इस भुस्कैट हो चले विवाद से बेहतर है हम भाषा के मुद्दे को एक अलहदा तरीके से समझने की कोशिश करें. मुझे लगता है सबसे सशक्त भाषा वही है जिसमें किसी मुसीबत में फंसा आदमी अपनी जान बचाने के लिए किसी को पुकार लगाता है और वो दूसरा उसे सुनकर, समझकर बचाने के लिए आ जाता है. एसओएस वाली भाषा. अब वो पुकार हिंदी, मंदारिन, फ़ारसी, अंग्रेज़ी जैसी खालिस भाषा में हो, भाषाओं-बोलियों की खिचड़ी में हो, या उसमें इशारे भरे हों उससे बेहतर और सच्ची भाषा हो नहीं सकती. उसे क्यों न शुद्धतम भी माना जाए, सुंदरतम भी कहा जाए? क्या आप उस भाषा में लिख सकते हैं? अगर हाँ तो आपसे बेहतर साहित्य कोई नहीं रच सकता. International Mother Language Day
भाषाओं को पायदान पर रखना अदब के लिहाज़ से ठीक नहीं है लेकिन समझने के लिए हम कह सकते हैं कि एसओएस के बाद दूसरे दर्जे की भाषा वो होती है जिसमें कोई भूखा इंसान रोटी मांगता है. इसे आप थोड़ा विस्तार देकर रोजी-रोटी तक ला सकते हैं. रोजगार की भाषा. बहुत ताकतवर और जीवनानुकूल. एकदम परफेक्ट शेप, साइज़ और एटीट्यूड में.
तीसरा दर्जा मेरे लिए लोक की भाषा का है. जन की भाषा. जिसे हम बोली कहकर फुसलाना चाहते हैं. संस्कृति व्यवहार की भाषा. बहुत कम डेविएशन दूसरे और तीसरे नम्बर की भाषाओं में होना चाहिए. मुझे लगता है एक स्वस्थ, इंडिपेंडेंट, वाइब्रेंट समाज में ये दोनों भाषाएं एक सी दिखती हैं. दोनों में अलगाव इतिहास की कुछ तारीखों में बड़े धचकों की वजह से हुआ होता है. इस उठापटक का खामियाजा पीढियां बर्दाश्त करती हैं. सजग समाज धीरे-धीरे इन झटकों से बाहर आ जाता है और व्यहवारिक समाधान निकालता है. व्यावहारिकता दूसरे दर्जे के प्रति ज़्यादा समर्पित होती है क्योंकि जीवन सरलता की ओर चलना चाहता है और यही बात भाषा के ऊपर भी लागू होती है.
इन सबके बाद आती है साहित्य की भाषा. भाषा, साहित्य से नहीं चलती. साहित्य, भाषा से ही चल सकता है. दिक्कत ये है कि अक्सर साहित्यकार ही इस बात को भूल जाता है. लेकिन फिर भी अगर साहित्यकार भाषा का रोना रो रहा है तो उसे दरकिनार नहीं किया जा सकता क्योंकि वो समाज के आगे मशाल लेकर चलने वालों में से है. बहुत ज़रूरी है उस रोना-रोहट को सजगता से परखने की. वो अपने लिए रो रहा है या दूसरे, तीसरे दर्जे की भाषाओं के लिए या उस खाई के लिए जिसने ऐसी परिस्थितियां पैदा कर दीं कि समाज में कई भाषाओं-बोलियों की सहजीविता की जगह भाषाओं-बोलियों के दर्जे पनप गए. आदर्श स्थिति वो होती है जिसमें समाज में बहुत सी भाषाएं हों, उनके बीच व्याकरणिक अंतर तो हो, इस तरह के दजे नहीं. साहित्य की, संस्कृतियों की, रोजगार की भाषाओं में कोई बड़ा अंतर या विवाद न हो. इस तरह से दर्जों में बांटकर देखने की ज़रूरत ही न रहे. International Mother Language Day
साहित्य उसी भाषा में सुंदर हो सकता जिसमें ये लोगों की बात करे, उनसे बात करे और जिनकी बात करे उनतक पहुंचे. भाषा की शुद्धता से ज़्यादा आवश्यक है संवाद की परिपक्वता और भागीदारी. जिस भाषा में एक बड़ा जन समूह छूट जाए या संवाद में इंगित अर्थ टूट जाएं तो ऐसी भाषा का क्या फायदा?
अनुवाद के लिए भी यही बात लागू होती है. अपनी भाषा में तर्जुमा मूल बात से समझौते जैसा नहीं होना चाहिए. अगर हमारी भाषा में उस भाव को शक्ल देने के लिए कोई मुफीद शब्द नहीं है बनाया भी नहीं जा सकता तो दूसरी भाषा से शब्द ले लेने में ही समझदारी है. किसी अन्य भाषा या बोली के शब्द जुड़ने से भाषा समृद्ध और सहज होती है. किसी शब्द का तर्जुमा अगर सहज और सुंदर तरीके से नहीं हो सकता तो उसे दूसरी भाषा से ही क्यों नहीं लिया जा सकता? जीवन ऐसे ही नहीं चलता क्या? कैप्सूल से काम नहीं चलता तो इंजेक्शन लेते हैं या लिक्विड दवा को आसवित कर चूर्ण बना उसे जमाकर टैबलेट में परिवर्तित कर तब खाते हैं?
ध्यान रहे ये सारी बात भाषा की को रही है इसे कथ्य से रिप्लेस न कर लिया जाए. बात को कहने के तरीके की बात है ये, बात की बात नहीं. बहुत कम्युनिकेबल भाषा में अगर खराब विचार उलीचे जाएं तो इसे किसी भी दशा में अच्छा नहीं कहा जा सकता. बहुत सरल-सामान्य-रोजमर्रा की भाषा में भी सुंदर बात कही जा सकती है, बहुत सुसज्जित भाषा में गालियाँ.
काज़ी हसन रज़ा साहब का एक शे’र है-
रोके है तल्ख़ बात से मीठी ज़बाँ मिरी
इक बूँद ज़हर सिद्क़ मुझे घोलने न दे
मुझे अपनी भाषा में अभिव्यक्त नफरत के बरक्स दुनिया की किसी भी भाषा में जताया गया प्रेम चाहिए. प्रेम की भाषा ही मेरे लिए सबसे प्रभावशाली सम्पर्क भाषा है, सजग राष्ट्रभाषा है, सरल राजभाषा है सबसे सुंदर मातृभाषा है!
अपड़िया?
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अमित श्रीवास्तव. उत्तराखण्ड के पुलिस महकमे में काम करने वाले वाले अमित श्रीवास्तव फिलहाल हल्द्वानी में पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात हैं. 6 जुलाई 1978 को जौनपुर में जन्मे अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी तीन किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता) और पहला दखल (संस्मरण) और गहन है यह अन्धकारा (उपन्यास).
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