मानव में बुद्धि के उत्पन्न होने के साथ ही उसने किसी परालौकिक शक्ति की कल्पना कर ली होगी जिसने कालान्तर में इस शक्ति को कई रूपों में विभाजित कर दिया होगा. इस विभाजन से पृथ्वी पर मानव के विस्तार के साथ कई और शक्तियाँ भी अस्तित्व में आयी होंगी. उनके पूजा पद्धतियों में भी परिवर्तन आया होगा. क्षेत्र विशेष में निवास करने वालों ने अपनी भाषा में उन शक्तियों के अलग-अलग नाम रख दिये होंगे जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपने वर्तमान स्वरूप में आये होंगे. संसार भर के पूर्वकालिक पौराणिकों, विद्वानों और साहित्यकारों ने अपने-अपने ढंग से इन शक्तियों का वर्णन किया और इनका प्रचार-प्रसार करने की परम्परा शुरू की. इनके पुरुष और नारी (पति-पत्नी) दो रूप भी बना दिये. इन्हें हम ‘वैदिक और पौराणिक देवता’ भी कह सकते हैं. इनका एक निश्चित स्वरूप भी माना गया जिसके आधार पर इनकी मूर्तियाँ बनायी गयी. इस श्रेणी के देवी-देवताओं की नयी तथा पुरानी मूर्तियों और इनके मंदिरों की संसार में कोई कमी नहीं है. इनमें से कितने तो काल के गाल में समा गये पर अभी भी इनकी मूर्तियाँ और मंदिर बनना जारी है और आगे भी रहेगा. इस सब के बावजूद हिमालय के पर्वतीय क्षेत्र में रहने वाले इन देवी-देवताओं की उपासना से मिलने वाले फल को अनिश्चित मानते हैं.
दूसरे श्रेणी के देवता वह हैं जिनका उल्लेख प्राचीन ग्रंथों में तो नहीं है लेकिन उनका प्रभाव जन-मानस पर पड़ा है. इनमें से कुछ की उत्पत्ति-कथायें तो उनकी गाथाओं में मिल जाती हैं पर अधिकांश के विषय में पता नहीं है कि वो कब अस्तित्व में आये और कैसे मनुष्य ने उनको पूजना शुरू किया? इन्हें ‘लोक देवता’ या ‘ग्राम देवता’ कहा जाता है. इनमें पति-पत्नी रूप नहीं मिलता है. प्रत्येक लोक देवता या देवी का अपना स्वतंत्र अस्तित्व होता है. ये देवता अपने उपासक को तुरंत फल देने वाले माने जाते हैं. इनके मानव प्रतिनिधि भी होते हैं जिनके माध्यम से ये अपनी प्रजा से वार्तालाप करते हैं. इन देव प्रतिनिधियों को धामी, डङरिया, गूर, पस्वा या बौण्या कहा जाता है. इन देवी-देवताओं की मूर्तियाँ नहीं होती जिस कारण इनकी गाथाओं में इनके रूप-रंग-आकार का वर्णन नहीं होता है. किसी-किसी देवता के आयुधों और वस्त्राभूषणों का वर्णन अवश्य मिलता है. शायद यही कारण है कि इनकी लिंगात्मक पूजा की जाती है. किसी भी बड़े वृक्ष के नीचे एक, तीन या पाँच प्रस्तर खंड रख कर उनमें इनका वास मान लिया जाता है. जिसे देवता का ‘थान’ कहते हैं. थान पर रखे इन प्रस्तर खंडों को देवी-देवता का लिंग कहा जाता है. अधिकांश देवताओं के लिंगों के ऊपर किसी तरह की छत नहीं बनायी जाती है. इन देवताओं के मंदिर भी नहीं बनाये जाते. थान में लिंग के साथ लोहे के त्रिशूल, दीपक, दंड एवं देवता से संबंधित आयुध रख दिये जाते हैं और वृक्ष की टहनियों पर लाल, सफेद या काली त्रिभुजाकार ध्वजायें व छोटी-बड़ी घंटियाँ बांध दी जाती हैं. लोक देवियों के मंदिर अवश्य बनाये जाते हैं पर आज के समय में कुछ देवताओं के थानों पर भी मंदिर बनाये जाने लगे हैं. उत्तराखंड में कुछ विशेष अवसरों पर वैदिक पौराणिक देवी-देवताओं की पूजा होती है लेकिन उनकी श्रद्धा अपने लोक देवी-देवता पर ही ज्यादा होती है. अपने लोक देवी-देवता को प्रसन्न करने के लिये फूल, अक्षत, रोली-चन्दन आदि से उनकी उपासना करता है और पशुओं की बलि और रात्रि जागरण भी करता है.
