहतरीन ।अब तो लेखक की दूसरी रचनाएँ भी पढ़नी पडेंगी । ढेरों बधाई ....संजय कबीर
पहाड़ की पहाड़ जैसी समस्याओं को दिखाती शानदार कहानी।
रिश्तों पर जमी बर्फ को पिघलाती ये कहानी मर्म की नमीं को आंखों के कोरों तक ले आयी
बधाई हो क्षितिज शर्मा जी और धन्यवाद काफल ट्री
बहुत सुन्दर.
क्षितिज शर्मा अब संभवतः इस नश्वर संसार में नहीं हैं।वे शैलेश मटियानी, विद्यासागर नौटियाल की परंपरा के लेखक हैं।उनकी समग्र रचनाओं का प्रकाशन संस्कृति विभाग उत्तराखंड को कराना चाहिए।क्षितिज शर्मा की कथाकृतियोंमें पहाड़ी जीवन प्रामाणिक तौर पर सामने आता है।-वाचस्पति09450162925.
कहानी पढ़ते हुए लगा हर दृश्य जीवंत हो उठा हो, उत्तम रचना ।
बहुत ही सुन्दर। पढ़ते-पढ़ते ही सम्पूर्ण दृश्य जीवन्त हो उठा, ऐसा लग रहा है मानो आंखों के सामने घटित हो रहा है। भावपूर्ण कहानी।