पश्चिम की यह युवा पीढ़ी
दूसरे दिन हम कंधार शहर देखने निकले. चारों और पिश्चमी देशों के चरस के शौकीन दिखायी दिये. कंधार के रेस्तराओं में पाश्चात्य संगीत एवं अफगानी चरस के बीच ये लोग आलौकिक आनंद ढूंढ रहे थे. इन लोगों के सामने कोई समस्या नहीं. जब इनकी इच्छा होगी घर वापस चले जायेंगे या काठमांडू अथवा गोआ चले जायेंगे. नशा ये लोग इतना कर चुके हैं कि अब सामान्य संसार से इनका हमेशा के लिए सम्बन्ध विच्छेद हो चुका है. अब ये एक ऐसा देश चाहते हुए प्रतीत होते हैं, जहां के राष्ट्रध्यक्ष, मन्त्रियों तथा अधिकारियों सहित सारी जनता चरस पीती हो. न किसी के लिए शिक्षा अनिवार्य हो, न कोई व्यवसाय करना. सब कुछ खुद-ब-खुद हो जाता हो. अगर यह नहीं हो पाया तो पश्चिमी राष्ट्रों की यह युवा पीढ़ी अपना मानसिक संतुलन खो देगी.
कंधार में ऐतिहासिक महत्व का एक दर्शनीय स्थान है. यह है शहर से चार किमी दूर काफी ऊंचाई पर बनी गौतम बुद्ध की मूर्ति. सचमुच काफी मेहनत से एक पहाड़ को काटकर यह मूर्ति बनी है. इससे इस बात का भी पता चलता है कि अतीत में बौद्ध धर्म के अनुयायी यहां तक पहुंचे थे.
मजदूर के बॉस अब्दुल के साथ
कंधार में कुछ दिन रहने के बाद हम हेरात के लिए चल पड़े. किशोर कंधारी हमें थोड़ी दूर तक छोड़ने आये और उन्होंने हमें कुछ आर्थिक सहायता भी दी. अपने एक दुकानदार मित्र के नाम उनका एक पत्र हमारे पास था, जिससे हेरात में रहने की समस्या नहीं रही. यहां मजदूरी के बॉस अब्दुल से हमारा परिचय हुआ. हमारे साथ हेरात की बाजार में घूमने में वह गर्व का अनुभव कर रहा था. अब्दुल के साथ परम्परागत अफगानी तरीके से एक ही बर्तन में हम लोगों ने खाना खाया. इसका अपना एक विशेष आनन्द है.
हेरात भी कंधार की ही तरह का एक नगर है, जहां विदेशी पर्यटकों की भीड़ रहती है. इसीलिए दुकानों में हिप्पी स्टाइल के कपड़े और पाश्चात्य संगीत के रिकार्ड काफी दिखायी दिये. हेरात में हमने अपने बचे पैसों का उपयोग चाय की पत्ती एवं लार्क सिगरेट खरीदने में किया, जिनको ईरान ले जाकर दूने दामों पर बेचा जा सकता था. इस प्रकार पैसा कमाने की नेक राय एक अनुभवी व्यक्ति ने हमें कंधार में दी थी.
अफगान सीमा पुलिस के साथ झड़प
रात को हम जल्दी ही अपने होटल पहुंच कर सो गये, क्योंकि अगले दिन हमें अफगानिस्तान के सीमान्त पर पहुंचना था.
सुबह हम इस्लाम किला पहुंचे. सोचा था कि उसी दिन सीमा पार कर ईरान के शहर मेहसद पहुंच जायेंगे. मेहसद से योरोप तक रेलवे लाइन है. किन्तु सीमा पर कस्टम पुलिस ने मुझे रोक लिया, क्योंकि मेरे पास इन्ट्री वीसा था. किसी देश को पार करने के लिये ट्रान्सिट वीसा होना चाहिये. मेरे साथियों राजा एवं योगेश के पास ट्रान्सिट वीसा था. उन्हें ईरान जाने की अनुमति मिल गयी. पर वे मुझे छोड़कर जाने को तैयार नहीं थे. हमने कस्टम पुलिस को समझाने की कोशिश की, लेकिन उसका कोई परिणाम न निकला. बहस काफी बढ़ गयी. अन्त में पुलिस अधिकारी को गुस्सा आ गया और उसने एक जोरदार घूंसा हमारे साथी के लगा दिया. फलस्वरूप हम तीनों को वापस लौटना पड़ा. हेरात आकर हमने ट्रान्सिट वीसा लिया. इसके बाद हम दूसरे ही दिन ईरान जा सके.
