काली-कुमाऊँ के ‘पैका’ और उड़ीसा के ‘पाइका’ योद्धा: भारत की पहली लड़ाका कौम, जो कभी हिमालय से ओड़िसा तक फैली थी
-लक्ष्मण सिह बिष्ट ‘बटरोही’
हिमालय की गोद में बसे कुमाऊँ की पुरानी राजधानी चम्पावत के इर्द-गिर्द राजा के विश्वस्त और स्वामिभक्त क्षत्रिय वीरों का घेरा मौजूद रहता था, जिन्हें स्थानीय भाषा में ‘पैक’ कहा जाता था. इन योद्धाओं का काम राजा की सुरक्षा के साथ-साथ युद्ध की स्थिति में उसको हर हाल में विजयी बनाना होता था. कुमाऊँ के वर्तमान अल्मोड़ा, चम्पावत और पिथौरागढ़ जिलों में नेपाल-भारत के बीच बहने वाली काली नदी के किनारे बसे हुए इन लोगों का सदियों से सामरिक महत्व रहा है. कुमाऊँ के लोक जीवन में इन वीर पैकों की कथाएं आज भी मौजूद हैं. (काफल ट्री के 3 जुलाई, 2019 अंक में प्रकाशित मेरी कहानी ‘गुमदेश के मेरे पुरखों के किस्से’ में इस तरह के अनेक किस्सों को संकलित किया गया है.)
इस बात के कोई ऐतिहासिक प्रमाण तो उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन हिमालय के ‘पैका’ और ओड़िसा के ‘पाइका’ योद्धाओं के बीच अनेक समानताएं मिलती हैं. नाम से लेकर इनकी चारित्रिक विशेषताओं तक. कुमाऊँ के इतिहास में इन्हें लेकर अभी कोई अध्ययन नहीं हुआ है, लेकिन ओड़िसा के लोगों ने इस पर खूब काम किया है. इनके युद्ध-कौशल को न केवल ओड़िसा में, पूरे देश में शारीरिक दक्षता के लिए अपनाया जा रहा है. ओड़िसा शासन ने तो इसे राजकीय संरक्षण प्रदान किया है.
खास बात यह है कि अपने औपनिवेशिक शासन काल में अंग्रेजों ने इन दोनों जातियों (‘पैक’ ‘पइक’) को जुझारू और युद्धप्रिय जातियों (मार्शल रेस) की मान्यता प्रदान की. संभव है, भविष्य में उत्तराखंड के इतिहासकारों का ध्यान इस ओर आकर्षित हो, मगर इस बात को कोरी कल्पना कहकर टाला नहीं जा सकता. (मशहूर टीवी चेनल ‘एपिक’ में ‘इंडियन मार्शल आर्ट’ के नाम से इस कला का विस्तृत परिचय दिया जाता है,)
फ़िलहाल ओडिया मार्शल कला ‘पइका’ के बारे में विस्तृत जानकारी:
पाइका विद्रोह
पाइका विद्रोह (1817 ई.) ओड़िसा में ईस्ट इण्डिया कंपनी के शासन के विरुद्ध एक सशस्त्र विद्रोह था. पइका लोगों ने भगवान जगन्नाथ को उड़िया एकता का प्रतीक मानकर बख्शी जगबंधु के नेतृत्व में 1817 ई. में यह विद्रोह शुरू किया था. शीघ्र ही यह आन्दोलन पूरे उड़ीसा में फैल गया किन्तु अंग्रेजों ने निर्दयतापूर्वक इस आन्दोलन को दबा दिया। बहुत से वीरों को पकड़ कर दूसरे द्वीपों पर भेज कर कारावास का दंड दे दिया गया. बहुत दिनों तक वन में छिपकर बख्शी जगबंधु ने संघर्ष किया किन्तु बाद में आत्मसमर्पण कर दिया.
कुछ इतिहासकार इसे ‘भारत का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम’ की संज्ञा देते हैं। 1817 में ओडिशा में हुए पइका बिद्रोह ने पूर्वी भारत में कुछ समय के लिए ब्रिटिश राज की जड़े हिला दी थीं. मूल रूप से पाइका ओडिशा के उन गजपति शाषकों के किसानों का असंगठित सैन्य दल था, जो युद्ध के समय राजा को सैन्य सेवाएं मुहैया कराते थे और शांतिकाल में खेती करते थे. इन लोगों ने 1817 में बक्शी जगबंधु बिद्याधर के नेतृत्व में ब्रिटिश राज के विरुद्ध बगावत का झंडा उठा लिया.
खुर्दा के शासक परंपरागत रूप से जगन्नाथ मंदिर के संरक्षक थे और धरती पर उनके प्रतिनिधि के तौर पर शासन करते थे. वो ओडिशा के लोगों की राजनीतिक और सांस्कृतिक स्वतंत्रता का प्रतीक थे. ब्रिटिश राज ने ओडिशा के उत्तर में स्थित बंगाल प्रांत और दक्षिण में स्थित मद्रास प्रांत पर अधिकार करने के बाद अंग्रेजों ने 1803 में ओडिशा को भी अपने अधिकार में कर लिया था. उस समय ओडिशा के गजपति राजा मुकुंददेव द्वितीय अवयस्क थे और उनके संरक्षक जय राजगुरु द्वारा किए गए शुरुआती प्रतिरोध का क्रूरता पूर्वक दमन किया गया और जयगुरु के शरीर के जिंदा रहते हुए ही टुकड़े कर दिए गए.
