यूं तो वर्ष 8 मार्च 1908 में न्यूयॉर्क शहर में 15 हजार महिला मजदूरों ने अपने काम के घंटे तय करने और बिना भेदभाव के बराबर मजदूरी की मांग और मताधिकार को लेकर जो प्रदर्शन किया. उस प्रदर्शन के बाद ही महिलाओं के समान वेतन काम के बेहतर अवसर और समान मताधिकार की मांग सहित महिला अधिकारों की वकालत का क्रम शुरू हुआ.
(International Women’s Day 2021)
आधुनिक यूरोप जिसे कि हम लोकतंत्र और आधुनिकता का हिमायती मानते हैं. उस यूरोप और अमेरिका में भी महिलाओं के साथ सदियों से गैर बराबरी का व्यवहार जारी रखा गया था. लोकतंत्र में सीमित मताधिकार के अवसर थे लेकिन महिलाओं को मताधिकार के अधिकार से वंचित रखा गया था.
1909 के बाद अमेरिका में महिलाओं के मताधिकार और बराबरी की मुहिम तेज हुई. लेकिन 1917 में बोलस्विक क्रांति के बाद ही पहली बार रूस में महिलाओं को बराबरी का अधिकार और मताधिकार भी प्राप्त हुआ. जिसकी देखा देखी 1918 में जर्मनी इटली और इंग्लैंड में महिलाओं को मताधिकार का अधिकार प्राप्त हुआ और 1920 में अमेरिका ने भी महिलाओं को मताधिकार का अधिकार प्रदान किया.
मताधिकार का अभिप्राय कभी भी बराबरी का प्राप्त हो जाना नहीं रहा है. यदि आज दुनिया के अधिकांश देशों में महिलाओं को मताधिकार का अधिकार तो प्राप्त है. रोजगार के अवसर भी हैं. लेकिन उसके बाद भी कदम-कदम पर गैर-बराबरी और लिंग के आधार पर भेदभाव जारी है. यह समस्या किसी एक देश की नहीं बल्कि पूरे विश्व की है.
विश्व स्तर पर महिला सशक्तिकरण एवं महिला अधिकारों के प्रति जागरूकता के लिए 8 मार्च 1975 से संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जा रहा है.
भारत में गैर-बराबरी की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
भारत में महाभारत काल से पहले जबकि कबिलाई और पशुपालक समाज अस्तित्व में था तब, अधिकांश समाज में महिला बराबर की हैसियत में थी. कुछ पशुपालक समाज मातृसत्तात्मक स्थिति में थे. कतिपय आदिवासी और जनजाति क्षेत्रों में आज भी स्त्री प्रमुख हैं. लेकिन महाभारत काल में समाज पशुपालक से कृषि केन्द्रित हुआ तब भूमि संपत्ति के रूप में परिवर्तित हुई. 5 गांव की मांग के लिए महाभारत हुआ ठीक उसी वक्त समाज में स्त्री भी पुरुष के अधीन एक संपत्ति के रूप में उपयोग की जाने लगी.
जब पांडव द्रोपदी को जुए में हारते हैं तब द्रोपदी धर्मराज युधिष्ठिर से यह प्रश्न जरूर करती है कि आखिर उन्हें उसे गिरवी रखने का अधिकार किसने दिया उसकी इच्छा के बगैर वह उनकी संपत्ति कैसे हो गई? इतिहास में स्त्री का स्वयं के अस्तित्व और बराबरी के लिए यह ऐतिहासिक प्रश्न था जिसका जवाब नहीं दिया गया.
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कालांतर में संस्कृति धर्म और इतिहास सभी मानकों के आधार पर स्त्री को हमेशा से दोयम दर्जा प्राप्त रहा. उषा और अदिति नाम की देवियों का उल्लेख ऋगवेद में है. लेकिन 10 से कम ऋचाओं में, जबकि इन्द्र का उल्लेख सैकड़ों बार हुआ है. हमारे धर्म की विकास यात्रा में देवियों का उल्लेख पांचवीं-छठी शताब्दी के बाद ही मिलता है. जब तांत्रिक संप्रदाय ने अपनी पूजा पद्धति में महिलाओं को महत्व देकर हिन्दू धर्म को चुनौती पेश की.
शासक के रुप में कश्मीर की दीद्दा जो उत्पल वंश की महारानी थी. 958 से 980 ई. पति भीम गुप्त के बाद महारानी बनी और शत्रुओं का दमन कर ख्याति अर्जित की. महिला शासिका के रूप में दिल्ली सल्तनत की रजिया सुल्तान (1236-1249 ) भी महत्वपूर्ण हैं.
