विरासतों का सृजनात्मक उपयोग और मौलिकता
उत्तराखंड में महिलाओं द्वारा पहना जाने वाला परिधान पिछौड़ा, परम्परागत रूप से कुमाऊं मूल के लोगों की विशिष्ट संस्कृति को प्रतिबिंबित करता है. रंगवाली पिछौड़ा कुमाऊं प्रांत का परम्परागत जीवन शैली का परिधान है. इसको हम लोग (महिलाएं) विशेष धार्मिक एवं सामाजिक उत्सव जैसे शादी विवाह अथवा परिणय, यज्ञोपवीत, नामकरण, पूजा-पाठ, संस्कार व तीज-त्यौहार आदि में ओढ़ते रहते हैं. (Pichora Aipan Alpana)
यह परिधान कुमांऊ की सांस्कृतिक पहचान से मजबूती के साथ जुडा़ हुआ है. मुझे याद है, पहले से ही शादी ब्याह, काम काज में महिलाएं पिठ्या, पिछौड़ा ,ऐपण आदि सबकुछ नहा धो कर, साफ वस्त्र पहनकर घर पर ही तैयार करती रही हैं क्योंकि इनको बहुत पवित्रता से बनाया जाता है. मेरी नानी, दादी, तथा घर की महिलाएं, पिठ्या, पिछौड़ा, ऐपण आदि बनाने तक अन्न ग्रहण नहीं करती थी. आज भी कुछ एक जगह में कुमाऊं में परम्परागत रूप से हाथ से कलात्मक पिछौड़ा बनाने का काम होता है. पिठ्या तथा पिछौड़े के लाल रंग के लिए कच्ची हल्दी में नींबू निचोड़ कर सुहागा डाल कर तांबे के बर्तन में रातभर रखकर सुबह इस सामग्री को नींबू के रस में पका लेते हैं और सुर्ख लाल रंग प्राप्त करते हैं.
पिछौड़े, ऐपण, पट्टालेखन आदि का एक विराट इतिहास रहा है. वहीं से विरासतें हस्तांतरित होती रही हैं. पिछौड़े के बीच में ऐपण की चौकी जैसा डिजाइन बना होता है. ऐपण से मिलते जुलते डिजाइन में स्वास्तिक का चिन्ह तथा ॐ बनाया जाता है. पिछौड़े में बने स्वास्तिक की चारों भुजाओं के बीच में शंख, सूर्य, लक्ष्मी और घंटी की आकृतियां बनी होती है और इन चिन्हों को हमारी संस्कृति में काफी शुभ माना जाता है.
पिछौड़ा कुमाँऊ के प्रत्येक मांगलिक कार्यों का शगुन होता है. उसी पवित्रता से पिछौडा पहना भी जाता रहा है. पिछौडा पहनने में हमको अपनी शक्तिशाली संस्कृति पर सदैव गर्व का अनुभव होता रहा है. जब हम, हमारा पिछौडा अपने मौलिक रूप में ही किसी और प्रदेश की महिला को पहने हुए देखते हैं तो सुखद एहसास होता है. शादी-शुदा महिलाओं में इस परिधान का एक विशेष अभिप्राय होता है और यह उनकी सम्पन्नता, खुशी और सांस्कृतिक वैभव को दर्शाता रहा है. हम लोग पिछौड़े को अपनी देवी मां को भी पहनाते हैं. समय के साथ हाथ से बने पिछौड़े का स्थान रेडीमेड पिछौड़े ने ले लिया है, जिसे वर्तमान में महिलाएं खूब पसंद कर रही हैं.
कुछ दिन पहले मैं देख रही थी कप, ग्लास आदि कई जगह पर ऐपण और जितने ऐपण, अल्पनाओं के डिजायन हैं उनका कई प्रकार से इस्तेमाल हो रहा है ताकि लोगों को हमारी विरासत की झलक मिले. चलिए वहां तक तो बाजार मांग को खींचने के लिए उनके प्रयासों की सराहना की जा सकती है, लेकिन यदि विरासत की पहचान और बाजार मांग बढ़ाने के नाम पर बिना सोचे समझे यूंही संस्कृति से जुड़ी हुई वस्तुओं का कहीं भी इस्तेमाल होता रहा तो मुझे डर है कि कहीं एक दिन यही पवित्र विरासत अपनी मौलिकता का हृास ना कर बैठे. फैशन की मांग के अनुसार यह अन्य रंगों में भी ना दिखने लगे. अन्य पहनने के वस्त्रों में ना दिखाई दे. मुंह के मास्क, घर के इस्तेमाल होने वाली हर वस्तुओं, पुरुषों के वस्त्रों, स्टेशन आदि किसी भी टुच्ची-पुच्ची दीवारों में ना दिखाई देने लगे, जिस पर लोग पान की पीक मारकर आगे बढ़ जाएं. क्या सच में तब हम अपनी विरासत को इस प्रकार अपमानित होते हुए देख सकेंगे ?