कुछ सालों के बाद गजपति राजाओं के असंगठित सैन्य दल के वंशानुगत मुखिया बक्शी जगबंधु के नेतृत्व में पइका विद्रोहियों ने आदिवासियों और समाज के अन्य वर्गों का सहयोग लेकर बगावत कर दी. पइका विद्रोह 1817 में आरंभ हुआ और बहुत ही तेजी से फैल गया. हालांकि ब्रिटिश राज के विरुद्ध विद्रोह में पाइका लोगों ने अहम भूमिका निभाई थी, लेकिन किसी भी मायने में यह विद्रोह एक वर्ग विशेष के लोगों के छोटे समूह का विद्रोह भर नहीं था.
घुमसुर जो कि वर्तमान में गंजम और कंधमाल जिले (ओड़िसा) का हिस्सा है, वहां के आदिवासियों और अन्य वर्गों ने इस विद्रोह में सक्रिय भूमिका निभाई. वास्तव में पइका विद्रोह के विस्तार का सही अवसर तब आया, जब घुमसुर के 400 आदिवासियों ने ब्रिटिश राज के खिलाफ बगावत करते हुए खुर्दा में प्रवेश किया. खुर्दा, जहां से अंग्रेज भाग गए थे, वहां की तरफ कूच करते हुए पाइका विद्रोहियों ने ब्रिटिश राज के प्रतीकों पर हमला करते हुए पुलिस थानों, प्रशासकीय कार्यालयों और राजकोष में आग लगा दी.
पाइका विद्रोहियों को कनिका, कुजंग, नयागढ़ और घुमसुर के राजाओं, जमींदारों, ग्राम प्रधानों और आम किसानों का समर्थन प्राप्त था. यह विद्रोह बहुत तेजी से प्रांत के अन्य इलाकों जैसे पुर्ल, पीपली और कटक में फैल गया. विद्रोह से पहले तो अंग्रेज चकित रह गए, लेकिन बाद में उन्होंने आधिपत्य बनाए रखने की कोशिश की लेकिन उन्हें पाइका विद्रोहियों के कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ा. बाद में हुई कई लड़ाइयों में विद्रोहियों को विजय मिली, लेकिन तीन महीनों के अंदर ही अंग्रेज अंतत: उन्हें पराजित करने में सफल रहे.
इसके बाद दमन का व्यापक दौर चला जिसमें कई लोगों को जेल में डाला गया और अपनी जान भी गंवानी पड़ी. बहुत बड़ी संख्या में लोगों को अत्याचारों का सामना करना पड़ा. कई विद्रोहियों ने 1819 तक गुरिल्ला युद्ध लड़ा, लेकिन अंत में उन्हें पकड़ कर मार दिया गया. बक्शी जगबंधु को अंतत: 1825 में गिरफ्तार कर लिया गया और कैद में रहते हुए ही 1829 में उनकी मृत्यु हो गई.
हालांकि पाइका विद्रोह को ओडिशा में बहुत उच्च दर्जा प्राप्त है और बच्चे अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई में वीरता की कहानियां पढ़ते हुए बड़े होते हैं, लेकिन दुर्भाग्य से इस विद्रोह को राष्ट्रीय स्तर पर वैसा महत्व नहीं मिला जैसा कि मिलना चाहिए था. ऐसी महत्वपूर्ण घटना को इतना कम महत्व दिए जाने के पीछे कई कारण हो सकते हैं, लेकिन यह संतोष की बात है कि भारत सरकार ने इस विद्रोह को समुचित पहचान देने के लिये इस घटना की 200वीं वर्षगांठ को उचित रूप से मनाने का निर्णय लिया है.
पइका अखाड़ा, ओड़िसा के प्रसिद्ध अखाड़े हैं जो प्राचीन काल में किसानों को सैन्य प्रशिक्षण देने का काम करते थे। आजकल पाइक अखाड़ों में परम्परागत व्यायाम और पैका नृत्य आदि किये जाते हैं.
विद्रोहियों का गुरिल्ला युद्ध
हालांकि शुरुआत में विद्रोही सेना ने कई लड़ाईयां जीती, लेकिन अंग्रेज़ इस उठती चिंगारी को बुझाने में सफल रहे.
अक्टूबर,1817 में यह युद्ध समाप्त हो गया था. लेकिन इसके कई नेता भागने में सफल रहे.
अनेको विद्रोहियों ने 1819 तक गुरिल्ला युद्ध लड़ा, लेकिन अंततः उन्हें पकड़ कर मौत के घाट उतार दिया गया.
बक्शी जगबंधु को भी 1825 में गिरफ्तार कर लिया गया और जेल में कैद में रहते हुए ही 1829 में उनकी मृत्यु हो गई.
पाइका और घोंड समुदाय का अंग्रेजों द्वारा किये जा रहे अत्याचारों के खिलाफ आवाज़ उठाना, ब्रिटिश राज के लिए चुनौती था कि वे ज्यादा दिनों तक भारत पर कब्ज़ा नही रख पाएंगे.
लक्ष्मण सिह बिष्ट ‘बटरोही‘ हिन्दी के जाने-माने उपन्यासकार-कहानीकार हैं. कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके बटरोही रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ के संस्थापक और भूतपूर्व निदेशक हैं. उनकी मुख्य कृतियों में ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ ‘सड़क का भूगोल, ‘अनाथ मुहल्ले के ठुल दा’ और ‘महर ठाकुरों का गांव’ शामिल हैं. काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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