आज उसके मन में जाने कैसी उथल पुथल मची है. सारी रात करवटें बदलते हुए ही गुजरी और न जाने कब सवेरा हो गया. ईजा ने एक झटके में उसके सिर से रजाई हटाई और बोली, जल्दी उठ, पंडितजी आने वाले होंगे. इतना कहकर वह खुद तो हड़बड़ाती हुई रसोई की तरफ बढ़ गई और कुमुद को नींद से भारी आँखें लिए उठना ही पड़ा. आज उसके हल्दी जो लगनी है.
(Ija story by Smita Karnatak)
उठकर कुमुद ने देखा तो उसकी बुआ, ताई और मामी रजाई में दुबकी चाय की चुस्कियों का आनन्द उठाते हुए अपनी-अपनी बहुओं और दामादों के गुण-दोषों पर चर्चा में व्यस्त थीं. कुमुद को अपने पर खीज उठी. माँ ने सुबह उठकर इन्हें चाय बनाकर दी होगी और फिर से जुट गई होगी अपने काम में. बड़ी बुआ तो माना कि बूढ़ी हो गयी है पर क्या ताई और मामी भी ईजा की मदद नहीं कर सकतीं. सोचते-सोचते उसने रस्सी पर धूप सेकता तौलिया उठाया और नहाने चल दी.
अरे अभी तक हलवाई नहीं आया, जरा भेजो तो किसी को उसे देखने. नरैण की जीप तो सुबह आ जाती है गरुड़ से. आज क्यों जो हुई होगी देर. ईजा ने इतनी जोर से कहा कि बाहर धूप सेक रहे पति को सुनाई दे जाए. आठ बज गए, जाने कहाँ रह गया. आधी बातें तो ईजा खुद से ही करती, खुद ही सवाल करती और खुद ही जवाब तलाशती. तभी कुमुद भी आ गई. उसे भी चाय पीने की हुड़क लगी थी. उसे देखते ही हमेशा शांत रहने वाली ईजा तेज आवाज में बोली, ये सूट क्या टाँग रखा है, जा जाकर साड़ी पहन कर आ. अभी पंडितजी आ जाएँगे, मंदिर में दिया तक नहीं जला अभी.
कुमुद की कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे. ईजा को इतना बेचैन और हड़बडाहट में उसने कभी नहीं देखा था. इधर नहाकर चाय पीने की तलब और उधर घर में फैला काम. तभी ईजा ने कहा, ले चेली, तेरी चाय रखी है गिलास में. कुमुद ने देखा ईजा के चेहरे पर ममतामयी मुस्कराहट ने एक गोता लगाया और फिर उसने ईजा को कहते सुना, अरे सुन तो रे बेटी, जरा अपने बाबू को देख तो क्या कर रहे हैं. उनसे कह तो कि हलवाई नहीं आया अब तक. जल्दी किसी को भेजें.
अच्छा ईजा, तू इतनी चिंता न कर, मैं अभी कहती हूँ बाबू से. कहकर चाय सुड़कती हुई कुमुद बाहर निकली तो देखा कि बाबू एक पैर के ऊपर दूसरा पैर चढ़ाए बड़े ताऊजी के साथ बैठे धूप ताप रहे हैं. दोनों भाई इतनी गंभीर मुद्रा बनाकर बैठे हैं मानो सारे गाँव का भार इन्हीं के कंधों पर हो. ताऊजी के आसपास लगभग आधा दर्जन बीड़ियों के टोटे पड़े हैं और अपने झुर्रियों भरे हाथों से उन्होंने एक और बीड़ी सुलगाकर होंठों से लगा रखी है. बाबू का मन तो कर ही रहा होगा कि एकाध सुट्टा वो भी मार लें लेकिन बड़े भाई का लिहाज है. घर के सबसे बड़े हुए ताऊजी. ताई इनके सामने कितनी जवान लगती है. पहली बीबी के गुजर जाने के बाद उनके दो बच्चों और घर सम्भालने के नाम पर अठारह साल की कन्या इस पैंतीस वर्षीय युवक से ब्याही गयी थी. साथी के न रहने पर अबला मर्दों को ही पुनर्विवाह की जरूरत होती है. औरत के लिए तो ऐसा सोचना भी गुनाह है.