हम सांस्कृतिक विरासत को तभी तक उच्च मांग में स्थापित कर सकेंगे या पहचान दिला सकेंगे जब तक यह अपने मौलिक स्वरूप में मौजूद रहेगी वरना बहुत जल्दी यह बाजार में मांग से अधिक एवं अपने बदले हुए स्वरूप में बिकने लगेगी और वास्तविक बाजार, समय, मांग, तत्पश्चात हमारी संस्कृति से भी यह बाहर निकल जाएगी. आने वाली पीढ़ी को इसे, इसके मौलिक स्वरूप में ही विकसित करने की कोशिश करनी होगी और इसको मजाक बनने से बचाना होगा.
संस्कृति की पहचान के नाम पर जितना अपमान, इस पवित्र, गरिमामय पिछौड़े ऐपण, अल्पनाओं का हो रहा इतना किसी भी वस्तु का नहीं हो रहा है. जिसे देखो वही इसे अपने – अपने हिसाब से प्रस्तुत करने में लगा है. जैसे आजकल यह मास्क, फतुई (वासकट), टोपी आदि में दिखाई देने लगा है तब वह दिन दूर नहीं जब यह पुरुषों के हेलमेट, मफलर, जैकेट, मोजे, रुमाल आदि से लेकर कहीं भी किसी भी वस्तु में दिखाई देने लगेगा.
मेरे कई मित्र जो उत्तराखंड से नहीं हैं वे अक्सर पूछते हैं कि आपकी शादियों में दुल्हन कौन है? हमको पता ही नहीं चलता है. क्योंकि सारी महिलाएं दुल्हन जैसी दिखती हैं. यह सुनकर मुझे अच्छा लगता है तब मैं उत्तर देती हूं, हां हमारे यहां शादियों में सभी महिलाएं स्वयं को दुल्हन सा अनुभव करती हैं चाहे वे किसी भी उम्र की हों. कुमाऊं की हर एक महिला, चाहे वो नवयौवना हो, युवती हो, वयस्क महिला हो या फिर बुज़ुर्ग, यहां तक की कई विधवा महिलाएं द्वारा आदि सभी के द्वारा इसे विशिष्ट अवसर पर ओढ़ा जाता है.
आज युवाओं के लिए पिछौड़ा, कुमाऊनी ऐपण, अल्पनाएं आदि का प्रयोग फैशन ट्रेंड बन रहा है. हालांकि इसमें कोई बुराई नहीं है, किन्तु किसी भी वस्तु का उपयोग कहीं भी कर लेने से उसकी सांस्कृतिक विरासत भी चकनाचूर होती है, क्योंकि यदि यह केवल फैशन और बाजार को प्रभावित करने के लिए उपयोग में लिया जाएगा तो फिर बाहरी लोगों द्वारा इसके विभिन्न प्रकार के इस्तेमाल को रोकना मुश्किल हो जाएगा. फिर एक दिन हमको उसे वैसे ही स्वीकार करना होगा. क्या राज्य के पास पारम्परिक विरासतों के समान के प्रोडक्शन हेतु, अन्य द्वारा इसकी मौलिकता का हनन ना करने अथवा दुरुपयोग ना करने हेतु कोई पेटेंट नीति लागू की हुई है? क्या उत्तराखंड का जनजीवन स्वयं इन सब के साथ भावनात्मक रूप से जुड़ा हुआ है? ताकि वे इसे कहां? कैसे? कितना? किस प्रकार? उपयोग करें को लेकर स्वयं भी सोच रहे हों. तांकि विरासत भी बची रहे और सांस्कृतिक प्रसार एवम् उससे जुड़ी संभावनाएं भी बनी रहे.
खैर इस बात पर कुछ लोग कहेंगे क्या फर्क पड़ता है? उपयोग से मतलब होना चाहिए. या फिर कहेंगे कि सभ्यताएं भी तो ऐसे ही परिवर्तित होती हैं. लेकिन मेरा मानना यह है जब तक संभव है हम अपनी विरासत की मौलिकता को हनन होने से बचाने की कोशिश तो कर ही सकते हैं. ताकि भविष्य में खोज करने वाले समझ सकें कि विराट विरासतें यूं ही दम नहीं तोड़ती हैं. इनके पीछे संस्कृति के चौकीदार सदैव प्रयासरत रहते हैं और एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक बृहद परम्पराओं की कहानियां मूल रूप से हस्तांतरित होती रहती हैं एवम् होती रहेंगी. (Pichora Aipan Alpana)
नीलम पांडेय ‘नील’ देहरादून में रहती हैं. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में इनकी रचनाएं छपती रहती हैं.
काफल ट्री में प्रकाशित नीलम पांडेय ‘नील’ के अन्य लेख:
कुमाऊनी झोई का स्वाद लाजवाब है
पहाड़ और चीटियों वाली बारात
गोठ में पहाड़ी रजस्वला महिलाओं के पांच दिन
काफल ट्री के फेसबुक पेज को लाइक करें : Kafal Tree Online
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
1 Comments
Aipan
Apki baat se bikul sahmat hu.