उत्तराखंड के गाँवों में अराधना के लिये लकड़ी के कुन्दों की धूनी जलाकर उस देवी या देवता की जीवन गाथा और उसके कामों का वर्णन विशेष वाद्य यंत्रों को ताल के साथ बजाकर किया जाता है. रात्रि जागरण की इस पद्धति को ‘जागर’ और देव गाथा गायन को ‘भारत’ कहते हैं. सोर घाटी पिथौरागढ़ में जागर की विभिन्न प्रद्धतियाँ प्रचलित हैं जिन्हें ‘जागौ’, ‘ख्याला’, ‘घणेली’, ‘जागर’ आदि कहा जाता है. जागौ में ढोल-दमाऊँ, ख्याला में हुड़का और घणेली में डमरू और थाली को बजाया जाता है. सोर के क्षेत्र में ऐसी गाथाओं के गायक सवर्णेत्तर जातियों से ही होते हैं. अन्यत्र सवर्ण जाति के लोग भी इस कार्य को करते हैं.
‘जागर’ पद्धति अन्य पद्धतियों से भिन्न है. इसमें गाथा गायन के साथ ताल देने के लिये मृदंगनुमा वाद्य ‘मुर्यौ’ बजाया जाता है जिसके साथ मजीरा भी बजाते हैं. इस गाथा के गायक सवर्ण राजपूतों की एक उपजाति है. जो वंश-परम्परा से इसका ज्ञान अर्जित करते हैं. जागर गाथा गायन की परंपरा श्रुति स्मृति के अनुसार आदिकाल से ही पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही है. इन गाथाओं के रचियता और रचनाकाल का कहीं कोई उल्लेख नहीं है. अलग-अलग क्षेत्रों के गायक इन्हें अलग-अलग तरीकों से गाते हैं. बोलों और इसके क्रम में भी थोड़ा बहुत अंतर मिलता है.
सोर पिथौरागढ़ के गाँवों में जागर का आयोजन भादो या पूस के महीने में प्रति तीसरे वर्ष होता है. इसमें भूमिया, द्यौलसमेत, मोस्ट्या, लाटा, असुर, चैमू, मनैन आदि के नाम की जागर होती है. यह आयोजन एक से लेकर बाइस रातों तक हो सकता है जो गाँव की परम्परा पर निर्भर है. जिन देवताओं के नाम पर जागौ, ख्याला या घणेली होती हैं उनके नाम पर जागर नहीं होती. देवता के थान पर ही जागर लगती है. थान के आंगन के मध्य बड़ी से धूनी जलाकर उसके एक ओर जागर गायकों, देवता के धामी-डङरियों, पुजारी तथा वयोवृद्ध व्यक्तियों के बैठने के लिये तिरपाल लगा दी जाती है. इसके ठीक सामने धूनी के दूसरी ओर ‘ध्यौलिया’ (मुख्य नगाड़ावादक) और उसके सहयोगियों के बैठने के लिये भी स्थान बना दिया जाता है. आयोजन काल में शाम होते ही ध्यौलिया अपने साथियों के साथ गाथा गायन की विशेष धुनों पर नगाड़े बजाता है. देवता का पुजारी और जगरिया दिया जलाकर सूक्ष्म पूजन और आरती करते हैं. जागर प्रारम्भ होने के समय से इस स्थान पर उत्तर या पूर्व के कोने पर तांबे के पतीले में आधी ऊँचाई तक धान भरकर उसके ऊपर अखंड दीया जला दिया जाता है जो समारोह के पूरा होने तक जलता रहता है. यदि आयोजन