एक बार अफगानिस्तान के अंगूर खा लेने के बाद बार-बार वहां जाने की इच्छा होती है.
अमरीकी तकनीक, भारतीय मजदूर और ईरानी समृद्धि
ईरान के मेहसद शहर में हम रात को पहुंचे. यहां पहुंचते ही हमें लड़कों ने घेर लिया, जो कि हमसे भारतीय सिक्के खरीदना चाहते थे. हमने दस-दस पैसे के कुछ सिक्के बड़े महंगे दामों में बेचे. अच्छी कमाई हुई. अगले दिन प्रातः हम मेहसद से तेहरान के लिए निकल पड़े.
तेहरान में हमारे पहले मेजबान थे श्री रजा. बड़े ही दिलचस्प एवं विचारवान युवक थे तथा कानून की शिक्षा ले रहे थे. इनको अंग्रेजी का बिल्कुल ज्ञान नहीं था. इनके एक साथी काफी अच्छी अंग्रेजी बोल लेते थे, जिससे हम लोगों को वार्तालाप करने में कोई परेशानी नहीं हुई.
रजा साहब के साथियों ने हमारे घूमने का बहुत अच्छा इन्तजाम किया. एक दिन ये लोग हमें शहंशाहे पार्क ले गये, जो कि शायद एशिया का सबसे सुन्दर व बड़ा पार्क है. इस पार्क को देखकर ईरान की आर्थिक सम्पन्नता की झलक मिल जाती है. अल्ट्रामॉडर्न समाज के युवक-युवतियां, छात्र एवं छात्राएं इस पार्क में दिखाई देते हैं. रेस्तरां में बैठे हुए या नौका विहार करते हुए ये ईरानी पश्चिमी राष्ट्रों के युवा वर्ग से भी आगे निकल गये प्रतीत होते हैं. इनके फैशन में चरस पीना भी जुड़ चुका है. तेहरान के इस इलाके में घूमते हुए लगता है कि ईरान का एक खास वर्ग, जो कि राजा का कृपा पात्र वर्ग है, काफी दौलत एकत्र कर चुका है. अब इसके सामने समस्या यह है कि उस धन का कैसे उपयोग करें.
अगले दिन हम लोग एक रेस्तरां में गये. हमारा इरादा ‘चुलु कबाब’ खाने का था. जब मेज में खाना लगाया गया तो इतने अधिक व्यंजन थे कि यह पूछना भी भूल गये कि इनमें चुलु कबाब कौन सी चीज है. बिल काफी बना होगा. पर बिल का भान हमाने मेजबानों ने नहीं होने दिया.
पहले हमारा विचार ईरान से रूस होते हुए फिनलैण्ड जाने का था. मगर रूस में ‘हिच-हाइकिंग’ नाम का कोई फैशन अभी नहीं है. वहां की सरकार इसे प्रोत्साहित नहीं करती और रेल से फिनलैण्ड पहुंचने में सौ डॉलर का खर्चा था, जो कि हमारे लिए सम्भव नहीं था. अन्ततः हमें तुर्की के रास्ते यूरोप जाने का कार्यक्रम बनाना पड़ा.
जब हमारे पासपोर्ट गुम हो गये.
तुर्की का वीसा तेहरान में आसानी से मिल जाता है. पर भारतीयों के प्रति थोड़ी लापरवाही दूतावास वाले दिखाते ही हैं, जिसका अनुभव हमें भी हुआ. हुआ यह कि जब हमने अपना पासपोर्ट तुर्की के दूतावास को दिया तब उन्होंने हमसे तीन बजे आकर पासपोर्ट वापस ले जाने को कहा. तीन बजे हमने अपने पासपोर्ट के लिए पूछा तो उत्तर मिला, यहां कोई पासपोर्ट इस नाम का नहीं है. जब हम लोगों ने काफी बहस की तो कहा गया कि कृपा करके शोर न मचायें. परेशान होकर हम लोग दूतावास से बाहर आ गये. विदेशों में बिना पासपोर्ट के रहना अपराध है. चिन्ता यही थी कि अब क्या होगा. तभी दो भारतीय हमारे पास आये और बोले आपके पासपोर्ट ये रहे. हमें ये दूतावास वालों ने आपको देने के लिए दिये थे. हमारी सांस में सांस आयी और उदास चेहरे नयी उम्मीद से चमक उठे. यात्रा में निकलने से पूर्व, दिल्ली में तुर्की के दूतावास में जब हमने वीसा के लिए पूछा था तो बताया गया था कि तुर्की में हिप्पी व हिच-हाइकर का प्रवेश निषिद्ध है. बाद में हमें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि इस्तानबूल के बराबर हिप्पी व हिच-हाइकर संसार के किसी अन्य देश में नहीं है.
