आज का दिन ऐतिहासिक बन गया है. इक्कीस साल के उत्तराखण्ड में, इसके किसी लोकपर्व को पहली बार राजपत्र में स्थान मिला है. आज उत्तराखण्ड में इगास का राजकीय अवकाश है. इससे पूर्व हरेला को भी राजपत्र में स्थान मिल चुका है. हरेला के चयन में उसकी पर्यावरणीय अपील अधिक महत्वपूर्ण रही बनिस्पत उसके लोक पक्ष के. कुमाऊँ अंचल में ही प्रचलित हरेला, राजपत्र में स्थान मिलने पर पूरे उत्तराखण्ड का पर्व बन गया.
(Igas Bagwal Gazetted Holiday)
इगास / बूड़ी दीपावली सम्पूर्ण उत्तराखण्ड में मनाया जाता है (जौनसार-बाबर में पन्द्रह दिन बाद). बरसात के हरेला और बग्वाळ के इगास के बाद बसंत के फुलदेई पर्व को भी राजपत्र में स्थान मिल जाए तो कह सकते हैं कि पृथक राज्य आंदोलन की अवधि में जिस उत्तराखण्ड का स्वप्न देख कर मांग की जाती थी, उसके सांस्कृतिक स्वरूप की अनुहार राजपत्र में दिखने लगी है. इसमें भी कोई संदेह नहीं कि राजनीतिक स्तर पर हरेला का श्रेय हरीश रावत को जाता है और इगास का अनिल बलूनी और पुष्कर सिंह धामी को. फुलदेई के श्रेय के आगे कोई नाम जुड़ना अभी शेष है. हम सबको भी इसका श्रेय जाता है क्योंकि राजनीतिक निर्णय के लिए वैचारिक दबाव हम लोगों ने ही निर्मित किया था.
इगास के राजपत्र में शामिल होने और इस सीमा तक राज्याश्रय मिलने से कम से कम दो लाभ साफ दिखते हैं – पहला, आधुनिकता की चकाचौंध में विलुप्ति की कगार पर खड़ा एक स्थानीय लोकपर्व को जीवनदान मिला है. दूसरा, इससे पृथक राज्य के सांस्कृतिक आधार को भी जस्टिफिकेशन मिला है. राजनीतिक हानि-लाभ की बात नहीं करूंगा क्योंकि निर्णयाधिकार और समान परिस्थितियाँ सभी के लिए रही हैं.
इगास की परम्परा को लेकर एक भ्रम भी चिंता का विषय है. भ्रम ये कि इसको मनाने की शुरुआत सत्रहवीं सदी के गढ़-सेनापति माधो सिंह भण्डारी की दापा-विजय के बाद, इगास को श्रीनगर लौटने से हुई. इस सम्बंध में राजाज्ञा का कोई अभिलेख मिले तो मुझे भी हार्दिक प्रसन्नता होगी. अगर लोकगीत ही एकमात्र इस मान्यता के आधार हैं तो वो इसकी पुष्टि नहीं करते. गढ़वाली लोकगीतों में बारह और कुमाऊंनी लोकगीतों में बीस बग्वाळ का वर्णन मिलता है.
(Igas Bagwal Gazetted Holiday)
माधो सिंह भण्डारी से सम्बंधित एक लोकगीत की पंक्तियाँ इस तरह हैं –
बारा ऐन बग्वाळी माधो सिंग.
सोळा ऐन सराद माधो सिंग.
ज़ाहिर है सत्रहवीं सदी में दापा की लड़ाई से जब तक माधो सिंग वापसी नहीं कर पाये थे, तब तक श्राद्ध पक्ष के सोलह दिन और बग्वाळ (दीपावली) के बारह दिन बीत चुके थे. बग्वाळ के ये बारह दिन दीपावली के पूर्व दिवस से इगास तक होते हैं. माधो सिंह भण्डारी का विजयोपरांत राजधानी श्रीनगर आगमन एकादशी या इगास की मध्यरात्रि को हुआ था, ये सत्य है, और ये भी कि तब से इगास के उत्साहपूर्वक आयोजन का एक और आधार मिल गया था. पर ये कहना उचित नहीं कि इगास की शुरुआत उसी दिन से हुई थी.
इगास के कणसी और बूड़ी बग्वाळ जैसे नाम भी इसके लोकपर्व होने की पुष्टि करते हैं, राजाज्ञा आधारित राजपर्व नहीं. टिहरी में मनायी जाने वाली रिख-बग्वाळ जरूर राजपर्व है जो लोदी रिखोला की विजय और घर वापसी की खुशी में मार्गशीर्ष अमावस्या को मनाया जाती है.
(Igas Bagwal Gazetted Holiday)
इगास का संदेश स्पष्ट है – सफलता और उपलब्धि के सहयोगियों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करना, वंचितों के आंचल में भी हर्ष-उल्लास व पकवान-मिष्ठान्न सुनिश्चित करना और सर्वोपरि ये कि अंधकार (जो अब अज्ञान का अधिक रह गया है) को दूर करने के लिए अंत तक प्रयास करना.
इगास के निहितार्थ को समझ कर ही असली इगास मनायी जा सकती है. घरों को प्रकाशित करना, गीत-नृत्य का आयोजन करना और पकवान बनाना ये सब भी इगास में सम्मिलित हैं पर इगास की पूरी तस्वीर इतनी ही नहीं. कृतज्ञता का भाव, वंचितों का ध्यान और जीवों के प्रति सम्मान इगास के मूल तत्व हैं. इन तत्वों को याद रख कर इगास मनाएंगे और मनाते हुए दिखेंगे तो जड़ें भी मजबूत होंगी और शाखाएँ भी पुष्पित-पल्लवित. कल मनाये गये, बारा-बग्वाळी के समापन पर्व और लोकपर्व इगास की और आज की इगास के पहले राजपत्रित अवकाश की सभी को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ.
(Igas Bagwal Gazetted Holiday)
–देवेश जोशी
1 अगस्त 1967 को जन्मे देवेश जोशी फिलहाल राजकीय इण्टरमीडिएट काॅलेज में प्रवक्ता हैं. उनकी प्रकाशित पुस्तकें है: जिंदा रहेंगी यात्राएँ (संपादन, पहाड़ नैनीताल से प्रकाशित), उत्तरांचल स्वप्निल पर्वत प्रदेश (संपादन, गोपेश्वर से प्रकाशित) घुघती ना बास (लेख संग्रह विनसर देहरादून से प्रकाशित) और कैप्टन धूम सिंह चौहान. उनके दो कविता संग्रह – घाम-बरखा-छैल, गाणि गिणी गीणि धरीं भी छपे हैं. वे एक दर्जन से अधिक विभागीय पत्रिकाओं में लेखन-सम्पादन और आकाशवाणी नजीबाबाद से गीत-कविता का प्रसारण कर चुके हैं.
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