देवता की थान में हो रहा है तो पुजारी थान में आवश्यक पूजन करता है और यदि किसी अन्य स्थान पर हो रहा है तो पुजारी दिन में ही थान में जाकर पूजन कर लेता है. इसके बाद जगरिया देवताओं को आमंत्रित करने के लिये संइयावाली’ गीत गाता है. इन गीतों द्वारा जागर से संबंधित देवताओं के अतिरिक्त ‘पंचकोटी’ देवताओं को भी आमंत्रित कर आयोजन के पूर्ण होने तक उसी स्थान पर रहने का अनुरोध किया जाता है. ‘ध्याौलिया’ भी अपने सहायकों के साथ जागर गाथा के विशेष धुनों पर नगाड़े बजाने लगता है. प्रमुख जगरिया गीत में ताल देने के लिये स्वयं ‘मुर्यौ’ बजाता है. गीत के सुरों को लम्बा खींचने के लिये मजीरे के ताल पर दो या तीन व्यक्ति उसकी सहायता करते हैं और प्रमुख जगरिये के बोलों की ही दुहराते हैं. इन लोगों को ‘भसार’ या ‘भास’ कहते हैं. यह सवर्ण की किसी भी जाति के हो सकते हैं जबकि ध्याौलिया और उसके सहायक सवर्णेत्तर जातियों के ही होते हैं.
‘संइयावाली’ के बाद जगरिया ‘भारत’ गाथा को गाता है. कथा के क्रम के एक अध्याय या उसके एक अंश को ‘छ्याटी’ कहा जाता है. एक ‘छ्याटी’ की समाप्ति पर नगाड़ा वादकों द्वारा एक ‘दैन दमुवाँ’, दो या तीन ‘बौं दमुवाँ’ और पुजारी तथा भक्तों द्वारा शंख घंट आदि बजाये जाते हैं और देवता का जयकारा लगाते हैं. प्रतिदिन पाँचवी छ्याटी में जगरिया ‘देवतारी’ (देव अवतरण) संबंधी गीत गाता है और नगाड़ावादक भी ‘बौं दमुवाँ’ में हल्के चोट मारते हुए देवता द्वारा किये महान कार्यों का गान करता है जिसे ‘नौबरमा’ कहते हैं. जिन देवी-देवताओं के धामी या डंङरिये वहाँ मौजूद होते हैं वो देवता इन धुनों को सुनकर अपने धामी के माध्यम से प्रकट होते हैं और विभिन्न कृत्य करते हैं और ‘बोलों-वचनों’ द्वारा अपने उपासकों की जिज्ञासा शांत करते हैं. देवतारी कहा जाने वाला यह कार्यक्रम अगले दिन ‘देवाई’ के नाम से किया जाता है. देवाई की देवतारी से पहले प्रातः कालीन स्नान के बाद सभी देवताओं के नाम से पूजा करते हैं. इसके बाद जगरिया जिस प्रातः स्तुति को गाता है उसे ‘भोलौल’ कहते हैं. भोलौल के बाद थोड़ा अंश देवतारी का गाते हैं. वहाँ उपस्थित धामी कौमने (औतरने) लगते हैं. जागर के आंगन में किसी भी देव-देवता या भूत-भूतनी का धामी उपस्थित हो तो वो वहाँ कौम सकता है.
गाँव के प्रमुख देवताओं की जागर के बाद भूतयोनि को प्राप्त पूर्वजों के नाम पर भी जागर होती है जो पूर्णतया पारिवारिक होती है. इस प्रकार की जागरों में मुर्यौ और मजीरा के अलावा और कोई वाद्य यंत्र नहीं बजते और न ही धूनी लगती है.
