पिछली सदी के अंत तक जब टीवी का प्रचलन बहुत ज्यादा नहीं था, तब तक रेडियो ही आमजन के मनोरंजन का साधन था. जैसे-जैसे टीवी का प्रचलन बढ़ा, तथाकथित मनोरंजक चैनलों की बाढ़ आई और उसमें पारिवारिक दैनिक धारावाहिक प्रसारित होने लगे तो रेडिया का महत्व भी तेजी के साथ घटने लगा और आमजन के बीच से वह धीरे-धीरे गायब होने लगा. इसी के साथ रेडियो के माध्यम से सुनाई देने वाले लोकसंगीत व गीत के सुमधुर स्वर भी लोगों से दूर होते गए क्योंकि टीवी में उनको वह जगह नहीं मिल पाई जो रेडियो में मिलती थी. टीवी आया तो लोक गीत में भी उनके फिल्मांकन ने जोर पकड़ा. नई पीढ़ी के गायकों ने अपने गाए गीतों के वीडियो बाजार में उतारे. लोकसंगीत व गीत को ऊँचाई देने वाले पुराने लोकगायक व गायिकाएं इस दौर से बाहर होने लगे क्योंकि उनके पास अपने गीत संगीत के ऑडियो तो थे वीडियो नहीं थे. इसका परिणाम यह हुआ कि नई पीढ़ी के बीच पुराने सुप्रसिद्ध लोकगीत अपनी जगह नहीं बना सके. यह भी कह सकते हैं कि नई पीढ़ी उन गीतों से और उन्हें अपनी मधुर आवाज से अमर बना देने वाले गायकों से अनजान है.
देहरादून विधानसभा में कार्यरत छोटे भाई और कुमाउनी लोकसंस्कृति व कला के प्रति संवेदनशील पंकज सिंह महर का कुछ दिन पहले फोन आया. जिसमें उसने बताया कि कुमाउनी की पुरानी लोकगायिकाओं में से एक बीना तिवारी जी अब हल्द्वानी में ही रहने लगी हैं. मैं उनसे मुलाकात कर सकता हूँ. पंकज के फोन करने के बाद मैंने उन्हें फोन किया और एक – दो दिन में उनसे मिलने की बात कही. गत 31अगस्त 2018 की शाम को लगभग 4.30 बजे मैं बिटिया बुलबुल को साथ लेकर उनसे मिलने गया. वह डहरिया क्षेत्र में धान मिल के पास रहती हैं.
कभी आकाशवाणी के लखनऊ, नजीबाबाद, रामपुर केन्द्रों से शेरदा अनपढ़ के साथ गाया उनका गीत ओ परुआ बौज्यू, चपल के ल्याछा यस कुमाऊँ के लोगों की जुबान पर होता था. स्कूलों व कई दूसरे तरह के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में इस गीत का मंचन बहुत ही होता था. इसके अलावा बीना दी ने पारा भीड़ा बुरुँशी फूली छ , झन दिया बोज्यू छाना बिलोरी, लागना बिलोरीक घामा ,आ लिलि बाकरी, लिलि तू – तू, बाट लागि बर्यात् चैली, बैठ डोली मा जैसे दर्जनों गीतों को अपनी मधुर आवाज से सजाया. उन्होंने इनमें से कई गीत बृजेन्द्रलाल साह, शेरदा अनपढ़, गिरीश तिवारी गिर्दा, रमेश जोशी (जो बिड़ला स्कूल नैनीताल में संगीत के अध्यापक थे) आदि के साथ गाए. जो बेहद चर्चित और प्रसिद्ध हुए. कुछ गीत उन्होंने गोपाल बाबू गोस्वामी के साथ भी आकाशवाणी लखनऊ के लिए गाए.
कभी कुमाऊँ के हर घर में अपने गाए सुमधुर गीतों के माध्यम से आमजन के दिलों अपनी विशेष जगह बनाने वाली बीना तिवारी का जन्म लखनऊ में ही 11 जनवरी 1949 को हुआ. उनकी मॉ का नाम मोहनी तिवारी है और पिता का नाम कृष्णचंद तिवारी था. बीना दी के दो छोटे भाई महेशचन्द्र तिवारी और शैलेन्द्र तिवारी हैं. जो लखनऊ में ही रहते हैं. बीना दी ने लखनऊ के भातखण्डे संगीत विद्यालय से गायन में संगीत निपुण की उपाधि ली. जिसे अब संगीत में एमए कहा जाता है. इसी बीच आकाशवाणी लखनऊ से 1963-64 में कुमाउनी – गढ़वाली लोकगीत, संगीत का कार्यक्रम उत्तरायण प्रारम्भ हुआ तो बीना दी ने कार्यक्रम के लिए स्वर परीक्षा दी और वह आकाशवाणी लखनऊ के लिए बी हाई ग्रेड की गायिका के तौर पर अनुबंधित हो गईं जिसके बाद उन्होंने कुमाउनी में आकाशवाणी के लिए दर्जनों गीत विभिन्न गायकों के साथ गाए.