तुर्की का वीसा लेने के बाद हम तेहरान नगर में इस जिज्ञासा के साथ घूमने लगे कि यहाॅं अन्ततः है क्या ? क्यों इतने भारतीय यहां रोजगार के लिए पहुंच रहे हैं? ईरान का औद्योगिकीकरण काफी तीव्र गति से हो रहा है. तकनीकी ज्ञान अमेरिका से मिल रहा है और मजदूरों की कमी को भारतीय पूरा कर रहे हैं. यह जानकर ताज्जुब हुआ कि ईरान में वायु प्रदूषण दूर करने के लिए काम कर रहे अमेरिका इन्जीनियर 12,000 डालर (85,000 रू) प्रतिमाह वेतन ले रहे हैं. भारतीयों के प्रति सर्वत्र उपेक्षा का भाव है. हां, अगर किसी ईरानी से अंग्रेजी में बात की जाय तो वह एकदम नम्र होकर बोलने लगता है. हमारे पास यह अस्त्र था, जिससे सभी समस्याएंट आसानी से सुलझ रहीं थी. यही नहीं, पर्याप्त मात्रा में धन भी उपलब्ध होता जा रहा था.
तेहरान से हम रेल द्वारा तुर्की के लिए रवाना हुए. हमारे पास अन्तर्राष्ट्रीय छात्र कार्ड था जिससे हमें आधे मूल्य पर टिकट खरीदने की सुविधा मिल गई. छात्र छूट के साथ हमें लगभग 100 रूपये प्रति व्यक्ति द्वितीय श्रेणी के टिकट के लिए व्यय करने पड़े. किसी तरह जोड़-तोड़ कर और पेट काटकर हमने ये पैसे एकत्र किये थे. भोजन के लिए हमने कुछ नान खरीद लिये. एक नान लगभग 500 ग्राम का होता है. शु़द्ध देशी घी और चीनी हमारे पास थी. इस लिए दो-चार दिन खाने की समस्या नहीं थी. सिर्फ यह देखना था कि सफर में कोई ऐसा उदार सहयात्री मिल जाये जो रास्ते भर चाय-सिगरेट पिलाता रहे. इस्ताम्बुल पहुंचकर देखा जायेगा.
रेल में ईरानी, पाकिस्तानी, भारतीय, योरोपियन एवं बंगला देश के यात्री थे. पूर्वी राष्ट्रों वाले रोजगार ढूंढने जर्मनी जा रहे थे तो ईरानी पढ़ाई के लिए. योरोपियन पूर्वी राष्ट्रों की यात्रा कर वापस लौट रहे थे.
तस्करी के अनुभवी खिलाड़ी
साथ अच्छा मिलने पर रेल का सफर आनन्ददायी रहता है. धीरे-धीरे मित्रता बढ़ने लगी. चाय, बीयर की समस्या हल हो गई. तस्करी का धन्धा करने वाले अनुभवी खिलाड़ियों से मुलाकात हुई. इनमें कोई जर्मनी से कारें लाकर ईरान में बेचते हैं तो कोई ईरान से घड़ियां ले जाकर तुर्की में बेचते हैं. एक चैधरी साहब पाकिस्तान के थे. इनका प्रधान कार्यालय इस्तानबूल में था. हमसे बोले उस्ताद तुम भी यही काम करो. जब कुछ रकम बन जाये तभी योरोप जाना वरना पछताओगे. चैधरी साहब हमें शिक्षा दे ही रहे थे कि पुलिस ने उन्हें रेल से उतार लिया, क्योंकि वे निर्धारित समय से अधिक तुर्की में रह चुके थे. बाद में वे आर्थिक जुर्माना देकर ही छूट सके हमें दुबारा उनके दर्शन इस्तानबूल में हुए.
(जारी)
पिछली कड़ी का लिंक: नैनीताल के तीन नौजवानों की फाकामस्त विश्वयात्रा – 1
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1 Comments
Anonymous
I NEVER REALISED THAT THE HITCH HIKE WAS SUCH AN ADVENTEROUS EXPERIENCE. Vijay Da had told me but may be I didn’t realise the gravity.