जागर में जिस गाथा का गायन होता है उसका आधार पांचवाँ वेद कहे जाने वाले महाभारत की कथा को माना जाता है. इसलिये जागर को ‘भारत’ नाम से भी संबोधित करते हैं. हालाँकि जागर गाथा और महाभारत कथा में कोई भी समानता नहीं है. एक सीमा तक इस गाथा को पांडवों के ऐसे क्रियाकलापों का रूपांतरण मानते हैं जो महाभारत में नहीं है. ‘भारत-गाथा’ में अर्जुन और भीमसेन की यात्राओं और कार्यों का ही वर्णन अधिक मिलता है. इस गाथा में कौरव-पांडवों के आपसी द्वंद का वर्णन तो है पर कुरक्षेत्र के युद्ध का वर्णन नहीं है.
यहाँ कौरव-पांडवों के जन्म से संबंधित कथा का गद्य रूपांतरण दिया जा रहा है जिससे अंदाज लगाया जा सकता है कि दोनों में कितना अंतर है-
‘‘हे श्रोताओं ! कुन्ती और गांधारी एक ही शक्ल सूरत की दो बहनें थीं. कुन्ती का निवास हतिनापुरी में था जबकि गांधारी जैंतापुरी में रहती थी. एक समय की बात है कि गांधारी ने महल बनवाने का शुभ मुहूर्त जानने के लिये अपनी दासी को एक आना तथा एक माना चावल देकर अपने पुरोहित द्रोणाचार्य के पास भेजा. द्रोणाचार्य ने ग्रह नक्षत्रों की गणना कर शुभ मुहूर्त निकाला और कहा – ‘महल को घोड़े के परमान से ऊँचा और हाथी के परमान से चैखंडा बनवाना.’
गांधारी द्वारा शुभ मुहूर्त में महल की नींव रखवाई गयी. लकड़ी कटवाई और चिनाई के लिये पत्थर निकलवा के निर्माण कार्य शुरू कर दिया. कुछ समय पश्चात महल बन गया. फिर शुभ दिन खोज कर ब्राह्मण और नाचने-गाने वालों को बुलवाकर पूरी विधि से गृह प्रवेश किया.
जब कुन्ती को यह पता चला तो उसने भी अपने लिये महल बनवाने की सोच ली. अपनी दासी को आना-माना देकर उसने भी शुभ मुहूर्त का पता लगाने के लिये द्रोणाचार्य के पास भेज दिया. जिन्होंने कुन्ती को भी गांधारी जैसे ही निर्देश दिये. कुन्ती ने भी महल बनवा लिया और शुभ मुहूर्त के अनुसार ग्रह प्रवेश भी कर लिया.
एक दिन कुन्ती अपने कपड़े धोने के लिये पानी के नौले पर गयी. उसने नहाया, कपड़े धोये और वहीं सुखाने के लिये फैला दिये. एक स्थान पर बैठ कर उसने सूर्य का ध्यान किया तो सूर्य की उस पर दृष्टि पड़ी और उसे गर्भ ठहर गया जो शीघ्रता से बढ़ने लगा. जैसे ही एक दिन उसने पानी से भरा घड़ा उठाया उसके पेट से एक बालक उत्पन्न हुआ जिसके सिर पर मुकुट और कानों में कुंडल थे. राजा इन्द्र की दृष्टि उस बालक पर पड़ी तो वह बालक के कुंडल और मुकुट लेकर चला गया.
बदनामी की डर से कुन्ती ने बालक को टोकरी में रख कर नदी में बहा दिया. नदी के जल में रहने वाली एक बड़ी मछली ने उसे निगल लिया. नदी में मछुवारे ने जाल लगाया था मछली उस जाल में फँस गयी. मछुवारे ने मछली को बाहर निकाला. मछली बहुत सुंदर और बड़ी थी. इतनी देर में रात हो गयी और मछुवारा वहीं सो गया.
