उत्तराखंड की देवभूमि कई प्रकार की वनस्पतियों व प्राकृतिक संपदाओं से भरी हुई है. जिन संपदाओं में एक विशिष्ट संपदा है- भेकुए का पेड़. यह पेड़ उत्तराखंड में बहुतायत से पाया जाता है. इस पेड़ का अनादि काल से उत्तराखंड के सामाजिक व व्यवसायिक विकास में अपना एक महत्वपूर्ण योगदान रहा है. इस लेख के माध्यम से मेरा पर्याय भेकुए के उसी महत्व को उजागर करना है जिसको आने वाली पीढ़ी शायद ही कभी याद करे.
(Bhekua Tree Importance of flora in Uttarakhand)
भेकुए का पेड़ नीम के पेड़ की तरह कद-काठी व फैलाव वाला होता है परंतु उसके पत्ते पान के पत्तों की तरह चौड़े होते हैं. भेकुए के पत्ते गाय, भैस, बकरी आदि को खिलाये जाते हैं. जानवरों के लिये इनको एक पौष्टिक आहार माना जाता है जिसके खाने से वो ज्याद दूध देते हैं. भेकुए के पेड़ से काटे गये पत्तों को सामान्यत: नवम्बर से फरवरी माह के समय खिलाया जाता है, जिसके बाद इसमें पतझ़ड़ आ जाता है. पहले से बढ़े-बूढे जब साबुन के प्रयोग से वाकिफ़ नही थे, तो वे भेकुए के तनों और पत्तों को कूटकर एक लोटी या गिलास में पानी में भिगा दिया करते थे. कुछ समय बाद भेकुए का सत्व पानी में घुलकर उसको शैम्पू की तरह बना देता था जिससे बालों को धोया जा सकता था जिससे बाल रेशम की तरह मुलायम व चमकदार हो जाते थे. भेकुए के दानों (फलों) को बच्चे बड़े चाव से खाया करते थे और इसके खाने से उनके होठ व मुँह लिपिस्टिक लगाये जाने की तरह लाल हो जाते थे. ये उनका एक खेल था जिससे द्वारा वो पान खाने का अभिनय किया करते थे.
भेकुए का व्यवसायिक प्रयोग (भांग के पेड़ से सामान बनाने की कला – भंगोली शिल्प की तरह) रस्सी आदि बनाने में होता था. होता यह था कि जो तने जानवरों के पत्ते खाने के बाद बच जाते थे, उनको जमा कर लगभग 15 दिन तक नदी या गाड़ में भीगने के लिये छोड़ दिया जाता था. ऐसा करने थे तने से रेशेनुमा छाल अलग हो जाती थी जिसको कूटकर व धोकर और तद्पश्चात घर लाकर तहरा ( लकड़ी का दोमुहाँ यंत्र जिसमें रेशे लपेट कर पयाँण दी जाती थी) की मदद से रस्सियाँ बटीं जाती थी. विभिन्न मोटाई की रस्सियाँ बटी जाती थी जिनका प्रयोग जंगल से पिरूल लाने के लिये जाल बुनने, मोहंग (कंधे पर लकड़ी (सीकीं) के सहारे दो तरफ सामान ढोने का जालीनुमा टोकरी) को बुनने, और बैलों के मुँह को बंद करने के लिये लगाने वाले माँव (जिससे वो चारा ना चर सकें) को बुनने और रसोई के बासों में (छत के नीचे पलजू के साथ लगे बासे) दूध, दही आदि के बरतनों को टाँकने (जिससे कि बिल्लियाँ मुँह ना मार सकें) के लिये जालनुमा टोकरी को बुनने, व जानवरों को बाधने व घास लाने की रस्सी (ज्योड़) आदि के लिये किया जाता था.
(Bhekua Tree Importance of flora in Uttarakhand)
बाद-बाद में कुछ व्यवसायी महिलाओं ने इसका प्रयोग वाल-हैंगिग बनाने (जिसमें एक महिला के चित्र को को पीठ की तरफ से बिठाकर उसके बालों को लट बाध कर दर्शाया जाता था) में भी किया गया और इसको गेहूँ के नौवों के साथ बुनकर चटाईयाँ भी बनायी. पुराने समय में इसकी पतली लकड़ियों (स्वाठ) का उपयोग ईधन के अभाव में आग जलाने व बिजली के अभाव में मशाल (भक्वोंक–राँख जसिक चीड़ क पेड़ से छिल्कवाँक-राँख बणूणीं) बनाने में भी किया जाता था. अब आप विचार करो कि अगर साबुन, शैम्पू, रस्सी, विद्युत आदि आविष्कार आज नहीं होते तो हम भी इस युग में भेकुए के गुण गा रहे होते.
आज इन आविष्कारों नें जहाँ मानवों की दिनचर्या को सुगम बना दिया है वहीं दूसरी ओर कई अन्य खतरों जैसे कि शैम्पू से होने वाले पार्श्व प्रभाव, नाईलोन की रस्सियों के अपशिष्ट से होने वाले प्रदूषण, और विद्युत पैदा करने के जोखिम भरे तरीकों व विद्युत उपकरणों से होने वाले पर्यावरणीय नुकसानों की संभावनाओं को भी बढ़ा दिया है. जहाँ पूरी दुनियाँ अब जैविक खेती, बायोडिग्रेडेबल पैकेजिंग, व ग्रीन इलेक्ट्रिसिटी आदि की संभावनाऐं तलाश करने में जुटी हो, वहाँ भेकुए पर शोध कर व हमारे पूर्वजों के आविष्कार रूपी पहियों को इस्तेमाल कर समाज व व्यवसायिक केन्द्रों को एक गति दी जा सकती है.
(Bhekua Tree Importance of flora in Uttarakhand)
प्रोफेसर राकेश बेलवाल, सोहार विश्वविद्यालय, सल्तनेत औफ ओमान में कार्यरत हैं. मूल रूप से कुमाऊं के रहने वाले राकेश बेलवाल से उनकी ईमेल आईडी [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है.
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