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कोविड ने दिया मुझे जिंदगी का एक नया नजरिया

जीवन हमेशा इस क्षण में घटित होता है, इसलिए सबसे बड़ी बात यही मायने रखती है कि हम किसी क्षण में क्या कर रहे होते हैं. मैं एक अप्रैल को जब दिल्ली आया था, तो दिमाग में कई तरह के अधूरे काम कुलबुला रहे थे- दफ्तर के भी और निजी भी. मैं रोज लगभग 15 घंटे काम कर रहा था, जिसमें मेरा फिटनेस का शेड्यूल भी शामिल था. हफ्ते में दो दिन जूम के जरिए मैं अपने करीबी दोस्तों, परिचितों को योगासन, प्राणायाम आदि का अभ्यास करवा रहा था. आए दिन 10-15 किलोमीटर की रनिंग करना एक सामान्य-सी बात थी.
(How I fought Corona)

अपनी शारीरिक प्रतिरोधक क्षमता को लेकर मैं अति आत्मविश्वास का शिकार तो न था, लेकिन थोड़ा भरोसा तो खुद पर था ही कि शरीर पर रोग हमला करेगा, तो मैं उसका मुकाबला कर जाऊंगा. दिल्ली आने के नौवें दिन मुझे बुखार ने पकड़ा. हालांकि उससे पहले मेरे कुछ परिचितों ने फोन पर मुझे आगाह किया था कि मैं थोड़ा खांस रहा हूं दिल्ली जाकर. निश्चय ही लापरवाही मेरी ओर से रही ही होगी, लेकिन मैं यह न जानता था कि बुखार एक बार शुरू होगा, तो वह दसवें दिन अस्पताल में भर्ती होने और रेमडेसिविर इंजेक्शन की डबल डोज लेने के बाद ही टूटेगा. नौ दिन अस्पताल में रहने के बाद अब जबकि मैं 5-6 किलो घटे वजन और बेहिसाब कमजोरी के साथ घर लौट आया हूं, पा रहा हूं कि जीवन को देखने का मेरे नजरिए में एक बुनियादी बदलाव आ चुका है.

अस्पताल में बीमारी से जूझते हुए तरह-तरह के विचार आना तय था. खासकर तब जबकि मैं आसपास तकलीफ में कराहते रोगियों से घिरा हुआ था. मेरा इलाज कर रहे डॉक्टर ने मुझे साफ कह दिया था कि दवाओं के जरिए वे मेरे शरीर को सपोर्ट करने की कोशिश कर रहे हैं. शरीर वह सपोर्ट लेकर अपनी शक्ति पा लेता है, तब तो डर की कोई बात नहीं, लेकिन अगर ऐसा नहीं हो पाता, तो…

डॉक्टर के इस ‘तो’ के सवाल पर मैं बहुत देर सोचता रहा. मैंने जीवन को हमेशा एक पॉजिटिव शक्ति के रूप में देखा, महसूस किया है. भीतर ही भीतर मैं अपनी अवचेतन मन की शक्ति को क्रियान्वित करने का काम शुरू कर चुका था और अपने स्वस्थ, निरोगी रूप को बार-बार विजुअलाइज भी कर रहा था. सच तो यह भी है कि बिस्तर पर बीमारी के बावजूद मैं ब्रह्म मुहूर्त में उठकर गहरे ध्यान में प्रवेश कर रहा था और प्राणायाम का निरंतर अभ्यास भी कर रहा था. पर मैंने महसूस किया कि इन सबके पीछे प्रयोजन जिंदगी को बचा लेने से ज्यादा उसे समझना था.

मैं जीवन के प्रति उदासीन नहीं था, लेकिन मैं उसे पकड़ने और दबोचने की कोशिश भी नहीं कर रहा था. मैं जीवन की प्रज्ञा पर भरोसा करना चाहता था. मैं खुद को यकीन दिला रहा था कि मैं अपनी मर्जी से जीवन का वाहक नहीं बना. सृष्टि ने स्वयं मुझे चुना. सृष्टि की अपनी प्रज्ञा है. उसके लिए हर चल-अचल की एक भूमिका है. सृष्टि का अपना एक मकसद है. हमारे चारों ओर जो भी हो रहा है, कहीं न कहीं सृष्टि उन घटनाओं के जरिए अपने मकसद की ओर बढ़ रही है.
(How I fought Corona)

मुझे महसूस हुआ कि स्थितियां कैसी भी हों, सृष्टि की गतिविधियों, उसके फैसलों को  लेकर जब तक हम अपने प्रतिरोध छोड़ नहीं देते, हमारे मन में शांति नहीं उतरने वाली. और तब पहली बार मैंने पूरे मन से कारोना को स्वीकार किया. इस तथ्य को भी स्वीकार किया कि जिस तरह दुनिया में लाखों लोग इसकी चपेट में आकर चले गए, मैं भी जा सकता हूं. लेकिन मैं आया कहां से था और मैं जाता कहां? मैं एक समंदर की लहर से अलग हुई बूंद था. मैं वापस उसी लहर में तो मिल जाने वाला था.

जीवन के प्रति ऐसे नजरिए के विकसित होते ही मेरे भीतर के सारे प्रतिरोध खत्म हो गए और मैंने महसूस किया कि बीमारी के बावजूद मैं एक गहरी शांति महसूस कर रहा हूं. इस तरह के आक्रांत करने वाले खयाल कि मुझे कुछ हो गया, तो मां को कितना सदमा पहुंचेगा, बेटी के भविष्य का क्या होगा, धीरे-धीरे खुद ब खुद खत्म होते गए. जितना मन शांत होता गया, मैं उतने शांत मन से अस्पताल में रहते हुए भी अपनी दिनचर्या को बेहतर बनाता गया.

जीवन की शक्ति ही पृथ्वी पर अरबों वर्षों से जीवन को चलाए हुए है. कैसे-कैसे निराशाओं, हताशाओं और नाउम्मीद के दौर दुनिया में आए, लेकिन जीवन की शक्ति अपने साथ जीवन को लिए हुए चलती रही. इस जीवनशक्ति के प्रति गहरी आस्था और समर्पण की जरूरत है. मन में सृष्टि और जीवन के प्रति ऐसी आस्था के साथ हम विकट से विकट स्थितियों का भी बहुत शांत मन से मुकाबला कर सकते हैं. मन की शांति हमारी शक्ति बन जाती है.
(How I fought Corona)

-सुंदर चंद ठाकुर

इसे भी पढ़ें: क्या ख्वाब देखे थे, क्या मंजर नुमाया है

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कवि, पत्रकार, सम्पादक और उपन्यासकार सुन्दर चन्द ठाकुर सम्प्रति नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के सम्पादक हैं. उनका एक उपन्यास और दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. मीडिया में जुड़ने से पहले सुन्दर भारतीय सेना में अफसर थे. सुन्दर ने कोई साल भर तक काफल ट्री के लिए अपने बचपन के एक्सक्लूसिव संस्मरण लिखे थे जिन्हें पाठकों की बहुत सराहना मिली थी.

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  • नज़रिया ही जीवन शक्ति है
    क्या बढ़िया तरह से आपने ये बात समझाई।
    पढ़ के लगा जैसे अंदर कुछ बदल से गया ।

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