उधर गांधारी जैंतापुरी से मछुवारे के घर आयी. मछुवारन से उसे पता चला की मछुवारा मछली पकड़ने गया है. गांधारी ने मछुवारिन से कहा – ‘तुम्हारा पति हमारे घाट से मछली पकड़ता है पर हमें कभी देता नहीं है. इसलिये आज की सारी मछलियां उसे हमें देनी होंगी. उससे कहना कि यदि वो आज मछली हमें नहीं देगा तो मैं छीन के ले जाऊँगी और मछुवारे के हाथ भी काट दूँगी.‘ इतना कह कर गांधारी जैंतापुरी चली गयी.
प्रातःकाल जब मछुवारा घर पहुँचा तो मछुवारिन ने उसे गांधारी की कही हुई बात बतायी. यह सब सुन लेने के बाद भी मछुवारा मछली बेचने के लिये हतिनापुर चला गया. उसने अपने मछली का मूल्य दो लाख टका के बराबर का सोना रखा. कुंती ने जब उस मछली को देखा तो कहा – ‘तेरी मछली गर्भवती है. इसे हम नहीं लेंगे.’
मछुवारा मछली लेकर जैंतापुरी गांधारी के पास चला गया. गांधारी ने दो लाख टका जितना सोना देकर मछली को खरीद लिया. मछुवारा खुश होकर लौट गया और सोचने लगा इस सोने से अपने नाती-पोतों तक के लिये अन्न खरीद के रख लूंगा.
गांधारी ने वो मछली अपनी दासी को देकर उसे सावधानी से काटने को कहा. दासी ने जब मछली के पेट पर छूरी चलायी तो उसके पेट से एक सुन्दर सा बालक निकला. दासी ने बालक गांधारी को दे दिया. गांधारी बालक को देख कर खुश हुई और उसने बालक को गोद ले लिया. बालक दूध पीने के लिये माँ के स्तनों को ढूंढने लगा.
गांधारी बोली – ‘हे बालक ! तू तो खाने का भोगी है. यदि तू मेरे लिये ही आया है तो मेरे स्तनों में दूध निकल जाये और गाय को भी बच्चा हो जाये.’ गांधारी की बात सच हो गयी और बालक गांधारी के स्तनों से दूध पीने लगा.
अब गांधारी ने दासी से एक बकरा कटवाया और उसके रक्त में अपना घाघरा भिगा दिया. इसके बाद वह प्रसूति कक्ष में बालक को लेकर बैठ गयी. पाँचवे दिन बालक का ‘पंचालौ’ किया. गांधारी ने दासी को बालक के नामकरण और जन्मकुंडली के लिये द्रोणाचार्य के पास भेज दिया.
द्रोणाचार्य ने बालक की जन्मपत्री बनायी और दासी से जवाब भिजवाया – ‘हे गांधारी ! तुम्हारा बालक शुभ मुहूर्त में पैदा हुआ है. यह सूर्यवंशी राजा बनेगा. इसकी ‘छठी’ और नामकरण संस्कार अच्छे से करना और इसका नाम कर्ण रखना.’
गांधारी ने धूमधाम से नामकरण संस्कार किया और सभी को खूब धन-धान्य देकर खुश कर दिया और बालक का नाम कर्ण रख दिया. कुन्ती को जब पता चला की गांधारी को पुत्र हुआ है तो वह सोचने लगी कि मेरी बहन पुत्रवती हो गयी और मैं अभी निपूती ही हूँ. उसने पुत्रवती होने के लिये यमुना तट पर तप करने और पुत्र न होने पर वहीं प्राण त्याग देने का निर्णय किया. कुन्ती यमुनातट पर चली गयी और वहीं घास की झोपड़ी बना कर तप करने लगी.
