आज से कोई पौने दो सौ बरस पहले दारमा के दांतू गाँव में जसुली दताल नामक एक महिला हुईं. दारमा और निकटवर्ती व्यांस-चौदांस की घाटियों में रहने वाले रं (या शौका) समुदाय के लोग शताब्दियों से तिब्बत के साथ व्यापार करते रहे थे जिसके चलते वे पूरे कुमाऊं-गढ़वाल इलाके के सबसे संपन्न लोगों में गिने जाते थे. अथाह धनसम्पदा की इकलौती मालकिन जसुली अल्पायु में विधवा हो गयी थीं और अपने इकलौते पुत्र की भी असमय मृत्यु हो जाने के कारण निःसन्तान रह गयी थीं. इस कारण अकेलापन और हताशा उनकी वृद्धावस्था के दिनों के संगी बन गए थे. ऐसे ही एक दिन हताशा की मनःस्थिति में उन्होंने अपना सारा धन धौलीगंगा नदी में बहा देना तय किया.
इत्तफाक की बात रही कि उसी दौरान उस दुर्गम इलाके से लम्बे समय तक कुमाऊँ के कमिश्नर रहे अँगरेज़ अफसर हैनरी रैमजे के काफिले का गुज़र हुआ. हैनरी रैमजे को जसुली दताल के मंसूबों की बाबत मालूम पड़ा तो वह दौड़ा-दौड़ा उन तक पहुंचा. सारी बात जानकर उसने वृद्ध महिला से कहा कि पैसे को नदी में बहा देने के बजाय किसी जनोपयोगी काम में लगाना बेहतर होगा. अफसर का विचार जसुली को जंच गया. किंवदंतियाँ हैं कि दारमा घाटी से वापस लौट रहे अँगरेज़ अफसर के पीछे-पीछे जसुली का धन लादे बकरियों और खच्चरों का एक लंबा काफिला चला. रैमजे ने इस पैसे से कुमाऊँ, गढ़वाल और नेपाल-तिब्बत तक में व्यापारियों और तीर्थयात्रियों की सुविधा के लिए अनेक धर्मशालाओं का निर्माण करवाया.
इतिहासकार बताते हैं कि मुगलों की सराय शैली में बनाई गयी एक ज़माने तक ये धर्मशालाएं ठीक-ठाक हालत में समूचे कुमाऊँ-गढ़वाल में देखी जा सकती थीं. रैमजे ने नेपाल के महेन्द्रनगर और बैतड़ी जिलों के अलावा तिब्बत में भी ऐसी कुछ धर्मशालाओं का निर्माण करवाया. माना जाता है कि इनकी कुल संख्या दो सौ के आसपास थी और इन में पीने के पानी वगैरह का समुचित प्रबंध होता था. इस सत्कार्य ने जसुली दताल को इलाके में खासा नाम और सम्मान दिया जिसके चलते वे जसुली लला (अम्मा), जसुली बुड़ी और जसुली शौक्याणी जैसे नामों से विख्यात हुईं.
समय के साथ-साथ ये धर्मशालाएं खंडहरों में बदलती गईं, फिलहाल इनमें से कुछ ही संरचनाएं बची हैं और जो बची हैं उनकी स्थिति शोचनीय है. दो-तीन वर्ष पहले रं समाज ने इनके उद्धार के लिए एक बड़ा सम्मलेन भीमताल में आयोजित करवाया था. उसमें मैंने भी शिरकत की थी. अपने सीमित संसाधनों के बावजूद रं कल्याण संस्था ने शुरुआती सर्वेक्षण इत्यादि का कार्य शुरू कर करीब डेढ़ सौ धर्मशालाओं को चिन्हित भी कर लिया है. जितना संभव हो सकता है उतनी मरम्मत वगैरह भी की गयी है. लेकिन इतने बड़े प्रोजेक्ट के लिए धन और अन्य व्यवस्थाओं का सवाल संस्था के लिए बहुत बड़ा है.
आशा थी शासन की तरफ से इस मामले में अवश्य कुछ किया जाएगा लेकिन अभी तीन दिन पहले बिनसर जाते हुए अल्मोड़ा के नजदीक स्थित सुयालबाड़ी के पास बनी जसुली लला की धर्मशाला की स्थिति देखकर मेरा विश्वास और भी पक्का हुआ कि एक वृहत्तर समाज के तौर पर हम लोग अपने इतिहास के बारे में ऊंची-ऊंची हांकने के अलावा कर कुछ नहीं सकते. ध्यान रहे कि हल्द्वानी से अल्मोड़ा जाने वाली मुख्य सड़क पर स्थित इस धर्मशाला की लोकेशन ऐसी है कि उसे अनदेखा किया ही नहीं जा सकता. यहाँ से गुजरने वाले पढ़े-लिखे लोगों, टैक्सी-चालकों वगैरह से पूछिए यह क्या है तो उनके द्वारा जुटाए गए अपने-अपने इतिहास-ज्ञान के आधार पर अमूमन एक ही उत्तर मिलाता है – “कुछ होगा! पता नहीं! बहुत पुराना लगता है!”
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