आभूषण ही बने बेड़ियां
मध्य युग के राज दरबार में महारानी के कुंटल से अधिक के स्वर्ण आभूषण से सज कर दीवाने आम और दीवाने खास के गलियारों से राजा के दर्शन का उल्लेख मिलता है. मगर कुंटल से अधिक के आभूषण महारानी के लिए आभूषण कम और बेडियों का काम अधिक करते रहे, पूरा मध्ययुगीन इतिहास स्त्री की गुलामी के उदाहरणों से भरा पड़ा है.
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ब्रिटिश साम्राज्य के बाद, राजा राममोहन राय, ईश्वर चंद विद्या सागर, ज्योतिबा फुले जैसे सुधारवादी नेताओं ने भारत में स्त्रियों की दुर्दशा और उसके उत्थान पर जब विचार प्रारंभ किया तो तमाम प्रकार की कुरीतियों का समाधान सिर्फ और सिर्फ स्त्री शिक्षा में दिखाई दिया. महिलाओं के शिक्षित होने के साथ समाज में बराबरी का ख्याल पैदा हुआ. बराबरी के इस विचार ने परिवर्तन किया. कादंबनी गांगुली जो दक्षिण एशिया की पहली स्नातक 1882 थी, का नाम भी उल्लेखनीय है.
यद्यपि भारत के स्वतंत्रता संग्राम में महिलाओं की भूमिका को बढ़ाने में महात्मा गांधी, कस्तूरबा गांधी, सरला बहन आदि ने बड़ा योगदान दिया. कस्तूरबा आश्रम और विद्यालयों, जिसमें कौसानी का “लक्ष्मी आश्रम” भी महत्वपूर्ण है, ने भारत में महिलाओं की सामाजिक स्वावलंबन एवं चेतना की स्थिति में क्रांतिकारी परिवर्तन ला दिया. जिससे देश को महत्वपूर्ण महिला नेतृत्व प्राप्त हुआ का योगदान उल्लेखनीय है.
गांधीजी के प्रभाव तथा भीमराव अंबेडकर, जवाहरलाल नेहरू जैसे प्रगतिशील नेतृत्व भारत के संविधान में तमाम धार्मिक और जातिय परम्परा से उठकर महिलाओं के अधिकार और बराबरी के लिए समान नागरिक संहिता के जरिए संपत्ति पर अधिकार देने की वकालत कर रहा था. लेकिन बहुमत परंपरा वादियों का था, इस कारण संविधान में बड़े उल्लेख नहीं हो पाए स्त्रियों को समानता सिर्फ नीति निदेशक तत्वों का हिस्सा बन कर रहा.
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यद्यपि अनुच्छेद 44 में महिलाओं के साथ हर प्रकार से सम्मान और बराबरी की हिस्सेदारी का उल्लेख है, पर हर सरकार इसका अपनी सुविधा से व्याकरण बदलती रही है. हिंदू कोड बिल और शाहबानो केस के बाद भी महिलाओं की स्थिति में कोई गुणात्मक सुधार भारत में नहीं देखा गया.
अपराधिक न्याय की दिशा में महिलाओं के प्रति 2012 में निर्भया हत्याकांड के बाद जस्टिस जे.एस. वर्मा की समिति ने जो प्रस्ताव पेश किए और जिसके आधार पर भारतीय दंड संहिता की धारा 354, 376 में व्यापक परिवर्तन हुए और बच्चों को हिंसा से बचाने के लिए पोक्सो अधिनियम लागू किया गया वह एक बड़ी उपलब्धि है.
राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं, तमाम प्रयासों के बाद भी महिलाओं के प्रति अपराध में लगभग 5% की दर से प्रति वर्ष वृद्धि हो रही है. 2018 में महिलाओं के प्रति 3 लाख 78 हजार अपराध दर्ज हुए, वहीं यह आंकड़ा 2019 में लगभग 4लाख 5 हजार पार कर गया.
तमाम विभेद और भेदभाव के बाद भी आधी आबादी के बराबरी का संघर्ष बहुआयामी और महत्वपूर्ण तो है ही, समाज को आगे भी ले जा रहा हैं. आज 8 मार्च को हम प्रतिवर्ष ‘महिला दिवस’ को याद कर नए संकल्प लेते हैं. निश्चित रूप से आने वाले दिनों में हम एक स्वच्छंद और बराबरी के समाज का निर्माण कर पाएंगे. दिनों की औपचारिकता से मुक्त हो सकेंगे ऐसी शुभकामना.
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हल्द्वानी में रहने वाले प्रमोद साह वर्तमान में उत्तराखंड पुलिस में कार्यरत हैं. एक सजग और प्रखर वक्ता और लेखक के रूप में उन्होंने सोशल मीडिया पर अपनी एक अलग पहचान बनाने में सफलता पाई है. वे काफल ट्री के नियमित सहयोगी.
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