हम फिल्मों की तरह सोचते हैं
1970 के दशक में भारतीय सिनेमा के पर्दे पर अमिताभ बच्चन का उदय होता है. आज़ादी मिलने के कई सालों बाद भी जब देश में बेरोजगारी, गरीबी के मुद्दे नहीं सुलझे तो नकाम साबित हो रहे सिस्टम से सीधे लोहा लेने वाला एक हीरो लोंगों के दिलों पर छा गया. (Hyderabad rape murder and justice)
हमारा देश सिनेमा की तरह सोचता है या हमारा सिनेमा देश की तरह सोचता है बात एक ही है.
हिंदी फ़िल्मों की तरह हमने आज भी सोचना नहीं छोड़ा. अब जबकि हमारी 80 फीसदी आबादी लिख पढ़ सकती तब भी हम फिल्मों की ही तरह सोचते हैं. लालकुंआ की बिटिया के साथ कब होगा न्याय
यही हुआ हैदराबाद में. जहां पर बलात्कार और हत्या के चार आरोपियों को पुलिस ने एनकाउन्टर में मार गिराया. बिल्कुल फिल्मी सीन. जिस पर दर्शक ताली बजाते हैं, सीटी मारते हैं. जैसे ही उक्त एनकाउंटर की सूचना आमजन तक पहुंची तो लोग सीटी, ताली बजाने लगे.
ये उस देश का नजारा है जहां दुनिया का सबसे बड़ा संविधान है और ये देश दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का दम्भ भरता है. ऐसा दो-एक दिन में ही नहीं हुआ है कि इस तरह एनकाउन्टर का समर्थन हो रहा हो. बल्कि ये सोच बहुत पुरानी है और वक़्त के साथ और गहराती जा रही है. हमें साफ, ईमानदार सरकार नहीं चाहिए बल्कि आरोपियों को मौके पर ही खत्म करने वाले हीरो चाहिए. बिल्कुल बम्बइया फिल्मों की तरह.
‘न्याय’ के ऐसे उदाहरण समाज को पीछे धकेलेंगे
आम जनता की सरकार, पुलिस और न्याय प्रणाली से अपेक्षाएं कम या कहें खत्म हो गईं हैं. शासन में बैठे लोगों को पता है कि जनता का गुस्सा अचानक कभी भी फूट सकता है.
निर्भया कांड के समय जनता के मन में जो गुबार उठा था उसका भी कांग्रेस की सरकार को सत्ता से बाहर करने में बहुत बड़ा हाथ था.
आज एनकाउंटर के बाद तेलंगाना सरकार और पुलिस की जयकार हो रही है. सोचिये महिला पशु चिकित्सक के बलात्कार और हत्या की घटना के बाद सरकार और पुलिस पर न जाने कितने सवाल बनते हैं, जिनके उन्हें जवाब देने चाहिए. लेकिन एनकाउन्टर की घटना के बाद सब खत्म हो गया. सरकार और पुलिस की जयकार हो रही है. हम इतने में ही खुश हो गए. या कहें हमारी सोच यहीं तक की है.
एनकाउंटर को गलत बताना आरोपियों के साथ खड़ा होना नहीं है
मेरे जैसे कई लोग हैं जो इस एनकाउंटर को गलत बता रहे हैं. और ताल ठोंक के बोल रहे हैं कि पुलिस की बताई कहानी संदिग्ध है. ऐसा बोलते ही हमें आरोपियों के पक्ष में खड़ा होने वाला बताया जा रहा है. यह सरासर गलत है. क्योंकि हम ऐसी समाज व्यवस्था के साथ हैं जहाँ कानून का शासन हो. हमें न्याय प्रणाली को बेहतर बनाने में अपनी भूमिका निभानी है. इस तरह एनकाउंटर तात्कालिक खुशी दे सकते हैं लेकिन इनके दूर के परिणाम बहुत घातक हैं. ये हमारे समाज को एक लोकतान्त्रिक समाज बनाने के बजाय बर्बर और हत्यारा बनाएंगे.
पुलिस वध की आड़ में असंवैधानिक हत्याओं को जायज ठहरा लेगी
लोगों का तर्क है कि पुलिस ने हत्या नहीं बल्कि वध किये हैं. ठीक हैं मान लेते हैं कि ये वध जायज हैं लेकिन कई मामले हैं जिनमें साबित हो चुका है कि पुलिस ने गलत एनकाउंटर किये थे. इन वधों की आड़ में पुलिस कई फर्जी मुठभेड़ को जायज बना लेगी. कई आरोपी हैं जो संगीन धाराओं में जेल जाते हैं लेकिन बाद में वो निर्दोष साबित होते हैं. इनमें ज्यादातर पुलिस के निशाने पर गरीब, आदिवासी, अल्पसंख्यक तबका होता है. कानून की जगह पुलिसराज को स्वीकारना समाज के लिए बहुत बुरा होगा.
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हल्द्वानी में रहने वाले नरेन्द्र देव सिंह एक तेजतर्रार पत्रकार के तौर पर पहचान रखते हैं. उत्तराखंडी सरोकारों से जुड़ा फेसबुक पेज ‘पहाड़ी फसक’ चलाने वाले नरेन्द्र इस समय उत्तराँचल दीप के लिए कार्य कर रहे हैं. विभिन्न मुद्दों पर इनकी कलम बेबाकी से चला करती है.
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1 Comments
कमल लखेड़ा
जब न्याय कछुआ गति को छोड़ केंचुआ गति प्राप्त कर ले, तब जनाक्रोश को हीरोपंती समर्थक नहीं कहा जा सकता । न्याय में देरी, न्याय को नकारने के सामान है । सही कहूं तो दीमकों ने इस देश के शासन – प्रशासन और न्यायिक व्यवस्था की चौखट को पूरी तरह से चाट दिया है । जनता उगते सूरज को प्रणाम करने में खुद को सुरक्षित महसूस करती है, फ़िर सवाल कौन करेगा !!! और गर किसी ने ऐसी जुर्रत की भी तो, जवाब कोई क्योंकर देगा ?