(Ija story by Smita Karnatak)
बाबू, ईजा कह रही है कि देर हो रही है. हलवाई नहीं आया. किसी को भेज दो. कहकर कुमुद ने इत्मीनान से चाय का घूँट भरा और वहीं देहरी के बाहर एक किनारे बैठ गई. हाँ-हाँ अभी देखता हूँ, बाबू गला खंखारते हुए बोले. सामने खिमुआ चाचा की पटाल की छत पर आठ- दस पीले कद्दू एक लाइन से रखे हैं. कुछ ही दिन पहले उनकी गाय ने बछड़ा जना है जिसे उसकी माँ लाड़ से चाट-चाटकर दुलार रही है. बगल के घर की हेमा भाभी आँगन में झाड़ू-बुहारू कर रही है और एक कोने में उनका कुत्ता कालू अपने पैरों में सिर दिए बैठा है. चार-पाँच बच्चे अपने बस्ते टाँगे स्कूल जा रहे हैं. सामने बर्फ के पहाड़ों पर सूरज पूरी तरह पसर गया है. यकायक कुमुद के मन में एक हौल सी उठी और उसका पूरा बदन एकबारगी सिहर उठा. कल से ये सब पराया हो जाएगा. हमेशा के लिए छूट जाएगा. पता नहीं कब आ पाएगी वह यहाँ अब. पिछले साल मोहन चाचा की बेटी ब्याह के बाद कुल दो दिन के लिए अपने बड़े भाई के लड़के के नामकरण पर आई थी. कैसी खिली-खिली सी थी देवकी दी पहले. ब्याह के बाद बिल्कुल झुर्रिया गई एक ही साल में. सोचते-सोचते कुमुद के पैर वहीं जम से गए .
ब्याह वाले घर में चढ़ते सूरज के साथ ही रौनक बढ़ने लगी. जोशी जी के यहाँ गाँव की बड़ी-बूढ़ियों का जमावड़ा लगने लगा. बहुएँ घर का काम निबटाकर आएँगी. कुछ सयाने उम्र दराज पुरुष हलवाई के लिए जगह साफ करवाने में जुट गए हैं. गरुड़ से हलवाई बुलवाया गया है. आंखिर जोशी जी की इकलौती बेटी का ब्याह जो है. अब तक तो गाँव के ही कुछ हुनरमंद युवक मिलकर हर काम-काज में हलवाई का काम निभाते आ रहे थे. रोटी-पूरी जैसे काम का जिम्मा लड़कियाँ और औरतें संभालतीं. ऐसे में गाँव में पहली बार हलवाई के आने से जोशी जी की नाक कुछ और ऊँची और धोती कुछ और लंबी हो गई है.
जोशी जी फूल कर कुप्पा हुए जा रहे हैं. इस गाँव में उनकी नजर में आज तक किसी की बेटी का ब्याह इतने सम्पन्न घर में नहीं हुआ है. दो भाइयों की इकलौती बहन की कल बारात आने वाली है. अपनी तरफ से जोशी जी ने कोई कमी-बेसी नहीं रख छोड़ी है. फौज से सूबेदार रिटायर हुए, एक लड़का भी फौज में भर्ती चला गया, दूसरा यहीं मास्टर लग गया इंटर कालेज में, और क्या चाहिए .
कुमुद की माँ का हाल कुछ दूसरा है. उन्हें ठीक-ठीक अंदाजा नहीं कि वह किस बात के लिए ज्यादा खुश हैं और क्यों? बेटी को अच्छे घर में ब्याहने की खुशी या गाँव के दुरूह जीवन से उसे दूर रखने की खुशी. शायद उन्हें सन्तुष्टि अधिक है. उनकी पढ़ी- लिखी बेटी को दिनभर खेतों में काम तो नहीं करना पड़ेगा, जंगल जाकर घास-लकड़ी का बोझा तो नहीं ढोना पड़ेगा. पानी न आने पर गाँव के एकमात्र नौले से पानी तो नहीं लाना पड़ेगा. सुबह उठकर गोठ में जाकरदूध निकालो, चारा-पानी का इंतजाम करो, गोबर उठाकर सफाई करो. घर की झाड़ू-बुहारू, लिपाई-पुताई, नाश्ता-खाना, खेत जंगल. अंतहीन काम और शरीर है कि बस रात आते- आते तक एक-एक पोर दुखने लगता है. बिस्तर पर निढाल होकर गिर पड़ने तक काम कहाँ खत्म होते हैं. कुमुद की माँ सोच रही थी कि बेटी का ब्याह हो जाए तो एक बहू भी ले आएँ . कम से कम घर के कामों का कुछ तो बोझ कम होगा. जब तक बड़ा बेटा गाँव के ही स्कूल में मास्टर है तब तक तो बहू रहेगी यहाँ.