एक दिन जब कुन्ती नदी में स्नान कर रही थी तो उसका एक बाल पानी में बह गया और बहते-बहते मछुवारे के जाल में फँस गया. वह बाल सोने जैसे पीला और चाँदी जैसा सफेद था. मछुवारे ने उसकी लम्बाई नापी तो वह नौ हाथ जितना लम्बा निकला. मछुवारा उस बाल को लेकर उस जगह पहुँच गया जहाँ कुन्ती तप कर रही थी. उसने सोचा ‘यह स्त्री हम जैसों के लिये नहीं है. यह तो ऋषिश्वरों के लिये है. मंन इस केश को औंधापुरी ले जाऊँगा.’ औंधापुरी पहुँच कर उसने ऋषिश्वरों से कहा ‘हे ऋषिश्वरों एक सुन्दर स्त्री यमुनातट पर तप कर रही है. यह केश उसी का है.’
सौ के सौ ऋषियों ने कहा ‘तू उस स्त्री का यहाँ ले आ. हम उसके साथ मनोविनोद करेंगे.’ मछुवारे ने लौट कर कुन्ती को ऋषियों का संदेश दिया. कुन्ती सोचने लगी ‘पता नहीं आज मेरा भला होने वाला है या मेरा विनाश. जो भी हो पर मैं ऋषियों के पास अवश्य जाऊँगी.’
कुन्ती मछुवारे के साथ औंधापुरी आ गयी. उसने ऋषियों को प्रणाम किया पर ऋषियों ने उसकी ओर से पीठ फेर ली. कुन्ती सोचने लगी ‘इन ऋषियों ने ही मुझे बुलाया और अब मुझसे बात नहीं कर रहे हैं. मेरे जीवन का अब कोई उद्देश्य नहीं है इसलिये में प्राण त्याग दूंगी पर मरने से पहले इन ऋषियों का धर्म भ्रष्ट कर दूंगी क्योंकि इन्होंने मेरा अपमान किया है.’
कुन्ती चमार के घर गयी और वहाँ से मरी हुई गाय की जांघ ले आयी. कुन्ती को इस तरह आता देख ऋषि गुफा में छुप गये. कुन्ती भी उनका पीछा करते हुए वहीं पहुँच गयी और गुफा के द्वार पर बैठ गयी. ऋषियों ने कुन्ती से कहा – ‘हे कुन्ती ! तू हमारा धर्म भ्रष्ट मत कर. तू जो भी मांगेगी हम तुझे वो देंगे.’ कुन्ती ने गाय की जांघ फेंक दी और स्नान करके ऋषियों के पास आकर बोली – ‘मुझे पुत्रवती होने का आशीर्वाद दीजिये.’ ऋषियों ने कहा – ‘तू हमारे लिये भोजन बनायेगी और हम तुझे सौ पुत्र देंगे.’
अब कुन्ती ने ‘साल’ और ‘धमाल’ नाम के धानों का चावल बनाया और मास की दाल बनाई और भोजन करने के लिये ऋषियों को बुलाया. ऋषि बोले – ‘हम इस प्रकार का भोजन नहीं करते. हम केवल सूर्य की गर्मी से पका अन्न ही खाते हैं.’ ऋषियों की बात सुन कर कुन्ती सूर्य-चाँद के पास गयी और बोली – आप लोग छः माह का एक दिन बना दीजिये और उस दिन को मुझे दे दीजिये.’ चन्द्र और सूरज ने कुन्ती को छः महीने का एक दिन दे दिया.
अब कुन्ती ने इन्द्रपुरी से ‘रुवासाल’ नामक धान मँगाया. मेघराज से वर्षा करने को और सुअरों को खेत खोदकर कीचड़ बनाने को कहा. कुन्ती ने उस खेत में रुवासाल धान बो दिया. खेत की मेढ़ में अचारी आम बो दिया. धान और आम उगने लगे और थोड़े समय में ही धान में बालियाँ आने लगी और आम में फल आ गये. धान की बालियाँ पकने पर कुन्ती ने चुहों को बुलवाया और धान की कटाई करा ली. बंदरों से धान के गट्ठर बनवा के भालुओं से दाने अलग करवा दिया. गौरेया से धान के छिलके निकलवाये. इन्द्रलोक से बर्तन मँगवा कर सूर्य की रोशनी से भोजन पकाया और आम की चटनी बनायी. भोजन परोसने के लिये आंवले के पत्तों से पत्तल बनवाये. ऋषियों को बुलवाकर भोजन कराया. ऋषि तृप्त हो गये. उन्होंने कुन्ती से कहा – ‘इस जगह को साफ करके स्नान कर लो और फिर हमारे पास आओ. हम तुम्हें सौ पुत्रों का वरदान देंगे.’