अल्मोड़ा निवासी रमेश चन्द्र तिवारी (जो शिक्षा विभाग में डिप्टी डायरेक्टर रहे) के पुत्र मुकुल कुमार तिवारी के साथ 22 जनवरी 1976 को बीना दी का विवाह हुआ जो डिग्री कॉलेज में अध्यापक थे. बीना दी का मायका मूल रुप से अल्मोड़ा के खल्ट में है और ससुराल अल्मोड़ा के ही चौंसार में. इनके ससुर मूल रुप से हवालबाग के ज्योली गांव के थे. प्रसिद्ध जनकवि गिरीश तिवारी ‘ गिर्दा ‘ बिरादरी के आधार पर बीना दी के जेठ थे. बीना दी के दो लड़के यादवेन्द्र और चिन्मय हैं. दोनों हल्द्वानी में ही रहते हैं. यादवेन्द्र की शादी हो चुकी है. उनके एक लड़का और एक लड़की है, जबकि चिन्मय अभी अविवाहित हैं. वह रामपुर के दयावती मोदी एकेडमी में संगीत की अध्यापक भी कुछ सालों तक रहीं. बदायूँ के स्नातकोत्तर महाविद्यालय का प्रधानाचार्य रहते हुए ही बीना दी के पति मुकुल तिवारी जी का असमय निधन 24 अक्टूबर 2005 को हो गया.
बढ़ती उम्र के कारण वह बहुत अधिक इधर – उधर आने – जाने की स्थिति में नहीं हैं.पर, अपने समय में कुमाउनी लोकगीत, संगीत को बहुत कुछ देने वाली बीना दी को आज सामाजिक तौर पर उपेक्षा का दंश बहुत सालता हैं. कहती हैं कि जिन्होंने कुमाउनी लोक संगीत, गीत को एक पहचान दी और नई ऊँचाई तक पहुँचाया उन्हें यह समाज कैसे भूल सकता है? क्या समाज में इतना गैर जरुरी बदलाव आ गया है कि वह अपने लोगों को उनके जीते जी उन्हें भुला देने पर आमादा है ? उनकी यह पीड़ा हमारे समाज के उस आइने को दिखाता है, जो बहुत जल्द ही अपनी पूर्व पीढ़ियों के योगदान को एक ही झटके में भूला देने को आतुर दिखाई दे रहा है. बीना दी की इस पीड़ा का मेरे पास कोई जवाब नहीं था.
क्या यह हमारे समाज का दुर्भाग्य नहीं है जो अपनी पूर्ववर्ती पीढ़ियों द्वारा समाज को दिए गए किसी भी तरह के योगदान को भुला देने और उन्हें कुछ न समझने को तैयार है. हमारे समाज के आईने का यही रंग वर्तमान राजनीति में भी नहीं दिखाई दे रहा है? पर मैं बीना दी को यह भरोसा दिला कर आया हूँ कि उनसे मिलने और उनकी आशल-कुशल लेने को समय-समय पर आता रहूँगा. उनसे विदा लेते वक्त बीना दी बहुत भावुक हो गई और कहने लगी कि जिस आत्मीयता के साथ तुम तुरन्त मिलने चले आए, उससे मुझे बहुत अच्छा लगा! मुझे भी अपनी बिटिया बुलबुल के साथ आपसे मिलकर बहुत खुशी हुई बीना दी!
जगमोहन रौतेला
जगमोहन रौतेला वरिष्ठ पत्रकार हैं और हल्द्वानी में रहते हैं.
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1 Comments
हरीश उप्रेती
बीना जी से मैं भी मिलना चाहता हूं। उनके घर का प्रॉपर पता या नंबर दे सकतें हैं क्या आप। कृपया मेरे नंबर पर व्हाट्स एप कर दीजियेगा आपका एहसान होगा। 7500200207