(Ija story by Smita Karnatak)
नौ बजने वाले थे. कुमुद को समझ नहीं आ रहा था कि क्या करे. ईजा तो पगलाई सी कभी रसोई में तो कभी पूजाघर के इंतजामों के बीच दौड़ रही थी. तभी पंडितजी की आवाज सुनाई दी. ईजा की जान में जान आई. उधर बाबू ने रसोई के दरवाजे पर आकर कहा, एक घूँट चाय तो बनाना जरा पंडितजी के लिए, खूब गटगटी बनाना हाँ! जरा सी मैं भी पी लूँगा. इनकी आदत नहीं जाएगी कुबगत सलाह देने की, ईजा ने सोचा. मुझे पता है किसे क्या देना है. जब देखो अपनी पधानी चलाते हैं. एक काम में हाथ नहीं बटाएंगे. बस सारा दिन खिमुआ चाचा की चाय की दुकान पर बैठकर बीड़ी फूंकेंगे या ताश खेलेंगे. घर-बार, खेत, गाय गोठ की चिंता करने को वो है ना. उनका मन रोने को हो आया. इधर केतली की बुड़बुड़ाहट से वो अपने में वापस आई और गटगट करती चाय को गिलासों में उड़ेलते हुए फिर अपने से बातें करने लगी. कल-परसों कुमुद भी सौरास चली जाएगी तब तो मैं और भी अकेली हो जाऊँगी. फिर किससे लगाने हैं अपने दुख-सुख. आँखों के किनारे पर छलक आई बेबसी और बिछोह की दो बूँदों को चुपचाप साड़ी के पल्लू से पोंछती ईजा पंडितजी को चाय देने चल दी.
सुदर्शन दामाद पाकर ईजा तो निहाल हो गई थी. कुछ समय के लिए अपने सारे दुख झंझट और थकान भूलकर वह मन ही मन प्रार्थना करने लगी, हे गोलज्यू महाराज! मेरी कुमुद को सुखी रखना. हे गोलज्यू महाराज!
माथे पर झूलते टीके और बड़ी सी नथ के साथ रंग्वाली पिछौडे में ईजा ने न जाने क्या-क्या समेट रखा था. बेटी का ब्याह कर पराया हो जाना और उसके सुखकी कामना. आज उन्हें अपने ईजा-बाबू भी बेतरह याद आने लगे. आज वे होते तो नातिन के ब्याह पर कितना खुश होते .
एक-एक कर सभी रस्में होने लगीं. कन्यादान के समय उन्हें लगा कि बस अब वे और नहीं सह पाएँगी. बीस बरस तक बेटी को सेंता-पाला और अब हो गई पराई. ये कैसी रीत है रे भगवान पति के साथ पानी की धार देते उनके हाथ मन में उमड़ते ज्वार को काबू करने में नाकाम होकर थरथराने लगे. आँसुओं के रेले किसी को दिखाई न दें इस खातिर उन्होंने सिर पर पिछौड़ा कुछ और लंबा कर खींच लिया. टप्प से एक गरम बूँद कुमुद के हाथ पर गिरी. मत रो ईजा! मत रो! मन ही मन ईजा को दिलासा देती कुमुद की आँखें भी घूँघट के भीतर छलछला गईं.
कल शाम बारात के आने पर कैसी चहल-पहल थी. अब विदाई के समय भी है पर अब माहौल कितना बदल गया है. मंगसीर के महीने की धूप भी जैसे बेटी के जाने से रो-रोकर थकी हुई उदासी में पीली पड़ गई है. मशीन की तरह घर के सब लोग काम निभाने में लगे हैं लेकिन आवाजों में वह उत्साह नहीं. बहुत सजने-धजने की भी किसी को परवाह नहीं इस समय.