जब गांधारी ने कुन्ती के वरदान प्राप्त करने की बात सुनी तो वो भी ऋषियों के पास चली गयी और बोली – ‘मुझे कई दिन घर से निकले हुए हो गये हैं. कृपया आप मुझे शीघ्र ही पुत्रों का वरदान दें.’ कुन्ती और गांधारी एक ही शक्ल सूरत की थीं इसलिये ऋषियों ने उसे कुन्ती ही समझा और उसे सौ पुत्रों का वरदान दे दिया.
स्नान करने के बाद जब कुन्ती ऋषियों के पास आयी तो वो सो चुके थे. वो ऋषियों के जागने की प्रतीक्षा करने लगे और उनके जागने पर उसने वरदान माँगा. ऋषियों को लगा की कुन्ती शायद एक बार और वरदान मांग रही है इसलिये उन्हें क्रोध आ गया और उन्होंने कहा – ‘सौ पूत लेकर भी तू पूत-पूत करती है. तुझे शर्म भी नहीं आ रही है. अब हमारे पास तुझे देने के लिये कोई पुत्र नहीं है. तू यहाँ से चली जा.’
कुन्ती उदास हो गयी और उसने प्राण त्यागने का निश्चय किया. यह समाचार पंच-देवताओं को मिला और उन्होंने ऋषियों के पास दूत भेजा. ऋषियों ने दूत को बताया – ‘यह सत्य है कि इस नारी ने हमारी बहुत सेवा की है पर इसकी शक्ल वाली गांधारी हमें धोखा देकर सौ पुत्रों वाला वरदान ले गयी. अब हमारे पास कोई पुत्र नहीं है.’
दूत ने पूरी घटना पंचदेवों को सुनाई जिसके बाद पंचदेव कुन्ती के पास आये और बोले – ‘हम तुमको पाँच पुत्र होने का वरदान देते हैं.’ उन्होंने कहा – ‘तुम्हारे पुत्र बलवान और बुद्धिमान होंगे जबकि गांधारी के सौ पुत्र निर्बल और बुद्धिहीन होंगे.’ कुन्ती उनकी बात मान गयी.
कुन्ती स्नान करके दूब के मैदान में बैठ गयी. चांद और सूरज की दृष्टि उन पर पड़ी जिससे युधिष्ठर पैदा हुए. फिर वायु देव की दृष्टि पड़ी तो भीम पैदा हो गये. इन्द्र की दृष्टि पड़ने पर अर्जुन और ब्रह्मा की दृष्टि पड़ने पर सहदेव पैदा हुए और अंत में पांडु राजा की दृष्टि पड़ने पर नकुल पैदा हुए.
स्नान करने के बाद अपने पांचों पुत्रों के साथ कुन्ती ऋषियों के पास आयी जहाँ पंचदेव भी बैठे थे. ऋषियों ने पांचों पांडवों के लिये वस्त्र बनवाये.
युधिष्ठर ने माता कुन्ती से कहा – ‘हे माता ! हमें हमारे घर ले चलो.’ कुन्ती उनको हतिनापुर ले आयी. अब भीमसेन ने देवताओं से पंचबाजे माँगे जो महादेव ने उसे दे दिये. पाँचों पांडव माता कुन्ती के साथ बाजा बजाते हुए हस्तिनापुर आ गये और युधिष्टिर को गद्दी पर बैठा दिया.
पुरवासी में प्रकाशित पद्मादत्त पन्त (अवकाश प्राप्त प्रधानाचार्य, लुन्ठ्यूड़ा मार्ग, पिथौरागढ़) का लेख
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