उधर बारात के साथ आए देसी बैंड ने कानफोड़ू धुन बजानी शुरू कर दी है. ले जाएँगे, ले जाएँगे. बाराती थिरक रहे हैं. इस विदा की बेला में वही नाच सकते हैं. चेहरे पर दर्प ऐसा जैसे कोई किला फतह कर लिया हो. अगल-बगल की भाभियों, सहेलियों, काकी, ताई सभी की आँखें नम हैं. ये उन सबकी साझी टीस है जो जरा हाथ रखते ही फूट पड़ती है. इन्हीं ज्वार-भाटों के बीच विदाई का समय भी आ पहुँचा. बारी-बारी से सबके पैर छूती कुमुद गले लिपट लिपटकर सबसे मिलती रही. कोई सहेली उसे जोर से गले लगाकर छोड़ती ही नहीं तो कोई बूढ़ी आमा की कमजोर आँखों से उतरता सैलाब उनके चेहरे की झुर्रियों के बीच से किनारे तोड़ बह निकलता और ईजा, उनका तो अपना एक टुकड़ा ही आज अलग हुआ जा रहा है. पूरे गाजे-बाजे के साथ. माँ-बेटी देर तक एक दूसरे के गले लिपट रोती रहीं. रो-रोकर उनके चेहरे और आँखें बुराँस की तरह सुर्ख लाल हो गए. इस समय तो दोनों को बैंड की कर्कश आवाज भी सुहा रही थी जिसमें उनका कलेजे को चीरता रुदन दूसरों को सुनाई नहीं दे रहा था. ईजा रो रही थी कि सारा दिन पुकार-पुकार कर किसे बुलाएंगी कौन झप्प से आकर उनके गलबहियाँ डाल देगा और कुमुद रो रही थी कि बात-बात पर रूठने-मनाने के खेल किसके साथ करेगी.
(Ija story by Smita Karnatak)
कुमुद विदा हो गई. गाँव के नीचे गधेरे तक भाई विदा कराने गए. इधर कुछ मेहमानों ने भी सामान बाँधना शुरु कर दिया. आजकल किसके पास इतना समय है. दोपहर होते होते आधे मेहमान जा चुके थे. बुआ तो रुकेंगी अभी हफ्ता दस दिन. भाई के घर जो आईं हैं. ये भी तो उनका मैत ही हुआ, फिर बहुत दिनों बाद ताई से मिलना हुआ है. जाने फिर कब मौका लगे आने का.
शाम के चार बजने को आए. इतने दिनों की थकान और बेटी के बिछोह से भरी ईजा कमर सीधी करने को लेटी ही थी कि बाबू ने आवाज लगाई, ओ कुमुद की ईजा! चाय तो बना दे, तब मुझे जरा दुकान तक जाना है. ईजा ने भारी मन से अपने शरीर की गठरी को समेटा और दूध की बाल्टी लेकर गोठ की ओर चल दी. अभी तो कितना काम पड़ा है. गाय को सानी कुट्टी कुछ भी नहीं हुआ सुबह से. दूध निकालना है गोबर साफ करना है, फैली हुई चीजें समेटनी हैं रात के खाने की फिकर भी करनी है. मामी भी अपने भाई के साथ सामने के गाँव में अपने मायके जाने को तैयार बैठी हैं उन्हें पिठ्या भी लगानी है. दूसरी बार चाय के लिए आवाज लगे उससे पहले सबको चाय पिलानी है. ईजा के हाथों में जाने कहाँ से ताकत आ गई और वो जल्दी-जल्दी दूध निकालने लगीं.
(Ija story by Smita Karnatak)
स्मिता कर्नाटक
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हल्द्वानी में रहने वाली स्मिता कर्नाटक की पढ़ाई-लिखाई उत्तराखंड के अनेक स्थानों पर हुई. उन्होंने 1989 में नैनीताल के डीएसबी कैम्पस से अंग्रेज़ी साहित्य में एम. ए. किया. पढ़ने-लिखने में विशेष दिलचस्पी रखने वाली स्मिता काफल ट्री की नियमित लेखिका हैं.
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